रूसो के अनुसार शिक्षा का अर्थ एवं उद्देश्य लिखिए।
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शिक्षा का अर्थ
रूसो ने बालक को शिक्षा का केन्द्र बिन्दु माना है। शिक्षा से अभिप्राय बालक में पूर्व निश्चित गुणों तथा विचारों को थोपना नहीं, वरन् बालक को प्रत्येक विकासावस्था के अनुरूप शारीरिक, मानसिक और नैसर्गिक क्रियाओं के सुअवसर प्रदान करना है।
रूसो का कथन है— “शिक्षा वह है जो व्यक्ति के अन्दर से प्रस्फुटित होती है, वह व्यक्ति की अन्तर्निहित शक्तियों की अभिव्यक्ति है। “
“True education is something that happens from within the individual, it is an unfolding of his own latent powers.”
शिक्षा के उद्देश्य
रूसो के अनुसार जीवन का उद्देश्य आनन्द प्राप्ति है। वह इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए बालक को जीवित रहने की कला सिखाना चाहता है। इस काल को सीखकर बालक चाहे मजिस्ट्रेट बने, चाहे सिपाही, चाहे पादरी, परन्तु वह सर्वप्रथम मानव ही बनेगा। रूसो ने लिखा है – “मुझे इस बात से कोई प्रयोजन नहीं है कि मेरा शिष्य सेना, चर्च या न्यायालय में काम करेगा। इससे पहले कि वह अपने माता-पिता के व्यवसाय को करने का विचार करे, प्रकृति चाहती हैं कि वह मनुष्य बने। मैं उसे यह शिक्षा देना चाहता हूँ कि जीवन किस प्रकार व्यतीत किया जाना चाहिए। मैं स्वीकार करता हूँ कि मुझसे शिक्षा प्राप्त करने के बाद वह सबसे पहले मनुष्य बनेगा; न्यायाधीश, सैनिक या पादरी बाद में यह वैसा ही होगा जैसा कि मनुष्य को आवश्यकता पड़ने पर होना चाहिए। भाग्य द्वारा उसकी स्थिति को बदलने का प्रयास व्यर्थ होगा, क्योंकि वह सदैव अपनी स्थिति में रहेगा।”
रूसो के अनुसार, शिक्षा का उद्देश्य मनुष्यत्व को विकसित करना है। इस उद्देश्य में उसके दर्शन के आदर्शवादी तत्त्वों की झलक मिलती है। इसी कारण रस्क (Rusk) ने उसे एक महान आदर्शवादी माना है। रूसो ने एमील की आयु को दृष्टिगत रखते हुए शिक्षा के उद्देश्य निर्धारित किये, जो निम्न प्रकार हैं-
1. शैशवावस्था ( 1 से 5 वर्ष तक ) – रूसो स्वस्थ शरीर को नैतिक उत्थान की नींव मानता है। अतः वह कहता है कि माता-पिता का कर्त्तव्य है कि शिशु को हृष्ट-पुष्ट तथा स्वस्थ बनाने का प्रयत्न करें। कमजोर शरीर में मस्तिष्क भी कमजोर होता है। दुर्बलता अनेक बुराइयों 17 को जन्म देती है। बालक जितना ही निर्बल होगा उतना ही अधिक दूसरों पर शासन करने का प्रयत्न करेगा और जितना ही स्वस्थ होगा उतना ही आज्ञाकारी होगा।
2. बाल्यावस्था ( 5 से 12 वर्ष तक)– रूसो कहता है कि प्रकृति चाहती है कि बालक को हम बालक ही समझें, इसके पूर्व कि वह मनुष्य बने। वह बालक को प्रौढ़ व्यक्तियों के समान शिक्षा देना उचित नहीं समझता वरन् इस आयु में वह बालक के शारीरिक व्यायाम, अंग प्रत्यंग का विकास तथा इन्द्रिय-ज्ञान पर बल देता है, किन्तु आत्मा को इस समय पूर्ण विश्राम देने के पक्ष में है।
3. किशोरावस्था ( 12 से 15 वर्ष तक )- इस समय रूसो बालक की शिक्षा का उद्देश्य बौद्धिक विकास को मानता है और कहता है कि अब ‘एमील’ को उपयोगी तथा व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करने में सहायता दी जाये।
4. युवावस्था ( 15 से 20 वर्ष तक )- इस समय तक ‘एमील’ के शरीर, इन्द्रिय तथा बुद्धि का विकास हो चुका होता है। अब उसके हृदय का भावात्मक विकास आरम्भ होता है। अभी तक शिक्षा वैयक्तिक विकास के लिए थी, किन्तु अब उसे समाज के योग्य बनाने के लिए सामाजिक, नैतिक एवं धार्मिक शिक्षा देनी चाहिए।
5. अब एमील पूर्व प्राकृतिक मानव के रूप में सामने आते हैं। इस समय का शिक्षा का उद्देश्य है ‘जीवित रहने की कला सीखना। ताकि वह अपने वर्तमान जीवन को सुख से व्यतीत कर सके। रूसो भविष्य की चिन्ता नहीं करता। इसीलिए वह माता-पिता से कहता है कि जीवन का जो थोड़ा-सा समय प्रकृति ने इन मासूम बालकों को आनन्द के लिए दिया है, वह उनसे क्यों छीनते हो। वह तो शीघ्र ही समाप्त हो जायेगा। अतः बालक को उसका पूरा आनन्द लेने दो। वास्तव में रूसो की शिक्षा का उद्देश्य है बालक के जीवन में सुख एवं स्वतन्त्रता लाना।
इस प्रकार रूसो की शिक्षा का उद्देश्य मानवीय सदगुणों को विकसित एवं सुरक्षित करना एवं ऐसे समाज की प्रतिष्ठा करना है जिसमें साहस, धैर्य, संयम, समानता, स्वतन्त्रता सभी नागरिकों को प्राप्त हो सके।
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