विद्यालय तथा समाज के पारस्परिक सम्बन्ध का वर्णन कीजिये।
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विद्यालय तथा समाज पारस्परिक में सम्बन्ध
शिक्षाशास्त्री अब इस बात को अनुभव करने लगे हैं कि यदि विद्यालय को समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करनी है तो उसे समुदाय के लोगों में विद्यालय के कार्यों एवं सहयोग को प्राप्त करने के प्रयास करने होंगे।
प्रत्येक समाज में अपने रीति-रिवाज होते हैं, अपनी परम्परायें होती हैं, रूढ़ियाँ एवं आचार-विचार होते हैं। उन्हीं के अनुरूप विद्यालय की कार्य-पद्धति होनी चाहिये। समाज की आवश्यकता की पूर्ति करने के लिए ही विद्यालय कार्य करता है तथा समाज एवं विद्यालय आपस में मिलकर अपना कार्य विकसित कर सकते हैं। विद्यालय में सहकारी जीवन एवं नियोजन को सफल बनाने के लिये विद्वानों ने निम्न तर्क प्रस्तुत किये हैं-
1. डब्ल्यू० एम० रेबर्न– विद्यालय में संसृष्ट-जीवन को विकसित करना एक दीर्घकालीन व्यवहार है और स्थिर रूप से इस बात की चेष्टा करने के लिये हमारे विद्यालय एक वास्तविक समाज बन जायें, केवल मात्र ऐसे व्यक्तियों का समूह न रहे जो प्रतिदिन कुछ घण्टों के लिए एकत्र होते हों, हमको निश्चित उपायों का प्रयोग करना पड़ेगा। यदि सहकारी जीवन का निर्माण करना है तो सावधानी के साथ उसकी देख-रेख तथा रक्षा करनी होगी।
2. जॉनसन डब्ल्यू० फ्रेंकलिन- समाज विभिन्न प्रकार की शिक्षा संस्थाओं को इसलिये स्थापित करता है कि उसके विचारों, भावों, आदर्शों, मानदण्डों, क्रियाओं एवं परिपाटियों आदि को आने वाली पीढ़ी को प्रदान करे, उसके सदस्यों में ऐसे ज्ञान, कौशल और आदतों का संचार करे, जो उसके विकास के लिये आवश्यक है।
3. ए० एस० कर्टिस- संराष्ट जीवन से ही ‘स्व’ का प्रत्यास्मरण होता है, जिससे प्रत्येक व्यक्ति इस संगठन के प्रत्येक अंग के विषय में सोच सके, जैसे कि ये एक है-अर्थात् संसृष्ट- भावना तथा चेतना की मांग है-उद्देश्य की दृष्टिकोण की उदारता, बिना किसी विचार के सामान्य योग्यता ग्रहण करना, दूसरी ओर प्राप्य की तीव्रता अथवा वैयक्तिकता का भी समायन हो जाता है।
आधुनिक युग की माँग यह है कि आज विद्यालय को सामाजिकता की प्रक्रिया में से दो प्रकार के सहयोग देने की अपेक्षा है। एक तो यह है कि विद्यालयों में सामाजिकता की भावना का विकास करे, दूसरे समाज को विद्यालय के कार्य संचालन के प्रति उत्तरदायी बनाये। इस सम्बन्ध में डब्ल्यू० एम० रेयबर्न के अनुसार-“जब विद्यार्थी तथा अध्यापकगण एक साथ रहते हैं तो एक-दूसरे के प्रति सामाजिक प्रवृत्ति पैदा होती है। सब लोग सामान्य अनुभवों में जितना भाग लेंगे और सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति करने की चेष्टा करेंगे, संस्था का संसृष्ट जीवन उतना ही अधिक पनपेगा और विकसित होगा।”
विद्यालय द्वारा सामाजिक सम्बन्धों का विकास करने से छात्रों के सम्बन्ध में माता-पिता से पूर्ण सूचना प्राप्त हो जाती है तथा इस प्रकार उनकी प्रगति के लिये प्रयत्न किये जा सकते हैं।
सामुदायिक सम्बन्धों के कार्यक्रम के कुछ सुझाव
यह सर्वविदित है कि विद्यालयों को अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिये कुछ कार्यक्रम बनाने पड़ते हैं। ऐसे कार्यक्रमों के लिये कुछ सुझाव निम्न प्रकार हैं-
- अध्यापक ने समुदाय से सम्बन्ध स्थापित करने के लिये क्या-क्या प्रयत्न किये हैं और उसे किस प्रकार के प्रशिक्षण की आवश्यकता है ?
- क्या विद्यालय का सामुदायिक कार्यक्रम समाज, राज्य तथा अन्य कार्यक्रमों के लिये लाभदायक है अथवा हानिकारक ?
- नागरिकों को किस विद्यालय की आर्थिक कठिनाई बतलाई जा सकती है ?
- जनता विद्यालय के बारे में क्या जानती है एवं वह और क्या जानना चाहती है ?
- सामुदायिक सम्बन्धों को सुदृढ़ बनाने तथा शिक्षण के स्वार्थों पूरा करने के लिये समुदाय के लोगों से किस प्रकार सम्बन्ध स्थापित किये जायें ?
- छात्रों को समुदाय से सम्बन्ध स्थापित करने के लिये क्या प्रयत्न किये जायें ?
- विद्यालय किस प्रकार समाज के कुछ दलों का लाभ उनसे प्रभावित हुए बिना उठा सकता है ?
सामुदायिक सम्बन्ध कार्यक्रम का गठन
सामुदायिक सम्बन्ध कार्यक्रम बनाने के लिये पाँच बातों का ध्यान अति आवश्यक है-
- समुदाय के समूह की प्रकृति के अनुसार प्रचार सामग्री का इस्तेमाल करना।
- जनता के समक्ष किस माध्यम से तथ्य रक्खे जायें, इस पर पूर्ण रूप से विचार करना।
- सामुदायिक सम्बन्धों के लिये जो कार्य हों, उनका उद्देश्य स्पष्टतः व्यक्त किया जाये।
- प्रभावशाली कार्यों के प्रयत्न करना।
- कार्यक्रम के प्रचार के लिये जिन बातों पर जोर दिया जाना चाहिये, उन पर विशेष विचार करना।
इन बातों पर ध्यान देकर विद्यालय- (1) समाचार-पत्रों से सम्पर्क, (2) अभिभावक सम्पर्क आदि के माध्यम से इस प्रकार के कार्यक्रमों में सफलता प्राप्त कर सकते हैं।
अध्यापकों को सामाजिक संस्थाओं का सदस्य बनाकर अपना योग देना चाहिये। विद्यालय तथा समाज, व्यक्तिगत सम्पर्क, संस्थाओं का परिचय, मित्र संख्या, राष्ट्रीय कार्यक्रम आदि की जानकारी तथा वृद्धि अवश्य रखनी चाहिये।
कार्यक्रम- विद्यालयों को समाज से नियमित सम्पर्क स्थापित करने के लिये एक-दो ऐसे कार्यक्रम अवश्य बनाने चाहिये, जिनसे समाज सम्बन्ध बने रहें। ये कार्यक्रम निम्न प्रकार हैं-
- अभिभावक संघ ।
- समय-समय पर विद्यालय के कार्यक्रम अभिभावकों को बुलाना तथा उन्हें विद्यालय की प्रगति तथा स्थिति से अवगत कराना
- प्रौढ़ पाठशाला का कार्यक्रम ।
- विद्यालय पुस्तकालय को अवकाश के समय में जन पुस्तकालय (Public library) का रूप प्रदान करना।
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