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शिक्षा प्रशासन के सिद्धान्त | Theories of Educational Administration in Hindi

शिक्षा प्रशासन के सिद्धान्त | Theories of Educational Administration in Hindi
शिक्षा प्रशासन के सिद्धान्त | Theories of Educational Administration in Hindi

शिक्षा प्रशासन के विभिन्न सिद्धान्तों की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।

शिक्षा प्रशासन के सिद्धान्त (Theories of Educational Administration)

शिक्षा प्रशासन पूर्वावस्था में सामान्य प्रशासन के नियमों तथा कार्यों पर आश्रित रहा। कालान्तर में शैक्षिक प्रशासन के प्रत्यय तथा उसके महत्व को अधिक समझा जाने लगा। अतएव शैक्षिक प्रशासन ने अपनी माँगों तथा उद्देश्यों को सम्मुख रखते हुए कुछ सिद्धान्तों का विकास किया। ये सिद्धान्त संख्या में अधिक नहीं हैं। कुछ प्रमुख सिद्धान्तों का उल्लेख एस० एन० मुखर्जी की पुस्तक “शिक्षा प्रशासन योजना एवं वित्त” में इस प्रकार किया गया है-

  1. “मोर्ट” बेलेन्स्ड जजमेण्ट सिद्धान्त (Mort’s Theory of Balanced judgement)
  2. “हास्क्यु” कृत शैक्षिक प्रशासन समस्या का सिद्धान्त (The Task of Educational Administration by Haskew)।
  3. “गेट जेल” कृत संघर्ष का सिद्धान्त (Getzels Theory of Conflicts)।
  4. “ग्रिफ्थ्स” का निर्णय निर्माण का सिद्धान्त (Theory of Decision making by Griffiths) |
  5. “ग्रिफ्थ्स” का प्रणाली सिद्धान्त (System Theory by Griffiths) |
  6. प्रशासन की प्रक्रिया का सिद्धान्त (Process of Administration by Fayol & others) |
  7. “हाल्पिन” कृत प्रशासनिक व्यवहार का अध्ययन अनुक्रम सिद्धान्त ( A paradigm for the study of Administrative Behaviour by Halpin) |
  8. “ग्राफ” तथा “स्ट्रीट” कृत योग्यता प्रत्यय का सिद्धान्त (The Competency concept of Graff and Street)।
  9. “बर्नार्ड”-“साइमन” का संगठन-समता का सिद्धान्त ( Bernard-Simon Theory of Organizational Equilibrium)।
  10. “प्रेसथस” का संगठनात्मक समाज का सिद्धान्त (Theory of Organizational Society by Presthus)

उपर्युक्त सिद्धान्तों में से कुछ मुख्य सिद्धान्तों का संक्षिप्त परिचय निम्नांकित शब्दों में दिया जा रहा है-

1. प्रशासन की प्रक्रिया का सिद्धान्त (Process of Administration by Fayol Gulick Urwick and others) –

इस सिद्धान्त के निर्माण में फेयोल, गुलिक अरविक का योगदान रहा है। कुछ विद्वानों ने सामान्य प्रशासन के कार्यों का उल्लेख किया एवं प्रशासन को उत्तम विधि से चलाने के लिए अमूल्य सुझाव दिए । प्रस्तुत सिद्धान्त के अन्तर्गत उन्हीं कार्यों एवं सुझावों को सम्मिलित किया गया है। प्रशासन का सम्यक संचालन करने के लिए इस सिद्धान्त का अत्यधिक महत्व है। इस सिद्धान्त के प्रतिपादन में “अमेरिकन एसोसियेशन ऑफ स्कूल एडमिनिस्ट्रेशन” (AASA) के कथन से प्रेरणा प्राप्त हुई। इस संस्था ने प्रशासन की परिभाषा इस प्रकार दी- “प्रशासन प्रक्रियाओं का सम्पूर्ण जोड़ है, जिसके द्वारा मानवीय तथा भौतिक स्रोतों को उपलब्ध किया जा सकता है और उन्हें किसी साहसपूर्ण कार्य के उद्देश्यों की पूर्ति करने के लिए प्रभावपूर्ण बनाया जा सकता है। “

प्रशासनिक प्रक्रिया के प्रमुख अंगों अथवा तत्वों का निर्धारण करने के लिए अनेक विद्वान प्रयत्नशील रहे हैं। इस सम्बन्ध में लूथर गुलिक (Luther Gulick) ने प्रशासन के कार्यों का उत्तम विश्लेषण किया। यह विश्लेषण “POSDCORB” कहलाता है। इस शब्द के अनुसार प्रशासन के सात कार्यों का निर्धारण किया गया है। जैसे-

  1. P= (Planning) नियोजन
  2. O= (Organizing) व्यवस्था
  3. S= (Staffing) कर्मचारी गण
  4. D= (Directing) निर्देशन
  5. CO = (Coordinating) समन्वय करना
  6. R= (Reporting) आलेखन
  7. B= (Budgetting) वित्तीय आलेख

लूथर गूलिक के अतिरिक्त ‘हेनरी फेयोल’ ने भी अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर प्रशासन के कार्यों का उल्लेख किया। हेनरी फेयोल के इन कार्यों को ‘फेयोल तत्व’ के नाम जाना जाता है।

फेयोल के कार्य — (1) To plan (योजना), (2) To organize (व्यवस्था), (3) To command (आदेश), (4) To coordinate (समन्वय), (5) To control (नियन्त्रण) वास्तव में लूथर गूलिक ने फेयोल के विचारों को ही विकसित किया था।

टैड‘ (Tead) द्वारा प्रशासनिक प्रक्रिया के दस आवश्यक तत्व बतलाये गये हैं, जो निम्नलिखित हैं-

  1. संगठन की संरचना हेतु वृहद्योजना का विकास करना (Developing the broad plan for structuring the Organization)
  2. शक्ति एवं उत्तरदायित्व का विभक्तीकरण (Delegating and allocating authority and responsibility)
  3. कार्य की गुणत्मकता तथा परिमाणात्मकता की सुरक्षा करना (Insuring quantity and quality of performance)
  4. सम्पूर्ण व्यक्ति समूह को शक्ति प्रदान करना तथा उत्साहित करना (Stimulating and energizing the entire personnel)
  5. संगठन के उद्देश्य हेतु भावी कथन करना, साधनों को समझना तथा अग्रदर्शिता को अपनाना (Looking ahead and forecasting the Organization’s aims as well as the ways and means of realizing them)
  6. उद्देश्य एवं लक्ष्यों को परिभाषित करना (Defining purposes and objectives)
  7. कार्य हेतु व्यक्तियों की नियुक्ति एवं संगठन (Recruiting and organizing an executive staff)।
  8. सौंपी हुई क्रियाओं का सामान्य निरीक्षण (Overseeing the general carrying forward of the delegated activities) ।
  9. उद्देश्य-पूर्ति के सम्पूर्ण परिणाम का मूल्यांकन करना (Evaluating the total outcome in relation to purpose) |
  10. समितियों तथा सम्मेलनों द्वारा समन्वय उपलब्ध करना (Achieving coordination through Committees and Conferences) I

इसी क्रम में सीयर्स ने भी प्रशासन की प्रक्रिया के लिए (1) योजना, (2) व्यवस्था, (3) निर्देशन, (4) समन्वय, (5) नियन्त्रण, पाँच तत्वों को आवश्यक बतलाया है। इसके अतिरिक्त AASA द्वारा प्रसारित पुस्तक में प्रशासन के निम्नलिखित कुछ रचनात्मक कार्य बतलाये गए-

  1. मानवीय तथा भौतिक स्रोतों का बँटवारा करना ।
  2. विभिन्न प्रकार के समूहों में रहने वाले कर्मचारियों में समन्वय करना।
  3. भविष्य में निर्विघ्न कार्य करने के लिए योजना बनाना।
  4. प्रभावों का मूल्यांकन करना।
  5. वांछित उद्देश्यों की अधिकतम उपलब्धि हेतु उत्तम व्यवहार द्वारा (कर्मचारियों का) उत्साह प्रदान करना ।

इन विचारों के अतिरिक्त “प्रेग तथा कमबैल” (Gregg and Combell) का प्रशासनिक कार्यों के सम्बन्ध में सर्वश्रेष्ठ विश्लेषण माना जाता है। “प्रेग” ने प्रशासनिक कार्यों के निम्नलिखित सात अवयव बतलाये—

  1. योजना बनाना (Planning),
  2. सम्प्रेषण करना (Communicating),
  3. समन्वय करना (Coordinating),
  4. निर्णय का निर्माण करना (Decision making),
  5. मूल्यांकन करना (Evaluating),
  6. व्यवस्था करना (Organizing), तथा
  7. प्रभावित करना (Influencing)
2. सन्तुलित निर्णय का सिद्धान्त (Theory of Balanced Judgement) –

सन्तुलित निर्णय के सिद्धान्त को “मोर्ट” तथा “रॉस” ने प्रतिपादित किया है। राजनीति शास्त्र, इतिहास एवं अन्य सम्बन्धित विषयों की सामग्री का संकलन करते हुए इन विद्वानों ने अपनी एक प्रसिद्ध पुस्तक-“शैक्षिक प्रशासन के नियम” को भी प्रकाशित किया। इस पुस्तक में उल्लिखित नियमों के सम्बन्ध में “मोर्ट” एवं “रॉस” ने स्वयं स्वीकार किया है कि इन नियमों के प्रति यद्यपि सभी सहमत नहीं हो सकते, ये प्रायः एक-दूसरे का विरोध करने वाले भी होते हैं, तथा समय, स्थान और व्यक्ति की दृष्टि से कभी-कभी अमान्य भी होते हैं, परन्तु इस प्रकार की संकटकालीन परिस्थिति में समस्या का हल केवल “सन्तुलित निर्णय” के सिद्धान्त (Balanced Judgement) द्वारा ही किया जा सकता है। सन्तुलित निर्णय के सम्बन्ध में मोर्ट तथा रॉस के अनुसार-

सम्भवतः सन्तुलित निर्णय को ग्रहण करने के लिए सर्वाधिक लाभदायक सुझाव यही दिया जा सकता है कि विभिन्न प्रकार के नियमों का अधिकतम लाभ उठाने के लिए प्रत्येक स्थिति में अवसर को महत्व दिया जाए और समस्त साधनों को उपयोग में लाया जा सके।

सन्तुलित निर्णय सिद्धान्त के पॉल मोर्ट ने अपने कुछ मौलिक विचार प्रस्तुत किए हैं। मोर्ट ने इस सम्बन्ध में चौदह नियमों का उल्लेख किया है, जिन्हें निम्न तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है-

1. मानवतावादी समूह (The Humanitarian Group)

  1. क्रियात्मक संघ (Structural Democracy),
  2. प्रशासन हेतु निर्देशन के रूप में अवसर की समानता (Equality of opportunity as a guide to Administration),
  3. संरचनात्मक संघ (Structural Democracy),
  4. प्रशासन हेतु निर्देशन के रूप में न्यायप्रियता (Justice as a guide to Administration ) ।

2. विवेकयुक्त समूह (The Prudential Group)

  1. अवरोध तथा सन्तुलन (Checks and Balances),
  2. उत्तरदायित्व तथा प्रभुत्व (Responsibility and Authority),
  3. स्वामित्व में आस्था (Loyalties),
  4. मितव्ययता (Economy),
  5. स्वतन्त्रता एवं अधिकार (Liberty and Licence),
  6. निश्चलता (Inertia),
  7. सादगी (Simplicity)

3. सामयिक समूह (The Tempo Group)

  1. लचीलापन (Flexibility),
  2. समयानुसार व्यवस्था (Adaptability),
  3. स्थिरता ( Stability)।

उपर्युक्त नियमों का निर्धारण करने में “मोर्ट” का विचार है कि नियम प्रशासन का कार्य उत्तम ढंग से करने में सहायक सिद्ध होते हैं। कार्य क्षेत्र में इन नियमों की परीक्षा भी की जा सकती है। यदि इन नियमों के कारण कार्य में श्रेष्ठता या उत्तमता आती है तो ये नियम उचित ही होते हैं। विद्यालय का प्रशासन करने तथा प्रशासन सम्बन्धी प्रशिक्षण में ये सारे नियम खरे उतरते हैं और इनका प्रयोग निस्संकोच किया जा सकता है।

मोर्ट” तथा “गूलिक” के अतिरिक्त जिन विद्वानों ने प्रशासन के सिद्धान्तों पर चिन्तन किया है वे “बर्नार्ड”, “वेबर”, आरगिरिस “बैके” तथा साइमन आदि हैं। “बर्नार्ड” ने सामान्य प्रशासन के सम्बन्ध में जो सिद्धान्त प्रतिपादित किया है उसका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित शब्दों में इस प्रकार किया जा सकता है—

“बर्नार्ड” ने प्रशासन की प्रकृति के सम्बन्ध में गहरी दृष्टि से विचार किया है। बर्नार्ड का कहना है कि प्रशासन के 7 लिए शारीरिक, जैविक एवं सामाजिक तीन शैक्षिक तत्वों का संश्लेषण ही सहयोग होता है। वित्त, भवन, साज-सज्जा आदि के द्वारा मौलिक वातावरण की रचना की जाती है। शारीरिक, जैविक एवं सामाजिक तीनों तत्वों को औपचारिक संगठन के अध्ययन के लिए अच्छी प्रकार समझना आवश्यक है। समाज की रचना मिश्रित संगठनों के द्वारा की जाती है। अनौपचारिक संगठन औपचारिक संगठनों के अन्तर्गत पाए जाते हैं। अनौपचारिक संगठनों के नेतृत्व में जो पूर्वाग्रह, स्वार्थपरता तथा मिथ्याअहं होता है, उसके कारण ही सहयोग में बाधा उपस्थित होती है। अशुद्ध चिन्तन के परिणामस्वरूप ही अशुद्ध न लिए जाते हैं, जिनके कारण सहयोग का मार्ग भी अवरुद्ध हो जाता है। वास्तव में, सहयोग की भावना सफल नेतृत्व पर ही आधारित होती है, यह नेतृत्व शक्ति वास्तव में अभूतपूर्व कुशलता एवं उच्च प्रकार की नैतिकता का ही परिचायक होती है।

संगठनात्मक दृष्टिकोण पर आधारित शिक्षा प्रशासन के सिद्धान्त (Theories of Edu. Adm. Based on organizational Considerations)

शैक्षिक प्रशासन का सम्पूर्ण कार्यक्षेत्र दूसरे विषयों पर आधारित रहा है। संगठनात्मक दृष्टिकोण से जिन सिद्धान्तों पर विचार किया जा रहा है। वास्तव में, ये मूलरूप से “व्यापार प्रबन्ध” विषय से सम्बन्धित हैं। ये सिद्धान्त निम्न चार प्रकार के माने जाते हैं-

  1. मानवीय सम्बन्ध उपागम सिद्धान्त (Human Relation Approach Theory),
  2. सामाजिक एवं तकनीकी प्रणाली सिद्धान्त ( Social-Technical System Theory),
  3. परम्परागत सिद्धान्त (Classical Theory),
  4. संरचनात्मक सिद्धान्त (Structural Theory)

उपर्युक्त चारों सिद्धान्तों का संक्षिप्त विवेचन निम्नांकित शब्दों में किया जा सकता है—

1. मानवीय सम्बन्ध उपागम सिद्धान्त (Human Relation Theory) – यह सिद्धान्त “शास्त्रीय सिद्धान्त” की प्रतिक्रिया के रूप में विकसित हुआ। यह सिद्धान्त मनुष्य को मशीन के रूप में स्वीकार करने के विचार का विरोध करता है। इसके अन्तर्गत प्रशासक को यह विचारने के लिए विवश किया जाता है कि औपचारिक एवं अनौपचारिक संगठनों के व्यक्तियों को और उनकी भावनाओं को समझने का प्रयास करें। किसी भी समूह के वातावरण का ठीक अध्ययन करके ही प्रशासन को उत्तमतापूर्वक किया जा सकता है।

2. सामाजिक तथा तकनीकी प्रणाली का सिद्धान्त (Social Technical Theory)- इस सिद्धान्त के अन्तर्गत तकनीकी तथा सामाजिक सम्बन्ध पर साथ-साथ ध्यान आकर्षित किया जा सकता है। वस्तुतः किसी संगठन के अन्तर्गत कार्य करने वालों का सामाजिक सम्बन्ध उस कार्य से घनिष्ठ रूप में सम्बन्धित होता है। इसका स्पष्ट अर्थ यही हो सकता है कि यदि किसी संगठन में कोई व्यक्ति तकनीकी का प्रयोग करने में अत्यन्त कुशल है तो वह व्यक्ति अपने सामाजिक सम्बन्धों में भी उत्तम होना चाहिए तथा संगठन के प्रशासकों द्वारा भी उसे प्रतिष्ठाजनक व्यवहार दिया जाना चाहिए। बहुधा यह देखने में भी आता है कि बड़े-बड़े कारखानों, मिलों तथा कारखानों में तकनीकी विशेषज्ञ व्यक्ति स्वयं ही ऊँचा सम्मान प्राप्त करते हैं। उनकी ऊर्ध्वमुखी गतिशीलता को कोई चुनौती नहीं दे पाता तथा ये विशेषज्ञ संगठन के उत्पादन में भी पूर्ण रूप से सहायता भी करते हैं।

3. परम्परागत सिद्धान्त ( Classical Theory) – इस सिद्धान्त को अलग-अलग नाम से भी जाना जाता है। “मार्च तथा साइमन” ने इस सिद्धान्त को शारीरिक विज्ञान सिद्धान्त कहा है। “कच” द्वारा इस सिद्धान्त को मशीन सिद्धान्त के नाम से पुकारा गया है तथा “टेलर” ने इस सिद्धान्त को वैज्ञानिक प्रवन्ध के नाम से पुकारा है। इस सिद्धान्त के अन्तर्गत मनुष्य को मशीन के समान ही स्वीकार किया जाता है, मशीन को चलाने में कुछ क्रिया करनी पड़ती है तथा उसे नियन्त्रित भी रखना पड़ता है। इसी प्रकार शैक्षिक प्रशासन में व्यक्तियों को भी प्रशिक्षण देना पड़ता है। कार्य ठीक प्रकार से संचालन के लिए इस सिद्धान्त के अन्तर्गत कुछ नियमों का भी पालन करना पड़ता है।

4. संरचनात्मक सिद्धान्त ( Constructive Theory) – यह सिद्धान्त “मैक्स वेबर” के “नौकरशाही प्रतिमान” से सम्बन्धित है। उसके बाद अन्य विद्वानों ने इस सिद्धान्त को और भी अधिक विकसित किया है। इस सिद्धान्त के अन्तर्गत अनेक नियमों को सम्मिलित किया जाता है, जिनमें से “विशिष्ट क्रिया का नियम”, “कर्मचारियों के अधिकार तथा कर्त्तव्य से सम्बन्धित नियम”, “चयन एवं प्रोन्नति का नियम” तथा “पक्षपात-रहित व्यवहार का नियम” आदि प्रमुख हैं। वास्तव में, इन नियमों का सार भी यही है कि यदि प्रशासन के क्षेत्र में विशिष्ट सेवा करने वाले तथा तकनीकी विशेषज्ञों के साथ ईमानदारी एवं निष्पक्ष भाव से व्यवहार किया जाए तो उनकी क्षमताओं का भरपूर लाभ उठाया जा सकता है और प्रशासन का कार्य भी ठीक प्रकार से चल सकता है।

शिक्षा प्रशासन के सम्बन्ध में तथा उसके सिद्धान्तों की विवेचना पर्याप्त की जा चुकी है। इस विवेचना का मूल उद्देश्य है कि शैक्षिक प्रशासन का कार्यभार सम्भालने वालों को प्रशासन करने में इन सिद्धान्तों में व्याप्त विशेषताओं का ध्यान रखना चाहिए। सम्पूर्ण संगठन के प्रशासन में केवल एक अथवा दो बातें ही प्रमुख रूप में दृष्टिगोचर होती हैं। प्रथम तो यह है कि प्रशासक को स्वयं अपने तथा दूसरे आश्रित व्यक्तियों के स्वभावों का मनोवैज्ञानिक रूप से विश्लेषण करने में अत्यन्त दक्ष होना चाहिए। कभी-कभी यह देखने में आता है कि प्रशासक के क्रोधी तथा अविश्वसनीय स्वभाव के कारण सम्पूर्ण संगठन के व्यक्ति चिड़चिड़े हो जाते हैं और सक्रिय सहयोग से मन चुराने लगते हैं, जबकि किसी दूसरे संगठन का प्रशासक यदि प्रसन्नचित, स्थिर और हितैषी स्वभाव वाला होता है तो केवल इसी विशेषता के कारण वह संगठन दिन- दूनी रात चौगुनी उन्नति करता चला जाता है। दूसरी प्रमुख बात यह है कि शैक्षिक प्रशासन का व्यवहार भी अपने व्यक्तियों के प्रति सहानुभूति पूर्ण होना चाहिए। व्यवहार कुशल, सच्चरित्र तथा आदर्श व्यक्ति की बात ही निराली होती है। आदर्श प्रशासक विषय का पूर्ण ज्ञान रखते हुए भी आश्रित व्यक्तियों के कार्य की निन्दा नहीं करता, अपितु प्रेरणा एवं पुनर्बलन की विधि का प्रयोग करते हुए कार्यकर्त्ताओं का सदैव उत्साहवर्धन इसी आशा तथा विश्वास के साथ करता है कि संगठन में लगे हुए सभी व्यक्ति पूर्ण रूप से सहयोगी सिद्ध होते हैं।

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Anjali Yadav

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