विद्यालय संगठन / SCHOOL ORGANISATION

शिक्षा प्रशासन के नियम | Principles of Educational Administration in Hindi

शिक्षा प्रशासन के नियम | Principles of Educational Administration in Hindi
शिक्षा प्रशासन के नियम | Principles of Educational Administration in Hindi

शिक्षा प्रशासन के विभिन्न नियमों का उल्लेख कीजिए।

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शिक्षा प्रशासन के नियम (Principles of Educational Administration)

साधारणतया किसी कार्य का ठीक संचालन करने के लिए पूर्व अनुभवों पर आधारित, विश्वसनीय तथा प्रमाणित जिन बातों की सहायता ली जाती है, वे नियम ही कहलाते हैं। किसी विद्यालय की चहुँमुखी उन्नति करने के लिए प्रशासक द्वारा अध्यापकों एवं छात्रों को समय पर उपस्थित होने का नियम बनाया जाता है। इसके अतिरिक्त अध्यापकों का वेतन प्रत्येक पहली तारीख पर विभाजित करने का नियम भी निर्धारित किया जाता है, तो इन नियमों का विद्यालय की उन्नति में सहयोग अवश्य होता है। वास्तव में, उपर्युक्त दोनों नियम नए नहीं हैं। इन नियमों का अनेक संगठनों में परीक्षण करके यही परिणाम दृष्टिगोचर होता है कि ऐसे नियमों को अपनाने से संगठन की दशा निश्चित रूप से सुधरती है। इस उदाहरण के द्वारा ज्ञात किया जा सकता है कि नियम भी किन्हीं तथ्यों पर ही आधारित होते हैं। अंग्रेजी भाषा के नियम शब्द को पर्याय प्राथमिक स्रोत, मौलिक सत्य या उत्तम आचार का नियम हैं। ये सभी शब्द तथ्यपूर्ण, अनुभवजन्य, परीक्षित एवं विश्वसनीय तत्वों को बतलाते हैं। अतएव “नियम” सदैव किसी भी व्यक्ति, स्थान या संगठन के उत्तम निर्माण में सहायक होते हैं। अच्छा जीवन जीने के लिए स्वास्थ्य एवं सदाचार के नियमों का पालन करना होता है। “ताजमहल” या “लालकिला” देखने के लिए भी स्थानों के नियम का पालन करना आवश्यक है। इसी प्रकार किसी कागज की मिल, विद्युत निर्माण गृह अथवा अजायबघर को देखने में भी हमें नियमों को ध्यान में रखना होता है। ये नियम बाह्य रूप में अंकुश अथवा नियन्त्रण भले ही प्रतीत होते हैं, किन्तु आन्तरिक रूप में ये व्यक्तित्व निर्माण तथा सामाजिक सम्बन्धों की स्थापना में सहायक सिद्ध होते हैं।

नियम तथा सिद्धान्त का सम्बन्ध (Relation between Principle and Theory) – नियम तथा सिद्धान्त का पारस्परिक सम्बन्ध बहुत गहरा है। दोनों में कुछ बातें समान रूप से पाई जाती हैं। दोनों का अस्तित्व तथ्यों पर आधारित में होता है। दोनों ही अनुभवों पर आधारित और विश्वासनीय होते हैं। संगठन या प्रशासन का महत्व सिद्धान्तों तथा नियमों के कारण ही होता है। इतना साम्य होते हुए भी दोनों में आकार का भेद अवश्य होता है। नियम कुछ छोटे होते हैं। नियम किसी एक तथ्य पर भी आधारित हो सकता है, किन्तु सिद्धान्त के अन्तर्गत कई नियमों को रखा जा सकता है। कोई भी सिद्धान्त केवल एक नहीं वरन् अनेक तथ्यों, अनुभवों तथा नियमों पर आधारित होता है। नियमों में परिवर्तन शीघ्रतापूर्वक किया जा सकता है, किन्तु सिद्धान्तों में परिवर्तन करना अत्यन्त कठिन होता है, क्योंकि इनका निर्माण भी अत्यन्त सूक्ष्म निरीक्षण तथा अनुभव के पश्चात् ही किया जाता है। एक व्यक्ति अपने कार्य का संचालन करने के लिए अपनी सुविधानुसार अनेक नियमों का निर्माण कर सकता है और आवश्यकतानुसार उनमें परिवर्तन भी कर सकता है, किन्तु सिद्धान्तों का निर्माण स्वयं नहीं किया जा सकता है और उनमें किसी एक व्यक्ति की इच्छा से परिवर्तन भी नहीं हुआ करता । वास्तव में, सिद्धान्तों का क्षेत्र व्यापक अधिक होता है। सिद्धान्त निर्माण में एक नहीं अनेक व्यक्तियों की सम्मितियाँ भी निहित होती हैं। सिद्धान्त का अनुभव, अवलोकन एवं तथ्य संकलन करने के पश्चात् सामान्यीकरण करना भी अत्यन्त आवश्यक होता है। अतएव महत्व एवं अस्तित्व की दृष्टि से सिद्धान्तों को नियमों की अपेक्षा अधिक ठोस रूप में स्वीकार किया जाता है।

उदाहरण- कुछ उदाहरणों से सिद्धान्त तथा कुछ नियम के भेद को और भी अधिक स्पष्ट किया जा सकता है। किसी विद्यालय या अन्य किसी संगठन की उन्नति हेतु “संरचनात्मक-सिद्धान्त” को स्वीकार किया जाता है तो इस सिद्धान्त के अन्तर्गत “निष्पक्ष नियुक्ति का नियम”, “प्रशंसा तथा निन्दा का नियम”, “पदोन्नति का नियम” आदि नियमों को आवश्यक रूप में स्वीकार किया जाता है। एक अन्य उदाहरण से भी यह अन्तर समझने योग्य है-कल्पना कीजिए कि एक शिक्षा संस्था के संचालन में “जनतन्त्रात्मक सिद्धान्त” को महत्व दिया जाता है तो इसी सिद्धान्त के अन्तर्गत सहायक नियम भी स्वतः आ जाते हैं। जैसे—“समानता का नियम”, “स्वतन्त्र अभिव्यक्ति का नियम” तथा “सहयोग का नियम” आदि। ये नियम जनतन्त्रात्मक सिद्धान्त में सहायक होते हैं।

नियम निर्धारण तथा शिक्षा प्रशासन (Formulation of Principles and Edu. Adm.) – शैक्षिक प्रशासन का प्रत्यय अभी नया ही माना जाता है। हमारे देश में तो शैक्षिक प्रशासन का पर्यवेक्षण की ओर विशेष रूप से स्वतन्त्रता के •पश्चात् ही अधिक ध्यान दिया गया है। केवल पचपन वर्षों की अल्पावधि ही शैक्षिक प्रशासन की कहानी है। शैक्षिक प्रशासन के अन्तर्गत अभी तक किन्हीं ठोस नियमों का निर्धारण नहीं किया। जो नियम अपनाये जाते हैं वे या तो अन्य विषयों के क्षेत्रों से अवतरित हैं या फिर राष्ट्रीय शासन प्रणाली के प्रतिबिम्ब रूप में स्वीकार किए जाते है। यह स्वीकार करने योग्य है कि देश की तत्कालीन शासन प्रणाली का प्रभाव शैक्षिक प्रणाली पर भी अवश्य हुआ करता है। परतन्त्र देश में किसी भी देश की शिक्षा का प्रशासन तथा प्रबन्ध परावलम्बी तथा निष्क्रिय होता है। सम्पूर्ण शासन सत्ता किसी एक ही प्रशासक की मुट्ठी में होती है, किन्तु स्वतन्त्र एवं जनतन्त्रात्मक प्रणाली युक्त देश में शैक्षिक प्रशासन भी रचनात्मक एवं स्वतन्त्र होता है। यह मानने योग्य है कि भारतवर्ष में शैक्षिक प्रशासन देश के शासन तन्त्र से प्रभावित होता है।

शिक्षा तो जनतन्त्र की प्रथम आवश्यकता होती है। अतएव शैक्षिक प्रशासन में सुदृढ़ नियमों का निर्धारण करना अत्यन्त आवश्यक होता है। शैक्षिक प्रशासन पर शैक्षिक विचारों का भी गहरा प्रभाव पड़ता है तथा ये शैक्षिक विचार देश के राजनीतिक विचारों के परिणामस्वरूप ही प्रकट होते हैं। कुछ भी हो देशी या विदेशी ऐसे श्रेष्ठ विचार जो शैक्षिक प्रशासन को प्रभावित करने की क्षमता रखते हों तथा जिनसे प्रशासन उन्नति की ओर जा सके, ऐसे विचारों का आदर किया ही जाना चाहिए। ऐसे ही कुछ विचारों से प्रभावित होकर शैक्षिक प्रशासन में कुछ नियमों को अपनाया जाता है। नीचे की पंक्तियों में शैक्षिक प्रशासन के कुछ मुख्य नियमों का उल्लेख किया जाता है-

  1. शिक्षा प्रशासन में केन्द्रीकरण का नियम (Principle of Centralization),
  2. शिक्षा प्रशासन में विकेन्द्रीयकरण का नियम (Principle of Decentralization),
  3. शिक्षा प्रशासन में राजकीय शैक्षिक तत्परता का नियम (Principle of Public Educational Enterprise),
  4. शिक्षा प्रशासन में अराजकीय शैक्षिक तत्परता का नियम (Principle of Private Educational Enterprise),
  5. शिक्षा प्रशासन में आन्तरिक नियन्त्रण का नियम (Principle of Internal Control in Edu. Adm.),
  6. शिक्षा प्रशासन में बाह्य नियन्त्रण का नियम (Principle of External Control in Edu. Adm.),
  7. शिक्षा प्रशासन में जनतन्त्रात्मकता का नियम (Democratic Principle in Edu Adm.)

उपर्युक्त मुख्य नियमों के सम्बन्ध में संक्षिप्त जानकारी करनी आवश्यक प्रतीत होती है। शैक्षिक प्रशासन के इन नियमों का उल्लेख इस प्रकार किया जा सकता है-

शिक्षा प्रशासन में केन्द्रीयकरण का नियम (Principle of Centralization)

शिक्षा प्रशासन के क्षेत्र में केन्द्रीयकरण के नियम का बड़ा महत्व है। इस प्रकार के प्रशासन में सम्पूर्ण सत्ता, उत्तरदायित्व, नियन्त्रण एवं कार्यक्षमता आदि सभी कुछ केन्द्रीय शक्ति के हाथ में होता है। यह केन्द्रीय शक्ति सरकार की भी हो सकती है। केन्द्रीय सरकार या शक्ति का शिक्षा प्रणाली पर पूरा अधिकार होता है। इस शक्ति के आदेश के बिना शिक्षा प्रशासन भी कुछ नहीं कर सकता। इस प्रकार के प्रशासन में परतन्त्रता एवं परावलम्बन की भावना अधिक विकसित हो जाती है। केन्द्रीयकरण के नियम का इतना गहरा प्रभाव होता है कि अधीनस्थ कोई भी राज्य सरकार या कोई स्थानीय प्रशासन शिक्षा योजनाओं, नीतियों, वित्तीय मामलों, पाठ्यक्रम आदि के परिवर्तन करने में असमर्थता व्यक्त करने लगते हैं। राज्य सरकार को किसी सुझाव अथवा सम्मति देने का भी कोई अधिकार नहीं होता। केन्द्रीय शक्ति में आस्था रखना तथा उसके आदेशों का विश्वस्त ढंग से पालन करना ही उनका एकमात्र कर्त्तव्य समझा जाता है। इस नियम का प्रभाव सर्वव्यापी होने लगता है। देश की प्रत्येक शिक्षण संस्था में एकाधिकार का राज्य होने लगता है। ऊपर से लेकर नीचे तक सभी प्रशासनिक कार्यों में केन्द्रीय सरकार के अवसरों के आदेशों की प्रतीक्षा करनी होती है। इस प्रकार केन्द्रीय कृत प्रशासन में व्यक्तियों की स्वतन्त्रता एवं सृजनात्मकता को पंगु बना दिया जाता है।

केन्द्रीयकृत शैक्षिक प्रशासन के लाभ (Advantages of Centralized Educational Administration)

केन्द्रीयकरण का नियम स्वतन्त्रता का हनन तो अवश्य करता है, किन्तु इस प्रकार के प्रशासन के अपने कुछ लाभ भी होते हैं। इनका वर्णन संक्षेप में निम्न प्रकार है-

1. इस प्रकार के शिक्षा प्रशासन के द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा के स्वरूप में एकता का विकास किया जा सकता है, अर्थात् सम्पूर्ण राष्ट्र में शिक्षा के क्षेत्र में समरूपता शीघ्रतापूर्वक लाई जा सकती है।

2. शैक्षिक योजनाओं का निर्माण करने और उनका कार्यान्वयन करने में अधिक सुविधा होती है, क्योंकि केन्द्रीय सरकार का आदेश सम्पूर्ण देश में प्रभावकारी होता है।

3. शिक्षा प्रयोगों तथा अनुसंधानों में व्याप्त अनुचित पुनरावृत्तियों को सावधानीपूर्वक रोका जा सकता है।

4. शिक्षा प्रशासन तथा उसकी नवीन योजनाओं की ओर देश के सुप्रसिद्ध विद्वानों का ध्यान शीघ्रतापूर्वक आकर्षित किया जा सकता है।

5. देश में अधिकाधिक उन्नति के लिए जिन शैक्षिक सूचनाओं का संकलन किया जाता है तथा जिन आँकड़ों की आवश्यकता होती है, उनका संकलन भी शीघ्रतापूर्वक किया जा सकता है।

6. सम्पूर्ण राष्ट्र में शैक्षिक उन्नति को समान रूप से किया जा सकता है।

7. देश में समस्त शिक्षा योजनाओं को कम समय में सफलतापूर्वक लागू किया जा सकता है।

8. विभिन्न क्षेत्रों में उत्पन्न असमानताएँ जो शैक्षिक विकास में अवरोध उत्पन्न करती हैं, उनका सुनियोजित प्रयत्नों के द्वारा शीघ्रमेव निपटारा किया जा सकता है।

9. सम्पूर्ण देश के लिए सर्वथा आवश्यक तथा प्राथमिकता देने वाली बातों को शीघ्रतापूर्वक लागू किया जा सकता है, क्योंकि इस प्रणाली के अन्तर्गत कोई विरोध करने का साहस नहीं किया करता।

10. शिक्षा योजनाओं की सफलता के लिए बड़े-बड़े कार्यों को उत्साहप्रद तथा प्रेरणाजनक वातावरण में किया जा सकता है।

केन्द्रीयकृत शिक्षा प्रशासन की हानियाँ (Disadvantages of Centralized Edu. Adm.) 

केन्द्रीयकृत शिक्षा प्रशासन की कुछ हानियाँ भी हैं, जिनका वर्णन निम्न प्रकार किया जा सकता है-

1. इस प्रकार के शिक्षा प्रशासन के अन्तर्गत केन्द्र से दूरस्थ प्रदेशों की शैक्षिक आवश्यकताओं पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता। अधिकतर इन आवश्यकताओं की पूर्ति ही नहीं होती और पीड़ित व्यक्ति भय के कारण कुछ कह नहीं पाते।

2. इस प्रकार के प्रशासन में सुदृढ़ सैन्यीकरण जैसा वातावरण व्याप्त हो जाता है, जिसका अनेक वर्षों बाद तक कुप्रभाव रहता है।

3. इस प्रकार के प्रशासन में कभी-कभी क्षेत्रीय असन्तोष भी व्याप्त हो जाता है, क्योंकि देश के कुछ भाग प्रयास करने पर भी लाभ से वंचित रह ही जाते हैं।

4. इस प्रकार के शिक्षा प्रशासन में परिवर्तन अथवा प्रयोग के लिए कोई सुअवसर प्राप्त नहीं होता, क्योंकि एक बार जिन परम्पराओं को प्रारम्भ किया जाता है, वे दीर्घ समय तक चलती ही रहती हैं।

5. इस प्रकार के प्रशासन में नौकरशाही मनोवृत्ति (Bureaucratic Tendency) का सर्वत्र साम्राज्य स्थापित हो जाता है।

6. केन्द्रीयकृत शैक्षिक प्रशासन के अन्तर्गत शिक्षण संस्थाएँ प्रबन्ध समितियों से अछूती ही रहती हैं, क्योंकि इस प्रकार के प्रशासन में सामान्य जनता को शैक्षिक प्रबन्ध करने का कोई अवसर ही नहीं दिया जाता।

उपर्युक्त पंक्तियों में केन्द्रीयकृत शैक्षिक प्रशासन के लाभ और हानियों का वर्णन किया गया है। वास्तव में, शैक्षिक प्रशासन में कोई भी नियम लागू किया जाए उसके पीछे मनुष्य की प्रवृत्ति ही होती है। मानवीय दृष्टिकोण यदि उपयुक्त. होता है तो शैक्षिक प्रशासन भी ठीक प्रकार चलता है। निरंकुश एवं स्वेच्छाचारी प्रवृत्ति से युक्त राज्य में केन्द्रीयकृत प्रशासन भी बुराइयों का आधार बन जाता है। उदाहरण के लिए, सोवियत रूस ऐसा राष्ट्र है, जहाँ केन्द्रीयकृत शैक्षिक प्रशासन सुव्यवस्थित ढंग से चलता है।

शिक्षा प्रशासन में विकेन्द्रीयकरण का नियम (Principle of Decentralisation in Educational Administration)

आधुनिक युग में विकेन्द्रीयकृत शैक्षिक प्रशासन का बहुत महत्व है। इस प्रकार के प्रशासन के सम्बन्ध में गम्भीर रूप से विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है।

वर्तमान युग में विकेन्द्रीयकरण की आवश्यकता- भारतवर्ष में स्वतन्त्रता प्राप्ति के साथ ही जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में पर्याप्त जागरण हुआ। जनतन्त्रीय भावना ने भारतवासियों को जहाँ राजनीतिक जागरूकता प्रदान की, वहीं शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र में भी हाथ बँटाने के लिए उत्साहित किया है। आज शिक्षा को राज्यों का विषय स्वीकार किया जाता है। इतना ही नहीं केन्द्रीय सरकार भी विभिन्न माध्यमों से शिक्षा की उन्नति के लिए प्रयास करती है। हमारे देश के विद्यालयों में आज विभिन्न प्रकार की शैक्षिक नीतियाँ लागू की जाती हैं। पूरे देश में शिक्षा का व्यापक जाल-सा बिछा हुआ है। शैक्षिक योजनाओं की व्यवस्था में केवल केन्द्रीय सरकार ही नहीं वरन् राज्य सरकारें, स्थानीय सरकारें तथा अन्य महत्वपूर्ण संस्थान इस कार्य में हाथ बँटाते हैं। शैक्षिक प्रशासन का कार्य देश में अनेक शक्तियों के बीच में बँटा हुआ है। इस प्रकार शिक्षा के क्षेत्र में सम्पूर्ण सत्ता किसी एक के हाथ में न होकर अनेक शक्तियों के हाथों में हस्तान्तरित की गयी है। वास्तव में, शक्ति या प्रशासन का विभाजन विकेन्द्रीयकरण सर्वथा उपयुक्त है और वर्तमान युग की आवश्यकता ही प्रतीत होती है।

विकेन्द्रीयकरण का अर्थ (Meaning of Decentralisation) – शक्ति का विभाजन ही विकेन्द्रीयकरण है। शैक्षिक प्रशासन के विकेन्द्रीयकरण के नियम में शैक्षिक प्रभुता की असीमित शक्ति को सीमित करना सम्मिलित किया जाता है। यह असीमित शक्ति किसी भी स्तर पर हो, चाहे सरकारी स्तर पर या सामुदायिक स्तर पर हो, किन्तु शक्ति का विभक्तीकरण अत्यन्त आवश्यक है। उदाहरण के लिए, केन्द्रीय सरकार की सम्पूर्ण शक्ति जब राज्य, जिला एवं स्थानीय सरकारों में विभाजित हो जाती है तो शक्ति का विकेन्द्रीयकरण ही हो जाता है। आधुनिक भारत में जिला परिषद, ग्राम पंचायत आदि संस्थाएँ भी शिक्षण संस्थाओं का प्रबन्ध करती हैं। वास्तव में, यह विकेन्द्रीयकरण का परिणाम ही दृष्टिगोचर होता है तथा इसमें प्रजातन्त्रात्मक मनोवृत्ति अर्थात् स्वयं शासन करने की भावना मूल रूप में निहित होती है।

विकेन्द्रीयकरण के अन्तर्गत सम्पूर्ण राष्ट्र में यद्यपि राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली की भी आवश्यकता होती है। केन्द्रीय सरकार शैक्षिक योजनाओं को विस्तृत रूप में तैयार करती है और बजट में उसके लिए धनराशि स्वीकृत करती है तथापि इन योजनाओं को कार्यान्वित करने के लिए राज्य की सरकारें ऐजेण्ट के रूप में ही कार्य करती हैं। ये स्थानीय, शैक्षिक सत्ताएँ शैक्षिक कार्यों को सुरक्षित करने में ही सहायता करती हैं तथा जनतान्त्रिक व्यवहार करने का अभ्यास भी देती हैं। इस प्रकार विकेन्द्रीयकरण की प्रक्रिया जनसाधारण को देश के कार्यों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करती है और इस प्रक्रिया के माध्यम से व्यक्ति अथवा संस्थाएँ शिक्षा पर नियन्त्रण करना भी सीखते हैं।

विकेन्द्रीयकृत शिक्षा प्रशासन के लाभ (Advantages of Decentralised Educational Administration) – शैक्षिक प्रशासन के क्षेत्र में जनतन्त्रात्मक विकेन्द्रीयकरण के कुछ प्रत्यक्ष लाभ हैं, जिनकी गणना निम्न प्रकार की जा सकती है-

1. विकेन्द्रीयकृत प्रशासन का महत्वपूर्ण लाभ यह भी है कि प्रशासन केवल बौद्धिक, महत्वाकांक्षी तथा कुछ स्वार्थरत व्यक्तियों के चंगुल से बाहर हो जाता है अर्थात् शैक्षिक प्रशासन कुछ इने-गिने अथवा मुट्ठी भर लोगों की शक्ति के सम्मुख घुटने नहीं झुकाता, अपितु शैक्षिक प्रशासन पर जनसाधारण का भी प्रभाव जमने लगता है।

2. समुदाय तथा स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार विद्यालयों के कार्यक्रमों को इस प्रकार व्यवस्थित किया जा सकता है, जिससे स्थानीय लाभों की मात्रा में वृद्धि की सम्भावना होती है।

3. विकेन्द्रीयकृत प्रशासन के माध्यम से शैक्षिक विकास का उत्तरदायित्व सम्भालने के लिए समुदाय के नेतागण आगे आ जाते हैं और पूरी जिम्मेदारी के साथ कार्य करने का अभ्यास भी करते हैं।

4. स्थानीय शिक्षा पुनर्रचनात्मक कार्यक्रमों को शीघ्रतापूर्वक उपयुक्त ढंग से किया जा सकता हैं।

5. विकेन्द्रीयकृत प्रशासन का एक महत्वपूर्ण लाभ यह भी है कि विद्यालय भी समुदायों के निकटतम सम्बन्ध रखने के अभ्यस्त हो जाते हैं। विद्यालय समुदायों के और समुदाय विद्यालयों के हो जाते हैं। समुदाय की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति करने में विद्यालय पूर्ण सहायता करते हैं।

6. स्वतन्त्र विचार तथा स्वतन्त्र अभिव्यक्ति के विचार से विकेन्द्रीयकृत प्रशासन अधिक लाभदायक है। इसका अर्थ है कि व्यक्तियों अथवा संस्थाओं को प्रयोग एवं कार्य की अधिक स्वतन्त्रता मिल सकती है।

7. शिक्षा प्रशासन के क्षेत्र में पर्यवेक्षण तथा निरीक्षण अधिक सुन्दर ढंग से किया जा सकता है, क्योंकि प्रबन्ध समितियों की शक्ति विद्यालय प्रांगण से अधिक दूर नहीं होती है और प्रबन्ध समिति के सदस्यों का विद्यालय के वातावरण पर कुछ न कुछ भय अवश्य रहता है और विद्यालय के कर्मचारी निरंकुश तथा स्वेच्छाचारी नहीं बन पाते।

8. शिक्षा के क्षेत्र में जो अनेक सुधार किए जाते हैं तथा स्थानीय वातावरण के अनुसार जिन बातों को लागू करने की आवश्यकता पर बल दिया जाता है, उनका आरम्भ शीघ्रतापूर्वक किया जा सकता है।

9. इस प्रकार प्रशासन में कार्य करने से समुदाय के जो कुशल कार्यकर्ता एवं नेता होते हैं, उनको भी ठीक प्रकार से पहचानना सम्भव होता है।

10. विकेन्द्रीयकरण के अनुसार शिक्षा पर होने वाले व्यय में स्थानीय सामुदायिक संस्थाएँ भी भागीदार बन जाती हैं, क्योंकि उन्हें शैक्षिक प्रशासन में कुछ अधिकार प्राप्त करने की लालसा होती है।

विकेन्द्रीयकृत शैक्षिक प्रशासन की हानियाँ (Disadvantages of Decentralisation of Educational Administration) – जनतन्त्रात्मक विकेन्द्रीयकरण का नियम यद्यपि आधुनिक युग में उत्तम समझा जाता है, फिर भी केन्द्रीयकरण की समस्त बुराइयों को दूर करने वाला यह नियम कदापि नहीं कहा जा सकता। सर्व रोगों की औषधि के रूप में विकेन्द्रीयकरण को नहीं माना जा सकता। इसके भी कुछ दोष हैं, जो कि निम्नलिखित हैं-

1. विकेन्द्रीयकृत शैक्षिक प्रशासन में स्थानीय व्यक्ति अनुभवहीनता के कारण कुछ अविवेकपूर्ण तथा शीघ्रगामी निश्चय ले लेते हैं और उन्हें शिक्षा के क्षेत्र में प्रयोग भी करने लगते हैं, परन्तु इनके परिणाम बड़े घातक सिद्ध होते हैं। कहने का सारांश यह है कि शिक्षा विशेषज्ञों का परामर्श इस प्रकार के शासन में ठीक प्रकार नहीं मिल पाता।

2. इस प्रकार के शैक्षिक प्रशासन में अध्यापकों के स्थानीय विवादों में पड़ने के कारण शैक्षिक स्तर में अवनति होने लगती है।

3. वास्तव में विकेन्द्रीयकृत शैक्षिक प्रशासन की कुछ समस्याओं का उचित समाधान उस समय तक नहीं निकल पाता जब तक कि शैक्षिक प्रशासन में केन्द्रीयकरण का नियम लागू न किया जाए। उदाहरणार्थ, यदि वित्तीय एवं पर्यवेक्षणीय शक्तियाँ स्थानीय निकायों के अशिक्षित एवं अप्रशिक्षित व्यक्तियों के हाथों में होती हैं तो शिक्षा व्यवस्था संकटग्रस्त हो जाती है तथा विद्यालयों में होने वाले अपव्यय की आशंका भी बढ़ जाती है।

4. विकेन्द्रीयकृत शैक्षिक प्रशासन के द्वारा क्षेत्रीय असमानताओं में वृद्धि हो जाती है तथा शिक्षा की समरूपता भी नहीं हो पाती। शिक्षा में एकरूपता लाने के लिए केन्द्रीय शासन की सहायता अवश्य चाहिए। प्रायः देखने में आता है कि केन्द्रीय शक्ति के शिथिल अथवा अप्रभावी हो जाने से विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था की जाने लगती है, जैसा कि वर्तमान भारतवर्ष के विभिन्न राज्यों में शिक्षा की विभिन्नता विद्यमान है।

5. इस प्रकार के शैक्षिक प्रशासन में स्थानीय नेताओं की शक्ति सीमारहित हो जाती है, जिसका रोकना कभी-कभी कठिन प्रतीत होता है।

6. विकेन्द्रीयकृत शैक्षिक प्रशासन करने के लिए भी विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। स्थानीय निकायों के व्यक्ति अधिकतर अशिक्षित एवं अप्रशिक्षित होते हैं, इसीलिए वे प्रशासन करने में अपनी अहम् भावना का प्रदर्शन तो अधिक करते हैं, परन्तु उनकी कार्यक्षमता तथा विद्वत्ता की छाप विद्यालय प्रशासन पर नहीं पड़ती।

अत्यधिक केन्द्रीयकरण एवं अत्यधिक विकेन्द्रीयकरण दोनों प्रकार के शिक्षा प्रशासनों की हानियाँ एवं लाभ स्पष्ट वास्तव में, भारत जैसे विकासशील देश में दोनों का समन्वय ही उचित होता है। केन्द्रीय शक्ति एवं स्थानीय निकायों के उत्तरदायित्वों का विचारपूर्वक विभाजन होना चाहिए। जो महत्वपूर्ण कार्य केन्द्रीय शासन के लिए हैं, उन्हें केन्द्रीयकृत प्रशासन के अन्तर्गत ही सम्पन्न किया जाना चाहिए। जैसे शिक्षा के क्षेत्र में प्रत्येक राज्य में असमानताओं को समाप्त करना राष्ट्र के लिए उपयोगी शैक्षिक सूचनाओं का प्रसारण करना, नवीन सहयोगात्मक अनुसन्धानों के क्षेत्र को विकसित करना, क्षेत्रों में रचनात्मक नेतृत्व को जागृत करना, उच्च शिक्षा का प्रसार करना, व्यावसायिक शिक्षा का व्यापक प्रबन्ध करना आदि कार्य केन्द्रीयकृत प्रशासन के अन्तर्गत ही अच्छी प्रकार किए जा सकते हैं।

शिक्षा प्रशासन में राजकीय तत्परता का नियम (Principle of Public Educational Enterprise)

आज वैसे तो देश के सभी राज्य शिक्षा के कार्य में मुख्य रूप से हाथ बँटाते हैं, फिर भी यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है कि शिक्षा का सम्पूर्ण शासन भार पूर्णतया सरकार पर आश्रित हो या गैर-सरकारी शक्तियाँ भी इसमें हाथ बँटायें। प्रत्यक्ष रूप में यह विदित होता है कि अराजकीय प्रभुत्व के द्वारा भी शैक्षिक प्रशासन का ठीक रूप से संचालन किया जाता है वास्तव में, राजकीय एवं अराजकीय शक्तियों के समन्वय को आज आँखों से ओझल नहीं किया जा सकता। जिस प्रकार शिक्षा के क्षेत्र में औपचारिक तथा अनौपचारिक शिक्षा का महत्व है, इसी प्रकार शैक्षिक प्रशासन के क्षेत्र में राजकीय एवं अराजकीय दोनों शक्तियों को प्रमुखता दी जाती है। इस सम्बन्ध में वर्तमान युग की आवश्यकताओं तथा परिस्थितियों को देखते हुए मोहिल्मन ने शैक्षिक प्रशासन के क्षेत्र में राजकीय शक्ति को भी अधिक स्वीकार किया है, क्योंकि शिक्षा के लिए सामान्य नियम बनाने और उनका प्रसारण करने में सरकार की शक्ति अधिक महत्वपूर्ण होती है।

राजकीय तत्परता- नियम का अर्थ (Meaning of Public Educational Enterprise) – राजकीय शब्द का प्रयोग वहीं किया जाता है, जहाँ सरकार या राज्य का पूर्ण नियन्त्रण होता है। शिक्षा संस्थाओं को खोलने में जब सरकार ही वित्तीय सहायता देती है, नियुक्तियाँ करने का अधिकार भी सरकार को मिला होता है तब राजकीय तत्परता के नियम का पूर्णतया पालन होता है।

राजकीय तत्परता नियम की आवश्यकता – विद्यालय के नियन्त्रण में सरकारी हस्तक्षेप करने का मुख्य कारण यह है कि राज्य के सरकारी तथा गैर-सरकारी विद्यालयों को राज्य की ओर से अनुदान की धनराशि स्वीकृत की जाती है। ऐसी अवस्था में यह विचारणीय है कि अनुदान देकर सरकार तटस्थता को अपनाये तथा जनता के व्यक्तियों द्वारा शैक्षिक प्रशासन कराये या स्वयं ही विद्यालयों का प्रशासन अपने हाथ में ले। गैर-सरकारी व्यक्तियों द्वारा भी शिक्षा का प्रबन्ध अतीतकाल से किया जाता रहा है। इंग्लैण्ड में भी कुछ पादरियों एवं धार्मिक व्यक्तियों के द्वारा पूर्व समय में शिक्षा का प्रबन्ध किया जाता था। स्वतन्त्र भारतवर्ष में भी इसी पद्धति का अनुसरण किया जाता रहा। भारतवर्ष में भी अनेक व्यक्तिगत संस्थाओं के द्वारा शिक्षा के प्रबन्ध में हाथ बँटाया गया, किन्तु अनेक बार इस बात की आवश्यकता प्रतीत हुई कि देश की शिक्षा के क्षेत्र में राज्य अथवा सरकार का पूर्ण हस्तक्षेप हो। शिक्षक संघ के माध्यम से शिक्षा के राष्ट्रीयकरण की बात अनेक बार उठायी गई है। वर्तमान युग जनतन्त्रात्मक प्रणाली से युक्त है। इसलिए शिक्षा के राष्ट्रीयकरण की बात भी अधिक की जाती है।

शिक्षा में राजकीय हस्तक्षेप के लाभ (The Advantages of the State Control of Education) 

शिक्षा पर सरकारी हस्तक्षेप के कारण कुछ लाभ जो प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देते हैं, इनका वर्णन निम्नलिखित है-

1. जनता को राष्ट्रीयता की ओर अधिक आकर्षित किया जा सकता है, क्योंकि इस प्रकार के प्रशासन में व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताओं तथा इच्छाओं को समाप्त करके सम्पूर्ण राष्ट्र की आवश्यकता की पूर्ति करने में ही जुट जाते हैं।

2. अवसर पड़ने पर अथवा संकटकालीन परिस्थितियों के आ जाने पर शिक्षा को प्रचार का माध्यम सुविधापूर्वक बनाया जा सकता है और सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए तथा राष्ट्र कल्याणकारी योजनाओं को सफल बनाने के लिए विद्यालयों को साधन के रूप में प्रयोग किया जा सकता है जैसे- “परिवार नियोजन” तथा ‘वृक्षारोपण’ आदि महत्वपूर्ण समस्याओं का प्रचार वर्तमान युग के विद्यालयों में देखा भी जा सकता है।

3. शिक्षा में सरकारी हस्तक्षेप के कारण प्रत्यक्ष लाभ यह है कि राज्य के विचारों तथा सिद्धान्तों का प्रसारण एवं क्रियान्वयन जनसाधारण में सुगमतापूर्वक किया जा सकता है।

4. शिक्षा का स्तरीकरण भी सम्पूर्ण राज्य में एक-सा किया जा सकता है।

5. सम्पूर्ण राज्य अथवा राष्ट्र में शैक्षिक समरूपता का विकास किया जा सकता है।

शिक्षा में राजकीय हस्तक्षेप की हानियाँ (Disadvantages of the State Control of Education)

सरकारी हस्तक्षेप की कुछ हानियाँ भी दृष्टिगोचर होती हैं। जैसे-

1. विद्यालयों के प्रशासन में निश्चलता अथवा जड़ता व्याप्त हो जाती है।

2. इस प्रकार के प्रशासन में क्षमतावान व्यक्ति भी किसी नये काम को प्रारम्भ करने के लिए उत्साहित नहीं होते।

3. हस्तक्षेप युक्त शैक्षिक प्रशासन के अन्तर्गत स्वतन्त्रता एवं स्वेच्छा का गला घोंट दिया जाता है, क्योंकि विद्यालयों में सरकारी हस्तक्षेप इतना अधिक होता है कि कोई ही व्यक्ति अपना स्वतन्त्र मत देने के लिए उत्साहित होता है।

4. “शिक्षा एक विकास की प्रक्रिया है” इस सिद्धान्त को ऐसे प्रशासन में भुला दिया जाता है।

5. शिक्षा के क्षेत्र में परम्परा निर्वाह तथा नियमों की स्थिरता की बात अधिक की जाने लगती है।

शिक्षा प्रशासन में अराजकीय शिक्षा तत्परता का नियम (Principle of Private Educational Enterprise)

शिक्षा के क्षेत्र में अराजकीय व्यक्तियों एवं संस्थाओं के द्वारा भी प्रशासन करने की प्रथा प्रचलित है। इंग्लैण्ड के समान ही भारत में भी अनेक धार्मिक एवं सामाजिक संस्थाओं के द्वारा विद्यालयों का प्रशासन भार सम्भाला जाता है। सम्पूर्ण देश में आर्यसमाज, सनातन धर्म, सिक्ख सम्प्रदाय, मुस्लिम सम्प्रदाय, विभिन्न जातियों एवं उपजातियों द्वारा अनेक शिक्षण संस्थाओं को प्रारम्भ किया जाता है। इनके अतिरिक्त भी जो सोफिया, सैन्ट मैरी, आदि स्कूल दिखाई देते हैं वे विदेशियों के नियन्त्रण में होते हैं। वर्तमान युग में भारत की सरकारों द्वारा शिक्षा पर पूर्ण नियन्त्रण नहीं किया गया है। गैर-सरकारी संस्थाओं एवं व्यक्तियों को भी शिक्षा के प्रचार के लिए उत्साहित किया जाता है। ऐसी परिस्थिति में विद्यालयों पर गैर सरकारी संस्थाओं का नियन्त्रण होता है एवं सरकार तटस्थ होकर शैक्षिक प्रशासन को देखती है। प्रत्येक जिले में यद्यपि जिला विद्यालय निरीक्षक नियुक्त होता है, जिसका उत्तरदायित्व विद्यालयों के प्रशासन में हाथ बँटाना समझा जाता है, किन्तु इन विद्यालयों में गैर-सरकारी संस्थाओं का ही प्रबन्ध होता है, जो कल्याण की अपेक्षा अकल्याण की बात भी अधिक सोचते हैं। सरकारी तथा गैर सरकारी प्रशासन के क्षेत्र से सम्बन्धित भारतवर्ष की शिक्षा में एकरूपता नहीं है। किन्हीं राज्यों दिल्ली, पंजाब, केरल, हरियाणा आदि में पूर्णतया सरकारी हस्तक्षेप है। उत्तर प्रदेश, राजस्थान आदि जैसे बड़े राज्यों में सरकार का हस्तक्षेप पूर्णतया नहीं है।

अराजकीय शिक्षा तत्परता नियम के लाभ (The Advantages of Private Educational Enterprises)

1. सरकार से बाहर रहने वाले व्यक्तियों की मौलिक क्षमताओं का उपयोग किया जा सकता है और उन्हें नवीन कार्यारम्भ करने के लिए उत्साहित भी किया जा सकता है।

2. इस प्रकार के शैक्षिक प्रशासन में प्रबन्धकों तथा विशेषज्ञों की इच्छानुसार शिक्षा का प्रसारण किया जा सकता है।

3. इस प्रकार के शैक्षिक प्रशासन में शिक्षा के क्षेत्र में नवीन प्रयोगों को पूर्णतया उत्साहित किया जा सकता है।

4. इस प्रकार के प्रशासन में किसी एक व्यक्ति विशेष की क्षमता का लाभ भी पूर्णतया उठाया जा सकता है। कभी-कभी यह देखा जाता है कि समाज में अकेला व्यक्ति ही अनेक संस्थाओं को खोलने का साहस रखता है, ऐसे व्यक्तियों का उत्साहवर्धन किया जा सकता है।

अराजकीय शैक्षिक तत्परता नियम से सम्बन्धित प्रशासन के कुछ दोष भी गिनाए जा सकते हैं, जो निम्नलिखित हैं-

अराजकीय शिक्षा तत्परता नियम के दोष (Disadvantages of Private Educational Enterprises )

अराजकीय शिक्षा तत्परता के दोष निम्नलिखित हैं-

1. शिक्षकों की नियुक्तियों में निष्पक्षता नहीं रह पाती। कभी-कभी तो सर्वथा अयोग्य होने पर किन्तु अपनी जाति से ही सम्बनि व्यक्ति को नियुक्त कर लिया जाता है, जिसका कुप्रभाव अन्ततोगत्वा शिक्षा पर ही होता है।

2. इस प्रकार के प्रशासन में सर्वथा आवश्यक शिक्षा की समरूपता भी नहीं होने पाती, अर्थात् शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य सफल नहीं हो पाता।

3. शिक्षा के क्षेत्र में जिन नवीन सिद्धान्तों को प्रयोग करने की आवश्यकता समझी जाती है, उनका प्रयोग भी नहीं हो पाता, क्योंकि अराजकीय व्यक्ति इनका महत्व समझ नहीं पाते।

4. इस प्रकार के शैक्षिक प्रशासन में धर्म, जाति, भाषा आदि से सम्बन्धित कुछ वर्ग बन जाते हैं। ये वर्ग अपने पूर्वाग्रहों से प्रभावित होते हैं। इसीलिए शैक्षिक प्रशासन में भी क्षेत्रीयता, जातीयता तथा धार्मिकता का पुट आए बिना नहीं रहता। बहुधा यह भी देखने में आता है कि एक जाति के व्यक्ति अपनी शिक्षण संस्था की स्थापना करके अन्य जातियों से ईर्ष्या भी रखने लगते हैं।

5. स्थानीय व्यक्तियों का प्रबन्धक रूप में अधिक प्रभावी होने से कभी-कभी नियुक्तियों के लिए रिश्वत लेने-देने की बात चलाई जाती है, जो शिक्षा के पावन मन्दिरों के लिए सर्वथा अशोभनीय है।

6. शिक्षा को एक व्यवसाय के रूप में समझा जाने लगता है, जो प्रबन्धकों तथा व्यवस्थापकों की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है

शिक्षा प्रशासन में आन्तरिक नियन्त्रण का नियम (Principle of Internal in Educational Administration)

शैक्षिक प्रशासन के क्षेत्र में धीरे-धीरे विकास हुआ है। जिस प्रकार राजकीय तथा अराजकीय ढंग से प्रशासन करने में व्यक्तियों की क्षमताओं का विकास होता है, उसी प्रकार शैक्षिक प्रशासन में आन्तरिक एवं बाह्य नियन्त्रण के नियम का पालन करने में व्यक्तियों को अपनी क्षमताओं को विकसित करने का अवसर प्रदान किया जाता है।

आन्तरिक नियन्त्रण का अर्थ (Meaning of Internal)– आन्तरिक शैक्षिक प्रशासन का संक्षिप्त अर्थ ‘शिक्षण संस्थाओं का प्रशासन आन्तरिक रूप से स्वयं करना है। स्वयं आन्तरिक रूप से कार्य करने वाले व्यक्ति “प्रधानाचार्य” एवं उसके “सहायक अध्यापक” समझे जाते हैं। “जब किसी शिक्षण संस्था का प्रबन्ध तथा प्रशासन उसी संस्था के प्रबन्ध, प्राचार्य तथा प्राध्यापक मिलकर करते हैं और अपने प्रशासन को ही स्थायी बनाने का प्रयत्न करते हैं, तथा उस प्रशासन को बाह्य प्रभाव से मुक्त रखते हैं, तब उस शैक्षिक प्रशासन में आन्तरिक नियन्त्रण के नियम का ही पालन किया जाता है।” पब्लिक स्कूलों का प्रशासन भी इसी प्रकार का होता है, क्योंकि वहाँ प्रशासकीय ढाँचा स्वयं निर्मित होता है। आन्तरिक नियन्त्रण युक्त शैक्षिक प्रशासन के अन्तर्गत शिक्षण संस्था के प्रधानाचार्य एवं सहायक अध्यापक दैनिक कार्यों की एक लम्बी सूची तैयार करते हैं, शिक्षण से सम्बन्धित तथा पाठ्येत्तर क्रियाओं का कार्यक्रम निर्धारित किया जाता है और शिक्षण संस्था का नियन्त्रण करने के लिए भी पारस्परिक विचार विनिमय किया जाता है। वास्तव में, संस्था में जितने कर्मचारी होते हैं, संस्था का पूरा प्रबन्ध करना उन्हीं का उत्तरदायित्व समझा जाता है। समय-विभाग चक्र का निर्माण, शिक्षण कार्य का विभाजन, पाठ्य सहगामी क्रियाएँ, शारीरिक व्यायाम, चिकित्सा प्रबन्ध, खेल का मैदान तथा राष्ट्रीय पर्वो का आयोजन एवं विभिन्न प्रकार के उत्सवों का समायोजन करना संस्था के प्रबन्धकों का ही कार्य होता है। उनके प्रशासनिक कार्य में किसी प्रकार का बाह्य हस्तक्षेप सम्भव नहीं होता। इस प्रकार के प्रशासन में कुछ शिक्षण संस्थाओं के प्रधानाचार्यों के कार्यालयों में वार्षिक विस्तृत कार्यक्रम का चार्ट भी टंगा हुआ होता है, तथा उसी के अनुसार वे कार्य भी करते हैं। समस्त कार्यों को सम्पन्न कराने में अध्यापक, छात्र एवं छात्रों के संरक्षक भी पूरी सहायता करते हैं।

आन्तरिक नियन्त्रणयुक्त शिक्षा प्रशासन के लाभ (Advantages of Internal Educational Administration)

1. अध्यापकों, प्रधानाचार्य तथा छात्रों के बीच उत्पन्न अन्तर तथा मिथ्या अहं को समाप्त किया जा सकता है।

2. विद्यालय के अध्यापकों में स्वतन्त्र आत्माभिव्यक्ति तथा विद्यालय को अपना समझने की भावना को विकसित किया जा सकता है।

3. विद्यालय प्रांगण में शैक्षिक योजनाओं का प्रयोग तथा कार्यान्वयन सुगमतापूर्वक किया जा सकता है।

4. इस प्रकार के प्रशासन में जनतन्त्रात्मकता का ध्यान रखते हुए विभिन्न योग्यताओं वाले व्यक्तियों को कार्य करने का अवसर दिया जाता है। इस प्रकार उनकी नेतृत्व शक्ति की सच्ची परख हो जाती है।

5. विद्यालय को ही अपना घर समझने के कारण कर्मचारियों में आत्मगौरव जैसी उत्तम अनुभूति उत्पन्न हो जाती है।

6. विद्यालय के कर्मचारियों में पारस्परिक सहयोग, सद्भाव तथा कर्मण्यता आदि के गुणों का विकास किया जा सकता है।

7. विद्यालय के प्रधानाचार्य में नेतृत्व सम्भालने, उच्च विचार करने तथा उत्तम प्रशासक बनने की लालसा उत्पन्न हो जाती है।

आन्तरिक नियन्त्रणयुक्त शिक्षा प्रशासन की हानियाँ (Disadvantages of Internal Educational Administration)

1. विद्यालय के प्रबन्धक तथा प्रधानाध्यापक में तानाशाही जैसी कुप्रवृत्ति का उदय अवश्य हो जाता है, क्योंकि वे अपने कार्यों को निर्विरोध रूप से करने के अभ्यस्त हो जाते हैं।

2. इस प्रकार के प्रशासन के विद्यालयों में नियुक्त अध्यापकों को नवीन शैक्षिक अनुसन्धानों तथा प्रयोगों का अधिक ज्ञान नहीं हो पाता।

3. आन्तरिक नियन्त्रणयुक्त शैक्षिक प्रशासन के अन्तर्गत सीमित दृष्टिकोण का ही विकास हो सकता है। वाह्य प्रभाव से अछूता होने के कारण ऐसे विद्यालयों के प्रशासन में कूपमण्डूकता के दर्शन होने लगते हैं।

4. इस प्रकार के प्रशासन से युक्त विद्यालयों में मिथ्या अहं की भावना भी प्रायः उत्पन्न हो जाती है।

5. प्रबन्धक प्रधानाचार्य, प्रधानाचार्य अध्यापक, अध्यापक छात्र के बीच यदि समायोजन न हो तो सम्पूर्ण प्रशासन ही अवनति को प्राप्त हो जाता है।

इस प्रकार के शैक्षिक प्रशासन में विद्यालय से सम्बन्धित कर्मचारियों में वास्तविक योग्यता, रुचि एवं समर्पण की भावना की आवश्यकता होती है। इसके अभाव में आन्तरिक नियन्त्रणयुक्त शैक्षिक प्रशासन सफल नहीं हो पाता।

शिक्षा प्रशासन में बाह्य नियन्त्रण का नियम (Principle of External Educational Administration)

शैक्षिक प्रशासन में आन्तरिक नियम के अतिरिक्त बाह्य नियन्त्रण का नियम भी उपयोगी होता है। इनका संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है-

बाह्य नियन्त्रण का अर्थ (Meaning of External Educational Administration) – बाह्य नियन्त्रण से तात्पर्य शिक्षण संस्थाओं से बाहर की शक्तियों का प्रभुत्व होना है। (The External of Educational Administration is related to the External control of Educational institutions including the influence and dictation of powers from without).

बाह्य नियन्त्रणयुक्त शिक्षा प्रशासन में शिक्षा विभाग के माध्यम से सरकारी नियन्त्रण किया जाता है, सरकारी तन्त्र या बाह्य प्रशासन ही शिक्षण संस्थाओं से सम्बन्धित समस्त नियमों का निर्माण करता है। इसके अतिरिक्त कक्षाओं के लिए पाठ्यक्रम निर्धारित करना, पाठ्य पुस्तकों का निर्माण करना, शिक्षकों की सुरक्षा करना तथा वेतन आदि का विभाजन करना, भवन निर्माण, पुस्तकालय या प्रयोगशालाओं का निर्माण करना, विद्यालयों में अवकाश की सूची बनाना आदि कार्य भी बाह्य प्रशासन के माध्यम से ही किए जाते हैं। वार्षिक परीक्षाओं की व्यवस्था, प्रमाणपत्रों एवं अंक तालिकाओं को पदान करना तथा शिक्षा के गिरते हुए स्तर में सुधार करने का उत्तरदायित्व भी बाह्य प्रशासन ही करता है।

उदाहरण- बाह्य नियन्त्रणयुक्त प्रशासन के स्वरूप को हम उत्तर प्रदेश के उदाहरण से भी समझ सकते हैं। उत्तर प्रदेश राज्य में शिक्षा मन्त्रालय के आधीन माध्यमिक शिक्षा, उच्च शिक्षा एवं बेसिक शिक्षा के तीन निदेशालय कार्य करते हैं। सम्पूर्ण राज्य ग्यारह क्षेत्रों में विभाजित है। उनमें एक उपनिदेशक होता है, जो कई जिलों का प्रशासन करता है। प्रत्येक जिले में एक विद्यालय निरीक्षक तथा उसके आधीन भी कई उपविद्यालय निरीक्षक होते हैं। वास्तव में, इन सभी कर्मचारियों का प्रमुख कार्य सरकार द्वारा निर्धारित शिक्षा विषयक नीतियों को कार्यान्वित करना होता है। ये सभी सरकार तथा जनसाधारण के बीच में माध्यम (एजेण्ट) का कार्य करते हैं। शिक्षा संस्थाओं में नीति निर्धारण, नियुक्ति, चयन आदि कार्यों में शिक्षा विभाग का पूर्ण हस्तक्षेप होता है। उत्तर प्रदेश राज्य में माध्यमिक शिक्षा परिषद् के द्वारा परीक्षा व पाठ्यक्रम आदि का सम्पूर्ण कार्य देखा जाता है। परिषद् में कुछ मनोनीत तथा कुछ निर्वाचित सदस्य होते हैं। इस परिषद् के निर्णयों का शिक्षण संस्थाओं में पूर्णतया पालन किया जाता है। शिक्षण संस्थाओं के प्रबन्धक एवं प्राचार्य आदि आन्तरिक प्रशासन करने में यद्यपि स्वतन्त्र होते हैं, फिर भी विवादमस्त तथा अनियमित मामलों में शिक्षा विभाग का पूर्ण हस्तक्षेप होता है। किसी अध्यापक के साथ दुर्व्यवहार या अन्याय होने पर उसकी सुनवाई जिला विद्यालय निरीक्षक के कार्यालय में होती है। जनसाधारण को भी पूरा अधिकार होता है कि वे शिक्षण संस्थाओं की (अधिक शुल्क लेने, अनुचित रूप से धन एकत्रित करने, चयन आदि में अशोभनीय व्यवहार करने आदि) शिकायतों को विद्यालय निरीक्षक एवं अन्य अधिकारियों के सम्मुख स्पष्ट कह सकते हैं। इस प्रकार कुछ आन्तरिक प्रशासन में स्वतन्त्र होने पर भी उत्तर प्रदेश राज्य की शिक्षण संस्थाओं में बाह्य नियन्त्रण का नियम ही अधिक प्रभावपूर्ण होता है।

बाह्य नियन्त्रण युक्त शिक्षा प्रशासन के लाभ (Advantages of External Educational Administration)

  1. राज्य के अनुभवी शिक्षाविदों तथा कुशल प्रशासकों के प्रौढ़ विचारों तथा नीतियों से शिक्षण संस्थाओं को लाभान्वित किया जा सकता है।
  2. सरकारी तथा शिक्षा विभाग की नीतियों को बिना विवाद किए सर्वमान्य रूप में स्वीकार कर लिया जाता है, क्योंकि शिक्षा विभाग के आदेशों को सरकारी आदेश समझ कर ही उनके सम्मुख आदर व्यक्त किया जाता है।
  3. इस प्रकार के शैक्षिक प्रशासन में शिक्षा संस्थाओं की अनियमितताओं पर आंशिक रूप में अंकुश लगाया जा सकता है।
  4. शिक्षण संस्थाओं में नियुक्त अध्यापकों तथा अन्य कर्मचारियों के वेतनमानों तथा अन्य सुविधाओं में एकरूपता स्थापित करने में सुगमता होती है।
  5. शिक्षा संस्थाओं में प्रबन्धक वर्ग अथवा प्राचार्यों की निरंकुश तथा तानाशाही नीतियों पर प्रतिबन्ध हो जाता है।

बाह्य नियन्त्रण युक्त शिक्षा प्रशासन की हानियाँ (Disadvantages of External Educational Administration)

1. शिक्षा विभाग के कर्मचारी अनैतिक मार्ग का अनुसरण करने लगते हैं। वे अध्यापकों तथा शिक्षा विभाग के बीच में किसी माध्यम (Agent) से रिश्वत भी लेने लगते हैं, जो शिक्षा विभाग के लिए कलंक है।

2. शिक्षक वर्ग में भी कभी-कभी अकर्मण्यता तथा अध्यापन कार्य के प्रति उपेक्षा इसीलिए जागृत होती है, क्योंकि उन्हें प्रबन्धक वर्ग की स्वेच्छाचारिता का भय नहीं रह जाता। उन्हें विश्वास रहता है कि अपनी समस्याओं के लिए शिक्षा विभाग के द्वारों को स्वतन्त्रतापूर्वक खटखटा सकते हैं, परन्तु प्रत्येक स्थिति में अध्यापन कार्य को आदर्श एवं ईमानदारी के साथ किया जाना ही श्रेयस्कर होता है।

3. इस प्रकार के प्रशासन में प्रबन्धक वर्ग अध्यापकों की समस्याओं का निराकरण करने के लिए उपेक्षापूर्ण नीति को अपनाने लगता है तथा सरकारी आदेशों की प्रतीक्षा करने में समय अधिक लगता है।

4. प्रबन्धक वर्ग तथा शिक्षा विभाग में किन्हीं बातों पर मतविभिन्नता हो जाने पर विद्यालयों का आन्तरिक अनुशासन भी ठीक नहीं रह पाता।

5. अध्यापकों को अपने चयन, अनुमोदन, प्रोविडेण्ट फण्ड, पेंशन आदि कार्यों के लिए शिक्षा विभाग पर अवलम्बित रहना पड़ता है। इन कार्यों में अध्यापकों को कभी-कभी तिरस्कृत होना पड़ता है। शिक्षक को समाज का सम्मानित व्यक्ति समझकर ही उसके प्रति आदरपूर्वक व्यवहार किया जाना चाहिए।

वास्तव में, सभी प्रकार के शैक्षिक प्रशासन सम्बन्धी नियमों में कुछ अभाव अवश्य दिखाई देने लगते हैं। इनका निराकरण करने के लिए शिक्षाविदों तथा विभागीय प्रशासकों को सतर्क तथा सजग रहना पड़ता है।

शिक्षा प्रशासन में प्रजातन्त्र का नियम (Principle of Democracy in Educational Administration)

भारत की प्रत्येक विचारधारा को आजकल जनतन्त्रात्मक नियमों में बाँधना उन्नत सभ्यता का सूचक माना जाता है। चाहे कोई भी “अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, समाजशास्त्र, शिक्षा, मनोविज्ञान,” आदि विषय हो या मानव जीवन का कोई भी सामाजिक, राजनीतिक, पारिवारिक तथा धार्मिक आदि क्षेत्र हो, सभी में आज स्वतन्त्रता, विचाराभिव्यक्ति, स्पष्टवादिता आदि को प्राथमिकता देने की बात मुक्तकंठ से कही जाती है। यह प्राथमिकता स्वतन्त्र भारतवर्ष में सर्वथा उचित एवं न्यायसंगत भी है। शताब्दियों की नारकीय परतन्त्रता एवं घोर मानसिक दासता का परित्याग करने के लिए तथा आशंका तथा भयमुक्त जिव्हा को मुखरित करने के लिए ही तो भारतवासियों ने असह्य यातनाओं को सहन किया था। जनतन्त्रात्मक नियम या पद्धति को शैक्षिक प्रशासन का अनिवार्य अंग माना जाता है, जिसके अभाव में प्रशासन की सफलता में सन्देह व्यक्त किया जाता है। सर्वप्रथम जनतन्त्र अथवा “प्रजातन्त्र” के अर्थ को ठीक रूप में समझना आवश्यक है।

जनतन्त्र का वास्तविक अर्थ- इब्राहम लिंकन की परिभाषा प्रसिद्ध है। जनतन्त्र या प्रजातन्त्र अंग्रेजी शब्द ‘डेमोक्रेसी’ का पर्याय है, जिसका अर्थ प्रजासत्तात्मक राज्य होता है। “तन्त्र” शब्द भी किसी “ढाँचे” को बतलाता है। ऐसा तन्त्र जो प्रजा (जनसाधारण) द्वारा निर्मित किया गया हो एवं प्रजा के लिए हो, जनतन्त्र कहलाता है।

“प्रजातन्त्र” शब्द वास्तव में प्रजा की शक्ति का बोधक है। पूर्व समय में एकतन्त्र तथा कुलीनतन्त्र का राज्य भी स्थापित होता था, जिसमें केवल एक ही व्यक्ति या मुट्ठी भर व्यक्ति * सम्पूर्ण राज्य पर शासन करते थे। उन्हें सम्पूर्ण जनता सर्व शक्तिमान तथा मानवोत्तर समझती थी, किन्तु कालान्तर में एकतन्त्र की दोषयुक्त प्रणाली को मानवता पर प्रहार करने वाली समझा जाने लगा। जिस राज्य में शासक के सम्मुख साधारण जनता मुँह न खोल सकती हो, जिस राज्य में विरोध प्रदर्शन करने वालों को परिवार सहित पलभर में नष्ट कर दिया जाता हो, जिस राज्य में जनता के हृदय में सदैव “आशंका, भय, त्रास, प्रपीड़न” की भावना व्याप्त रहती हो, वह राज्य मानव कल्याणकारी कैसे हो सकता है ? ऐसी अकल्याणकारी एवं मानवता विरोधी भावनाओं को धीरे-धीरे अगणित बलिदान देकर समाप्त किया गया और इसके स्थान पर प्रजातन्त्र की नींव गहरी जमती गयी। आज सम्पूर्ण धरती पर प्रजातन्त्र का साम्राज्य दिखाई देता है। प्रजातन्त्र वास्तव में वही है, जहाँ जनता भय मुक्त, आशंका मुक्त एवं बन्धन मुक्त होकर अपने विचारों को प्रकट करने में स्वतन्त्र होती है, जहाँ समाज के अत्यन्त पिछड़े वर्ग को साधारणतम व्यक्ति राष्ट्रपति तक अपनी मार्मिक वेदना को सुनाने तथा न्याय पाने का अधिकारी होता है।

किन्तु इतनी स्वतन्त्रता के होते हुए भी प्रजातन्त्र कभी उच्छृंखलता तथा अनुशासनहीनता का पक्षपाती नहीं होता। स्वेच्छाचारी होकर मनमाने ढंग से अनाचार, अत्याचार तथा भ्रष्टाचार करना प्रजातन्त्र का अर्थ कदापि नहीं है। दुःख की बात है कि स्वतन्त्र भारत में भी कुछ व्यक्तियों द्वारा प्रजातन्त्र का त्रुटिपूर्ण अर्थ समझकर ऐसा अशोभनीय व्यवहार किया जाता है, जो मानवता एवं प्रजातन्त्र के नाम पर कलंक होता है। प्रजातन्त्र का वास्तविक अर्थ वही व्यक्ति समझते हैं, जो शासन के नियमों में बंधकर व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र के प्रति उचित उत्तरदायित्व को निभाते हैं। सच्चा प्रजातन्त्र पारस्परिक सद्भाव, सहयोग, परोपकार, कर्त्तव्य परायणता, देश के प्रति पूर्ण आस्था, सतत् मानव कल्याणकारी प्रवृत्ति का परिचायक होता है। अतएव स्वतन्त्र देश में प्रजातन्त्र का वास्तविक मूल्यांकन करना अत्यन्त आवश्यक है।

शिक्षा प्रशासन में जनतन्त्रात्मकता की आवश्यकता (Need of Democracy in Educational Administration)

प्रजातन्त्र में विद्यालयों को समाज का लघुरूप समझा जाता है। विद्यालयों में ही देश के भावी नागरिकों का निर्माण किया जाता है। विद्यालयों में जिस प्रकार की शिक्षा का स्वरूप होता है, उसका सीधा प्रभाव छात्रों के व्यक्तित्व पर अवश्य पड़ता है। प्रजातन्त्र राज्य में छात्रों एवं देश के युवकों के दृष्टिकोण में प्रजासत्तात्मक भावना का उदय होना परम आवश्यक है। जहाँ तक शैक्षिक प्रशासन का सम्बन्ध है, वह विद्यालयों का प्रबन्ध तो करता ही है, परन्तु उसका अन्तिम उद्देश्य छात्रों को सुशिक्षित करना एवं श्रेष्ठ बनाना है। अतएव शैक्षिक प्रशासन में जनतन्त्रात्मकता को लाना भी परम आवश्यक होता है। विद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों तथा विभिन्न प्रकार के कार्यों को करने वाले कर्मचारियों के स्वभाव, दृष्टिकोण तथा चरित्र को जनतन्त्रात्मक ढंग से ही ऊंचा किया जा सकता है। यदि किसी विद्यालय का शैक्षिक प्रशासन जनतन्त्रात्मक नींव पर आधारित होता है तो उसमें शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र भी श्रेष्ठ नागरिकता के गुणों से भरपूर होते हैं। सारांश में कहा जा सकता है कि व्यक्तिगत, सामाजिक एवं राष्ट्रीय उन्नति के लिए शैक्षिक प्रशासन में जनतन्त्रात्मकता की आवश्यकता होती है। शैक्षिक प्रशासन ऐसा होना चाहिए कि सभी कर्मचारी उस उद्देश्य की पूर्ति में उत्साहपूर्वक सहयोग देने की इच्छा प्रकट करें, जिस उद्देश्य के लिए विद्यालय को स्थापित किया गया है। इसमें सन्देह व्यक्त नहीं किया जा सकता कि शैक्षिक प्रशासन का जनतन्त्रात्मक स्वरूप राष्ट्रीय शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक होता है। सर्वविदित है कि प्रत्येक देश अपनी राष्ट्रीय प्रणाली को वास्तविक रूप देने के लिए उसी के अनुरूप शैक्षिक प्रशासन के ढाँचे को तैयार करता है। आज • सर्वत्र जनतन्त्र की महत्ता को स्वीकार किया जाता है। इसीलिए शैक्षिक प्रशासन में भी जनतन्त्रात्मक भावना का आदर किया जाता है।

वर्तमान युग में शिक्षा के क्षेत्र में किसी एक ही व्यक्ति का सर्वाधिकार अच्छा नहीं समझा जाता। इसके विपरीत शिक्षा के क्षेत्र में सहयोग, सहानुभूति एवं सर्वसम्मति को ही आदर की दृष्टि से देखा जाता है। विद्यालयों में व्याप्त सैन्यीकरण (Regimentation), हठवादिता तथा एकाधिपत्य के स्थान पर आज स्वतन्त्रता, लचीलेपन (Flexibility) एवं समायोजन की नितान्त आवश्यकता है तथा यह श्रेष्ठ परिवर्तन जनतन्त्रात्मक शैक्षिक प्रशासन का परिणाम ही हो सकता है। यह प्रसन्नता की बात है कि शैक्षिक प्रशासन में यह भावना शीघ्रतापूर्वक आ रही है। प्रजातन्त्र देश में विद्यालयों को ऐसा स्थान समझा जाता है, जहाँ जनतन्त्रात्मक सिद्धान्तों का पालन किया जा सकता है, जहाँ देश के भावी नागरिकों को सेवा एवं राष्ट्रीयता की भावना के लिए तैयार किया जा सकता है। विद्यालय ही सामाजिक परिवर्तन के साधन होते हैं तथा शिक्षा के उद्देश्यों तथा शैक्षिक प्रशासन में भी घनिष्ठ सम्बन्ध हुआ करता है। देश में जिन सामाजिक, राजनैतिक तथा नैतिक उद्देश्यों को देश की उन्नति के लिए निर्धारित किया जाता है, उन्हें विद्यालयों के माध्यम से ही साकार रूप दिया जा सकता है। इसीलिए शैक्षिक प्रशासन में जनतन्त्र की भावना को मुख्य रूप से स्थान दिया जाना चाहिए।

शैक्षिक प्रशासन की सफलता के लिए कुछ प्रमुख तत्वों की आवश्यकता होती है। यथा–वैज्ञानिक एवं क्रमबद्धता पूर्ण योजना, उद्देश्यों का सही निर्धारण, योजना का मूल्यांकन, धन-राशि का उपयुक्त व्यय, परिवर्तन हेतु लचीलापन आदि, किन्तु इन सभी तत्वों में जनतन्त्रात्मक प्रशासन का नियम सर्वोपरि होता है, जिसके अभाव में अन्य सभी तत्वों का अस्तित्व व्यर्थ सिद्ध होता है। इस सम्बन्ध में हुमायूँ कबीर के अनुसार-

“यदि अपने देश में प्रजातन्त्र की नींव को गहरा करना है, और देश के बालकों को प्रजातन्त्रात्मक प्रणाली के लिए अभ्यस्त करना है तो जनतन्त्रात्मक प्रणाली को ठीक प्रकार समझना होगा। इसके विपरीत छात्रों को विद्यालय में यदि तानाशाही – युक्त वातावरण में जीना पड़ता है तो देश के बालक प्रजातन्त्र के लिए कदापि तैयार नहीं हो सकते।”

जनतन्त्रात्मक शिक्षा प्रशासन के लाभ (Advantages of Democratic Educational Administration)

  1. इस प्रकार के प्रशासन में मनोनुकूल वातावरण होने के कारण सभी कर्मचारी विद्यालय की उन्नति में उत्साहपूर्वक सहयोग देते हैं।
  2. विद्यालयों में पढ़ाने वाले अध्यापक तथा अन्य कर्मचारी प्रशासन में स्वेच्छापूर्वक हाथ बँटाते हैं और अपनेपन की भावना में वृद्धि करते हैं।
  3. इस प्रकार के प्रशासन में विद्यालय के प्रधानाचार्य जनता के सहयोग एवं सहानुभूति को अधिक प्राप्त कर सकते हैं।
  4. विद्यालयों का जनतन्त्रीय शैक्षिक प्रशासन शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति में पूर्ण रूप में सहायक हो सकता है।
  5. जनतन्त्रात्मक शैक्षिक प्रशासन के अन्तर्गत छात्रों, अध्यापकों तथा संरक्षकों की प्रतिभा सम्पन्नता के विकास हेतु पर्याप्त अवसर प्रदान किया जा सकता है।
  6. सम्पूर्ण विद्यालय समुदाय के नैतिक स्तर को यथा-सम्भव उन्नत किया जा सकता है।
  7. जनतन्त्रात्मक शैक्षिक प्रशासन के द्वारा प्रशासन में लगे हुए कर्मचारियों के पारस्परिक व्यवहारों में मित्रता एवं सद्व्यवहार की वृद्धि होती है तथा पारस्परिक विश्वास भावना की वृद्धि होने के कारण विद्यालय की निरन्तर उन्नति होती है।
  8. विद्यालयों का जनतन्त्रात्मक प्रशासन के छात्रों तथा अध्यापकों के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास किया जा सकता है।

वास्तव में, जनतन्त्रात्मक शैक्षिक प्रशासन का नियम सभी नियमों में सर्वश्रेष्ठ नियम है। इस प्रकार के प्रशासन में (Disadvantages) की सम्भावना नहीं की जा सकती। इतना अवश्य है कि जो व्यक्ति प्रजातन्त्र का अर्थ ठीक हानियों प्रकार नहीं समझते वे इस प्रकार के प्रशासन में भी उचित व्यवहार नहीं करते। जनतन्त्रात्मक शैक्षिक प्रशासन के लिए वास्तव में में प्रशासकों का व्यक्तित्व आदर्श तथा गुण सम्पन्न होना चाहिए। विद्यालयों के प्रधानाचार्य, निरीक्षक एवं अन्य प्रशासक वही व्यक्ति होने चाहिएँ जो जनतन्त्र का ठीक मूल्यांकन करते हों। इस प्रकार की प्रणाली में भरपूर आस्था रखते हों। बहुधा देखा जाता है कि विद्यालयों के प्रधानाचार्यों की अनुचित नीति, अनावश्यक हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति एवं बात-बात में अध्यापकों का छिद्रान्वेषण (Fault-Finding) करने की प्रकृति विद्यालय के सम्पूर्ण वातावरण को विषाक्त और आशंकापूर्ण बना देती है। यदि कोई प्रशासक कर्मचारियों की प्रशंसा करने के स्थान पर भर्त्सना ही करने का अभ्यस्त है, कर्मचारियों के हितों पर कुठाराघात करता है और हृदय से उनका आदर नहीं करता तो ऐसा प्रशासक सदैव निन्दा का ही पात्र होता है। इस प्रकार के प्रशासन को एकाधिकारिक प्रशासन (Autocratic Administration) कहा जाता है, जो जनतन्त्रात्मक प्रशासन के ठीक विपरीत होता है। जनतन्त्रात्मक प्रशासन के महत्व को और भी अधिक समझने के लिए एकाधिकार प्रशासन • के विषय में भी कुछ प्रकाश डालना आवश्यक प्रतीत होता है।

एकाधिकार शैक्षिक प्रशासन – इस प्रकार के प्रशासन को ‘Autocratic’ के अतिरिक्त ‘Authoritarian’ एवं ‘Monarchical’ भी कहते हैं। ऐसे शैक्षिक प्रशासन में सम्पूर्ण संगठन पर केवल एक ही व्यक्ति का स्वामित्व होता है। यह व्यक्ति इतना निरंकुश, भयावह एवं स्वेच्छाचारी समझा जाता है, जिसके सम्मुख अन्य आश्रित व्यक्ति बोल तक नहीं सकते। एकाधिकारिक प्रशासन में कर्मचारियों की इच्छा का कोई स्थान ही नहीं होता। विद्यालयों में भी अध्यापकों का मूल्यांकन गुणसम्पन्नता के आधार पर न होकर एकाधिकारपूर्ण व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर होता है। इस प्रकार के पक्षपातपूर्ण एवं अनीतिपूर्ण वातावरण में अध्यापकों को व्यक्तित्व के विकास का अवसर नहीं मिलता। ऐसे शैक्षिक प्रशासन में छात्रों का व्यक्तित्व भी अवनति की ओर अग्रसर होता है। विद्यालयों के वातावरण में अन्धभक्ति, चापलूसी, मिथ्या-प्रशंसा एवं स्वार्थपरता जैसी विनाशकारी प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिलता है, जिनके कारण कर्मचारियों में कायरता, आशंका तथा भय की भावना व्याप्त हो जाती है। इस प्रकार का कुप्रशासन मानवता का हनन करता है तथा व्यक्तियों के मूल अधिकारों पर प्रहार करता है।

प्रजातांत्रिक तथा एकाधिकारिक शैक्षिक प्रशासन में अन्तर (The Difference. Between Democratic and Autocratic Educational Administration)

जनतन्त्रात्मक (Democratic) एकाधिकारिक (Autocratic)
1. प्रशासक द्वारा समस्याओं का निदान अन्य व्यक्तियों की सहायता से किया जाता है। 1. प्रशासक द्वारा सुझाव नहीं माँगा जाता, अपितु अन्य व्यक्तियों को केवल आदेश ही दिया जाता है।
2. प्रशासक अपने कर्मचारियों के व्यक्तित्व का आदर करता है। 2. प्रशासक छात्रों तथा संरक्षकों के सम्मुख कर्मचारियों का तिरस्कार भी कर देता है।
3. प्रशासक द्वारा समुदाय के मानवीय तथा मौलिक स्रोतों का उपयोग करने के लिए उत्साहवर्धन किया जाता है 3. प्रशासक समुदाय के व्यक्तियों अथवा नेताओं को सहयोग के लिए कभी उत्साहित ही नहीं करता।
4. संगठन की समस्त सभाओं तथा कार्यों को सभी व्यक्तियों के द्वारा नियोजित किया जाता है। 4. सम्पूर्ण संगठन के कार्यों तथा प्रशासन को केवल प्रशासक द्वारा ही नियोजित किया जाता है
5. सम्पूर्ण प्रशासन में प्रशासक का व्यक्तित्व परामर्शदाता के रूप में समाया रहता है। 5. प्रशासन में सर्वत्र प्रशासक की दमन नीति का ही बोल-बाला रहता है।
6. त्रुटिपूर्ण कार्य होने पर प्रशासक द्वारा कारणों की खोज की जाती है। 6. त्रुटिपूर्ण कार्यों के लिए प्रशासक कर्मचारियों को ही दोषी ठहराता है।
7. प्रशासक सदैव नेता के रूप में कार्य करने वाला होता है। 7. प्रशासक सदैव भय एवं आशंका को ही उत्पन्न करने वाला होता है।
8. प्रशासक का आदर्शपूर्ण चरित्र एवं व्यवहार कर्मचारियों के लिए उदाहरण रूप में स्थिर होता है। 8. प्रशासक प्रत्येक कार्य को भयावह तथा क्लिष्ट बना देता है।
9. प्रशासन सभी कर्मचारियों की सम्मति से किया जाता है। 9. प्रशासन केवल एक ही व्यक्ति के आदेशानुसार किया है।
10. विभिन्न कार्यों के लिए समितियों का निर्वाचन किया जाता है। 10. सभी कार्यों के लिए प्रशासक द्वारा व्यक्तियों का मनोनीत किया जाता है।
11. प्रशासक प्रत्येक कार्य को खेल तथा आनन्द के रूप में कराने की इच्छा प्रकट करता है। 11. प्रशासन के प्रत्येक कार्य में स्वामित्व (Bossism) की गन्ध होती है।
10. विभिन्न कार्यों के लिए समितियों का निर्वाचन किया जाता है 12. प्रशासक प्रत्येक कार्य की सफलता का श्रेय स्वयं अपने व्यक्तित्व को ही देता है।
13. इस प्रकार के प्रशासन में अध्यापकों की शैक्षिक उन्नति के लिए क्रियात्मक योजनाओं का निर्माण किया जाता है। 13. इस प्रकार के प्रशासन में अध्यापकों को उन्नत करने की कोई योजना नहीं बनायी जाती, अपितु सम्पूर्ण कार्य उन्हीं पर छोड़ दिया जाता है।
14. प्रशासक उत्तम प्रशासन के लिए लचीली नीतियों तथा परिवर्तन में विश्वास रखता है।  14. प्रशासक परिवर्तन नहीं चाहता, उसका विश्वास स्थायी एवं परम्परागत कार्य संचालन में ही होता है।
15. प्रशासक सदैव अपने दृष्टिकोण को सहानुभूतिपूर्ण तथा सुझावात्मक रखता है। 15. प्रशासक कठोर तथा कटु वाणी में आदेश देता है।
16. प्रशासक सदैव सरल तथा सहिष्णु होता है 16. प्रशासक के स्वभाव एवम् चरित्र के मूल्यांकन का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।

जनतन्त्रात्मक एवं एकाधिकारिक दोनों प्रकार के शैक्षिक प्रशासनों के पारस्परिक अन्तर को स्पष्ट करने के पश्चात् यह माननीय है कि विद्यालयों में छात्रों एवं अध्यापकों के व्यक्तित्व का उचित विकास जनतन्त्रात्मक शैक्षिक प्रशासन के अन्तर्गत ही हो सकता है। स्वतन्त्र देश में जनतन्त्रात्मक प्रशासन के लिए कठिन परिश्रम की आवश्यकता है। जिस प्रकार जनतन्त्र के लिए कुछ मौलिक तत्वों की आवश्यकता होती है, ठीक उसी प्रकार जनतन्त्रात्मक प्रशासन की स्थापना के लिए कुछ आवश्यक नियमों की आवश्यकता होती है।\

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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