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विशिष्ट बालक का अर्थ | सामान्य और विशिष्ट बालकों में अन्तर | विशिष्ट बालकों के प्रकार

विशिष्ट बालक का अर्थ | सामान्य और विशिष्ट बालकों में अन्तर | विशिष्ट बालकों के प्रकार
विशिष्ट बालक का अर्थ | सामान्य और विशिष्ट बालकों में अन्तर | विशिष्ट बालकों के प्रकार

विशिष्ट बालक का अर्थ स्पष्ट करते हुए सामान्य एवं विशिष्ट बालकों के मध्य अन्तर को स्पष्ट कीजिए। 

विशिष्ट बालक का अर्थ (Meaning of Exceptional Children)

कक्षा में अधिकतर बालक-बालिकाएँ सामान्य अथवा औसत श्रेणी के होते हैं और उनकी समस्याएँ भी प्रायः एकसमान होती हैं, परन्तु कक्षा में कुछ बालक इस प्रकार के भी होते हैं जो किसी बात को सामान्य बालकों की अपेक्षा आसानी से समझ जाते हैं और कुछ साधारण और सरल बात को समझने में देर लगाते हैं अथवा कठिनाई से समझते हैं। कुछ पिछड़े हुए होते हैं और कुछ सृजनशील। इन बालकों की ज्ञानोपार्जन सम्बन्धी मानसिक, संवेगात्मक, सामाजिक, व्यक्तिगत और शारीरिक समस्याएँ भिन्न प्रकार की होती हैं। साधारण बालकों की तुलना में उनके सामान्य शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक विकास में अन्तर होता है। इन बालकों को विशिष्ट अथवा असाधण बालक कहा जाता है। ए. एडवर्ड और ब्लैकहर्ट का विचार है- “विशिष्ट बालक वे बालक हैं जिनकी शारीरिक, मानसिक, व्यावहारिक अथवा संवेगात्मक विशेषताएँ अधिकांश बालकों से इस रूप में भिन्न होती हैं जिनसे उन्हें अपनी अधिगम क्षमता के अनुसार विकास हेतु विशेष शिक्षा और सम्बन्धित सेवाओं की आवश्यकता होती है।” जे. ए. वालेंस वालेन का विचार है “दो श्रेणी के बालकों को विशिष्ट बालकों की कोटि में रखा जाता है। एक ऐसे बालक जो शारीरिक और मानसिक दृष्टि से सामान्य बालकों की तुलना में पिछड़े हुए हैं, और दूसरे वे जो सामान्य बालकों की तुलना में उच्च बौद्धिक स्तर वाले हों।”

क्रो एवं क्रो ने विशिष्ट बालक के अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखा है- “विशिष्ट प्रकार अथवा विशिष्ट शब्द ऐसे गुणों अथवा उस गुण को रखने वाले व्यक्ति पर लागू किया जाता है जिसके कारण व्यक्ति अपने साथियों का विशेष ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है।”

सामान्य और विशिष्ट बालकों में अन्तर (Difference between Simple and Exceptional Children)

सामान्य और विशिष्ट बालकों के मध्य कोई विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती। मनोवैज्ञानिकों ने परीक्षणों के आधार पर इनमें भेद किए हैं, परन्तु ये भेद भी पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हैं। सामान्य रूप से दोनों के मध्य जो अन्तर है उसका उल्लेख यहाँ किया जा रहा है-

(1) सामान्य बालक औसत शारीरिक गठन वाले एवं स्वस्थ होते हैं जबकि विशिष्ट बालकों का शारीरिक गठन तो सामान्य बालक जैसा होता है किन्तु स्वस्थ नहीं।

(2) किसी भी प्रकार के शारीरिक श्रम से सामान्य बालक पीछे नहीं हटते और उसे समझदारी के साथ पूरा करते हैं। विशिष्ट बालक शारीरिक श्रम के कार्यों में कठिनाई का अनुभव करते हैं और कार्य को पूरा न कर अधिकतर उसे बीच में ही छोड़ देते हैं।

(3) सामान्य बालकों की बुद्धि-लब्धि 90 से 100 के बीच होती है, जबकि विशिष्ट बालकों की बुद्धि-लब्धि एक जैसी नहीं होती। सामान्य मानसिक रूप से पिछड़े बालक की बुद्धि-लब्धि 55 से 69, मध्य श्रेणी के मानसिक पिछड़े बालक की बुद्धि-लब्धि 40 से 45 और अधिक मानसिक रूप से पिछड़े हुए बालकों की बुद्धि-लब्धि 25 से 39 के मध्य होती है। जो बालक गम्भीर रूप से पिछड़े होते हैं उनकी बुद्धि-लब्धि 25 से भी कम होती है और वे अपनी दैनिक दिनचर्या हेतु भी दूसरों पर निर्भर रहते हैं।

(4) सामान्य बालकों की शैक्षिक-लब्धि औसत अथवा उससे अधिक होती है जबकि विशिष्ट बालकों की शैक्षिक-लब्धि औसत से कम अथवा औसत से बहुत अधिक होती है।

(5) सामान्य बुद्धि के बालक अधिकतर गृहकार्य को नियमित रूप से पूरा कर लेते हैं किन्तु अपवादी बालक उसके प्रति उदासीन रहते हैं।

(6) सामान्य बालकों का व्यवहार सामाजिक नियमों एवं प्रतिमानों के अनुरूप होता है। किन्तु अपवादी बालकों का व्यवहार समाज के विपरीत एवं विचित्रताओं से भरा होता है।

(7) सामान्य बालकों की अभिरुचि सामाजिक कार्यों में होती है और वे अपने सामाजिक उत्तरदायित्व का समुचित रूप से पालन करते हैं। अपवादी बालक सामाजिक कार्यों में अपेक्षित सहयोग प्रदान नहीं करते और अपने सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वाह भलीभाँति नहीं कर पाते।

(8) सामान्य बालकों को अपने परिवार, समाज एवं विद्यालयी जीवन के साथ समायोजन करने में कोई कठिनाई नहीं होती किन्तु अपवादी बालकों के सम्मुख सभी स्तरों पर समायोजन की समस्या बनी रहती है।

(9) सामान्य बालक प्रायः संवेगात्मक दृष्टि से सन्तुलित एवं संयत होते हैं, जबकि अपवादी बालकों में संवेगात्मक अस्थिरता होती है। या तो वे अत्यन्त संवेदनशील होते हैं अथवा संवेदनरहित, या तो वे अधिक चिन्तित और निराश होते हैं अथवा बहुत अधिक उत्साही।

विशिष्ट बालकों के प्रकार (Kinds of Exceptional Children)

शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक और सामाजिक विकास में विभिन्नता के आधार पर विशिष्ट बालकों को निम्न प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है-

(1) प्रतिभाशाली बालक (Gifted Children)

प्रतिभाशाली बालक विशिष्ट बालक होते हैं। इनकी बौद्धिक क्षमता सर्वोच्च श्रेणी की होती है और बुद्धि-लब्धि सामान्य बालकों से कहीं अधिक होती है। ये ज्ञान ग्रहण करने में श्रेष्ठ होते हैं और परीक्षाओं में अधिक अंक लाकर सभी को चकित कर देते हैं। इनकी कल्पनाशक्ति, स्मरण शक्ति, तर्क-शक्ति और सूझ-शक्ति बहुत अधिक होती है और इनका ध्यान विस्तार भी अधिक होता है तथा वे अपने ध्यान को देर तक केन्द्रित रख सकते हैं। सामान्य बालकों की बुद्धि-लब्धि 100 होती है, ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठता है कि प्रतिभाशाली बालकों की बुद्धि-लब्धि कितनी अधिक होनी चाहिए। विभिन्न मनोवैज्ञानिकों का विचार है कि 120 से अधिक बुद्धि-लब्धि रखने वाले बालक प्रतिभाशाली होते हैं। कुछ बालकों की बुद्धि-लब्धि 180 से 190 तक होती है। इस तरह के बालक समाज में प्रत्येक क्षेत्र में पाये जाते हैं। बालकों की तरह बालिकाएँ भी प्रतिभाशाली होती हैं। इस तरह के बालकों की संख्या विद्यालय में 10 से 15 प्रतिशत से अधिक नहीं होती। विभिन्न विद्वानों ने प्रतिभाशाली बालक की परिभाषा विभिन्न प्रकार से दी है।

टरमैन और ओडेन का विचार है कि प्रतिभाशाली बालक शारीरिक गठन, सामाजिक समायोजन, व्यक्तित्व के लक्षणों, शैक्षिक निष्पत्ति, खेल, सूचनाओं और रुचियों की विविधता आदि में सामान्य बालकों से श्रेष्ठ होते हैं। टरमैन लिखता है-“प्रतिभाशाली बालक शारीरिक विकास, शैक्षणिक उपलब्धि और बुद्धि एवं व्यक्तित्व में श्रेष्ठ होते हैं।”

(2) पिछड़े बालक (Backward Children)

पिछड़े हुए बालक-बालिकाएँ वे होते हैं जो किसी तथ्य को बार-बार समझाने पर भी नहीं समझ पाते अथवा औसत बालकों की भाँति कार्य नहीं कर पाते। सिरिलबर्ट ने पिछड़े बालक की परिभाषा देते हुए लिखा है-“एक पिछड़ा बालक वह है जो अपने विद्यालय जीवन के मध्यकाल (लगभग साढ़े दस वर्ष की आयु) में अपनी कक्षा से नीचे की कक्षा का कार्य नहीं कर सकता जो कि उसकी आयु के लिए सामान्य कार्य है।”

शॉनेल का मत है-“पिछड़ा छात्र वह है जो अपने आयु के अन्य बालकों की अपेक्षा उल्लेखनीय शैक्षिक न्यूनता प्रदर्शित करता है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि पिछड़ा बालक अपनी आयु के सामान्य बालकों से पढ़ने-लिखने में पीछे रहता है। बुद्धि-लब्धि के आधार पर सामान्य बुद्धि-लब्धि अर्थात् 70 बुद्धि-लब्धि के बालकों को पिछड़ा हुआ कहा जाता है। बहुत से मनोवैज्ञानिक 65 से कम बुद्धि-लब्धि बाले बालकों को पिछड़ा हुआ मानते हैं।

(3) मन्द-बुद्धि बालक (Mentally Retarded Children)

मानस-मन्द या मन्दबुद्धि बालक वे हैं जिनकी सूझ ग्राह्यता, तर्कशक्ति और अवधान केन्द्रित करने की क्षमता सामान्य बालकों से कम होती है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि जब बालक की शारीरिक आयु बढ़ती है किन्तु उसका बौद्धिक विकास नहीं होता तो वे छोटी आयु के बालकों के समान ही व्यवहार करते हैं। वे बालक मन्दितमना बालक कहे जाते हैं। मानस-मन्दता का तात्पर्य क्षतिग्रस्त (Impaired) अथवा अपूर्ण मानसिक विकास है। मन्दितमना बालक अपनी बुद्धि का पूर्ण उपयोग नहीं कर सकता और उसके ज्ञान प्राप्त करने की गति बहुत धीमी होती है। मन्दबुद्धि बालक केवल शिक्षा प्राप्त करने में ही मन्द नहीं होते, वे जीवन के प्रत्येक स्तर पर औसत बालकों से कम बुद्धि-लब्धांक प्राप्त करते हैं। वे अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह भली-भाँति नहीं करते और कभी-कभी अपनी सहायता हेतु दूसरों पर निर्भर करते हैं। मन्दितमना बालक की सुनिश्चित परिभाषा नहीं की जा सकती, परन्तु फिर भी कुछ विद्वानों ने इसे परिभाषित करने का प्रयास किया है।

ट्रेडगोल्ड लिखता है—“मानसिक विकास की वह सीमित अवस्था मानस-मन्दता है जिसके फलस्वरूप परिपक्व होने पर भी व्यक्ति अपने परिवेश से समायोजित होने अथवा समूह की माँगों को पूरा करने में असमर्थ होता है तथा अस्तित्व का निर्वाह किसी बाह्य सहायता अथवा मार्गदर्शन के बिना नहीं कर पाता।”

हालिंगवर्थ का मत है-“वह व्यक्ति मानस-मन्द कहा जाता है जिसकी मौलिक बुद्धि लब्धि 70 अथवा उससे कम हो तथा जो बौद्धिक दृष्टि से कम-से-कम बुद्धि वाले व्यक्तियों के अन्तर्गत हो ।”

(4) विकलांग बालक (Physically Handicapped Children)

ऐसे बालक अथवा बालिकाएँ जो किसी रोग अथवा दुर्घटना के फलस्वरूप दुर्घटनाग्रस्त हो गये हैं, अपंग बालकों की श्रेणी में आते हैं। कुछ लोग जन्मान्ध होते हैं तो कुछ अपनी आँखों की रोशनी खो देते हैं, कुछ के हाथ नहीं होते, कुछ के पैर नहीं होते और कुछ मानसिक रूप से बाधित होते हैं। इन विकलांगों की विभिन्न श्रेणियाँ होती हैं। विभिन्न विद्वानों ने उन व्यक्तियों को बाधित अथवा विकलांग बताया है जो शारीरिक दोष अथवा अंगविहीन होने के कारण सामान्य व्यक्तियों की भाँति साधारण कार्यों में भाग लेने में असमर्थ होते हैं। विभिन्न विद्वानों ने विकलांग बालकों को विभिन्न प्रकार से परिभाषित किया है।

क्रो एवं क्रो का विचार है- “एक ऐसा बालक जिसमें शारीरिक दोष होते हैं, जो किसी भी रूप में उसे साधारण कार्यों में भाग लेने से रोकते हैं अथवा सीमित रखते हैं, उन्हें विकलांग बालक कहा जाता है।”

विपिनबिहारी बाजपेयी का मत है- “मानसिक, सामाजिक अथवा मनोवैज्ञानिक किसी भी क्षेत्र में हुई विकलांगता जब सीखने-सिखाने की समस्या उत्पन्न कर देती है तो वे विकलांग कहलाते हैं। उनके हेतु विशेष पाठ्यक्रम का आयोजन करना होता है।”

(5) समस्यात्मक बालक (Problematic Children)

विद्यालय में आने वाले बालकों में कुछ ऐसे होते हैं जिनका व्यवहार समस्या उत्पन्न कर देता है। जिन बालकों का व्यवहार सामान्य नहीं होता वे समस्यात्मक बालक कहलाते हैं। ये बालक शिक्षकों के लिये नियमित समस्या बने रहते हैं। वैलेण्टाइन ने लिखा है “समस्यात्मक बालक वे होते हैं जिनका व्यवहार अपवा व्यक्तित्व किसी बात में गम्भीर रूप से असाधारण होता है।”

इस तरह के बालकों की विशेषताओं को गिना पाना कठिन है। डॉ. कॉमिन्स, प्रो. रिचर्ड और हेण्डरसन आदि ने इनकी विशेषताओं का उल्लेख किया है। श्रीमती डॉ. किविंग्स के अनुसार इस तरह के बालकों में ये विशेषताएँ होती हैं-

  1. ध्यान केन्द्रित न होना,
  2. डरपोक,
  3. आज्ञा का उल्लंघन,
  4. झूठ बोलना,
  5. कम बोलना,
  6. चोरी करना,
  7. आलसी स्वभाव,
  8. निर्दयी स्वभाव,
  9. दूसरों का मजाक उड़ाना,
  10. हठवादी,
  11. बेचैन और परेशान होना,
  12. मार-पीट करना।

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Anjali Yadav

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