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वैदिक कालीन शिक्षा का अर्थ | वैदिककालीन शिक्षा के उद्देश्य तथा आदर्श | वैदिककालीन शिक्षा की विशेषताएँ एवं सिद्धान्त

वैदिक कालीन शिक्षा का अर्थ | वैदिककालीन शिक्षा के उद्देश्य तथा आदर्श | वैदिककालीन शिक्षा की विशेषताएँ एवं सिद्धान्त
वैदिक कालीन शिक्षा का अर्थ | वैदिककालीन शिक्षा के उद्देश्य तथा आदर्श | वैदिककालीन शिक्षा की विशेषताएँ एवं सिद्धान्त

वैदिक कालीन शिक्षा की अवधारणा स्पष्ट कीजिए। इसके उद्देश्यों एवं विशेषताओं की विवेचना कीजिए।

वैदिक कालीन शिक्षा का अर्थ (Meaning of Vedic Education)

(1) वैदिक कालीन शिक्षा का व्यापक अर्थ (Wider Meaning) – इसका अर्थ जीवनपर्यन्त चलने वाली शिक्षा से था। शिक्षा को एक ऐसा साधन समझा जाता था जो कि मनुष्य को सभ्य बनाती है तथा उसका जीवन उन्नत करती है। इस तरह मनुष्य जीवन भर विद्यार्थी ही रहता था। वैदिक साहित्य में एक स्थान पर कहा भी गया है कि ‘यावज्जीवा मद्यीने विप्रः।

(2) शिक्षा का संकुचित अर्थ (Narrower Meaning of Education) – इसका अर्थ उस शिक्षा से था जो औपचारिक (formal) होती थी। बालक अपने जीवन के कुछ वर्षों तक गुरुकुल में रहकर ब्रह्मचर्य जीवन व्यतीत करता था और वहाँ गुरु से ज्ञान प्राप्त करता था। गुरु के यहाँ प्राप्त यह शिक्षा व्यक्ति के जीवन का सर्वांगीण विकास करती थी तथा जीवन में उसको जीविकोपार्जन करने के योग्य भी बनाती थी।

वैदिककालीन शिक्षा के उद्देश्य तथा आदर्श (Ideals & Aims of Vedic Period Education)

वैदिककाल में शिक्षा के आदर्शों पर प्रकाश डालते हुये डॉ० ए० एस० अल्तेकर ने लिखा है कि “ईश्वर भक्ति एवं धार्मिकता की भावना, चरित्र निर्माण, व्यक्तित्व का विकास, नागरिक एवं सामाजिक कर्त्तव्यों का पालन, सामाजिक कुशलता की उन्नति एवं राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण और प्रसार प्राचीन भारत में शिक्षा के मुख्य आदर्श तथा उद्देश्य समझे जाते थे।”

वैदिक काल की शिक्षा में मुख्य उद्देश्यों का उल्लेख निम्नलिखित है-

(1) ईश्वर भक्ति एवं धार्मिकता (Infusion of Spirit of Piety and Religiousness) – वैदिक काल में धर्म को बड़े आदर की दृष्टि से देखा जाता था। ऋषि, महर्षि, पुरोहित आदि लोग शिक्षा का निर्धारण तथा शिक्षा देने का कार्य करते थे। अतएव इस काल की शिक्षा का मुख्य उद्देश्य ईश्वर भक्ति तथा धर्म के नियमों का कठोरता के साथ पालन करना था। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए विभिन्न संस्कारों की व्यवस्था थी। बालक को नियमपूर्वक दैनिक कार्य करने होते थे। वह विभिन्न धार्मिक कार्यों में सम्मिलित होता था और संध्या-पूजन विधिवत् करता था। इस प्रकार गुरुकुल का सारा वातावरण धार्मिक भावना से भरा-पूरा था।

(2) चरित्र निर्माण (Formation of Character)- वैदिक कालीन शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य था बालक का चरित्र निर्माण करना। उस समय एक विद्वान से एक चरित्रवान व्यक्ति उत्तम समझा जाता था। मनुस्मृति में ऐसा कहा गया है कि “उन वेदों के विद्वानों से जिनका जीवन पवित्र नहीं है, वह व्यक्ति कहीं अच्छा है जो सच्चरित्र है परन्तु वेदों का कम ज्ञान रखता है।” गुरुकुल की शिक्षा में चरित्र निर्माण पर अत्यधिक बल दिया जाता था। इस कार्य के लिए ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना, पाठ्य पुस्तकों में सदाचार के उपदेशों का समावेश आचार्यों के द्वारा सदाचार के उपदेशों को सुनने, राष्ट्र के महान् पुरुषों के आदर्शों की विद्यार्थियों के सामने पुनरावृत्ति की जाती थी तथा छात्रों के चरित्र का निर्माण करने के लिए उपयुक्त वातावरण सृजन किया जाता था। इस सम्बन्ध में डॉ० वेदमित्रा का कहना है- “विद्यार्थियों के चरित्र का निर्माण करना, शिक्षा का एक आवश्यक उद्देश्य माना जाता था।”

(3) व्यक्तित्व का विकास करना (Personality Development) – वैदिक काल की शिक्षा में बालक के व्यक्तित्व निर्माण पर विशेष बल दिया जाता था। व्यक्तित्व में आत्मसम्मान, आत्मविश्वास, आत्मसंयम, न्याय, विवेक, कुशल वक्ता होना, वाद-विवाद करने की योग्यता होना, आदर्श चरित्रवान होना आदि गुण आवश्यक समझे जाते थे। इस कार्य के लिए व्यक्ति में आत्मसम्मान, आत्मविश्वास, आत्मसंयम, न्याय आदि गुणों का विकास बालकों में किया जाता था तथा समय-समय पर गोष्ठियाँ की जाती थीं और उनमें भाषण देने का अवसर दिया जाता था। ये सब जो गुण बालकों में लाये जाते थे इनका केवल सैद्धान्तिक पक्ष ही महत्त्वपूर्ण नहीं था बल्कि क्रियात्मक पक्ष को भी महत्त्व दिया जाता था।

(4) नागरिक तथा सामाजिक कर्त्तव्यों का पालन करने योग्य बनाना (Inculcation of Civic and Social Duties) – वैदिक कालीन शिक्षा का एक उद्देश्य बालकों को नागरिक तथा सामाजिक कर्त्तव्यों का पालन करने योग्य बनाना भी था। इसके लिए बच्चों की भावना स्वार्थरहित होकर दूसरों के लाभों को ध्यान में रखकर शिक्षा देना था। बालकों को इस बात का बोध कराया जाता था कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसे समाज में ही रहकर अपना जीवन व्यतीत करना होता है। व्यक्ति को अपने समाज तथा घर, परिवार और समाज के प्रति क्या उत्तरदायित्व होते हैं आदि बातों का ज्ञान कराया जाता था। गुरुकुल की शिक्षा समाप्त करके जब शिष्य अपने गुरुदेव से अलग होने लगता था तो गुरु उसे अतिथि सत्कार, दीन-दुखियों की सहायता तथा समाज सेवा आदि के उपदेश देकर भविष्य में अच्छे कार्यों को करने का आदेश देते थे। अतएव उक्त वर्णन से यह बात एकदम स्पष्ट है कि वैदिक काल में बालकों के सामाजिक तथा नागरिक भावना के विकास पर भी ध्यान दिया जाता था।

(5) सामाजिक कुशलता का विकास करना (Promotion of Social Efficiency) – वैदिक कालीन शिक्षा में बालक को समाज में रहकर अपना जीवन सुखपूर्वक बिताने की भी शिक्षा दी जाती थी। इसके लिये व्यावसायिक शिक्षा भी प्रदान की जाती थी जिससे कि बालक अपने व्यावहारिक जीवन में किसी प्रकार की असफलता का सामना न करने पावे। उसको शिक्षा द्वारा जीविकोपार्जन के योग्य बना दिया जाता था। उस समय वर्ण-व्यवस्था भी विकसित हो गई थी। छात्रों को उनके वर्ण के अनुसार ही कार्य की शिक्षा दी जाती थी। इस तरह की शिक्षा प्राप्त करके वे केवल अपने परिवार तथा समाज के ही लिए नहीं बल्कि राष्ट्र तथा देश का कल्याण भी करने योग्य हो जाते थे।

(6) राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण तथा प्रसार करना (Preservation and Spread of National Culture) – वैदिक कालीन संस्कृति का एक उद्देश्य राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण एवं उसका प्रसार करना भी था। उनको इस प्रकार की शिक्षा प्रदान की जाती थी कि वे अपनी साहित्यिक, सांस्कृतिक तथा व्यावसायिक परम्परा का संरक्षण कर सकें। वर्ण-व्यवस्था तो थी ही, इसी के अनुसार लोग कार्य करते थे। परिणामस्वरूप राष्ट्रीय संस्कृति सुरक्षा को बड़ा बल मिलता था, जैसे परिवार का बड़ा या पिता अपने पुत्र को अपने व्यवसाय की शिक्षा देता था, ब्राह्मण वेदों को कंठस्थ कर लिया करते थे तथा उसे अपने शिष्यों को भी कंठस्थ करा देना अपना कर्त्तव्य समझते थे। इस तरह वैदिक काल में राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण और प्रसार शिक्षा तथा वर्ण-व्यवस्था के द्वारा विशेष रूप से होता था। उक्त वर्णन से यह बात एकदम स्पष्ट हो जाती है कि वैदिक काल में शिक्षा का उद्देश्य छात्रों का सर्वांगीण विकास करना था ताकि वे अपनी अपने परिवार की, समाज तथा राष्ट्र की लौकिक और पारलौकिक उन्नति में योग दे सकें।

वैदिककालीन शिक्षा की विशेषताएँ एवं सिद्धान्त (Principles & Characteristics of Vedic Period Education)

हमारी प्राचीन शिक्षा प्रणाली या वैदिक शिक्षा प्रणाली में कुछ ऐसी विशेषताएँ पाई जाती हैं जो उस समय के समाज में किसी भी देश में नहीं थीं। हमारी वह शिक्षा प्रणाली युग-युगान्तर के लिए सर्वथा ही अनुकरणीय कही जा सकती है। आज संसार के सभी देशों में जो भी शिक्षा प्रणालियाँ प्रचलित हैं वे हमारी प्राचीन शिक्षा प्रणाली की तुलना में बहुत ही हल्की प्रतीत होती हैं।

डॉ० एफ0 ई० केई के शब्दों में कहा जा सकता है कि “महान् उद्देश्यों एवं आदर्शों की प्राप्ति के लिए वैदिककालीन शिक्षाशास्त्रियों ने लिखा है जिस विशिष्ट प्रणाली का निर्माण किया था, उसने बिना साम्राज्यों के उत्थान एवं पतन एवं समाज में परिवर्तनों से प्रभावित हुए इन सहस्रों वर्षों के उपरान्त भी हमारे देश की शिक्षा की ज्योति को प्रज्वलित रखा है।”

वैदिककालीन शिक्षा के सिद्धान्तों तथा विशेषताओं का विस्तृत उल्लेख नीचे किया गया है तथा यह देखने का प्रयास किया गया है कि वे विशेषताएँ आज की परिस्थिति में किस सीमा तक चल रही हैं तथा चलाई जा सकती हैं-

(1) गुरुकुल प्रणाली (Gurukul System) – रवीन्द्रनाथ टैगोर के इस कथन द्वारा हमारी वैदिककालीन शिक्षा प्रणाली की विशेषताओं पर प्रकाश पड़ता है। उन्होंने लिखा है कि “भारतीय संस्कृति का निर्माण नगरों नहीं बल्कि वन प्रान्तीय आश्रमों में ही हुआ था।” वैदिक कालीन भारत में उपनयन संस्कार के उपरान्त ही प्रायः 8 वर्ष की अवस्था में बालक गुरु के गृह में भेज दिया जाता था। वहाँ पहुँचकर वह ‘अंतेवासिन’ अथवा ‘गुरुकुलवासी’ कहलाता था तथा वह विद्यार्थी कहा जाता था। वह अपने गुरुदेव के श्रीचरणों में बैठकर शिक्षा प्राप्त करता था। यह गुरुकुल जन कोलाहल से दूर प्रकृति के पुनीत प्रांगण में स्थित होते थे लेकिन ये गुरुकुल नगरों या गाँवों से बहुत दूर नहीं होते थे। इसका कारण यह था कि अधिक दूर रहने पर खाद्य सामग्रियों का अभाव हो जाने पर मिलना कठिन हो जाता। यह निश्चित है कि गुरु-गृह में रहकर छात्र अपने गुरुओं से काफी सीख लेते थे क्योंकि वे शत-प्रतिशत गुरुओं का ही अनुकरण करते थे। वहाँ उनको ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना होता था। गुरुकुलों पर राज्य या शासन का नियन्त्रण नहीं होता था। शिक्षा का सम्राट स्वयं गुरु था, वह जो चाहता वही शिक्षा दे सकता था। गुरु विद्यार्थियों के मानस पिता होते थे। वे छात्रों को केवल शिक्षा ही नहीं देते थे बल्कि उनके पालन-पोषण, वेश-भूषा आदि का भी ध्यान रखते थे। ये गुरुकुल विद्यालय का भी कार्य करते थे तथा गुरु के घर का भी कार्य करते थे। इन गुरुकुलों में साधारणतया दोनों ही विशेषताएँ पाई जाती थीं। आज के विद्यालयों में इस बात का अभाव है।

(2) उपनयन संस्कार का महत्त्व (Importance of Initiation Ceremony) – वैदिक काल में उपनयन संस्कार का बड़ा महत्त्व था। बिना इस संस्कार के बालक अध्ययन कार्य आरम्भ नहीं करता था। विद्याध्ययन आरम्भ करने के लिए यह संस्कार आवश्यक था। उपनयन संस्कार के पहले बालक शूद्र समझा जाता था और उपनयन हो जाने के बाद ही वह नया जीवन शुरू करता था। अब उसको द्विज कहकर पुकारा जाता था। आज विद्यालयों में बालक के प्रवेश पाने पर यह संस्कार नहीं किया जाता है।

(3) ब्रह्मचर्य जीवन पर विशेष बल (Emphasis on Brahmacharya Life) – गुरुकुलों में शिक्षा प्राप्त करने वाले प्रत्येक विद्यार्थी के लिए आवश्यक था कि वह सादा जीवन और उच्च विचार के आदर्श को मानकर चले। उसमें आत्म-संयम, इन्द्रिय-निग्रह होता था। वह स्त्री के बारे में सोचता भी नहीं था। स्पर्श करना और देखना तो दूर की बातें थीं। इसका एक कारण और भी था कि छात्रों का वातावरण, खान-पान आदि इतने सादे होते थे, विचारों में इतनी पवित्रता होती थी कि बुरी बातें मस्तिष्क में नहीं आती थीं। विद्यार्थी 25 वर्ष तक की अवस्था तक सामान्यतया ब्रह्मचारी रहकर गुरु-गृह में ही रहता था। शिक्षा कार्य समाप्त करने के उपरान्त ही अपने घर आकर वह विवाह करता था और वहीं से उसका गृहस्थ जीवन शुरू होता था।

(4) उचित समय पर शिक्षा का शुभारंभ (Starting of Education in Definite Time) – वैदिक काल में शिक्षा का शुभारंभ बाल्यकाल से ही कर दिया जाता था। आज भी ऐसा ही किया जाता है, क्योंकि बाल्यावस्था ही शिक्षा की एक उत्तम अवस्था होती है। इस अवस्था में उसकी बौद्धिक शक्ति अत्यन्त कुशाग्र एवं स्मरण शक्ति तेज होती है। बालक मनन चिन्तन भी कर सकता है। इसलिए वैदिक काल में 5 से 8 वर्ष की अवस्था में ही उपनयन संस्कार करके शिक्षा आरम्भ कर दी जाती थी। डॉ० अल्तेकर ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि “प्राचीन भारतीय समझते थे कि यदि शिक्षा आरम्भ करने में विलम्ब किया जाता है तो उसके अच्छे परिणाम नहीं निकल सकते हैं।”

(5) व्यावहारिक तथा पूर्ण शिक्षा पर बल (Emphasis on Practical and Complete Education)- वैदिककालीन शिक्षा केवल पुस्तकीय ही नहीं थी अर्थात् इस शिक्षा द्वारा बालक का केवल आध्यात्मिक विकास ही नहीं किया जाता था बल्कि आध्यात्मिक जीवन के साथ-साथ उसके वर्तमान जीवन पर भी ध्यान दिया जाता था। बालकों के जीवन में काम आने वाली शिक्षा प्रदान की जाती थी, इसीलिये उन्हें व्यावसायिक शिक्षा भी दी जाती थी। सैद्धान्तिक शिक्षा के साथ-ही-साथ क्रियात्मक शिक्षा पर भी बल दिया जाता था। डॉ० अल्तेकर ने लिखा है, “वैदिक कालीन शिक्षा का उद्देश्य अनेक विषयों का साधारण ज्ञान प्रदान करना नहीं था बल्कि उसका आदर्श विभिन्न क्षेत्रों में दक्ष बना देना था।”

(6) गुरु शिष्य का सम्बन्ध पिता-पुत्र सा (Patrilike Relation between Teacher and Taught)-वैदिककालीन शिक्षा की एक सबसे बड़ी विशेषता यह भी थी कि गुरु और शिष्य प्रेम तथा का सम्बन्ध पिता और पुत्र की तरह था। गुरु अपने शिष्य को मानस पिता और शिष्य अपने गुरु का मानस पुत्र होता था। गुरु की प्रत्येक आज्ञा का पालन शिष्य बड़े ही अनुराग, आदर के साथ करता था। आजकल गुरु और शिष्य के सम्बन्धों में बहुत बड़ी कमी आ गई है। आज यह सम्बन्ध विद्यारूपी सौदे के क्रेता और विक्रेता के रूप में रह गया है। आज का शिष्य तो जब तक गुरु से शिक्षा प्राप्त करता है तब तक भी उसकी आज्ञाओं का पालन नहीं करता। वैदिक काल के शिष्य जब तक गुरुकुल में रहते थे तब तक ही गुरु की आज्ञा पालन नहीं बल्कि जीवनपर्यन्त करते थे और उसके एक-एक शब्द की लकीर पर चलते थे।

(7) शिक्षा में धार्मिक तत्त्वों का महत्त्व (Importance of Moral and Religious Factors) – वैदिक काल के शिष्यों का जीवन धर्ममय होता था क्योंकि शिक्षा की विभिन्न क्रियाओं में धर्म के क्रियात्मक स्वरूप पर बल दिया जाता था। उस समय शिक्षा धार्मिक तत्त्वों जैसे प्रार्थना, संध्या, यज्ञ, वेद, ग्रन्थ, पूजा आदि से परिपूर्ण होती थी। बालक गुरुकुल में रहकर इन सभी तथ्यों को व्यवहार में लाते थे। अन्य विषयों की शिक्षा में भी उस समय धार्मिक पुट वर्तमान होते थे। टी० एन० सिक्वरा ने लिखा है कि “शिक्षा का तात्पर्य एक धार्मिक संस्था के होने से था। शिक्षक को यह पढ़ाना पड़ता था कि वह कैसे प्रार्थना एवं यज्ञ करे और किस प्रकार अपने जीवन की अवस्था के अनुरूप अपने कर्त्तव्यों को पूरा करे। भारतीय शिक्षा आवश्यक रूप से धार्मिक तथा वैयक्तिक थी।”

(8) चरित्र तथा व्यक्तित्व विकास पर बल (Emphasis on the Development of Character and Personality) – जैसे कि हमारी आज की शिक्षा व्यक्ति को केवल जीविका उपार्जित करने के लिए ही तैयार करती है, उस समय की शिक्षा जीवन के योग्य बनाते हुये छात्रों के चरित्र और उनके व्यक्तित्व के विकास पर भी बल देती थी। वैदिककालीन शिक्षा की प्रत्येक क्रिया आदर्श चरित्र और व्यक्तित्व निर्माण को बल देने वाली थी। छात्र ब्रह्म मुहूर्त में ही जागते थे, रोज समय पर पूजा करते थे, सत्य बोलते थे, आत्मसंयम का जीवन व्यतीत करते थे, सारांश यह कि उस समय की शिक्षा का उद्देश्य ही यही था – मनुष्य को मनुष्य बनाना। मनुष्य मनुष्य बनता है तब जबकि उसमें मनुष्य के सभी गुण विकसित हो जाते हैं। जिस व्यक्ति में मनुष्य के सभी गुणों का विकास हो जायेगा, स्वभावतः उसका व्यक्तित्व आदर्श व्यक्तित्व कहा जायेगा। ऐसे व्यक्ति में आदर्श चरित्र अवश्य मिलेगा। वैदिक काल की शिक्षा इसी विकास पर ध्यान देती थी।

(9) भिक्षावृत्ति की प्रथा (Begging System)- वैदिक काल की शिक्षा में भिक्षावृत्ति एक विचित्र प्रथा थी। गुरु आश्रमों में शिक्षा प्राप्त करने वाले हर विद्यार्थी का यह धर्म होता था कि वह भिक्षा माँगे। इस भिक्षा के द्वारा गुरु तथा शिष्यों का भरण-पोषण होता था। वैदिककालीन शिक्षा की इस विशेषता से अनेकों लाभ थे। इन लाभों का उल्लेख नीचे किया गया है-

  1. जो विद्यार्थी निर्धन होते थे उनको भी शिक्षा पाने का अवसर मिलता था।
  2. गरीब, अमीर सभी छात्र बराबर होते थे तथा उनमें वास्तविक भाईचारे के सम्बन्ध का विकास होता था।
  3. विद्यार्थियों में से अहंकार की भावना का समूल विलय हो जाता था और इसके स्थान पर विनय, दया, प्रेम, सहिष्णुता आदि मानवीय गुणों का विकास होता था।
  4. शिक्षाकाल में विद्यार्थी अपने घर या परिवार पर निर्भर नहीं रहते थे इसमें उनमें आत्मनिर्भरता की भावना का विकास होता था तथा वे स्वावलम्बन का पाठ पढ़ते थे।
  5. विद्यार्थी समाज से आर्थिक सहायता लेकर पढ़ते थे, इसलिये वे समाज के प्रति अपने कर्त्तव्यों का पालन करते थे।
  6. वे समाज के प्रति अपने सब प्रकार के कर्त्तव्यों को पूरा करने के लिए जागरूक रहते थे। इन्हीं लाभों को प्राप्त करने के लिए ही विद्यार्थी भिक्षावृत्ति को अपनाते थे।

(10) दैनिक दिनचर्या का महत्त्व (Importance of Daily Routine) – वैदिककालीन शिक्षा में दिनचर्या का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान था। विद्यार्थी सूर्योदय के पूर्व ही जग जाते थे वहीं से उनके क्रिया-कलाप आरम्भ हो जाते और रात्रि तक के क्रिया-कलाप कठोर नियमों की शृंखला में बँधे हुए चलते थे। उन सभी नियमों का पालन करना प्रत्येक विद्यार्थी के लिए आवश्यक था। इन सभी क्रिया-कलापों को वे नियमित ढंग से करते थे। वे बालक के जीवन के अंग बन जाते थे। इससे लाभ यह होता था कि आने वाले पूरे जीवन में विद्यार्थी उन नियमों का पालन करता था। गुरुदेव की सेवा करते हुए तथा दैनिक जीवन में कठिन परिश्रम करते हुये विद्यार्थी ‘सेवा और श्रम’ के महत्त्व को समझ लेता था।

(11) साधारण दण्ड की व्यवस्था (Provisions of Simple Punishment)- वैदिक कालीन शिक्षा में दण्ड की भी व्यवस्था थी लेकिन यह दण्ड अत्यन्त कठोर नहीं होता था। सच तो यह है कि उस समय की शिक्षा में दण्ड किस कार्य के लिए कितना दिया जाता था इस पर कोई निश्चित तथ्य नहीं प्राप्त होते हैं। हाँ, कुछ महापुरुषों के विचार इस सम्बन्ध में अवश्य मिलते हैं। आपस्तम्ब के अनुसार अध्यापक को चाहिए कि वह दोषी छात्रों को अपनी उपस्थिति से दूर भेज दे अथवा ऐसे विद्यार्थी के लिए कोई व्रत निर्धारित कर दे। मनु का कहना है कि दोषी छात्र को बिना कष्ट दिये हुये उसे मधुर भाषा में शिक्षा प्रदान करें, लेकिन यदि विद्यार्थी ने कोई भयानक अपराध कर दिया हो तो उसको रस्सी अथवा पतली छड़ी से दण्ड देना चाहिए । यही विचार याज्ञवल्क्य तथा गौतम का भी है। वैदिक काल में जो दण्ड दिया जाता था वह केवल आत्मसुधार के लिए ही होता था। संक्षेप में कह सकते हैं कि दण्ड के रूप में विद्यार्थी को ताड़ना के देना, समझाना बुझाना, उपवास करवाना आदि नियम थे।

(12) पालन-पोषण तथा आदर्श वातावरण पर बल (Emphasis on Nurture and Ideal Environment)- आजकल की तरह वैदिक काल में शिक्षक गुरु यह समझते थे कि बालक को शिक्षा में उसके स्वभाव (Nature), वंशानुक्रम (Heredity), पालन-पोषण (Nurture), वातावरण (Environment) का विशेष महत्त्व होता है। आजकल भारत में यह मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त केवल सैद्धान्तिक ही है लेकिन प्राचीन काल में गुरु लोग इस सिद्धान्त का विधिवत् पालन करते थे। अथर्ववेद में इस बात का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है कि उचित अनुकूल परिस्थितियों में हर बात उपलब्ध हो जाती है। इसी आधार पर वर्ण-व्यवस्था जन्म पर आधारित न होकर कर्म पर आधारित थी।

(13) विद्यार्थी जीवन के बाद भी स्वाध्याय (Self Study after the Student Life) – वैदिक काल में विद्यार्थी जब अध्ययन कार्य समाप्त कर देता था तो समापन संस्कार के समय आचार्य विद्यार्थियों को यह उपदेश, आदेश देते थे कि उन्होंने अध्ययन काल में जिन ग्रन्थों का पठन किया है उनका पठन आगे भी करते रहेंगे। ज्ञान का विस्मरण किसी भी प्रकार न करेंगे। स्वाध्याय के लिए वर्षा काल सबसे अच्छा समय माना गया है क्योंकि इस समय कृषक कषि कार्य से भी मुक्ति पा गये रहते हैं।

(14) सार्वजनिक एवं नि: शुल्क शिक्षा (Universal and Free-Education) – वैदिक काल में ऋषि ऋण से मुक्त होने के लिए तथा समाज का विकास करने के लिए हर कोई चाहे पुरुष हो अथवा स्त्री, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य सबको शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार था। हर किसी को समान रूप से शिक्षा प्राप्त करने के लिए पूर्ण अवसर था क्योंकि उस समय की शिक्षा निःशुल्क थी। इस शिक्षा को धनी गरीब सभी लोग प्राप्त कर सकते थे। छात्रों के भोजन आदि की समस्या भिक्षा द्वारा पूरी हो जाती थी । शिष्य जब शिक्षा समाप्त कर लेते थे तो अपनी शक्ति के अनुसार गुरुदेव को दक्षिणा देते थे। मनु का कहना है कि विद्यार्थी गुरु दक्षिणा के रूप में गाय, अन्न, अश्व आदि दे सकता था। पी० एन० प्रभु ने लिखा है कि- “हिन्दू बालक की शिक्षा आर्थिक स्थिति पर कभी निर्भर नहीं रहती थी। विद्या मन्दिर के द्वार राजकुमार तथा दरिद्र सभी के लिए खुले रहते थे।”

(15) बाहरी नियंत्रण से मुक्ति (Free from External Control) – वैदिक काल की शिक्षा बाह्य नियंत्रण से मुक्त थी। प्राचीन काल में शिक्षा राज्य या सरकार या अन्य किसी राजनैतिक दल आदि के बाह्य नियंत्रण से मुक्त थी। राजा का कर्त्तव्य था कि वह इस बात को देखे कि विद्वान पंडित बिना किसी विघ्न बाधा के अध्ययन कार्य में रत रहें। इसी प्रकार भारत में शिक्षा पर कोई जातीय प्रभाव, रुचि या पक्षपात का प्रभाव नहीं था।

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Anjali Yadav

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