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सृजनात्मक बालक किसे कहते हैं? सृजनात्मक बालकों की विशेषताएँ

सृजनात्मक बालक किसे कहते हैं? सृजनात्मक बालकों की विशेषताएँ
सृजनात्मक बालक किसे कहते हैं? सृजनात्मक बालकों की विशेषताएँ

सृजनात्मक बालक किसे कहते हैं? विशेषताओं को स्पष्ट करते हुए उनकी शिक्षा व्यवस्था पर प्रकाश डालिए। 

 सृजनात्मक बालक (Creative Children)

सृजनशील बालकों का राष्ट्र और समाज के उत्थान में बहुत बड़ा योगदान होता है। ऐसे बालक समाज की अमूल्य निधि हैं। आधुनिक युग में ऐसे विशिष्ट योग्यताओं वाले बालकों पर ध्यान दिया जा रहा है और उनकी सृजनात्मक योग्यता को विकसित करने के प्रयास किए जा रहे हैं।

सृजनशीलता का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Creative Children)

“सृजनशीलता” अथवा “सृजनात्मकता” अंग्रेजी भाषा के शब्द “क्रियेटिविटी” (Creativity) का हिन्दी रूपान्तर है। हिन्दी में “सृजन” शब्द का अर्थ–“बनाना”, “निर्माण करना” अथवा “रचना करना” होता है। मनोवैज्ञानिक सन्दर्भ में सृजनात्मकता का तात्पर्य व्यक्ति के द्वारा सभी क्षेत्रों में की गई रचना और रचनात्मक प्रगति की योग्यता दोनों से लिया जाता है। “सृजनात्मकता” के सम्बन्ध में विद्वानों के अलग-अलग दृष्टिकोण हैं। कुछ इसे मौलिक चिन्तन मानते हैं, कुछ इस कल्पनात्मक शक्ति के रूप में देखते हैं, कुछ इसे निर्माण समझते हैं और कुछ इसका सम्बन्ध उत्पादकता से लगाते हैं। जो लोग मौलिक चिन्तन को ही सृजनात्मकता मानते हैं उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि ऐसी बहुत सी समस्याएँ हैं जिनके समाधान के लिए मौलिक चिन्तन उपयोगी नहीं होता है। इस सम्बन्ध में गेडनिक ने लिखा “सृजनात्मक चिन्तन में उपयोगिता और मौलिकता दोनों के गुण पाये जाते हैं।” कहने का तात्पर्य यह है कि सृजनात्मकता के लिए मौलिकता एक उपयोगी तत्त्व है परन्तु अनिवार्य नहीं है। गिलफोर्ड के विचार से सृजनात्मकता के अनेक गुणों में से मौलिकता एक महत्त्वपूर्ण गुण है।

कुछ विद्वानों ने “सृजनात्मकता” को उत्पादकता के रूप में स्वीकार किया है, परन्तु ऐसे बहुत से बालक हैं जिनमें सृजनात्मकता की क्षमता बिल्कुल नहीं होती, जिसका कि व्यापक सामाजिक महत्त्व है। टेलर महोदय के अनुसार-“सृजनात्मक उत्पादक की माप वह सीमा होनी चाहिए जिस सीमा तक यह हमारी समझ के संसार का पुनर्गठन करता हो।” कभी-कभी सृजनात्मकता की समस्या समाधान के अर्थ में प्रयोग किया जाता है। वास्तव में सृजनात्मकता कुछ नये अर्थ तथा हल की खोज करती है, जिन पर गहन विचार-विमर्श तथा विश्लेषण के बाद ही हल खोजा जाता है। सृजनात्मकता व्यक्ति के अन्दर एक ऐसी योग्यता है जो किसी समस्या के विवेकपूर्ण एवं न्यायपूर्ण समाधान के लिए नये तरीकों एवं स्थितियों का सहारा लेती है। कुछ विद्वानों का यह भी मानना है कि सर्जकता की उपस्थिति में व्यक्ति वातावरण में नया काम भी प्रस्तुत कर सकता है। कुछ मनौवैज्ञानिकों ने सृजनशीलता का अर्थ साहसिक विचार, सीधे रास्ते से हटकर अलग मार्ग पर चलना, पूर्व निर्धारित तरीकों को छिन्न-भिन्न कर देना, नवीन अनुभव लिए अपने को तैयार करना और एक के बाद दूसरे अनुभवों को स्वीकार करना बताया है।

विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने सृजनात्मकता की परिभाषाएँ अलग-अलग प्रस्तुत की हैं। डीहान और हेविंगहर्स्ट के अनुसार-“सृजनात्मकता वह गुण है जो नवीन और वांछित वस्तु के उत्पादन की ओर आकर्षित करता है। यह नवीन उत्पादन पूरे समाज या केवल उत्पादक व्यक्ति के लिए नवीन हो सकता है।” थर्स्टन के अनुसार-“वह सभी कार्य सृजनात्मक हैं जिसका हल अचानक प्राप्त हो जाय, क्योंकि इस प्रकार का हल विचारक के लिए सदैव नवीनता लिए होता है।” यह विचार सम्पूर्ण समाज के लिए नया नहीं भी हो सकता है। किलपैट्रिक महोदय ने लिखा है-“सृजनात्मकता का तात्पर्य है- नये विचारों की खोज, नये शब्दों या शब्द-समूहों की रचना, व्यवहार में नवीनता, परम्परागत तरीकों से भिन्न हो।” जेम्स ड्रेवर लिखता है-“सृजनात्मकता नई वस्तु की संरचना करने की योग्यता है। व्यापक अर्थ में सृजनात्मकता का अभिप्राय नये विचारों एवं प्रतिभाओं के सम्मिलन की कल्पना से है। (जब उसमें स्वयं उत्प्रेरणा हो और दूसरे का अनुकरण न करें) तथा जहाँ विचारों का संश्लेषण हो और मानसिक कार्य केवल दूसरों का योग न हो।” गुड महोदय ने सृजनशीलता को इन छः तत्त्वों का योग बताया है- (i) साहचर्य, (ii) आदर्श-क्षमता, (iii) bio plasing मौलिकता, (iv) अनुकूलता, (v) नम्यता की निरन्तरता और (vi) तर्कयुक्त मूल्यांकन करने की योग्यता।

सृजनात्मक बालकों की विशेषताएँ (Characteristics of Creative Children)

सृजनात्मक बालक में निम्नलिखित गुण अथवा विशेषताएँ पाई जाती हैं-

(1) क्रियाशीलता – सृजनशील बालक अधिक क्रियाशील होते हैं और प्रत्येक समय किसी न किसी कार्य में लगे रहते हैं।

(2) मौलिकता- सृजनशील बालकों में मौलिक रूप से कल्पना एवं चिन्तन की क्षमता होती है।

(3) स्वतन्त्र निर्णय-शक्ति- सृजनशील बालक किसी समस्या के समाधान में दूसरों के सुझावों को शीघ्र स्वीकार नहीं करते और उनमें समस्या के सम्बन्ध के स्वतः निर्णय करने की क्षमता होती है।

(4) बुद्धि-लब्धि- अधिकतर यह देखा गया है कि सृजनात्मक बालकों की बुद्धि-लब्धि (1.Q.) उच्च होती है।

(5) जिज्ञासा एवं रुचि- सृजनशील बालकों में किसी कार्य को सम्पन्न करने के लिए कौतूहल और उत्सुकता दिखलाई देती है और वे रुचिपूर्वक कार्य में लगे रहते हैं।

(6) बोधगम्यता- सृजनशील बालक किसी विषय को आसानी और सरलता से समझ लेते हैं।

(7) भावाभिव्यक्ति की क्षमता- सृजनशील बालकों में अपने विचारों और कल्पना को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने की क्षमता होती है।

(8) विनोदी प्रवृत्ति सृजनशील बालक परिहास– प्रिय होते हैं तथा आनन्द और मनो-विनोद में रुचि लेते हैं।

(9) अन्तर्दृष्टि का होना- सृजनशील बालक में सूझबूझ से कार्य करने की क्षमता होती है और वे किसी भी कार्य में सबसे आगे पहल करते हैं।

(10) सौन्दर्यात्मक विकास- इस तरह के बालकों में उच्चकोटि के सौन्दर्यात्मक मूल्य पाये जाते हैं।

(11) समायोजनशीलता- सृजनशील बालक सहनशील और परिस्थितियों के साथ शीर्घ समन्वय अथवा समायोजन करने वाले होते हैं।

(12) संवेदनशीलता- इस तरह के बालक अत्यधिक संवेदनशील होते हैं तथा वे किसी भी कार्य की समस्या पर कठोरतापूर्वक विचार करते हैं।

सृजनशील बालकों की शिक्षा (Education of Creative Children)

बालकों में सृजनात्मक शक्तियों का विकास करने के लिए विद्यालय के अनुकूल परिस्थितियों एवं वातावरण का निर्माण करना होगा। उन्हें स्वतन्त्र रूप से कार्य करने, सोचने समझने, तर्क-वितर्क करने तथा खेलने-कूदने के अवसर प्रदान करने चाहिए। शिक्षक अपना व्यक्तित्व उन पर लादे नहीं बल्कि उनमें वैज्ञानिक खोज की भावना का विकास करें शिक्षक उनके अन्दर नवीन खोजों के लिए जिज्ञासा जागृत करें। नये विचारों को मूर्त रूप देने तथा समस्या समाधान के नवीन उपायों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करें। अतः बालकों के सृजनात्मकता के विकास हेतु उचित शिक्षा देने की आवश्यकता है। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित तथ्यों पर ध्यान देना चाहिए-

(1) विद्यालय का योगदान- बालकों में सृजनशीलता का विकास करने के लिए विद्यालय निम्नलिखित बातों में अपना योगदान दे सकता है-

  1. विद्यालय में कक्षा के अन्दर और उसके बाहर का वातावरण ऐसा हो तो सृजनात्मकता में सहायक हो।
  2. विद्यालय बालकों पर कठोर अनुशासन न लादें वरन् स्वानुशासन की भावना जागृत करें।
  3. सृजनशील बालकों के कार्यों, व्यवहारों एवं विचारों को समस्त छात्रों में प्रदर्शित करने की व्यवस्था विद्यालय द्वारा की जानी चाहिए।
  4. विद्यालय बालकों को स्वतन्त्र रूप से कार्य करने का अवसर तथा क्षेत्र प्रदान करें।

(2) शिक्षक का योगदान- बालकों में सृजनात्मकता का विकास करने के लिए शिक्षक की भूमिका कुछ कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। शिक्षक का छात्रों के प्रति व्यवहार, शिक्षण का ढंग तथा मौलिकता एवं नवीनता के प्रति प्रोत्साहन जागृत करने का कार्य शिक्षक अच्छी तरह से कर सकता है और इस प्रकार बालकों में सृजनात्मकता का विकास किया जा सकता है। सृजनात्मकता के विकास के लिए शिक्षक निम्नलिखित कार्य कर सकता है-

  1. शिक्षक के शिक्षण की प्रक्रिया कुछ इस प्रकार की हो जिससे बालकों में सृजनात्मकता का विकास हो।
  2. शिक्षक बालकों को कक्षा में एवं कक्षा के बाहर पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करें जिससे उनमें सृजनात्मक चिन्तन विकसित हो सके।
  3. शिक्षक सृजनशील बालकों के शिक्षण के प्रति व्यक्तिगत ध्यान दें।
  4. बालकों के प्रति शिक्षक का व्यवहार सहानुभूतिपूर्ण हो। बालकों के विचित्र प्रश्नों सुनकर शिक्षक में आवेश नहीं आना चाहिए।
  5. शिक्षक का कार्य बालकों के कार्यों में सहयोग देना है। उन्हें आवश्यक उपयोगी निर्देश देना है। इससे बालकों में सृजनात्मकता की प्रकृति विकसित होती है।
  6. अध्यापक छात्रों में ऐसी प्रवृत्ति का विकास करें जिससे बालक परम्परागत कार्यों एवं विचारों से हटकर किसी नये सृजनशील मार्ग का अनुसरण करे।
  7. बालकों में सृजनात्मक वृत्ति का विकास करने के लिए शिक्षक का कर्त्तव्य है कि वह उनमें आत्मविश्वास, स्वतन्त्र निर्णयशक्ति एवं नवीन चिन्तन के भाव विकसित करें।

मनोवैज्ञानिकों ने बालकों में सृजनात्मकता विकसित करने के लिए कुछ विशिष्ट शैक्षिक स्थितियों का उल्लेख किया है, जो निम्नवत् हैं-

  1. कक्षा में शिक्षक बालकों को अपने विचारों को व्यक्त करने का पूरा अवसर प्रदान करें।
  2. बालक अपने द्वारा किए गए कार्यों एवं व्यवहारों का स्वयं मूल्यांकन करें। शिक्षक का यह दायित्व है कि वह छात्रों को स्वयं अपना मूल्यांकन करने के लिए प्रेरित करें। इससे उनमें सृजनात्मक वृत्ति का विकास होगा।
  3. विद्यालय की परिस्थितियाँ इस प्रकार की हों जिससे बालकों में अपने कार्य के प्रति आत्मविश्वास जागृत हो सके। बालकों को अपनी क्षमताओं एवं योग्यताओं में विश्वास होना चाहिए और इससे उनकी सृजनात्मकता में विकास होगा।
  4. शिक्षक अपने कक्षा शिक्षण के माध्यम से छात्रों में प्रेरणा एवं प्रोत्साहन जागृत कर सकते हैं। इससे बालकों में नवीन चिन्तन, जिज्ञासा एवं अन्वेषण प्रवृत्ति का विकास होगा।

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Anjali Yadav

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