हिन्दी भाषा में क्रियात्मक अनुसंधान से आप क्या समझते हैं ? इसकी आवश्यकता एवं महत्त्व का वर्णन कीजिए।
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क्रियात्मक अनुसंधान का अर्थ एवं परिभाषा
‘क्रियात्मक अनुसंधान’ के अर्थ को जानने के पूर्व यह आवश्यक है कि ‘अनुसंधान’ शब्द का अर्थ जान लिया जाय।
एल. वी. रेडमैन और ए. वी. एच. मोरी ने अनुसंधान को स्पष्ट करते हुए लिखा है- “नवीन ज्ञान की प्राप्ति हेतु क्रमबद्ध प्रयत्न को अनुसंधान कहा जाता है।” जेम्स ड्रेवर के अनुसार- “ज्ञान की खोज अथवा सिद्धि के लिए किया जाने वाला क्रमबद्ध वैज्ञानिक खोज ही अनुसंधान कहलाता है।”
पी. एम. कुक के अनुसार-“अनुसंधान किसी समस्या का ईमानदारी के साथ सांगोपांग और बुद्धिमत्ता के साथ किया गया अनुसंधान है जो तथ्यों एवं अर्थों का पता लगाने हेतु किया जाता है। अनुसंधान द्वारा प्राप्त फल प्रामाणिक, विश्वसनीय और समर्थनीय होने चाहिए जिससे उससे ज्ञान के क्षेत्र में वृद्धि हो ।”
इन परिभाषाओं से स्पष्ट है कि अनुसंधान किसी भी समस्या के क्रमबद्ध अध्ययन की प्रक्रिया मात्र है, परन्तु इन परम्परत अनुसंधानों से विद्यालय की नित्य प्रति की समस्याओं का समाधान नहीं हो पाता। इस कमी को पूरा करने हेतु परम्परागत अनुसंधान की ही कार्य पद्धतियों पर आधारित एक प्रकार का सामाजिक अनुसंधान किया जाता है जिसे ‘क्रियात्मक अनुसंधान’ की संज्ञा दी जाती है। गुड और हाट ने लिखा है “क्रियात्मक शोध में कार्यक्रम का अंश होता है जिसका लक्ष्य विद्यमान अवस्थाओं को परिवर्तित करना होता है। इस अनुसंधान के द्वारा व्यक्ति स्वयं अपनी समस्या के समाधान का मार्ग खोजता है और उसका प्रयोग करता है। दूसरे शब्दों में क्रियात्मक अनुसंधानकर्त्ता स्वयं ही अनुसंधान के उपभोक्ता होते हैं। यह अनुसंधान उस स्थिति में होता है जिसमें समस्या का समाधान खोज निकालने की आवश्यकता प्रतीत होती है तथा जहाँ अनुसंधान से प्राप्त निष्कर्षों का प्रयोग किया जाता है। आधुनिक युग में शिक्षा में क्रियात्मक अनुसंधान को विशेष महत्त्व प्रदान किया जा रहा है। इसमें विद्यालय से सीधा सम्बन्ध रखने वाले लोग, यथा-प्रधानाचार्य, प्रबन्धक, निरीक्षक और अध्यापक आदि अनुसंधानकर्त्ता होते हैं और ये लोग अनुसंधान द्वारा विद्यालय की कार्य प्रणाली में वांछित परिवर्तन और संशोधन करके सुधार लाने का प्रयास करते हैं।
क्रियात्मक अनुसंधान के उद्देश्य एवं आवश्यकता
क्रियात्मक अनुसंधान के उद्देश्य एवं आवश्यकता निम्नलिखित है-
- एण्डरसन के अनुसार विद्यालय के वास्तविक वातावरण में शिक्षा के सिद्धान्तों का परीक्षण करना।
- विद्यालय के संगठन और व्यवस्था में परिवर्तन करके सुधार करना।
- विद्यालय की कार्य-पद्धति में प्रजातन्त्रात्मक मूल्यों का अधिकतम स्थान देना।
- विद्यालय की दैनिक समस्याओं का अध्ययन और समाधान करके उसकी प्रगति में योग देना।
- विद्यालय के छात्रों, शिक्षकों आदि को उनके दोषों से अवगत कराकर उनकी उन्नति को सम्भव बनाना।
- विद्यालय के पाठ्यक्रम का वास्तविक परिस्थितियों में अध्ययन करके उसको स्थानीय आवश्यकताओं के अनुकूल बनाना।
- विद्यालय के प्रधानाचार्य, प्रबन्धक, निरीक्षक और अध्यापकों को अपने कर्त्तव्यों और उत्तरदायित्वों के प्रति जागरूक करना।
- विद्यालय से सम्बन्धित व्यक्तियों को अपनी समस्याओं का वैज्ञानिक अध्ययन करके अपनी विधियों को उत्तम बनाने का अवसर देना।
- बेस्ट के अनुसार शिक्षक की प्रगति, विचार-शक्ति, व्यावसायिक भावना और दूसरों के साथ मिलकर कार्य करने की योग्यता में वृद्धि करना।
- बेस्ट के अनुसार विद्यालय की क्रियाओं की उन्नति करना और इन क्रियाओं में उन्नति करने वालों की भी उन्नति करना।
शिक्षा में क्रियात्मक अनुसंधान की विशेषताएँ
क्रियात्मक अनुसंधान में निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं-
- इनमें विद्यालय की समस्याओं का विधिपूर्वक अध्ययन किया जाता है।
- इसमें अनुसंधानकर्त्ता विद्यालय के अध्यापक, प्रधानाचार्य, प्रबन्धक, निरीक्षक एवं अध्यापक स्वयं ही होते हैं।
- क्रियात्मक अनुसंधान का मुख्य उद्देश्य नवीन सत्यों एवं तथ्यों की खोज करना नहीं है, प्रत्युत विद्यालय की कार्य प्रणाली में संशोधन एवं उन्नति लाना होता है।
- क्रिया अनुसंधान एक दीर्घकालीन प्रक्रिया नहीं होती बल्कि यह विद्यालय की समस्याओं का शीघ्र ही समाधान करती है।
- यह शिक्षकों, प्रधानाचार्यो प्रबन्धकों एवं निरीक्षकों को अपने कर्त्तव्यों तथा उत्तरदायित्वों के प्रति चेतनशील बनाता है।
- इसके द्वारा विद्यालय की कार्य प्रणाली में लोकतान्त्रिक आदर्शों एवं मूल्यों को पर्याप्त स्थान मिलता है।
- विद्यालय के समस्त कार्यकर्ता अपने कार्यों एवं निर्णयों में सुधार एवं संशोधन करने में वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण अपनाते हैं।
- क्रियात्मक अनुसंधान को सम्पादित करने में विद्यालय के शिक्षक, प्रधानाचार्य, प्रबन्धक एवं निरीक्षक आदि वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाते हैं।
- क्रियात्मक अनुसंधान के अन्तर्गत तत्कालीन प्रयोग पर अधिक बल दिया जाता है।
- क्रियात्मक अनुसंधान के उत्पादक तथा उपभोक्ता दोनों ही स्वयं शिक्षक, प्रधानाचार्य, प्रबन्धक तथा निरीक्षक होते हैं।
परिणामस्वरूप अनुसंधान से प्राप्त परिणामों को लागू करने की कोई समस्या नहीं होती। यह कार्य स्वाभाविक रूप से अपने आप हो जाता है।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि क्रियात्मक अनुसंधान विद्यालय में लोकतान्त्रिक व्यवस्था उत्पन्न करने की एक क्रिया है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि, “क्रियात्मक अनुसंधान का अर्थ विद्यालय में सम्पादित की गयी उस क्रिया से है जिसके द्वारा शिक्षालय की कार्य प्रणाली में सुधार, संशोधन एवं प्रगति के लिए विद्यालय के ही अध्यापक, प्रधानाचार्य, प्रबन्धक एवं निरीक्षक विद्यालय की समस्याओं का वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन करते हैं।”
भारतीय विद्यालयों में क्रियात्मक अनुसंधान का महत्त्व
वर्षों की दासता की जंजीरों में जकड़े रहने के पश्चात् लगभग दो दशक पूर्व भारत ने विविध क्षेत्रों में जनतान्त्रिक आदर्शों को प्राप्त करने का अपना लक्ष्य बनाया। इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए यह अत्यन्त आवश्यक हो गया है कि विद्यालय की प्रत्येक क्रिया में शीघ्र लोकतान्त्रिक आदर्शों को समाविष्ट किया जाय। इसके लिए क्रियात्मक अनुसंधान एक क्रान्तिकारी कदम है। क्रियात्मक अनुसन्धान के महत्त्व को निम्नलिखित प्रकार से समझा जा सकता है-
(1) विद्यालय की कार्यप्रणाली में आवश्यक सुधार- क्रियात्मक अनुसंधान द्वारा अध्यापकों, प्रधानाचार्यों, प्रबन्धकों एवं निरीक्षकों को अपने-आप अपने विद्यालय की समस्याओं को समझने तथा उनका समाधान करने एवं उनकी प्रक्रियाओं का मूल्यांकन करने एवं परिवर्तन करने का अवसर प्राप्त होता है। इससे विद्यालय की कार्य प्रणाली में आवश्यक सुधार लाया जा सकता है।
(2) विद्यालय में यान्त्रिकता एवं रूढ़िवादिता का वातावरण समाप्त करने का अवसर- क्रियात्मक अनुसंधान प्रारम्भ होने के पूर्व जो शिक्षा सिद्धान्त एवं विधियाँ परम्परागत अनुसंधान द्वारा निश्चित कर दी जाती थीं, उन्हीं के अनुसार चलना विद्यालय के लिए आवश्यक समझा जाता था। विद्यालय की इस यान्त्रिकता एवं रूढ़िवादिता के वातावरण का अन्त करने में क्रियात्मक अनुसंधान से बहुत अधिक सफलता मिलेगी।
(3) विद्यालयों की समस्याओं का समाधान- स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् हमारे देश में औद्योगिक तथा नगरीकरण की प्रक्रिया तीव्र गति से आरम्भ हुई। इसके फलस्वरूप शिक्षा के क्षेत्र में अनेक क्रान्तिकारी परिवर्तन करने पड़े। इसके फलस्वरूप पाठ्यक्रम, शिक्षण पद्धति, अनुशासन, कक्षा भवन तथा पुस्तकालय का प्रबन्ध आदि से सम्बन्धित विभिन्न नवीन समस्याएँ उत्पन्न हुईं। इन नवीन समस्याओं का समाधान करने के लिए क्रियात्मक अनुसंधान अधिक उपयोगी है।
(4) शिक्षकों, प्रधानाचार्यों एवं निरीक्षकों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने का प्रयास- क्रियात्मक अनुसंधान शिक्षकों, प्रधानाचार्यो, प्रबन्धकों एवं निरीक्षकों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकसित करने में सहायता प्रदान करता है। इससे वे व्यक्तिगत स्वार्थों, पक्षपात, रुचियों एवं झुकावों को विद्यालय की कार्यप्रणाली से दूर रख सकते हैं। इससे विद्यालयों द्वारा एक-दूसरे पर आरोप करने की प्रवृत्ति को परस्पर मेल-जोल तथा संगठन द्वारा दूर किया जा सकता है। विद्यालय की प्रत्येक समस्या का समाधान वैज्ञानिक ढंग से किया जा सकता है।
(5) प्रजातान्त्रिक आदर्शों एवं मूल्यों की रक्षा- लोकतान्त्रिक अथवा प्रजातान्त्रिक देश में जहाँ प्रत्येक नागरिक को अपने अधिकारों को प्रयुक्त करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होती है, वहीं उनसे यह भी आशा की जाती है कि वे अपने कर्त्तव्यों को अच्छी तरह समझें तथा उनका पालन करें। ऐसी स्थिति में प्रत्येक शिक्षक, प्रधानाचार्य, प्रबन्धक एवं निरीक्षक को अपनी प्रक्रियाओं में संशोधन करने के लिए किसी प्रकार की बाधा नहीं पहुँचानी चाहिए। साथ ही यह भी यन्त आवश्यक है कि वे परस्पर सहयोग करने के लिए संगठन एवं निष्पक्ष भाव से कार्य करने के लिए तैयार रहें। उन्हें लगातार इस बात का प्रयास करते रहना चाहिए कि वे जिस भी कार्य का सम्पादन करें वह शिक्षा के उद्देश्य को पूरा करने में सहायक हो। अतः क्रियात्मक अनुसंधान से हमारे विद्यालयों का काफी लाभ हो सकता है।
(6) देश की उन्नति में सहायक- भारत को उन्नत बनाने के लिए अनुसंधान कार्य की बहुत अधिक आवश्यकता है। शिक्षा के क्षेत्र में इसकी अधिक आवश्यकता है, क्योंकि अन्य क्षेत्रों में होने वाली उन्नति शैक्षिक क्षेत्र में होने वाली उन्नति पर अवलम्बित रहती है। ऐसी स्थिति में शिक्षा में कुछ नवीन और विशिष्ट अनुसंधानों की आवश्यकता है। इन अनुसंधानों में क्रियात्मक अनुसंधान को प्रमुख स्थान देना पड़ेगा क्योंकि इस प्रकार के अनुसंधानों का विद्यालय की गतिविधियों तथा कार्य करने वाले व्यक्तियों से प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है।
(7) विद्यार्थियों के बहुमुखी विकास के लिए विद्यालय की प्रक्रियाओं का प्रभावकारी आयोजन- क्रियात्मक अनुसंधान के द्वारा शिक्षक, प्रधानाचार्य, प्रबन्धक एवं निरीक्षक स्वयं शिक्षा की प्रत्येक क्रिया से सम्बन्धित समस्याओं का अध्ययन करते हैं और उन्हें हल करने के लिए नवीन ज्ञान का अन्वेषण करते हैं। इसलिए वे क्रियात्मक अनुसंधान का सम्पादन करके विद्यार्थियों की बहुमुखी उन्नति के लिए विद्यालय की प्रक्रियाओं को प्रभावशाली बनाने का प्रयास करते हैं।
(8) अनुसंधान के परिणामों के कार्यान्वयन की समस्या का समाधान- परम्परागत अनुसंधान के परिणामों को कार्य रूप में परिणित करने की एक कठिन समस्या होती है। इसका कारण यह है कि उसमें अनुसंधान करने वाले व्यक्ति दूसरे होते हैं। परम्परागत अनुसंधान तथा विद्यालय जीवन के बीच गहरी खाई होती है। क्रियात्मक अनुसंधान करने वाले वे ही व्यक्ति होते हैं, अर्थात् अध्यापक, प्रधानाचार्य, प्रबन्धक एवं निरीक्षक, जो प्राप्त परिणामों को कार्य रूप में परिणत करते हैं। ऐसी स्थिति में क्रियात्मक अनुसंधान के परिणामों का कार्यान्वयन कोई समस्या नहीं होती।
(9) विद्यालय की उपलब्धियों में वृद्धि- हमारे देश के विद्यार्थियों की उपलब्धियों का स्तर अन्य विकसित देशों की अपेक्षा काफी निम्न है। इस स्तर को ऊँचा उठाने में क्रियात्मक अनुसंधान से अधिक सहायता प्राप्त हो सकती है।
(10) शिक्षकों में पारस्परिक सहयोग एवं सहानुभूति की भावना का विकास- विद्यालय में अध्यापक, प्रधानाचार्य, प्रबन्धक एवं निरीक्षक सभी मिलकर क्रियात्मक अनुसंधान का कार्य करते हैं, इससे उनमें पारस्परिक सहयोग एवं सहानुभूति का विकास होता है।
प्रश्न 32. क्रियात्मक अनुसंधान के प्रमुख सोपान एवं प्रविधियों की विवेचना कीजिए।
क्रियात्मक अनुसंधान के सोपान एवं प्रविधियाँ क्रियात्मक अनुसंधान के प्रमुख सोपान एवं प्रविधियाँ निम्नलिखित हैं-
- समस्या की पहचान एवं परिभाषीकरण (To Identify and Define the Problem),
- समस्या के सम्बद्ध कारणों का विश्लेषण (Analysis of Causes of the Problem),
- क्रियात्मक परिकल्पना का निर्माण (Formulation of the Action Hypothesis),
- क्रियात्मक परिकल्पना के परीक्षण हेतु अनुसंधान की रूपरेखा तैयार करना (Preparation of Research Design to Test the Action Hypothesis)
- निष्कर्ष निकालना (Deriving Conclusion)।
(1) समस्या की पहचान एवं परिभाषीकरण- प्रत्येक सोपान का सबसे पहला सोपान यह होता है कि जिस समस्या का समाधान करना है उसे भली-भाँति पहचान लिया जाय। यह कार्य इस हेतु आवश्यक है कि जब तक समस्याओं की पहचान नहीं होगी तब तक उसका समाधान नहीं ढूँढ़ा जा सकेगा। प्रायः यह देखा जाता है कि विद्यालय के प्रधानाचार्य और शिक्षक समस्या से पूर्णतः परिचित नहीं होते। उन्हें समस्या का भली-भाँति ज्ञान नहीं होता फलस्वरूप उन्हें सर्वप्रथम समस्याओं को पहचानना चाहिए और तत्पश्चात् उसका ठीक प्रकार से विश्लेषण करके उसका परिभाषित एवं सीमांतित रूप प्रस्तुत करना चाहिए। समस्या को परिभाषित करते समय उसके अन्तर्गत बहुअर्थक और जटिल शब्दों का सरल अर्थ स्पष्ट कर लेना चाहिए। समस्या सीमांकन करने के लिए उसके अत्यन्त व्यापक स्वरूप को थोड़ा विशिष्ट बना लेना चाहिए।
(2) समस्या से सम्बद्ध कारणों का विश्लेषण – अनुसंधानकर्त्ता को यह चाहिए कि जब उसके द्वारा समस्या का विशिष्ट रूप निश्चित कर लिया जाय तो साक्ष्यों सहित उससे सम्बद्ध कारणों का विश्लेषण करें। उसके द्वारा सम्बद्ध कारणों की एक सुस्पष्ट और विस्तृत सूची तैयार की जानी चाहिए तथा कारणों के सामने उनके साक्ष्यों का भी उल्लेख किया जाना चाहिए।
(3) क्रियात्मक परिकल्पना का निर्माण – समस्या से सम्बद्ध कारणों का विश्लेषण कर लेने के पश्चात् उसके समाधान पर विचार किया जाता है। यह विचार किया जाता है कि यदि हमारे द्वारा ऐसा कार्य किया जायेगा तो समस्या का समाधान निकल आयेगा। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि समस्या का एक सम्भावित समाधान निकाला जाता है और एक निश्चित दिशा में कार्य करने हेतु कदम बढ़ाया जाता है। इस तरह संक्षेप में, क्रियात्मक परिकल्पना किसी समस्या के सम्भावित समाधान हेतु दिया गया सुझाव है।
(4) क्रियात्मक परिकल्पना के परीक्षण हेतु अनुसंधान की रूपरेखा तैयार करना- परिकल्पना का निर्माण करने के बाद उसके यथार्थ और प्रभावशीलता का परीक्षण करना आवश्यक है। इस कार्य के लिए अनुसंधान की एक रूपरेखा तैयार की जाती है। इस तरह की रूपरेखा तैयार कर लेने से अनुसंधानकर्ता को काफी आसानी हो जाती है। इस कल्पना की यथार्थता का पता लगाने में अशुद्धियों के होने की बहुत कम सम्भावना रहती है। अनुसंधानकर्त्ता अपनी कार्य-विधियों में होने वाली भूलों को सफलतापूर्वक पहचान लेता है और कुछ निश्चित परिणामों तक पहुँच जाता है। यही नहीं बल्कि सम्पूर्ण अनुसंधान कार्य पूरी तरह से वैज्ञानिक हो जाता है।
क्रियात्मक परिकल्पना के परीक्षण के लिए तैयार की गयी रूपरेखा में निम्न बातों का समावेश होता है-
- क्रियाएँ जो प्रारम्भ करनी हैं- क्रियात्मक परिकल्पना के परीक्षण के हेतु जिन क्रियाओं को प्रारम्भ करना है उनका स्पष्ट रूप से उल्लेख कर दिया जाता है।
- विधि- इन क्रियाओं को सम्पादित करने हेतु जिस विधि का प्रयोग किया जायेगा उसका वर्णन किया जाता है
- अपेक्षित साधन- इन क्रियाओं के सफलतापूर्वक सम्पादन के लिए जिन साधनों की आवश्यकता होती है उनका उल्लेख किया जाता है।
- अनुमानित समय- क्रियाओं के सम्पादन में जो अनुमानित समय लगता है उसका उल्लेख किया जाता है।
(5) निष्कर्ष निकालना- परिकल्पना का परीक्षण करने के पश्चात् उसका निष्कर्ष निकाला जाता है, सामान्यीकरण प्राप्त किये जाते हैं तथा उनका पुनर्परीक्षण किया जाता है। प्राप्त परिणाम के आधार पर परिकल्पना को सत्य अथवा असत्य घोषित किया जाता है। यदि उस परिकल्पना के अन्तर्गत सम्पादित क्रियाओं द्वारा लक्ष्य की प्राप्ति होती है तो परिकल्पना को सत्य माना जाता है, परन्तु जब लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती तो परिकल्पना को असत्य अथवा अस्वीकृत मान लिया जाता है। परिकल्पना को अस्वीकार कर देने के पश्चात् दूसरी नई परिकल्पना का निर्माण किया जाता है और तत्पश्चात् उसका परीक्षण करके निष्कर्ष निकाला जाता है।
क्रियात्मक अनुसंधान के प्रमुख तत्त्व
क्रियात्मक अनुसंधान के सोपानों का परिचय प्राप्त करने के पश्चात् उसके प्रमुख तत्त्वों की जानकारी भी आवश्यक हो जाती है। इसके प्रमुख तत्व निम्न हैं-
- क्रियात्मक अनुसंधान का प्रमुख तत्त्व ऐसे समस्या क्षेत्र से परिचित होता है जो कि एक व्यक्ति अथवा समूह को इतना महत्त्वपूर्ण लगे कि वह किसी क्रिया को करने हेतु तैयार हो।
- एक विशिष्ट समस्या का चयन तथा उससे सम्बन्धित परिकल्पना का निर्माण।
- एक उद्देश्य का निर्धारण और उस उद्देश्य की पूर्ति हेतु उपयुक्त विधि का चयन।
- प्रदत्त सामग्री का एकत्रीकरण और उसका विश्लेषण।
- विश्लेषण के आधार पर यह देखना कि उद्देश्य की प्राप्ति किस सीमा तक हो सकी है।
- सामान्यीकरण प्राप्त किया जाना चाहिए और यह देखा जाना चाहिए कि प्रारम्भ की गयी क्रिया और वांछित उद्देश्य में क्या सम्बन्ध है।
- प्राप्त सामान्यीकरणों का क्रियात्मक परिस्थितियों में परीक्षण किया जाना चाहिए।
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