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निर्णयन में अधिकार की भूमिका
निर्णयन में अधिकार का विशेष महत्त्व होता है। बिना समुचित अधिकार के न तो प्रबन्धक निर्णय ले सकते हैं और न ही उन्हें प्रभावी बना सकते हैं। समुचित अधिकार के अभाव में किसी प्रबन्धक द्वारा लिया गया निर्णय अवैध या अमान्य होता है और जिसे लागू नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार, एक प्रबन्धक जिसे निर्णय लेने का अधिकार तो है, किन्तु उसे क्रियान्वित कराने का अधिकार नहीं है, तो ऐसे निर्णय भी बहुत कुछ अपनी महत्ता खो बैठते हैं। अतः यह नितान्त आवश्यक है कि एक प्रबन्धक को वे सभी सम्बन्धित अधिकार समुचित रूप से प्रदान किये जाएँ, जो उन निर्णयों के लिए आवश्यक हैं, जिन्हें उसे लेना है। साथ ही, किसी प्रबन्धक को प्रदत्त अधिकार- सीमा के बाहर निर्णय लेने की अनुमति नहीं होनी चाहिए। चूँकि निर्णयन का कार्य प्रबन्ध के हर स्तर पर होता है, अतः सर्वोच्च अधिकारी को चाहिए कि वह अधीनस्थ प्रबन्धकों को उनके कर्तव्यों और दायित्वों को देखते हुए, निर्णयन के समुचित एवं पर्याप्त अधिकार प्रदान करें। उच्च पदाधिकारियों को केवल नीति-सम्बन्धी एवं महत्त्वपूर्ण निर्णय ही लेने चाहिए तथा अधीनस्थ प्रबन्धकों को उन्हें अन्य निर्णय लेने के अधिकारों का प्रतिनिधित्व कर देना चाहिए। अधीनस्थ अधिकारियों को निर्णायन अधिकार सौंप देने के चार स्पष्ट लाभ होंगे – प्रथम, उच्चाधिकारियों को दिन-प्रतिदिन के अनेकों निर्णय लेने से मुक्ति मिलेगी। द्वितीय, वे नीति सम्बन्धी एवं गम्भीर निर्णयों, जिनमें अधिक अध्ययन, विचार और विश्लेषण की आवश्यकता होती है, पर अपना ध्यान, शक्ति और समय केन्द्रित कर सकेंगे। तृतीय, अधीनस्थ प्रबन्धकों को अपने-अपने क्षेत्र में निर्णय लेने का अवसर मिल सकेगा। इससे कर्मचारियों की दृष्टि में उनकी शक्ति और प्रतिष्ठा में वृद्धि होगी तथा उन्हें भी मानसिक और कार्य संतोष प्राप्त होगा। तथा चतुर्थ, ये निर्णय अत्यन्त वास्तविक होंगे, क्योंकि ये उन अधीनस्थ अधिकारियों द्वारा लिए गए होंगे जो कि स्थिति से पूर्णरूपेण परिचित हैं।
जहाँ निर्णयन के लिए अधीनस्थ प्रबन्धकों को पर्याप्त अधिकारों का प्रदान करना अपेक्षित है, वहाँ उनके दुरुपयोग पर समुचित नियन्त्रण रखना भी आवश्यक है। अतः अधीनस्थ प्रबन्धकों के निर्णयन अधिकार को कुछ स्थाई नीतियों, नियमों एवं कार्यविधियों की स्थापना करके नियन्त्रित कर दिया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त एक लम्बे समय से स्थापित परम्पराओं और व्यवहारों द्वारा भी उनके अधिकारों के दुरोपयोग को रोकती हैं, बल्कि उन्हें निर्णयन में मार्गदर्शन एवं एकरूपता भी प्रदान करती हैं। इन सीमाओं के उपरान्त भी अधीनस्थ प्रबन्धकों को निर्णयन में पर्याप्त स्वतन्त्रता, मुक्त चिन्तन एवं व्यक्तिगत रूचि लेने का अवसर रहता है।
निर्णयन में स्टाफ सहायता
प्रबन्धकों द्वारा समस्त निर्णय अपने ही प्रयासों एवं विचारों के आधार पर करना न तो सम्भव ही है और न ही अपेक्षित। अतः निर्णयन प्रक्रिया में प्रायः प्रबन्धकों को स्टाफ की सहायता प्रदान की जाती है। विवेकपूर्ण निर्णयन प्रक्रिया में बहुत से चरण होते हैं, जैसे समस्या का निदान, विश्लेषण, मौलिक विचारों की खोज तथा सर्वोत्तम विकल्प का सावधानीपूर्वक चुनाव। इसक अतिरिक्त, अधिकतर समस्याएँ अनेकों विषम घटकों से प्रभावित होती हैं। इसलिए प्रबन्धक को निर्णयन प्रक्रिया के विभिन्न चरणों में स्टाफ की सहायता प्रदान की जाती है, जिससे निर्णय अधिक अच्छे और शीघ्र हो सकें। स्टाफ, प्रबन्धक को समुचित तथ्य, आँकड़े, विचार और राय प्रदान करता है। क्योंकि प्रबन्धक के लिए, प्रबन्ध में समस्या के सभी पहलुओं पर भलीभाँति विचार करना एवं उनका विश्लेषण करना सम्भव नहीं है, अतः निर्णयन प्रक्रिया के कुछ चरणों में, प्रायः निदान, मौलिक विचारों की खोज और विश्लेषण के चरणों में, उसे’ स्टाफ की सहायता प्रदान कर दी जाती है और विकल्पों की तुलना तथा सर्वोत्तम विकल्प का चुनाव प्रबन्धक स्वयं करता है। स्टाफ की सहायता प्रबन्धक को निदान, विश्लेषण और मौलिक विचारों के पाने के कठिन चरणों से मुक्ति प्रदान करती है और साथ ही, उसे सुविचारित तथ्य और अनुभवी राय भी मिल जाती है, जिससे उसके ज्ञान की वृद्धि होती है तथा निर्णयों के अधिक श्रेष्ठ होने की सम्भावना भी बढ़ जाती है। स्टाफ की सहायता अप्रत्यक्षरूप से उसके अबाध निर्णयन अधिकार पर प्रतिबन्ध भी लगाती है और प्रबन्धक मनमाने ढंग से निर्णय नहीं ले पाते।
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