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पैवलोव का सम्बद्ध अनुक्रिया सिद्धान्त | सम्बद्ध अनुक्रिया सिद्धान्त के नियन्त्रक तत्त्व | अनुकूलित अनुक्रिया सिद्धान्त की शैक्षिक उपयोगिता

पैवलोव का सम्बद्ध अनुक्रिया सिद्धान्त | सम्बद्ध अनुक्रिया सिद्धान्त के नियन्त्रक तत्त्व | अनुकूलित अनुक्रिया सिद्धान्त की शैक्षिक उपयोगिता
पैवलोव का सम्बद्ध अनुक्रिया सिद्धान्त | सम्बद्ध अनुक्रिया सिद्धान्त के नियन्त्रक तत्त्व | अनुकूलित अनुक्रिया सिद्धान्त की शैक्षिक उपयोगिता

पैवलोव के सम्बद्ध अनुक्रिया सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं? इसकी शैक्षिक उपयोगिता का विवेचन कीजिए। अथवा पैवलोव के अनुकूलित-अनुक्रिया सिद्धान्त का वर्णन कीजिए।

पैवलोव का सम्बद्ध अनुक्रिया सिद्धान्त (Pavlov’s Conditioned Response Theory)

सम्बद्ध अनुक्रिया (Conditioned Response) का अर्थ है अस्वाभाविक उत्तेजना (Uncondition Stimulus) के प्रति स्वाभाविक क्रिया का उत्पन्न होना। उदाहरणार्थ एक बालक अपने बाजार के रास्ते से स्कूल जा रहा है। रास्ते में हलवाई की दूकान पड़ती है। दूकान पर सजी हुई रंग-बिरंगी मिठाइयों को देखकर बच्चे के मुँह से लार टपकने लगती है तथा धीरे-धीरे यह एक स्वाभाविक क्रिया बन जाती है अतः स्पष्ट है कि जब अस्वाभाविक उत्तेजना के प्रति स्वाभाविक क्रिया होती है और बाद में बार-बार दुहराने पर स्वाभाविक उत्तेजक भी वही अनुक्रिया पैदा करने लगता है जो अस्वाभाविक उत्तेजक करता था तो वह अनुकूलित अनुक्रिया सिद्धान्त कहलाता है। इस सिद्धान्त का प्रतिपादन 1904 में रूसी शरीरशास्त्री पैवलोव ने किया था। उनके अनुसार सीखने की क्रिया अनुक्रिया से प्रभावित होती है।

एच. डब्लू. बर्नार्ड ने सिद्धान्त की परिभाषा इस प्रकार दी है- “अनुकूलित अनुक्रिया उत्तेजना की पुनरावृत्ति द्वारा व्यवहार का संचालन है जिसमें उत्तेजना पहले किसी अनुक्रिया के साथ होती है, किन्तु अन्त में वह स्वयं उत्तेजना बन जाती है।”

लेस्टर एण्डरसन के अनुसार– “उद्दीपन अनुक्रिया प्राणी की मूल प्रश्न का एक भाग है यानी सीखना है, जब मूल Stimulus के साथ एक नया Stimulus दिया जाता है और कुछ समय बाद जब मूल उद्दीपक को हटा लिया जाता है तब यह देखा जाता है कि नये उद्दीपक में भी वही अनुक्रिया (Response) होती है जो मूल उद्दीपन से होती थी। इस प्रकार अनुक्रिया उद्दीपन के साथ अनुकूलित (Conditioned) हो जाती है।”

पैवलोव द्वारा परीक्षण- पैवलोव ने इस क्रिया को जानने के लिए एक पालतू कुत्ते पर यह प्रयोग किया। इस कुत्ते की लार ग्रन्थि का आपरेशन किया गया जिससे लार एकत्र की जा सके। लार को काँच की नली के द्वारा एकत्र किया गया। प्रयोग का आरम्भ इस प्रकार किया गया – कुत्ते को खाना देते समय घण्टी बजाई जाती थी तथा खाना देखकर कुत्ते के मुँह में लार आना स्वाभाविक था। घण्टी बजती है, परन्तु खाना नहीं दिया जाता है, परन्तु कुत्ते के मुँह से लार टपकती है। इस प्रकार घण्टी के साथ अनुकूलित क्रिया होने लगती है। इस प्रकार एक साथ दो उत्तेजनाएँ दी जाती थीं। घण्टी का बजाना तथा भोजन का दिया जाना साथ-साथ चलता रहा और काफी समय तक जब भोजन नहीं दिया गया केवल घण्टी बजी। परिणामतः अनुक्रिया (Response) वही हुई जो भोजन के दिये जाने के साथ होती थी। इस प्रकार स्पष्ट है कि जब दो उत्तेजनायें साथ दी जाती हैं पहले नयी तथा बाद में मौलिक उस समय पहली क्रिया भी Effective हो जाती है।

Conditioned Response इस आधार पर विकसित होती है-

(1) US – UR (अस्वाभाविक क्रिया तथा अनुक्रिया)

  भोजन – (लार) (Unconditioned Stimulus and Response)

(2) CS+US – UR (Condition Stimulus and Response)

घण्टी की आवाज + (Unconditions and Stimulus Response)

भोजन लार

(3) CS – CR (Condition Stimulus and Condition Response)

घण्टी की आवाज पर लार

इस प्रकार स्पष्ट है कि जब किसी क्रिया को बार-बार दुहराया जाता है तो Condition Stimulus भी वही Response करने लगता है जो Uncondition Stimulus करता था। इसमें भोजन (US) बदलकर घण्टी के साथ भी कुत्ता वही Response करने लगता है जो कि वह भोजन दिखाने पर करता था।

सम्बद्ध अनुक्रिया सिद्धान्त के नियन्त्रक तत्त्व (Controlling Element of Conditioned Response Theory)

अब हमें यह देखना है कि Conditioned Response किस प्रकार प्रभावित होती है। वह कौन-कौन से तथ्य हैं जो इस पर प्रभाव डालते हैं-

(1) अनुक्रिया का प्रभुत्व – अर्थात् अनुकूलित अनुक्रिया में प्रक्रिया का प्रभुत्व रहता है जैसे घण्टी के बजते ही कुत्ते का ध्यान आवाज की ओर केन्द्रित हो जाता है।

(2) उद्दीपकों में समय का सम्बन्ध– अन्य बातें समान रहने पर दो उद्दीपकों में भी समय का सम्बन्ध होना चाहिए जैसे भोजन तथा घण्टी का साथ-साथ बजाना।

(3) उद्दीपन की पुनः आवृत्ति— क्रिया के बार-बार करने पर वह स्वभाव में आ जाती है, जैसे वाटसन के प्रयोग में रोंयेदार बीजों से बालक डरता पाया गया।

(4) भावनात्मक पुनर्बलन – प्रेरक जितने अधिक शक्तिशाली होंगे अनुक्रिया उतनी अधिक होगी। इसके अलावा अन्य तथ्य हैं जो प्रभाव डालते हैं-

  1. अभ्यास – अनुकूलित प्रक्रिया को जितना अधिक दोहराया जायेगा उतनी ही अनुकूलित प्रक्रिया अधिक दृढ़ होगी।
  2. समय– समय का भी प्रभाव पड़ता है कि मूल उत्तेजना तथा सम्बन्धित उत्तेजना में कितना समय दिया गया है
  3. बाहरी बानाएँ।
  4. प्रेरक ।
  5. बुद्धि ।
  6. आयु ।

(vii) मानसिक स्वास्थ्य – यदि मानसिक रूप से स्वस्थ हैं तो उसमें Condition Response अधिक शीघ्र होगा।

अनुकूलित अनुक्रिया सिद्धान्त की शैक्षिक उपयोगिता (Educational Application of Conditioning Response)

अनुकूलित अनुक्रिया का आधार व्यवहार है। वाटसन ने यह कहा था, ‘मुझे कोई भी बालक दे दो मैं उसे जो चाहूँ बना सकता हूँ।’ वह व्यक्ति के विकास में अनुकूलित प्रभाव देता ही है। विद्यालय में इस मत का उपयोग सरलतापूर्वक किया जा सकता है-

(1) स्वभाव निर्माण – अनुकूलित प्रक्रिया धीरे-धीरे स्वभाव बन जाती है। स्वभाव का मानव जीवन से विशेष महत्त्व है। इससे समय की बचत होती है और कार्य में स्पष्टता होती है। बार-बार किया गया कार्य स्वभाव बन जाता है। विद्यालय परिवार तथा समाज में सिद्धान्त के आधार पर अनुशासन किया जा सकता है। विद्यालयों में अनेक समस्याओं का समाधान किया जा सकता है।

(2) अभिवृत्ति का विकास- इस सिद्धान्त के द्वारा छात्रों में अच्छी अभिवृत्ति विकसित हो सकती है। छात्रों के समक्ष आदर्श उपस्थित कर उन्हें अनुकूलन प्रक्रिया ग्रहण करने की अनुप्रेरणा दे सकते हैं और अच्छी अभिवृत्ति के साथ अनेक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर सकते हैं। इस सिद्धान्त का जितना प्रभाव अच्छी अभिवृत्ति विकसित करने पर पड़ता है उतना ही इसका प्रभाव विपरीत पड़ता है यदि किसी कार्य को ठीक प्रकार से ग्रहण न किया गया है। जैसे एक कक्षा उदाहरण से यह बात स्पष्ट है-

मान लिया कोई छात्र किसी विषय में रुचि नहीं रखता है तो वह अरुचि और घृणा उस विषय के पढ़ाने वाले अध्यापक से भी जुड़ जाएगी। अब यदि वह छात्र इस विषय को छोड़कर दूसरा विषय ले लेता है जिसे वह अच्छी प्रकार समझता है लेकिन कुछ समय पश्चात् उस विषय को पढ़ाने के लिए वही पहले वाला अध्यापक आ जाता है तो उस अध्यापक के प्रति घृणा का सम्बन्ध उस दूसरे विषय से भी जुड़ जाएगा। इस प्रकार स्पष्ट है कि विषय को पढ़ाने से पहले अध्यापक को छात्र की रुचि का ध्यान रखना चाहिए जिससे वह उस विषय में Conditioned हो जाता।

(3) अक्षर विन्यास और गुण शिक्षण— इस सिद्धान्त के अनुसार छात्रों में अक्षर विन्यास और गुण का विकास किया जा सकता है, क्योंकि इस सिद्धान्त में अभ्यास पर अधिक बल देना आवश्यक है।

(4) मानसिक व संवेगात्मक अस्थिरता का उपचार- यह सिद्धान्त उन बच्चों के लिए उपचार प्रस्तुत करता है जो मानसिक रूप से अस्वस्थ होते हैं तथा संवेगात्मक रूप से अस्थिर होते हैं।

(5) अ यापक का योग- इस सिद्धान्त के अनुसार अध्यापक का योग वातावरण का निर्माण करने में अधिक रहता है। अध्यापक को चाहिए कि वह बालकों को दण्ड व पुरस्कार का निर्णय तुरन्त करे इससे अनुकूलित प्रक्रिया का सम्पादन शीघ्र होगा।

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About the author

Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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