बेरोजगारी क्या है ? भारतीय कृषि में बेरोजगारी के कारणों की विवेचना कीजिए। मुख्य उपायों को बताइये ।
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बेरोजगारी (Unemployment)
बेरोजगारी की परिभाषा करते हुए कार्ल प्रियाम ने लिखा है कि बेरोजगारी श्रम बाजार की एक दशा है, जिसमें श्रम शक्ति की पूर्ति कार्य करने के स्थानों की संख्या से अधिक होती है। फेयरचाइल्ड (Fairchild) के “बेरोजगारी एक सामान्य मजदूरी करने वाले वर्ग को सामान्य काम करने वाले समय में, सामान्य वेतन पर और सामान्य दशाओं में वेतन मिलने वाले काम से अनिच्छापूर्वक तथा जबरदस्ती अलग कर देना है।” साधारण रूप में बेरोजगारी का मतलब इच्छा करने पर काम न मिलना है।
भारतीय कृषि में बेरोजगारी
रॉयल एप्लीकल्चरल कमीशन (Royal Agricultural Commission) के अनुसार भारत के गाँवों में किसान 3 से 6 माह तक बेकार रहते हैं। सन् 1951 में प्रकाशित राष्ट्रीय आय समिति (National Income Committee) की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में खेती के काम में लगे हुए व्यक्तियों की प्रति व्यक्ति आय 180 रु० आँकी गई थी तथा अन्य व्यवसायों में लगे व्यक्तियों की आय इससे ढाई गुना अर्थात् 416 रु० आँकी गई थी। आय की इस कमी का कारण कृषि सम्बन्धी बेरोजगारी थी। भारत में 1941 से लेकर 1951 तक के समय में लगभग 1 करोड़ व्यक्ति गाँव छोड़कर नगर में काम की तलाश में आये। इनके पास या तो भूमि थी ही नहीं या काफी नहीं थी तथा यदि काफी थी तो उपजाऊ नहीं थी। डॉ० राधाकमल मुखर्जी का अनुमान है कि भारत में खेती पर निर्भर जनता में भूमिहीन मजदूरों की संख्या 6 से 7 करोड़ के बीच में है। उत्तर प्रदेश सरकार के एक सर्वेक्षण के अनुसार पूर्वी क्षेत्रों में किसान साल में केवल तीन या चार महीने ही काम करता है।
कृषि क्षेत्र में बेरोजगारी के कारण
उपर्युक्त आँकड़ों से यह साफ जाहिर होता है कि भारत में कृषि क्षेत्र में बेरोजगारी बहुत अधिक है। इसके बहुत से कारणों में से मुख्य निम्नलिखित हैं
1. भूमि का सीमित होना – एक ओर आबादी बढ़ रही है और दूसरी ओर भूमि सीमित है। भूमि पर बोझ पहले ही बहुत था। अब आबादी और भी बढ़ने से बेरोजगारी बढ़ती जाती है।
2. सहायक उद्योगों का अभाव – खेती से बचे इस समय को यदि काम में लगा दिया जाये तो बेरोजगारी नहीं होती, परन्तु सहायक उद्योगों के अभाव में ऐसा भी नहीं किया जा सकता। इससे भूमिहीन अथवा कम या बंजर जमीन वाले ग्रामीण भी बेरोजगार बने रहते हैं।
3. अवैज्ञानिक और पुरानी कृषि पद्धति – भारत में अब भी पुरानी अवैज्ञानिक पद्धति से खेती की जाती है। इससे एक किसान अपने खेत की उपज से बहुत कम लोगों का पेट भर पाता है और वह अपने बच्चों को न तो भली प्रकार शिक्षा दिला पाता है और न ही किसी व्यवसाय में लगा पाता है।
4. कृषि की अव्यवस्था – वास्तव में, भारत में कृषि सम्बन्धी बेरोजगारी का सबसे बड़ा कारण यह है कि यहाँ कृषि बड़ी ही असंगठित और अव्यवस्थित है।
5. जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि – भारत में लगभग 50 लाख व्यक्ति हर साल बढ़ जाते हैं। 1951 की जनगणना के अध्यक्ष श्री गोपाल स्वामी के अनुसार, यह वृद्धि प्रतिवर्ष 80 लाख हुआ करेगी। इस अत्यधिक वृद्धि के साथ-साथ देश में उद्योग-धन्धे नहीं बढ़ रहे हैं और अब भी लगभग 69.7 प्रतिशत जनसंख्या खेती पर निर्भर है। इससे धरती पर बोझ बढ़ता जाता है और बेरोजगारी बढ़ती जाती है।
6. खेती की मौसमी प्रकृति – भारत में मौसमी बेरोजगारी बहुत अधिक है, क्योंकि यहाँ खेती मौसम पर अत्यधिक आधारित है। डॉ० साल्टर (Salter) के अनुसार, दक्षिणी भारत का किसान वर्ष में केवल पाँच महीने खेती में लगता है और बाकी सात महीने बेकार रहता है। इसी प्रकार देश के अन्य भागों में भी किसान साल में कई महीने बेकार रहते हैं, क्योंकि पूरे साल भर खेती कहीं नहीं चलती ।
7. कृषि वर्षा पर आधारित है – भारत में खेती वर्षा के आधार पर सट्टेबाजी की तरह से है। यदि वर्षा समय पर और उचित मात्रा में हो गई तो खेती अच्छी हो गई। यदि वर्षा असमय, अधिक या कम या बिल्कुल न हुई तो खेतो समाप्त ही समझिये। देश में सिंचाई के स्थायी साधन पर्याप्त न होने के कारण किसान विवश रहता है। वर्षा न होने पर अकाल पड़ जाता है और करोड़ों लोग बेकार हो जाते हैं। सामान्य दशाओं में वेतन मिलने वाले काम से अनिच्छापूर्वक तथा जबरदस्ती अलग कर देना है।” साधारण रूप में बेरोजगारी का मतलब इच्छा करने पर काम न मिलना है।
8. भूमि का विभाजन – भारत में कृषि भूमि छोटे-छोटे टुकड़ों में बँटी हुई है और उसके और भी विभाग होते जाते है। कभी-कभी ये टुकड़े दूर-दूर बिखरे होते हैं। इस क्षेत्र विभाजन (Sub-division) और अपखण्डन (Fragmentation) से उपज बहुत कम हो जाती है और कभी-कभी अनुत्पादक जोत (Uneconomic Holding) बन जाता है।
मुख्य उपाय (Major Remedies)
1. कृषि व्यवस्था में सुधार- कृषि सम्बन्धी बेरोजगारी को दूर करने के लिए खेती की दशा में सुधारने की जरूरत है। इस सम्बन्ध में मुख्य उपायों के सुझाव निम्नलिखित हैं-
(i) प्रचलित पद्धति से जमीन का पूरा-पूरा लाभ नहीं उठाया जाता। अतः गहरी खेती (Intensive Cultivation) की पद्धति को अपनाना पड़ेगा।
(ii) भूमि की उपज बढ़ाने के लिये अच्छे बीजों, अच्छे औजार, अच्छी खाद और अच्छे पशुओं आदि की व्यवस्था करनी पड़ेगी।
(iii) कृषि व्यवस्था में सुधार के लिये सबसे पहले अनार्थिक जोतों का अन्त करना पड़ेगा और भूमि को छोटे-छोटे टुकड़ों में बाँटने से रोकना पड़ेगा। बिखरे हुए टुकड़ों की चकबन्दी होनी चाहिये। इससे आर्थिक जोतों का निर्माण होगा और पैदावार बढ़ेगी।
(iv) फसलों के हेर-फेर को निश्चित करने से उपज बढ़ेगी और अधिक दिनों तक काम भी मिल सकेगा। 2. भूमि को बढ़ाना- देश में खेती योग्य भूमि बढ़ाना भी जरूरी है। इसके लिये बन्जर जमीन को वैज्ञानिक क्रियाओं से खेती योग्य बनाना पड़ेगा। पथरीली जमीन तथा दलदल व घास के मैदान भी खेती के योग्य बनाये जा सकते हैं।
3. सार्वजनिक निर्माण – कुटीर उद्योगों के अलावा सार्वजनिक निर्माण के कामों जैसे सड़कें बनाना, नदियाँ खोदना आदि के शुरू करने से गाँव के बेकार लोगों को काम मिलेगा।
4. कृषि बाजार का संगठन – उत्पादन बढ़ने के बाद कृषि बाजार का संगठन किये बिना कृषि सम्बन्धी बेरोजगारी दूर नहीं की जा सकती। कृषि बाजार के संगठन से जहाँ किसानों की आय बढ़ेगी, वहाँ बेकारी की अवस्था में भी सुधार होगा।
5. सिंचाई का समुचित प्रबन्ध – भारत में कृषि सम्बन्धी बेरोजगारी का एक बड़ा कारण खेती का वर्षा पर निर्भर होना है। अतः सिंचाई की छोटी व बड़ी योजनाओं के द्वारा सिंचाई का समुचित और अच्छा प्रबन्ध होना चाहिये।
6. सहायक उद्योगों का विकास – परन्तु केवल खेती का विकास करने से ही देश की बढ़ती हुई जनसंख्या को काम नहीं मिल सकता। इसके अतिरिक्त किसानों को साल के बेकार महीनों में भी कुछ न कुछ काम मिलना चाहिये। गाँव में बूढ़े स्त्री-पुरुष बहुधा बेकार रहते हैं। इन सबको काम देने के लिये खेती के साथ-साथ सहायक उद्योग-धन्धों का विकास होना आवश्यक है। इस प्रकार के सहायक उद्योगों में दुग्धशाला, मधुमक्खी पालन, मुर्गी पालन, फर्नीचर बनाना, चूड़ी बनाना, कपड़े बुनना, सूत कातना, दियासलाई बनाना, टोकरियाँ, रस्सी तथा निवाड़ आदि बनाना इत्यादि कुटीर उद्योगों के विकास से बेरोजगारी दूर करने में बड़ी नदद मिलेगी।
7. सामाजिक स्थानान्तरण का प्रबन्ध – कभी-कभी ऐसा होता है कि एक स्थान पर मजदूरी की अत्यधिक माँग होती है, जबकि उसी समय दूसरी जगह हजारों आदमी बेकार पड़े रहते हैं। ऐसी हालत में सरकार को बेकारों को काम दिलवाने के लिये सामयिक स्थानान्तरण का प्रबन्ध करना चाहिये और आवागमन की सुविधायें देनी चाहियें। इसी प्रकार घनी जनसंख्या वाले स्थानों से कम जनसंख्या वाले स्थानों में लोगों को भेजने का प्रबन्ध होना चाहिए।
संक्षेप में, बेरोजगारी को दूर करने के लिए एक उपाय काफी नहीं होगा, बल्कि उसके सभी कारणों का उपाय करना पड़ेगा। हर्ष है कि भारत सरकार इस दिशा में प्रयत्नशील है। सरकारी और गैर-सरकारी प्रयत्नों से ही कृषि सम्बन्धी बेरोजगारी की दशा सुधर सकती है।
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