बौद्धकालीन शिक्षा व्यवस्था से आप क्या समझते हैं ? बौद्धकालीन शिक्षा व्यवस्था के उद्देश्य एवं विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
लगभग छठवीं शताब्दी ई० पू० तक प्राचीन वैदिक धर्म अनेक दोषों से परिपूर्ण हो गया था। धर्म के मूलभूत सिद्धान्तों की नींव पड़ चुकी थी और उसमें अनेक कर्मकाण्डों का समावेश हो गया था। देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए नरबलि तथा पशुबलि बहुत ही आसान चीज बन गयी थी। वर्ण-व्यवस्था ने जाति व्यवस्था का रूप धारण कर लिया था। इसमें ब्राह्मणों को विशेष महत्त्व प्रदान किया जाता था। स्त्रियों तथा शूद्रों को हीन दृष्टि से देखा जाता था। शिक्षा पर से अन्य जातियों के अधिकार उठ गये और उस पर केवल ब्राह्मणों का एकाधिकार रह गया। जन-सामान्य ब्राह्मणों के निर्मित नियमों से तंग आ गया था, अतएव उन नियमों में सुधार की आवश्यकता समझी जाने लगी।
इसी समय 563 ई० पू० में महात्मा गौतम बुद्ध का आविर्भाव हुआ। उन्होंने उक्त दोषों को दूर करने के लिए सुधारवादी दृष्टिकोण अपनाया। इसी को हम बौद्ध धर्म के नाम से जानते हैं। महात्मा बुद्ध ने जाति-भेद को दूर करके सभी लोगों में अपने धर्म का प्रचार किया। मोक्ष प्राप्त करने के लिए उन्होंने यज्ञ आदि कर्मकाण्डों को दूर करके उनके स्थान पर ज्ञान प्राप्ति, अहिंसा, सदाचार तथा पवित्र जीवन को स्थान दिया। अपने धर्म का प्रचार करने के लिए साधन के रूप में उन्होंने जन-साधारण की भाषा को अपनाया। इस धार्मिक क्रान्ति का प्रभाव शिक्षा पर भी पड़े बिना न रहा। इसके परिणामस्वरूप एक नयी शिक्षा प्रणाली सामने आयी, इसी को बौद्ध-कालीन शिक्षा प्रणाली कहा जाता है। इस विषय में डॉ0 एफ0 ई० कई का कथन है- “बौद्ध शिक्षा 1500 वर्ष से अधिक दिनों तक प्रचलित रही और उसने ऐसी शिक्षा पद्धति को जन्म दिया जो कि ब्राह्मणीय शिक्षा पद्धति की प्रतिद्वन्द्वी थी, परन्तु अनेक बातों में उसके समान थी।”
यह नवीन शिक्षा प्रणाली वैदिक शिक्षा प्रणाली से काफी मायनों में भिन्न होती हुई भी काफी समान थी। डॉ० आर० के० मुकर्जी ने लिखा है- “उचित रूप से विचार किए जाने पर बौद्ध शिक्षा प्राचीन हिन्दू अथवा ब्राह्मणीय शिक्षा प्रणाली का केवल एक रूप थी।”
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बौद्धकालीन शिक्षा व्यवस्था (Buddha Period Education System)
(1) बौद्धकालीन शिक्षा के प्रमुख केन्द्र संघ- चूँकि बौद्धकालीन धर्म अर्थात् बौद्ध-धर्म का विकास संघों के रूप में ही हुआ था, इसलिए बौद्धकालीन शिक्षा के केन्द्र संघ ही थे। बौद्ध शिक्षा न वैदिक अध्ययन पर निर्भर थी और न बौद्ध शिक्षा प्रदान करने के ठेकेदार ब्राह्मण ही थे। बौद्ध-धर्म का विकास संघों के रूप में हुआ था। इस बौद्धकालीन शिक्षा के प्रमुख केन्द्र संघ ही रहे। इन संघों के अतिरिक्त कहीं भी शिक्षा देने का कार्य नहीं होता था। इस शिक्षा में एक विचारणीय बात यह थी कि केवल संघ के श्रमणों को ही धार्मिक तथा सांसारिक शिक्षा पाने का अधिकार था, इसलिए इन्हीं को शिक्षा प्राप्त करने का अवसर दिया जाता था, अन्य लोगों को नहीं। बौद्ध काल में वैदिककालीन यज्ञों का स्थान संघों ने ले लिया था। इसलिये बौद्ध संघ की पद्धति को ही बौद्ध शिक्षा पद्धति कहा जाता है। बौद्ध मठों में रहने वाले भिक्षुकों द्वारा ही शिक्षा देने का कार्य सम्पन्न किया जाता था। इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए डॉ० मुकर्जी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘प्राचीन भारतीय शिक्षा’ (Ancient Indian History) में लिखा है “बौद्ध मठ, बौद्ध शिक्षा एवं ज्ञान के केन्द्र माने जाते थे। बौद्ध संसार अपने मठों से अलग या स्वतन्त्र रूप में शिक्षा प्राप्त करने का कोई अवसर नहीं देता था। धार्मिक एवं लौकिक सभी प्रकार की शिक्षा व्यवस्था भिक्षुकों के हाथ में थी।”
आर० के० मुकर्जी ने बौद्ध शिक्षा प्रणाली पर प्रकाश डालते हुए लिखा है- “बौद्ध शिक्षा प्रणाली प्रायः बौद्ध संघ की पद्धति है, जिस प्रकार वैदिक युग में यज्ञ संस्कृति के केन्द्र थे उसी प्रकार बौद्ध युग में संघ शिक्षा के केन्द्र थे। बौद्ध संसार में अपने संघों से पृथक अथवा स्वतन्त्र रूप से शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं था। सब प्रकार की शिक्षा धार्मिक एवं लौकिक श्रमणों के हाथ में थी। उनका विद्या एवं उसके प्रसार के अवसर पर एकाधिकार था।”
(2) शिक्षा के दो स्तर- बौद्ध काल की शिक्षा व्यवस्था दो स्तरों पर विभाजित थी-
- (क) सार्वजनिक प्राथमिक शिक्षा और
- (ख) उच्च शिक्षा ।
(क) सार्वजनिक प्राथमिक शिक्षा- बौद्धकालीन प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था का ज्ञान जातक कथाओं से प्राप्त होता है। इस शिक्षा के केन्द्र बौद्ध मठ थे। आरम्भ में प्राथमिक शिक्षा का स्वरूप धार्मिक था परन्तु आगे चलकर इसमें लौकिक शिक्षा का भी समावेश हो गया। बात यह थी कि ब्राह्मणों द्वारा चलाई जाने वाली प्रतिद्वन्द्वी संस्थाओं में इन दोनों प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था की गयी थी। इसलिए उक्त शिक्षा का लाभ लेने के लिए बौद्धकालीन शिक्षा में भी दोनों प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था की गयी थी। ऐसा करने से शिक्षा पर से ब्राह्मणों का एकाधिकार समाप्त हो गया। फाह्यान जब भारत आया था (399-414 ई०) उस समय बौद्ध मठों में अथवा बौद्ध संघों में सम्मिलित होने वालों की शिक्षा के साथ-साथ सामान्य शिक्षा की भी अति सुन्दर व्यवस्था की गयी थी।
सार्वजनिक प्राथमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम- सातवीं शताब्दी में हेनसांग और इत्सिंग भारत आये। उन्होंने बौद्ध काल की सार्वजनिक प्राथमिक शिक्षा के स्वरूप का बड़ा सुन्दर वर्णन किया है। उनके अनुसार बौद्धकालीन प्राथमिक शिक्षा का शुभारम्भ करने की व्यवस्था तीन वर्ष थी। छात्रों को 9 महीने तक सिद्धिरस्तु नाम की बाल पोथी का अध्ययन करना पड़ता था, जिसमें वर्णमाला के 49 अक्षर थे। बाल पोथी को समाप्त करने के बाद विद्यार्थी को निम्नलिखित पाँच विषयों का अध्ययन करना पड़ता था-
(क) शब्द शिक्षा, (ख) शिल्प स्थान विद्या, (ग) चिकित्सा विद्या, (घ) हेतु विद्या और (ङ) आध्यात्मिक विद्या
उक्त कथन से यह बात स्पष्ट है कि बौद्ध मठों में विद्यार्थियों को धार्मिक, लौकिक, व्यावहारिक एवं दार्शनिक ज्ञान प्रदान किया जाता था। प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार बौद्ध भिक्षुओं तथा सामान्य गृहस्थों एवं बौद्ध धर्म न मानने वालों को भी था। यही कारण है कि इस शिक्षा को ‘सार्वजनिक प्राथमिक शिक्षा’ कहा गया है। वैदिककालीन शिक्षा का माध्यम संस्कृत भाषा थी लेकिन बौद्धकालीन शिक्षा का माध्यम सर्वसाधारण की भाषा अर्थात् पाली भाषा थी।
(ख) उच्च शिक्षा की व्यवस्था- उच्च शिक्षा की रूपरेखा एवं पाठ्यक्रम सार्वजनिक शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त उच्च शिक्षा प्राप्त करने की व्यवस्था थी। उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार केवल बौद्ध भिक्षुओं को था। यह शिक्षा भी मठों में ही प्रदान की जाती थी। सामान्य विषयों का अध्ययन करने के साथ ही किसी विशेष विषय में विशेष योग्यता प्राप्त करनी पड़ती थी। बालक सबसे पहले व्याकरण, धर्म, ज्योतिष, औषधिशास्त्र, दर्शन आदि से सामान्य ज्ञान प्राप्त करते थे। इसके पश्चात् किसी एक विषय में विशेष योग्यता प्राप्त करते थे। हेनसांग के अनुसार उच्च शिक्षा में सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक दोनों ही पक्षों पर विशेष ध्यान दिया जाता था।
उच्च शिक्षा के केन्द्र तथा उसकी ख्याति- बौद्ध काल में निम्नलिखित शिक्षा के केन्द्र अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर चुके थे- (1) नालन्दा विश्वविद्यालय, (2) तक्षशिला, (3) विक्रमशिला, (4) बल्लभी, (5) ओदन्तपुरी, (6) नदिया, (7) अमरावती, (8) सारनाथ, और (9) जगदला।
उपर्युक्त शिक्षा संस्थाओं का संचालन जनतान्त्रिक ढंग से होता था। इनका प्रधान, प्रधान शिक्षक होता था जो कि विद्यालय का संचालन करता था। प्रधान की अधीनता में विभिन्न विषयों के उपाध्याय (शिक्षक) होते थे। इन विद्यालयों के खर्च के लिए बड़े-बड़े राजाओं तथा महाराजाओं से पर्याप्त सहायता प्राप्त होती थी। इसी धन से ये विद्यालय चलते थे। इन विद्यालयों पर किसी ब्रह्म शक्ति का हस्तक्षेप नहीं होता था। ये सभी केन्द्र अपनी शिक्षा के लिए अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर चुके थे। अन्य देशों के लोग आदर के साथ इन विद्यालयों का गुणगान करते थे। यही कारण है कि इन विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने के लिए भारत के साथ अन्य देशों के छात्र भी अध्ययन करने के लिए आते थे।
डॉ० अल्तेकर ने लिखा है- “मठों में अपनी उच्च शिक्षा की योग्यता से, जहाँ अध्ययन करने के लिए कोरिया, चीन, तिब्बत एवं जावा जैसे सुदूर देशों के छात्र आकर्षित होते थे, भारत की अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति को ऊँचा उठा दिया।”
उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है कि वैदिककालीन शिक्षा का प्रसार और प्रचार केवल स्वदेश तक ही सीमित था परन्तु बौद्धकालीन शिक्षा अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर चुकी थी।
बौद्धकालीन शिक्षा के उद्देश्य (Aims of Buddhist Education)
बौद्धकालीन शिक्षा-प्रणाली भारतीय पृष्ठभूमि एवं वातावरण में विकसित हुई एवं वैदिक युगीन शिक्षा बौद्धकालीन शिक्षा के उद्देश्यों एवं आदर्शों में बहुत कुछ समानता दिखलाई देती है। इस युग की शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य थे-
(1) निर्वाण-प्राप्ति में सहायता प्रदान करना- बौद्ध धर्म की प्रमुख मान्यता थी कि दुःख का प्रमुख कारण अज्ञान अथवा अविद्या है। इसलिए इस काल की शिक्षा का उद्देश्य धार्मिक भावना का उदय करना और शिक्षा द्वारा ज्ञान प्राप्त करके “निर्वाण प्राप्त करने में सहायता देना था।”
(2) चरित्र – निर्वाण- उस समय सदाचार एवं संयम पर विशेष बल दिया जाता था। शिक्षा के उद्देश्य मनुष्य को सात्विक जीवन व्यतीत करने योग्य बनाने और उसके चरित्र का निर्माण करना था। मठ एवं विहारों में प्राचीन वैदिक-शिक्षा की भाँति ब्रह्मचर्य जीवन व्यतीत करने की शिक्षा प्रदान की जाती थी।
(3) व्यक्तित्व का विकास- बौद्धकालीन शिक्षा का एक अन्य उद्देश्य आत्मज्ञान और आत्मानुशासन द्वारा व्यक्तित्व का विकास करना था।
(4) सामाजिक कुशलता की वृद्धि- बौद्ध-युग की शिक्षा का एक मुख्य उद्देश्य सामाजिक कुशलता एवं नागरिकता का विकास करना भी था। छात्रों को व्यावहारिक और व्यावसायिक शिक्षा प्रदान की जाती थी।
(5) राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण एवं प्रसार- बौद्ध-युगीन शिक्षा का एक अन्य महत्त्वपूर्ण उद्देश्य राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण और उसका प्रसार करना था। अतएव इस युग में विदेशों में धर्म प्रचार के साथ प्राचीन संस्कृति का भी प्रसार किया गया।
बौद्धकालीन शिक्षा का संगठन एवं विशेषताएँ (Organization and Features of Buddha Period Education)
बौद्धकालीन शिक्षा पद्धति के संगठन एवं प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित थीं-
(1) विद्यार्थित्व (Studentship) – बौद्धकालीन शिक्षालयों के द्वार शिक्षा प्राप्त करने के लिए सभी जातियों के लिए समान रूप से खुले रहते थे। विद्यार्थियों में ब्राह्मणों और क्षत्रियों के लड़के अधिक होते थे। राजा-महाराजाओं से लेकर मछुआरों तक के बच्चे एक साथ शिक्षा प्राप्त करते थे। हाँ, केवल चाण्डालों के पुत्रों को शिक्षालयों में प्रवेश करने का अधिकार नहीं था।
(2) शिक्षा आरम्भ करने की उम्र (अवस्था) (Age of commencement of Studentship) – बौद्ध काल में शिक्षा प्रारम्भ करने की आयु 8 वर्ष थी। विद्यालय में प्रवेश लेने के बाद विद्यार्थी ‘श्रमण’ या ‘सामनेर’ अथवा ‘नवशिष्य’ कहा जाता था। नये शिष्य के रूप में उसको 12 वर्ष तक अध्ययन करना पड़ता था। जब 20 वर्ष की अवस्था हो जाती थी तो भिक्षु के रूप में वह प्रवेश करता था। शिक्षा पाने के लिए हर विद्यार्थी को अपने माता-पिता की आज्ञा लेना आवश्यक होता था।
(3) विद्यार्थियों का चुनाव (Selection of Students)- वैसे तो सभी जातियों के लोगों को विद्याध्ययन का पूर्ण अधिकार होता था लेकिन निम्न बातों में से कोई भी बात यदि छात्र में होती थी तो वह शिक्षा पाने के लिए अयोग्य समझा जाता था। ऐसे विद्यार्थी को विद्यालयों (मठों) में प्रवेश करने का अधिकार नहीं होता था-
- जो किसी राजा की नौकरी करता हो ।
- जो जेलखाने से भाग कर आया हो।
- जिसे राज्य की ओर से दण्डित किया गया हो।
- जिसका कोई अंग-भंग हो ।
- जिसे डाकू घोषित किया गया हो
- जिसके शरीर का कोई भाग विकृत हो ।
- जिसे कोढ़, तपेदिक अथवा कोई अन्य छूत का रोग हो ।
- जो दास अथवा कर्जदार हो ।
- जो नपुंसक हो ।
- जिसे माता-पिता की आज्ञा विद्या प्राप्त करने के लिये न हो ।
(4) पब्बज्जा संस्कार (Pabbajja Ceremony)
(क) संस्कार (Ceremony) – वैदिककालीन शिक्षा में जिस प्रकार छात्रों का उपनयन संस्कार किया जाता था उसी प्रकार बौद्ध शिक्षा में पब्बज्जा या प्रव्रज्या संस्कार होने के बाद ही छात्र विद्यालय में (मठों में) शिक्षा पाने का अधिकारी समझा जाता था। प्रव्रज्या का अर्थ है बाहर जाना। इसका तात्पर्य था छात्र को अपने परिवार से अलग होकर बौद्ध मठ में प्रवेश करना। बौद्ध ग्रन्थ विनयपिटक में प्रव्रज्या संस्कार को निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया गया है-
‘छात्र अपने सिर के बाल मुड़वाता था, पीले वस्त्र पहनता था, मठ के भिक्षुओं के चरणों में अपना माथा टेकता और फिर पालथी मारकर बैठ जाता था।’
तदुपरान्त मठ का श्रेष्ठ भिक्षु विद्यार्थी को ‘शरणत्रयी’ प्रदान करने के लिए निम्न शब्दों को तीन बार कहलवाता था-
‘बुद्धं शरणं गच्छामि
धम्मं शरणं गच्छामि
संघशरणं गच्छामि।’
(ख) दस आदेश- उक्त कार्य के बाद छात्र को दस आदेश दिये जाते थे। इन आदेशों का पालन करना हर किसी छात्र के लिए आवश्यक होता था। इन्हीं दस आदेशों का पालन करते हुये कोई छात्र बौद्ध शिक्षा विधिवत् प्राप्त कर सकता था- (1) अशुद्धता से रहना। (2) असत्य भाषण न (3) जीव हत्या न करना। (4) चोरी न करना। (5) मादक वस्तुओं का सेवन न करना (6) शृंगार प्रसाधनों का प्रयोग न करना। (7) नृत्य, संगीत, तमाशा आदि के पासन जाना (8) ऊँचे बिस्तर पर न सोना। (9) वर्जित समय पर भोजन न करना । ( 10 ) सोने चाँदी का दान न देना।
(5) उपसम्पदा संस्कार
(क) संस्कार (Ceremony) – 8 वर्ष से लेकर 12 वर्ष तक छात्र श्रमण अथवा नव शिष्य के रूप में विद्या प्राप्त करता था। 12 वर्ष तक अध्ययन कर लेने के बाद उपसम्पदा संस्कार के द्वारा भिक्षु के रूप में वह संघ में प्रवेश करता था। भिक्षु शिक्षा का कार्यक्रम 20 वर्षों तक चलता रहता था। उपसम्पदा संस्कार एकपक्षीय संस्कार नहीं था। यह 16 भिक्षुओं के सामने होता था। एक भिक्षु श्रमण का परिचय कराता, इसके बाद अन्य भिक्षु कुछ प्रश्न करते थे। उत्तरों के आधार पर ही यह निर्णय किया जाता था कि नवशिष्य उपसम्पदा ग्रहण करने का अधिकारी हो सकता है अथवा नहीं। यह प्रणाली जनतन्त्रात्मक प्रणाली कही जा सकती है। इस संस्कार के बाद श्रमण अब पूर्ण भिक्षु बनकर संघ में प्रवेश करने का अधिकारी हो जाता था। इसके अतिरिक्त बालिकाओं एवं स्त्रियों को भी ‘पब्बज्जा’ एवं उपसम्पदा का अधिकार प्राप्त था।
(ख) नियम (Laws)- संघ में आने पर भिक्षु के रूप में छात्र को नीचे लिखे नियमों का पालन करना अनिवार्य होता था-
- साधारण तथा सादे वस्त्रों को धारण करना।
- वृक्ष तले निवास करना ।
- भिक्षा माँगकर भोजन करना ।
- औषधि के रूप में गोमूत्र का सेवन करना ।
- स्त्री समागम, चोरी तथा हत्या से बचना ।
- अलौकिक शक्तियों का दावा न करना।
(6) अध्ययन का समय (Period of Studentship)- बौद्धकालीन शिक्षा प्रणाली में 22 वर्ष तक अध्ययन कार्य करने का नियम था। यह काल दो भागों में विभाजित था-
(क) 12 वर्ष पब्बज्जा का,
(ख) 10 वर्ष उपसम्पदा का।
विद्याध्ययन कार्य 8 वर्ष से आरम्भ होकर 30 वर्ष तक चलता था।
(7) विद्यार्थी जीवन के नियम (Regulation Governing Student Life)- बौद्धकालीन शिक्षा में छात्रों को निम्नलिखित नियमों का पालन करना पड़ता था-
(i) स्नान- स्नान करना सबके लिये आवश्यक था। वे स्नान करते समय अपने हाथ से शरीर मल सकते थे लेकिन किसी अन्य चीज जैसे लकड़ी आदि से शरीर नहीं मल सकते थे। दूसरे से शरीर रगड़वाना भी मना था। स्नान करते समय वे खेल नहीं खेल सकते थे।
(ii) भोजन का नियम (Food)- विद्याध्ययन करने वाले छात्रों को बहुत ही सादा भोजन करना पड़ता था। दिन में तीन बार भोजन करने का नियम था। रात्रि के भोजन के लिए शिष्य तथा गुरु कहीं-न-कहीं आमन्त्रित किये गये रहते थे।
(iii) वस्त्र धारण के नियम (Clothing)- बौद्धकालीन शिक्षार्थियों को कम-से-कम वस्त्र धारण करना होता था। उनके तीन वस्त्र होते थे, इसलिए उन्हें तिचिवरा (Tichivara ) कहा जाता था।
(iv) भिक्षाटन (Begging)- बौद्धकालीन शिक्षा का यह नियम था कि वे दैनिक क्रियाओं से मुक्ति पाकर बिल्कुल प्रातःकाल भिक्षा माँगने के लिए चले जाते थे। भिक्षा माँगते समय वे मौन ही रहते थे तथा उतनी ही भिक्षा माँगते थे जितने की आवश्यकता होती थी। आवश्यकता से अधिक भिक्षा वे नहीं लेते थे।
(v) अनुशासन- बौद्धकालीन शिक्षा में छात्रों को अनुशासन में रहकर अध्ययन कार्य करना होता था। छात्रों को अनुशासन में रहने के लिए निम्नलिखित कार्य करने पड़ते थे- (क) उन्हें सम्पत्ति रखने का अधिकार नहीं था। (ख) वे अपने शरीर को अलंकृत नहीं कर सकते थे। (ग) व्यर्थ की बातें और व्यर्थ के कार्य करने की मनाही थी। (घ) उन्हें खेल तमाशे आदि देखने की सख्त मनाही थी। (ङ) उनके लिए यह आदेश होता था कि वे फूलों, पत्तों और पौधों आदि को हानि न पहुँचायें। जो विद्यार्थी इन नियमों का उल्लंघन करते थे उनको दण्डित किया जाता था। संघ के प्रधान भिक्षु को जब यह विश्वास हो जाता था कि संघ में अनुशासनहीनता फैल गई है तो वे सभी भिक्षुओं को एक साथ बाहर निकाल दिया करते थे।
(8) गुरु के प्रति विद्यार्थी के कार्य (Student’s duties towards his Teacher) – छात्र के लिए यह आवश्यक था कि वह गुरुदेव के प्रातःकाल जगने के पूर्व स्वयं जाग जाये। स्वयं दैनिक क्रियाओं से मुक्ति प्राप्त करके गुरुदेव के लिए स्नान का जल रखना, हाथ-मुँह धोने के लिए जल रखना, झाडू लगाना, सफाई करना, गुरुदेव के आसन का स्थान ठीक करना, साथ ही छात्र गुरु के साथ भिक्षा माँगने जाते तथा गुरु से पहले ही लौट आते थे। वे पहले इसलिये लौट आते कि गुरुदेव को हाथ-मुँह धोने के लिए पानी आदि रखना होता था तथा उनके स्थान को विधिवत् ठीक-ठाक करना होता था। साथ ही भोजन का भी प्रबन्ध करना होता था।
(9) गुरुदेव की योग्यतायें तथा छात्र के प्रति उनके कर्त्तव्य- बौद्धकालीन शिक्षा में गुरु बनने के लिए कुछ विशेष योग्यताओं की आवश्यकता होती थी। वही व्यक्ति गुरु पद पर आसीन हो सकता था जो निम्नलिखित योग्यताओं से विभूषित होता था-
- जो कम-से-कम 10 वर्ष तक भिक्षु रह चुका हो ।
- जिसका आचरण शुद्ध हो ।
- पवित्र विचार, विनम्रता, मानसिक क्षमता आदि गुणों से युक्त हो।
- गुरु शिष्य का मानवीय तथा आध्यात्मिक पथ-प्रदर्शक होता था।
- छात्रों के लिए वस्त्र, भिक्षापात्र, आवश्यक वस्तुओं का प्रबन्ध करना होता था।
- शिष्य के बीमार हो जाने पर उसकी सेवा सुश्रूषा करनी होती थी।
(10) गुरु और शिष्य का सम्बन्ध (Teacher-Pupil Relations) – बौद्धकालीन शिक्षा में गुरु और शिष्य का सम्बन्ध अत्यन्त पवित्रता से परिपूर्ण होता था। वे अपने-अपने कर्त्तव्यों का पालन बड़े ही मनोयोग के साथ करते थे। शिष्य का जीवन अत्यन्त सादा तथा पवित्र होता था, गुरु भी अपने शिष्यों के सामने सादा जीवन, निरंतर अध्ययन, ब्रह्मचर्य, निष्कलंक, चरित्रवान तथा आदर्श रूप प्रस्तुत करता था। चूँकि गुरु और शिष्य कई वर्षों तक एक साथ रहते थे इसलिये दोनों के सम्बन्ध में अत्यधिक निकटता तथा निर्मलता रहती थी। इस सम्बन्ध में डॉ० अल्तेकर ने लिखा है, “अपने गुरु के साथ नव-शिष्य के सम्बन्धों का स्वरूप पुत्रानुरूप होता था वे पारस्परिक सम्मान, विश्वास और प्रेम के साथ एक-दूसरे से बँधे हुये होते थे।”
(11) शिक्षा का माध्यम (Medium of Education)- बौद्धकालीन शिक्षा में शिक्षा का माध्यम लोकभाषाएँ तथा पाली थीं लेकिन बौद्धिक भाषा तथा साहित्य का अध्ययन करने के लिए संस्कृत भाषा की जानकारी आवश्यक थी। गौतम बुद्ध ने स्वयं मातृभाषा और देशी भाषाओं पर ही बल दिया है। इस सम्बन्ध में एक कथा ‘चुल्लवग्ग’ (Chullavagga) में मिलती है। बुद्ध भगवान के धर्म को मानने वाले दो ब्राह्मणों ने महात्मा बुद्ध से उनके उपदेशों को संस्कृत भाषा में लिखने की आज्ञा माँगी। गौतम बुद्ध ने उनकी याचनाओं को अस्वीकार करते हुए यह कहा कि- “ओ भिक्षुओ ! मैं तुममें से प्रत्येक को बुद्ध के उपदेश को स्वयं अपनी भाषा में सीखने की आज्ञा देता हूँ।” डॉ० मुकर्जी ने लिखा है, “बुद्ध भगवान ने देशी भाषाओं को विशेष शक्ति तथा प्रेरणा प्रदान की।”
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