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भावात्मक एकता से आप क्या समझते हैं ? भावात्मक एकता की आवश्यकता, बाधायें, समिति, एंव कार्यक्रम

भावात्मक एकता से आप क्या समझते हैं ? बालकों में मावात्मक एकता को विकसित करने के लिए शिक्षा किस प्रकार योगदान दे सकती है ?

भावात्मक एकता का अर्थ राष्ट्र के विभिन्न भागों तथा वर्गों के व्यक्तियों को संवेगात्मक रूप से एकता के सूत्र में बाँधने से है। राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय एकता की कल्पना भावात्मक एकता के अभाव में अपूर्ण है। पंडित जवाहर लाल नेहरू के अनुसार- “भावात्मक एकता से अभिप्राय अलगाव की भावना का दमन तथा मस्तिष्क और हृदय की एकता से है।”

“By emotional integration, I mean the integration of our minds and hearts, the suppression of the feelings of separatism.”

शिक्षा शास्त्री श्री के० जी० सैयदैन के अनुसार- “भावात्मक एकता का अर्थ विभिन्नताओं की समाप्ति नहीं है। इसका अर्थ तो यह है कि व्यक्तियों को मतभेद का अधिकार है तथा अपनी इस मिनता को वे बिना किसी भय के तर्क के आधार पर राष्ट्रीय एकता तथा आधारभूत निष्ठाओं को दृष्टि में रखते हुए अभिव्यक्त कर सकते हैं।”

“Emotional Integration does not mean a levelling down of differences. It means that the people have the right to differ and express their difference reasonably and fearlessly with in the larger frame work of national unit and basic loyalties.”

भावात्मक एकता : आधार (Emotional Integration: Basis) – भावात्मक एकता के मूल में वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना निहित है। मनुष्य मात्र समान है, मनुष्य आधारभूत गुणों के कारण एक दूसरे से अलग नहीं किये जा सकते। जाति, धर्म, भाषा तथा सम्प्रदाय आदि एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य को अलग करते हैं। यह कटान या अलगाव जहाँ एक ओर मनुष्य को मनुष्य से अलग करता है, वहीं यह मानव समूहों, समाज, राष्ट्र से भी काटते हैं। अलगाव की यह स्थिति मनुष्य के लिये अत्यन्त घातक है।

भावात्मक एकता के आधार हैं-रक्त, जाति, खान-पान, रहन-सहन, आर्थिक-सामाजिक स्तर तथा राजनैतिक दृष्टिकोण। इन आधारों के कारण ही व्यक्ति एक-दूसरे से जुड़ता है तथा अलग होता है।

भावात्मक एकता की आवश्यकता (Need for Emotional Integration )

भारत भिन्न-भिन्न धर्म, जातियों तथा भाषाओं का देश है। अतः यहाँ पर आवश्यक है कि भिन्न-भिन्न वर्गों, जातियों तथा धर्मों के व्यक्तियों में राष्ट्रीय दृष्टिकोण का विकास किया जाये, जिससे वे राष्ट्रहित के कार्यों को अन्य कार्यों की अपेक्षा अधिक महत्त्व दें।

भावात्मक एकता की आवश्यकतायें निम्न प्रकार हैं-

1. निःस्वार्थ भावना- समाज में अनेक व्यक्ति तथा वर्ग अपने निजी स्वार्थों को पूरा करने के लिये समाज हितों को ताक पर रख देते हैं। समाज हितों को ताक पर रखने से समाज की एकता को खतरा होता है तथा फिर इस खतरे से कोई नहीं बच सकता।

2. मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है – मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज मनुष्य की प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति करता है। परिवार, जाति तथा धर्म के कारण व्यक्ति एक-दूसरे से जुड़ा रहता है। उसी प्रकार समाज में भी भिन्न-भिन्न वर्गों में आपसी सद्भाव की आवश्यकता है। एकता के अभाव में भावात्मक एकता विकसित नहीं हो सकती।

3. संकीर्णता को समाप्त करना- व्यक्ति पहले छोटे-छोटे दायरों में उन्नति करता है, फिर इसके बाद उसके दायरे विस्तृत होते जाते हैं। प्रायः देखा गया है कि बड़े दायरों में पहुँचने के बाद भी व्यक्ति छोटे दायरों से बँधा रहता है, जिससे उसमें संकीर्णता का विकास होता है। इस संकीर्णता को दूर करने के लिये भावात्मक एकता का विकास आवश्यक है।

भावात्मक एकता में बाधायें (Obstacles in Emotional Integration)

भारतवर्ष विविधताओं का देश है। भारत के प्रत्येक भाग में भिन्न-भिन्न संस्कृति, धर्म, भाषा, आचार-विचार और व्यवहार पाये जाते हैं। भावात्मक एकता के मार्ग में निम्नलिखित बाधाएँ हैं-

1. भारत की भावात्मक एकता का आधार अध्यात्म है। भौतिक प्रगति ने स्वार्थों की होड़ पैदा की है, जिससे देश की भावात्मक एकता को खतरा उत्पन्न हो गया है।

2. वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना का विकास करने के लिये आध्यात्मिक तथा सांस्कृतिक सद्भाव की शिक्षा की आवश्यकता होती है।

3. सांस्कृतिक उथल-पुथल भावात्मक एकता उत्पन्न ही नहीं होने देती। प्राचीन काल में आर्यों तथा द्रविड़ों में सांस्कृतिक संघर्ष के कारण भावात्मक रूप से एकता नहीं आ सकी। इसी प्रकार हिन्दू एवं मुस्लिम, हिन्दू-मुस्लिम-ईसाई संस्कृतियों की विभिन्नता ने अलगाववाद को बढ़ावा दिया है।

4. आर्थिक विषमता के कारण भी भावात्मक एकता का विकास नहीं हो पाता।

5. अंग्रेजी शिक्षा के कारण भी भावात्मक एकता के मार्ग में रुकावट आयी है तथा अंग्रेजी भाषा जानने वालों का एक अलग वर्ग बन गया है। भारत भले ही आज स्वतन्त्र है, किन्तु मानसिक रूप से वह अब अंग्रेजी भाषा का गुलाम है।

भावात्मक एकता समिति (Emotional Integration Committee)

सन् 1960 में भारतीय केन्द्रीय शिक्षा मन्त्रालय ने डॉ० सम्पूर्णानन्द की अध्यक्षता में एक “भावात्मक एकता समिति” की स्थापना की। इस समिति का उद्देश्य भावात्मक एकता की प्रक्रिया को राष्ट्रीय जीवन में उन्नत करने की दृष्टि से शिक्षा के कार्यों का अध्ययन करना था तथा इस अध्ययन के आधार पर नौजवानों के लिये साधारण रूप से तथा विद्यार्थियों के लिये विशेष रूप से शिक्षा के कार्यक्रमों के निर्माण के कुछ ऐसे ठोस सुझाव प्रस्तुत करने थे, जो भावात्मक एकता की प्रक्रिया को बल दे सकें।

इस समिति के अनुसार जातिवाद, साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीयता, प्रान्तीयता, भाषावाद, आदर्शों का अभाव तथा युवकों में दिशाहीनता भावात्मक एकता के मार्ग में प्रमुख कारण हैं। इस समिति में भावात्मक एकता के विकास के लिये शिक्षा को आवश्यक माना है।

शिक्षा का कार्यक्रम (Educational Programme)

भावात्मक एकता की स्थापना के लिये समिति ने शिक्षा के कार्यक्रमों की जो रूपरेखा प्रस्तुत की है, वह निम्न प्रकार से है-

1. पाठ्यक्रम – भावात्मक एकता समिति ने वर्तमान पाठ्यक्रम की पुनर्रचना भावात्मक एकता की दृष्टि से करने पर जोर दिया है। प्राथमिक स्तर पर कहानी, कविता, राष्ट्रगान एवं राष्ट्रीय गीतों को स्थान देना चाहिये। माध्यमिक स्तर पर अन्य विषयों के साथ-साथ अतिरिक्त भाषा तथा साहित्य, सामाजिक अध्ययन, नैतिक तथा आध्यात्मिक शिक्षा, उच्च स्तर अर्थात् विश्वविद्यालय स्तर पर सामाजिक विज्ञान, भाषा, साहित्य, तुलनात्मक धर्मों का अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है।

2. पाठ्य पुस्तकें – पाठ्य पुस्तकों में ऐसे प्रकरण रखे जाने चाहियें जो कि भावात्मक विकास में सहायक हों।

3. भाषा और लिपि– हिन्दी के ज्ञान के लिये कुछ क्षेत्रों में रोमन लिपि का प्रयोग किया जाना चाहिये। अन्तर्राष्ट्रीय अंकों का प्रयोग होना चाहिये तथा क्षेत्रीय भाषा सिखाई जानी चाहिये। क्षेत्रीय भाषा तथा हिन्दी कोश बनाये जाने चाहियें तथा अल्पसंख्यकों की भाषा का ध्यान रखा जाना चाहिये।

4. अन्य सुझाव

  1. पाठ्य-पुस्तकों में संशोधन हो।
  2. शिक्षकों तथा छात्रों का सांस्कृतिक आदान-प्रदान हो ।
  3. त्रिभाषा सूत्र अपनाया जाये।
  4. दृश्य-श्रव्य साधनों का उपयोग हो ।
  5. हिन्दी भाषा को लोकप्रिय बनाया जाये।
  6. अन्तक्षेत्रीय कार्यक्रम आयोजित किये जायें।
  7. हिन्दी तथा अंग्रेजी का स्तर एक समान रखा जाये ।
  8. राष्ट्रीय कार्यक्रम तथा सांस्कृतिक त्यौहार मनाये जायें।
  9. राष्ट्रीय युग परिषद् की स्थापना की जाये।
  10. स्कूलों में वेशभूषा निर्धारित की जाये।

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Anjali Yadav

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