माध्यमिक शिक्षा आयोग के विषय में आप क्या जानते हैं ? आयोग की प्रमुख संस्तुतियों का वर्णन कीजिए।
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माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-53 ई.) (Secondary Education Commission, 1952-53)
1948 ई. में ‘केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड’ ने भारत सरकार से माध्यमिक शिक्षा की जाँच हेतु एक आयोग की नियुक्ति का सुझाव दिया। जनवरी, 1951 ई. में उसने अपनी माँग को फिर दोहराया। भारत सरकार ने 23 सितम्बर, 1952 ई. को डॉ. लक्ष्मणस्वामी मुदालियर की अध्यक्षता में एक 9 सदस्यीय ‘माध्यमिक शिक्षा आयोग का गठन किया। इन 9 सदस्यों के साथ ही 17 सहयोगी सदस्य थे और शिक्षा मंत्रालय के अधिकारी ने सहायक सचिव के रूप में कार्य किया। आयोग की जाँच का विषय था. – “भारत की तात्कालीन माध्यमिक शिक्षा से सम्बन्धित सभी पक्षों की जाँच कर उनके विषय में रिपोर्ट देना तथा उसके पुनर्गठन एवं सुधार के सम्बन्ध में सुझाव T।” इस रिपोर्ट में 15 अध्याय और 244 पृष्ठ थे। जून, 1953 ई. में यह रिपोर्ट भारत सरकार के समक्ष प्रस्तुत की गयी जिसके अधिकतर सुझावों को स्वीकार कर लिया गया।
(1) माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्य-
‘मुदालियर आयोग’ ने भारत में, राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए माध्यमिक शिक्षा के निम्न उद्देश्य निर्धारित किये –
(i) लोकतन्त्रीय नागरिकता का विकास- माध्यमिक शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य छात्रों में लोकतन्त्रीय नागरिकता का विकास होना चाहिए। फलस्वरूप यह शिक्षा प्रत्येक व्यक्ति में सभी प्रकार के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विषयों पर स्वतन्त्रतापूर्वक निर्णय लेने की क्षमता का विकास करने वाली होनी चाहिए।
(ii) व्यावसायिक कुशलता में उन्नति- माध्यमिक शिक्षा का दूसरा उद्देश्य छात्रों में व्यावसायिक कुशलता का विकास होना चाहिए। फलस्वरूप, माध्यमिक शिक्षा के अन्तर्गत औद्योगिक एवं व्यावसायिक विषयों को स्थान दिया जाना चाहिये। इन विषयों की शिक्षा से छात्र और देश दोनों का ही हित होगा। छात्र अपनी शिक्षा समाप्त करके स्वतन्त्रतापूर्वक किसी व्यवसाय में लग सकेंगे और उन्हें नौकरी खोजने के लिए इधर-उधर भटकना नहीं होगा। देश का यह हित होगा कि उसे विभिन्न उद्योगों एवं व्यवसायों हेतु प्रशिक्षित व्यक्ति आसानी से मिल जायेंगे।
(iii) व्यक्तित्व का विकास – माध्यमिक शिक्षा का एक अन्य प्रमुख उद्देश्य छात्रों के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास होना चाहिए। शिक्षा का संगठन इस प्रकार किया जाना चाहिए कि छात्रों का साहित्यिक, कलात्मक और सांस्कृतिक विकास हो। छात्र अपनी सांस्कृतिक विरासत को भली-भाँति समझ सकें और उसके विकास में आधारभूत योगदान दे सकें।
(iv) नेतृत्व का विकास – माध्यमिक शिक्षा का एक अन्य उद्देश्य छात्रों में नेतृत्व की क्षमता का विकास करना होना चाहिए। माध्यमिक शिक्षा का आयोग इस तरह होना चाहिए कि छात्र सामाजिक, सांस्कृतिक, औद्योगिक, व्यावसायिक और राजनीतिक क्षेत्रों में नेतृत्व का दायित्व ग्रहण करने योग्य बन सकें। लोकतन्त्र की सफलता के लिए यह अतीव आवश्यक है।
(2) माध्यमिक शिक्षा पुनर्गठन –
‘मुदालियर आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के पुनर्गठन के सम्बन्ध में भी महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये। यहाँ इन सुझावों का उल्लेख संक्षेप में किया जा रहा है-
(i) माध्यमिक शिक्षा की अवधि 7 वर्ष होनी चाहिए और यह शिक्षा 11 से 17 वर्ष तक की आयु के छात्र-छात्राओं को दी जानी चाहिए।
(ii) माध्यमिक शिक्षा की अवधि निम्न दो भागों में विभाजित की जानी चाहिए-
(अ) 3 वर्ष तक जूनियर शिक्षा और (ब) 4 वर्ष तक उच्चतर माध्यमिक शिक्षा।
(iii) वर्तमान इण्टरमीडिएट कक्षा को समाप्त कर दिया जाना चाहिए और 11वीं कक्षा को हाईस्कूल तथा 13वीं कक्षा को विश्वविद्यालय से सम्बद्ध कर दिया जाना चाहिए।
(iv) डिग्री कोर्स 3 वर्ष का कर दिया जाना चाहिए और इण्टरमीडिएट कॉलेजों से विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने वाले छात्रों के लिए एक वर्ष का पूर्व-विश्वविद्यालय (Pre University) पाठ्यक्रम रखा जाना चाहिए।
(v) बहुउद्देश्यीय कॉलेजों/स्कूलों (Multi-purpose Colleges/Schools) की स्थापना की जानी चाहिए। इन स्कूलों के पाठ्यक्रम का विभिन्नीकरण (Diversification) किया जाना चाहिए जिससे कि छात्र अपने उद्देश्यों, रुचियों और योग्यताओं के अनुसार पाठ्यक्रम का चयन कर सकें।
(vi) ग्रामीण विद्यालयों में कृषि-शिक्षा का विशेष प्रबन्ध होना चाहिए और वहाँ उद्यान कला (Horticulture), पशु-पालन एवं कुटीर उद्योगों की भी शिक्षा का प्रबन्ध किया जाना चाहिये।
(vii) माध्यमिक विद्यालयों में आन्तरिक मूल्यांकन की व्यवस्था की जानी चाहिए। इसके द्वारा विद्यालय के अनुशासन में सुधार होगा और छात्र का मूल्यांकन उचित रूप से हो सकेगा।
(viii) पर्याप्त संख्या में पॉलीटेकनिक और टेक्निकल विद्यालयों की स्थापना की जानी चाहिए जो कि या तो स्वतन्त्र रूप से स्थापित हों अथवा फिर बहुउद्देशीय विद्यालयों से सम्बद्ध हों। साथ ही इन विद्यालयों की स्थापना यथासम्भव विभिन्न उद्योगों से सम्बन्धित कारखानों के समीप होनी चाहिये।
(ix) सरकार को उद्योगों पर ‘उद्योग शिक्षा कर’ (Industrial Education Cess) लगाकर इससे प्राप्त धन टेक्निकल शिक्षा के विस्तार पर व्यय करना चाहिये।
(x) भारत के प्रत्येक राज्य में निवास विद्यालयों (Residential Schools) की स्थापना की जानी चाहिये।
(xi) अन्ध, बधिर और मूक व्यक्तियों की शिक्षा के लिए विद्यालयों का प्रबन्ध समुचित रूप से किया जाना चाहिये।
(xii) बालक-बालिकाओं की शिक्षा में कोई भी विशेष अन्तर की आवश्यकता नहीं है परन्तु बालिकाओं के लिए ‘गृह-विज्ञान’ के अध्ययन की समुचित व्यवस्था आवश्यक होनी चाहिए।
(xiii) पब्लिक स्कूलों को कुछ समय तक यथावत् चलने दिया जाना चाहिये परन्तु एक निश्चित अवधि के पश्चात् उनका संगठन अन्य माध्यमिक विद्यालयों की भाँति कर दिया जाना चाहिये।
(3) भाषाओं का अध्ययन –
‘मुदालियर आयोग’ ने मुख्यतः तीन भाषाओं के स्थान एवं अध्ययन के सम्बन्ध में अपने सुझाव प्रस्तुत किये-
(अ) हिन्दी का स्थान – ‘मुदालियर आयोग’ का मत था कि हिन्दी को विद्यालय स्तर अध्ययन का अनिवार्य विषय बनाया जाना चाहिये। इसके सम्बन्ध में आयोग का तर्क था कि भारत के संविधान में हिन्दी को राष्ट्र-भाषा का स्थान प्रदान किया गया है और इसके कारण हिन्दी का अध्ययन अनिवार्य है। हिन्दी कुछ समय बाद केन्द्रीय और राज्य सरकारों के मध्य आचार-विचार के आदान-प्रदान की भाषा बन जायेगी। वह भारत के अधिकांश व्यक्तियों के विचारों की विनिमय की भाषा है और जो लोग हिन्दी का प्रयोग नहीं करते वे भी प्रयोग करने लगेंगे। राष्ट्र-भाषा के रूप में हिन्दी इस देश की राष्ट्रीय एकता एवं दृढ़ता के विकास में योगदान देगी। जो व्यक्ति हिन्दी का अध्ययन नहीं करेंगे सरकारी नौकिरयों से वंचित रह जायेंगे तथा हिन्दी जानने वाले लोगों के विचारों को समझ भी नहीं पायेंगे।
(ब) अंग्रेजी का स्थान – ‘मुदालियर आयोग’ का विचार था कि अंग्रेजी लगभग सभी राज्यों में माध्यमिक स्तर पर अध्ययन का अनिवार्य विषय है और उसे उसी स्थान पर रहना चाहिये। ‘आयोग’ का विचार था कि अंग्रेजी भारत के शिक्षित वर्गों में अत्यन्त लोकप्रिय भाषा है, उसके अध्ययन ने भारत में राजनीतिक और अन्य क्षेत्रों में एकता स्थापित करने में योगदान दिया है अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में जो भारत की स्थिति है, अंग्रेजी के अध्ययन का ही परिणाम है। यदि संकुचित राष्ट्रीय भावना से प्रेरित होकर अंग्रेजी को माध्यमिक विद्यालयों से हटा दिया जायेगा तो उसके परिणाम घातक होंगे।
(स) संस्कृत का स्थान – ‘आयोग’ ने माध्यमिक विद्यालयों के पाठ्यक्रमों में संस्कृत को भी स्थान देने का सुझाव दिया ऐसा उसने इसलिये किया कि उनके अनुसार संस्कृत भारत की अधिकांश भाषाओं की जननी है और इस कारण उसका अध्ययन करना अनिवार्य है। साथ ही संस्कृत ने धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से व्यक्तियों को सदैव अपनी ओर आकर्षित किया है तथा उसकी उपेक्षा करना उचित नहीं है। संस्कृत का अध्ययन प्राप्त करके भारत के प्राचीन ग्रन्थों में विद्यमान ज्ञान की जानकारी प्राप्त की जा सकती है और इसके अध्ययन को प्रोत्साहित करना अत्यन्त आवश्यक है।
(4) पाठ्यक्रम –
माध्यमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम पर विस्तारपूर्वक विचार करने हेतु मुदालियर आयोग ने निम्न सुझाव दिये-
(i) पाठ्यक्रम छात्रों की विभिन्न योग्यताओं व क्षमताओं के विकास में सहायक होना चाहिये।
(ii) पाठ्यक्रम में विविधता व लचीलापन होना चाहिए जिससे कि उसे विद्यार्थियों की आवश्यकताओं व अभिरुचियों के अनुरूप बनाया जा सके।
(iii) पाठ्यक्रम का सामुदायिक जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध होना चाहिये और छात्रों को इस जीवन के महत्त्वपूर्ण क्रियाओं के सम्पर्क में लाया जाना चाहिए।
(iv) पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिये जो छात्रों को न केवल कार्य करने अपितु अपने अवकाश का सदुपयोग करने की भी सुविधा प्रदान करे।
(v) पाठ्यक्रम के विषयों का एक-दूसरे और जीवन से प्रत्यक्ष सम्बन्ध होना चाहिये।
(5) पाठ्यक्रम के विषय –
‘आयोग’ ने माध्यमिक शिक्षा की अवधि को दो स्तरों में विभाजित किया और उसके लिये अलग-अलग पाठ्यक्रम करने का सुझाव दिया। यहाँ इन स्तरों के पाठ्यक्रमों का उल्लेख किया जा रहा है-
(अ) मिडिल अथवा जूनियर हाईस्कूल- मिडिल या जूनियर हाईस्कूल के विद्यालयों में निम्नांकित विषयों को स्थान दिया जाना चाहिए-
(i) भाषायें, (ii) सामाजिक विषय, (iii) सामान्य विज्ञान, (iv) गणित, (v) कला और संगीत, (vi) हस्तशिल्प और (vii) शारीरिक शिक्षण।
(ब) हाई व हायर सेकण्ड्री स्कूल- ‘आयोग ने यह सुझाव दिया कि माध्यमिक शिक्षा के उच्च स्तर पर पाठ्यक्रम के विषयों का विभिन्नीकरण (Diversification) किया जाना चाहिये, जिससे कि छात्रों की अभिरुचियों की आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके। इस उद्देश्य से आयोग ने विषयों को दो विभागों में विभाजित किया- (क) आन्तरिक विषय (Core Subjects), (ख) वैकल्पिक विषय (Optional Subjects)।
आन्तरिक विषयों का अध्ययन सभी छात्रों के लिए आवश्यक होगा। वैकल्पिक विषयों के सात समूह होंगे जिनमें से छात्रों को किसी एक समूह के विषय का अध्ययन करना होगा। ‘आयोग’ के अनुसार आन्तरिक और वैकल्पिक विषय इस प्रकार हैं-
(क) आन्तरिक विषय- आन्तरिक विषय सभी छात्र-छात्राओं हेतु अनिवार्य हैं और वे निम्न हैं-
(A) (1) मातृभाषा अथवा प्रादेशिक भाषा या मातृभाषा और शास्त्रीय भाषा।
(2) निम्नलिखित में से कोई एक भाषा –
- हिन्दी (उन छात्रों के लिए जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं है।)
- प्रारम्भिक अंग्रेजी (उन छात्रों हेतु जिन्होंने जूनियर माध्यमिक स्तर पर अंग्रेजी भाषा का अध्ययन नहीं किया है)।
- उच्च अंग्रेजी (उन छात्रों हेतु जिन्होंने जूनियर माध्यमिक स्तर पर अंग्रेजी का अध्ययन किया है।
- हिन्दी के अतिरिक्त एक अन्य भारतीय भाषा।
- अंग्रेजी के अलावा एक अन्य आधुनिक विदेशी भाषा।
- एक शास्त्रीय भाषा
‘आयोग’ ने यह भी सुझाव दिया कि (1) में मातृभाषा और शास्त्रीय भाषा का मिश्रित पाठ्यक्रम होगा और (vi) में शास्त्रीय भाषा का अलग पाठ्यक्रम रहेगा।
(B) (1) सामाजिक अध्ययन – सामाजिक विषयों का अध्ययन केवल दो वर्ष होगा।
(2) गणित एवं सामान्य विज्ञान – इन विषयों की शिक्षा पहले दो वर्षों में प्रदान की जायेगी।
(C) निम्नलिखित में से चुना जाने वाले कोई एक विषय-
(i) कताई-बुनाई, (ii) धातु का काम, (iii) मुद्रण का काम, (iv) दर्जी का काम, (v) उद्यान विज्ञान, (vi) लकड़ी का काम, (vii) मॉडल बनाना, (viii) वर्कशाप-अभ्यास, (ix) कसीदा एवं क्रोशिया का काम।
(ख) वैकल्पिक विषय – पाठ्यक्रम का विभिन्नीकरण वैकल्पिक विषयों के अन्तर्गत होगा। वैकल्पिक विषयों के 7 समूह होंगे जिनमें से 3 समूहों के विषयों का अध्ययन करना आवश्यक होगा।
समूह 1. विज्ञान – (i) भौतिक-विज्ञान, (ii) रसायन विज्ञान, (iii) जीव-विज्ञान, (iv) गणित, (v) भूगोल, (vi) स्वास्थ्य और शरीर-विज्ञान।
समूह 2. प्राविधिक – (i) व्यावहारिक विज्ञान, (ii) व्यावहारिक गणित, (iii) मैकेनिकल इंजीनियरिंग, (iv) विद्युत इंजीनियरिंग।
समूह 3. मानव विज्ञान – (i) एकशास्त्रीय भाषा अथवा इतिहास, (ii) अर्थशास्त्र एवं नागरिक शास्त्र, (iii) गणित, (iv) मनोविज्ञान और अर्थशास्त्र, (v) संगीत और (vi) गृह विज्ञान।
समूह 4. वाणिज्य – (i) वाणिज्य प्रयोग, (ii) बहीखाता, (iii) शार्टहैण्ड और टाइपराइटिंग, (iv) वाणिज्य-भूगोल अथवा अर्थशास्त्र और नागरिकशास्त्र ।
समूह 5. कृषि – (i) सामान्य-कृषि (ii) बागवानी (Horticulture), (iii) पशु पालन, (iv) कृषि-रसायन और वनस्पति विज्ञान।
समूह – 6. ललित कलायें – (i) कला का इतिहास, (ii) ड्राइंग एवं डिजाइन बनाना, (iii) चित्रकला, (iv) प्रतिमान, (v) संगीत, (vi) नृत्य।
समूह 7. गृह-विज्ञान – (i) पोषण और पाक-कला, (ii) गृह-अर्थशास्त्र, (iii) मातृ कला और शिशुपालन, (iv) गृह प्रबन्ध और गृह-उपचारण (Home Nursing)
(6) शिक्षण विधियाँ – ‘माध्यमिक शिक्षा आयोग’ का मत था कि माध्यमिक विद्यालयों में प्रयुक्त शिक्षण विधियाँ नीरस और निर्जीव हैं, फलस्वरूप उनके स्थान पर सजीव अथवा सक्रिय अथवा स्फूर्तिपूर्ण शिक्षण विधियों का प्रयोग किया जाना चाहिये। इस सम्बन्ध में आयोग ने निम्न मत व्यक्त किये-
(i) शिक्षण विधियों का उद्देश्य, छात्रों को केवल कुशलता का ज्ञान प्रदान करना ही नहीं चाहिए, बल्कि उनमें उचित मूल्यों, उचित दृष्टिकोण अथवा कार्य करने की उचित आदतों का निर्माण करना भी होना चाहिये ।
(ii) शिक्षण विधियों के अन्तर्गत मौलिक बातों एवं कंठस्थ करने के कार्य का किंचित् मात्र भी स्थान नहीं होना चाहिये। इन पर बल न देकर शिक्षण का आयोजन इस प्रकार होना चाहिये कि वह उद्देश्यपूर्ण, वास्तविक और व्यावहारिक हो। इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु ‘क्रियाविधि’ (Activity Method) और ‘योजना विधि’ (Project Method) को प्राथमिकता दी जानी चाहिये ।
(iii) छात्रों में सामाजिक जीवन एवं सहयोगी कार्यों के गुणों के विकास हेतु उन्हें समूहों में कार्य करने हेतु अधिक-से-अधिक अवसर प्रदान किया जाना चाहिए।
(iv) प्राविधिक शिक्षण विधियों को लोकप्रिय बनाने हेतु ‘प्रयोगात्मक’ तथा ‘प्रदर्शनात्मक’ (Experimental or Demonstrational) विद्यालयों की विभिन्न स्थानों पर स्थापना की जानी चाहिए।
(7) अध्यापकों की स्थिति में सुधार- ‘मुदालियर आयोग’ का विचार था कि “अध्यापकों की स्थिति, वेतन और कार्य करने की दशायें बहुत ही असंतोषजनक हैं।” इस तथ्य को दृष्टिगत रखकर ‘आयोग‘ ने उनकी स्थिति में सुधार के हेतु निम्न सुझाव दिये-
- देश के सभी विद्यालयों में शिक्षकों की नियुक्ति एवं चयन हेतु समान विधि का अनुसरण किया जाना चाहिये।
- शिक्षकों के वेतनमानों में सुधार लेने हेतु विशिष्ट समितियों का गठन किया जाना चाहिये।
- सभी शिक्षकों के लिए सभी राज्यों में त्रिमुखी लाभ योजना (Triple Benefit Scheme) प्रारम्भ की जानी चाहिये। इस योजना के अन्तर्गत उन्हें पेंशन, जीवन बीमा और प्राविडेन्ट फण्ड की सुविधायें प्रदान की जानी चाहिये।
- शिक्षकों की शिकायतों को सुनने और उनकी कठिनाइयों को दूर करने के लिए ‘निर्णायक मण्डल’ (Arbitration Board) की नियुक्ति की जानी चाहिये।
- शिक्षकों के बच्चों को निःशुल्क चिकित्सा प्रदान की जानी चाहिये।
- शिक्षकों को शिक्षा सम्मेलनों, सेमीनारों और कैम्पों में जाने की सुविधा प्रदान की जानी चाहिये।
- शिक्षकों को मुफ्त चिकित्सा की सुविधा प्रदान की जानी चाहिये।
- शिक्षकों को प्राइवेट ट्यूशन की प्रथा समाप्त कर दी जानी चाहिये।
(8) अध्यापक-प्रशिक्षण – माध्यमिक शिक्षा आयोग का यह मत था कि जिस नवीन संरचना को वह भारत में देखने का अभिलाषी है, उसके हेतु विशेष प्रकार का प्रशिक्षण प्राप्त अध्यापकों की आवश्यकता है। भारत में प्रशिक्षण संस्थायें अपने सीमित दृष्टिकोण के फलस्वरूप इस तरह के शिक्षकों का निर्माण करने में सफल नहीं हो रही हैं, अतएव ‘आयोग’ ने अध्यापक-प्रशिक्षण के सम्बन्ध में निम्न विचार व्यक्त किये-
(i) प्रशिक्षण संस्थायें दो तरह की होनी चाहिये- (अ) उच्चतर माध्यमिक शिक्षा प्राप्त – व्यक्तियों के हेतु इनकी प्रशिक्षण अवधि दो वर्ष रखी जानी चाहिये। (ब) स्नातकों हेतु – इनके प्रशिक्षण की अवधि कम-से-कम एक वर्ष होनी चाहिये तथा कुछ समय के बाद दो वर्ष कर दी जानी चाहिये।
(ii) प्रथम कोटि का प्रशिक्षण एक बोर्ड के अधीन होना चाहिए जिसका गठन इसी उद्देश्य से किया जाना चाहिये। स्नातकों की प्रशिक्षण संस्थायें-विश्वविद्यालयों से सम्बद्ध और इन्हीं के अधीन होनी चाहिये।
(iii) छात्राध्यापकों हेतु एक अथवा एक से अधिक अतिरिक्त पाठ्यक्रम क्रियाओं (Extra-Curricular Activities) के प्रशिक्षण की सुविधा होनी चाहिये।
(iv) प्रशिक्षण संस्थाओं में छात्राध्यापकों से किसी भी तरह का कोई शुल्क नहीं लिया जाना चाहिये तथा उनको राज्य द्वारा छात्रवृत्तियों के रूप में पर्याप्त सहायता प्रदान की जानी चाहिए। जो प्रशिक्षित अध्यापक विभिन्न विद्यालयों में कार्य कर रहे हैं उन्हें प्रशिक्षण प्राप्त करने हेतु पूर्ण वेतन पर अवकाश दिया जाना चाहिये।
(v) प्रशिक्षण काल में छात्राध्यापक को प्रशिक्षण संस्थाओं से सम्बद्ध छात्रावासों में रहना अनिवार्य होना चाहिये। छात्राध्यापकों के लिये सामाजिक जीवन से सम्बन्धित कार्यों का भी आयोजन किया जाना चाहिये।
(vi) प्रशिक्षण विद्यालयों अथवा स्नातकों की प्रशिक्षण संस्थाओं में निम्नलिखित पाठ्यक्रमों की व्यवस्था होनी चाहिये – (क) अभिनव-पाठ्यक्रम (Refresher Courses), (ख) लघु-गहन पाठ्यक्रम (Short Intensive Courses), (ग) कार्यशाला में व्यावहारिक प्रशिक्षण (Practical Training in Workshops)
(vii) प्रशिक्षण विद्यालयों के अन्तर्गत शिक्षण शास्त्र के विभिन्न अंगों के सम्बन्ध में अनुसन्धान कार्य किया जाना चाहिये। इस कार्य को सम्पन्न करने के लिए प्रत्येक विद्यालय के अधीन एक ‘प्रदर्शनात्मक विद्यालय’ (Demonstration School) होना चाहिये।
(viii) प्रशिक्षण विद्यालय में अध्यापकों, माध्यमिक विद्यालयों के कुछ तथा विद्यालय निरीक्षकों में समय-समय पर विचार-विमर्श होना चाहिये।
(ix) एम. एड. कक्षाओं में प्रशिक्षित स्नातक होने के साथ ही किसी विद्यालय में कम से कम तीन वर्ष तक विद्यालय शिक्षण कार्य कर चुकने वाले अध्यापकों को ही प्रवेश दिया जाना चाहिये।
(x) शिक्षकों की कमी को दूर करने हेतु विशिष्ट अल्पकालीन प्रशिक्षण पाठ्यक्रम लागू किया जाना चाहिये।
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