राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान के विषय में आप क्या जानते हैं ? विस्तृत विवेचना कीजिए ।
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उच्च शिक्षा (Higher Education)
प्रत्येक देश में उच्च शिक्षा को विशेष महत्त्व दिया जाता है क्योंकि उच्च कोटि के नेता, साहित्यकार, दार्शनिक और वैज्ञानिक विश्वविद्यालय से प्रांगण से ही निकलते हैं। उच्च कोटि के सत्यान्वेषण हेतु विश्वविद्यालय ही प्रयोगशालायें हैं। ज्ञान के क्षेत्र को विस्तृत बनाने में विश्वविद्यालय महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। संसार के उन्नत देशों में प्राथमिक शिक्षा को आधारशिला के रूप में और उच्च शिक्षा को मुकुट एवं ताज के रूप में स्वीकार किया गया है। भारत में भी यही व्यवस्था है।
स्वतन्त्र भारत में उच्च शिक्षा का प्रसार अत्यन्त तीव्र गति से हुआ। 1948 ई0 में उच्च शिक्षा के सम्बन्ध में ‘ राधाकृष्णन् आयोग’ का गठन किया गया। इस आयोग ने उच्च शिक्षा की विभिन्न समस्यायों एवं उनके समाधान के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण सुझाव प्रस्तुत किए। 1964 ई0 में ‘कोठारी आयोग’ ने उच्च शिक्षा को अधिक-से-अधिक व्यावहारिक बनाने पर बल दिया। इस आयोग ने उद्देश्यहीनता की समस्या को समाप्त करने पर विशेष बल दिया। छात्रों की बढ़ती हुई संख्या को रोकने का भी सुझाव ‘कोठारी आयोग’ ने दिये।
स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत सरकार का कार्य अत्यन्त योजनाबद्ध हो गया। पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा देश के शीघ्र आर्थिक विकास की आवश्यकता थी। चिरकाल से भारत परतन्त्र रहा और वह उत्थान न कर सका। भारत के सभी प्रकार के विकास के लिए प्रशिक्षित मानव शक्ति की आवश्यकता बहुत अधिक हो गई। फिर विश्व में भी भारत को अपना स्थान बनाना था। अतः उच्च शिक्षा तथा व्यावसायिक शिक्षा के उत्थान पर ही यह निर्भर था। विश्वविद्यालय आयोग, 1948 तथा भारतीय शिक्षा आयोग (1964-66) ने इसके लिए चिरस्थायी कार्य ने किया।
विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग की नियुक्ति तथा कार्य (Appointment and Functions of University Education Commission)
नवम्बर, 1948 में डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन की अध्यक्षता में भारत सरकार ने विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग की स्थापना की। विश्वविद्यालयीय शिक्षा में अनेक दोष थे। उनका अधिकतर कार्य परीक्षा लेना था। शिक्षा का स्तर अत्यन्त निम्नकोटि का था।
आयोग के कार्य (Functions of the Commission) विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग की नियुक्ति के उद्देश्य “भारतीय विश्वविद्यालय शिक्षा पर रिपोर्ट प्रस्तुत करना और उन सुधारों तथा विस्तारों के विषय में सुझाव देना था, जो देश की वर्तमान तथा भावी आवश्यकताओं के उपयुक्त होने के लिए वांछनीय हो सकें।’
आयोग द्वारा निर्धारित विश्वविद्यालय शिक्षा के उद्देश्य (Aims of University Education fixed by University Commission)
इस आयोग ने विश्वविद्यालय शिक्षा के निम्न उद्देश्य निर्धारित किए-
1. विश्वविद्यालय, समाज-सुधार में महत्त्वपूर्ण योग दे सकते हैं। अतः उनका उद्देश्य ऐसे नेताओं को जन्म देना होना चाहिए जो दूरदर्शी, बुद्धिमान तथा साहसी हों।
2. स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों में महान् परिवर्तन हो चुका है। अतः हमारे विश्वविद्यालयों के कर्त्तव्यों तथा दायित्वों में वृद्धि हो गई है। अब उन्हें ऐसे व्यक्तियों का निर्माण करना है जो राजनैतिक, प्रशासकीय तथा व्यावसायिक क्षेत्र में नेतृत्व ग्रहण कर सकें।
3. विश्वविद्यालयों को ऐसे विवेकी व्यक्तियों को जन्म देना चाहिए, जो प्रजातन्त्र को सफल बनाने के लिए शिक्षा का प्रसार कर सकें, मानव-जीवन का अर्थ तथा सार जान सकें तथा रोजगार की व्यवस्था कर सकें।
4. साहित्य मानवीय भावनाओं को स्पंदित तथा परिवर्द्धित करता है। अतः विश्वविद्यालयों को भाषा एवं मातृभाषा के साहित्य को सामान्य शिक्षा में सर्वप्रथम स्थान देना चाहिए। साथ ही विश्वविद्यालयों में दार्शनिक अध्ययनों पर बल दिया जाना चाहिए, क्योंकि उनका जीवन के आचरणों तथा उद्देश्यों से घनिष्ठ सम्बन्ध है।
5. “हम न्याय, स्वतन्त्रता, समानता तथा बन्धुता की प्राप्ति द्वारा प्रजातन्त्र की खोज में रत हैं।” अतः यह आवश्यक है कि हमारे विश्वविद्यालय इन आदर्शों के प्रतीक तथा संरक्षक हों।
6. छात्रों का आध्यात्मिक विकास करना-विश्वविद्यालयों का एक प्रमुख कर्त्तव्य है।
7. विश्वविद्यालय- देश की सभ्यता तथा संस्कृति के पोषक हैं। यदि हम सभ्य कहलाना चाहते हैं, तो हमें दुःखी-दरिद्रों के प्रति सहानुभूति रखनी चाहिए, स्त्रियों का सम्मान करना चाहिए, शान्ति एवं स्वाधीनता से प्रेम करना चाहिए और अत्याचार तथा अन्याय से घृणा करनी चाहिए, विश्वविद्यालय की शिक्षा का उद्देश्य नवयुवकों में इन तत्त्वों का संचार करना में चाहिए।
8. शिक्षा का उद्देश्य-व्यक्ति के जन्मजात गुणों को खोज निकालना और प्रशिक्षण द्वारा उन गुणों को विकसित करना है। विश्वविद्यालय अपने छात्रों के प्रति इन दोनों कर्त्तव्यों का पालन करें।
9. स्वस्थ मस्तिष्क स्वस्थ शरीर में निवास करता है। अतः विश्वविद्यालयों में छात्रों के न केवल मानसिक विकास, अपितु शारीरिक स्वास्थ्य की ओर भी ध्यान दिया जाए। शारीरिक शिक्षा विद्यार्थियों में अनुशासन, साहस, नेतृत्व तथा सामूहिक भावना का विकास करेगी।
अध्यापकों की स्थिति तथा शिक्षा-स्तर (Position of Teachers and Teaching Standards)
इस विषय पर आयोग ने निम्न सुझाव दिए-
1. अध्यापकों को अपने विषय का पूर्ण ज्ञान नहीं है। यही कारण है कि शिक्षा का स्तर गिरता चला जा रहा है। इसके लिए अध्यापक उतने उत्तरदायी नहीं हैं, जितने कि विश्वविद्यालय और सरकार अध्यापकों को अन्वेषण तथा पुस्तकालयों की सुविधा प्राप्त नहीं है। यदि विश्वविद्यालय और सरकार आवश्यक साधनों को जुटा दें, तो अध्यापक अपने विषय का पूर्ण ज्ञाता हो सकता है।
2. हमारे विश्वविद्यालयों में लोकतान्त्रिक नियन्त्रण तथा निर्वाचन की पद्धति है। अतः अध्यापकों में विश्वविद्यालय के प्रशासनात्मक कार्यों में अधिक रुचि हो गई और वे अध्यापन ार्य की उपेक्षा करने लगे हैं।
3. अध्यापकों का वेतन न्यून है, उनकी सेवा की शर्तें आकर्षक नहीं है, और उन्हें अपना कार्य करने की प्रेरणा प्राप्त नहीं होती है।
4. अध्यापकों को प्राविडेण्ट-फंड की अधिक उत्तम सुविधा दी जाय। इसके लिए अध्यापक और विश्वविद्यालय दोनों आठ-आठ प्रतिशत दें।
5. विश्वविद्यालय के समीप ही अध्यापकों के निवास की व्यवस्था की जाय। अध्यापक अपने पद पर 60 वर्ष की आयु तक रहें। यदि उनका स्वास्थ्य अच्छा है, तो वे 64 वर्ष की आयु तक कार्य कर सकते हैं।
6. अध्यापकों को अध्ययन के लिए एक बार में। वर्ष का अवकाश और सम्पूर्ण सेवा काल में 3 वर्ष का अवकाश मिलना चाहिए। अध्यापकों को एक सप्ताह में अधिक-से-अधिक 18 घण्टे (Periods) का अध्यापन कार्य दिया जाय।
7. अध्यापकों को चार वर्गों में विभक्त किया जाय-(क) प्रोफेसर, (ख) रीडर, (ग) लेक्चरर, और (घ) इंस्ट्रक्टर। इनके अतिरिक्त, अनुसंधान अभिसदस्य (Research Fellows) भी हों।
8. विश्वविद्यालयों में प्रवेश पाने के लिए विद्यार्थी वर्तमान इंटरमीडिएट परीक्षा या उसके समकक्ष परीक्षा में उत्तीर्ण हो।
9. प्रत्येक प्रान्त में अधिक संख्या में इण्टरमीडिएट कॉलेज खोले जाएँ, जिनमें योग्य शिक्षक और समुचित शिक्षण सामग्री हो ।
10. हाईस्कूल एवं इण्टर के उपरान्त छात्रों को व्यावसायिक एवं प्राविधिक स्कूल में जाने के लिए प्रोत्साहित किया जाए और इस प्रकार के स्कूल पर्याप्त संख्या में स्थापित किए जायँ।
11. शिक्षण- विश्वविद्यालयों की कला एवं विज्ञान कक्षाओं में 2000 और सम्बद्ध कॉलेजों में 1500 से अधिक छात्र न रखे जायँ। परीक्षा-दिवसों को छोड़कर कार्य करने के दिन एक वर्ष में कम-से-कम 180 हों।
12. शिक्षकों के व्याख्यान परिश्रम से तैयार किए जायें, ट्यूटोरियन-कक्षाओं की व्यवस्था की जाय और पुस्तकालय में अध्ययन तथा लिखित कार्य पर बल दिया जाय।
13. किसी भी कक्षा के लिए पाठ्यक्रम निश्चित न किया जाए।
14. व्यक्तिगत परीक्षार्थियों के ऊपर अधिक नियन्त्रण रखा जाए।
15. विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए व्यक्तियों के लिए सायंकाल के समय कक्षाओं का प्रबन्ध किया जाए।
16. पुस्तकालयों और प्रयोगशालाओं को पूर्ण रूप से सुसंगठित तथा आधुनिक ढंग से सुसज्जित किया जाए।
17. विश्वविद्यालयों में हाईस्कूल तथा इण्टर कॉलेजों के अध्यापकों के लिए ‘अभिनवन पाठ्यक्रम की व्यवस्था की जाए।
18. स्नातकोत्तर स्तर पर विमर्श-गोष्ठियों को प्रोत्साहित किया जाए।
विश्वविद्यालय पाठ्यक्रम (University Curriculum)
आयोग ने पाठ्यक्रम सम्बन्धी निम्न सुझाव प्रस्तुत किए-
स्नातक की उपाधि प्राप्त करने की अवधि 3 वर्ष हो। स्नातकोत्तर उपाधि ‘आनर्स कोर्स’ के 1 वर्ष पश्चात् और स्नातक बनने के 2 वर्ष उपरान्त प्रदान की जाए।
विश्वविद्यालयों तथा माध्यमिक स्कूलों में सामान्य शिक्षा के सिद्धान्तों एवं प्रयोगों का शिक्षण अविलम्ब प्रारम्भ कर दिया जाए।
छात्रों के वैयक्तिक एवं सामूहिक हितों को ध्यान में रखकर विभिन्न क्षेत्रों का चयन किया और सामान्य शिक्षा तथा विशेषीकृत शिक्षा में समन्वय स्थापित किया जाय।
स्नातकोत्तर शिक्षा एवं अनुसंधान पर सुझाव (Suggestion on P.G. Education and Research)
इस सम्बन्ध में विश्वविद्यालय आयोग के सुझाव इस प्रकार हैं-
1. स्नातकोत्तर कक्षाओं के नियमों में साम्य होना चाहिए और उनके शिक्षण का संगठन भाषण, गोष्ठी (Seminar) एवं प्रयोगशाला कार्य पर आधारित होना चाहिए। उनके पाठ्यक्रम में एक विशिष्ट विषय का उच्च अध्ययन एवं अनुसंधान की विधियों का प्रशिक्षण सम्मिलित किया जाना चाहिए।
2. पी-एच0डी0 के छात्रों को अखिल भारतीय स्तर पर निर्वाचित किया जाए। उनके अनुसन्धान कार्य की अवधि कम-से-कम 2 वर्ष होनी चाहिए। पी-एच0डी0 एवं अनुसन्धान कार्य करने वाले विद्यार्थियों के लिए छात्रवृत्तियों तथा अभिवृत्तियों (Research Fellowship) की व्यवस्था की जानी चाहिए।
3. डी०लिट् एवं डी०एस-सी0 की उपाधियाँ केवल उच्चकोटि की लौकिक कृतियों पर प्रदान की जानी चाहिए। शिक्षा मन्त्रालय को विज्ञान में अनुसन्धान कार्य को प्रोत्साहित करने के लिए पर्याप्त संख्या में छात्रवृत्तियाँ देनी चाहिए।
4. विश्वविद्यालयों के विज्ञान विभाग को अनुसन्धान कार्य के लिए सरकार द्वारा उदार सहायता अनुदान दिया जाना चाहिए।
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