राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा की विवेचना कीजिए।
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राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (एन.सी.एफ.-2005) [National Curriculum Framework (NCF-2005) ]
भारत में राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (एनसीएफ) का निर्माण करने की जिम्मेदारी एनसीईआरटी की है। यह संस्था समय-समय पर इसकी समीक्षा भी करती है। एनसीएफ-2005 के बनने का कार्य एनसीईआरटी के तत्कालीन निदेशक प्रो. कृष्णकुमार के नेतृत्व में सम्पन्न के हुआ।
इसमें शिक्षा को बाल केन्द्रित बनाने, रटंत प्रणाली से निजात पाने, परीक्षा में सुधार करने और जेंडर, जाति, धर्म आदि आधारों पर होने वाले भेदभाव को समाप्त करने की बात कही गई है। शोध आधारित दस्तावेज तैयार करने के लिए 21 राष्ट्रीय फोकस समूह बने जो विभिन्न विषयों पर केन्द्रित थे। इसके नेतृत्व की जिम्मेदारी सम्बन्धित क्षेत्र के विषय-विशेषज्ञों को दी गई।
वर्तमान तीव्रता से परिवर्तनशील जीवन के युग में वैश्वीकरण तथा आधुनिकीकरण के प्रभाव और विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी की प्रगति के कारण, हम कई वर्षों तक एक ही बार अन्तिम रूप से तैयार पाठ्यक्रम को उपयुक्त नहीं मान सकते। 21वीं शताब्दी की विगत परिस्थितियाँ स्पष्ट करती हैं कि पाठ्यक्रम कार्य प्रणाली (2001-02) पुरानी हो गई थी तथा इसीलिए पाठ्यक्रम का नवीन ढाँचा (2005) लागू किया गया। अब जो कुछ भी प्रस्तावित किया गया है तथा जो कुछ भी नया सोचा और लागू किया गया है, वह भी 21वीं शताब्दी की युवा पीढ़ी के लिए कम लगता है। निस्सन्देह राष्ट्र प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति कर रहा है तथा इसीलिए इसके युवा विद्यार्थी भी प्रगति कर रहे हैं। इसी कारण एक नवीन व विकसित प्रकार का पाठ्यक्रम समय की आवश्यकता है।
राष्ट्रीय पाठ्यक्रम के ढाँचे (2005) की झलक [Glimpses of National Curriculum Framework (2005) ]
हमारे शैक्षिक अभ्यास की मुख्य त्रुटियाँ निम्नलिखित हैं-
(i) स्कूल प्रणाली लचीली नहीं है- यह परिवर्तन नहीं चाहती।
(ii) सीखना बिल्कुल पृथक् रहने वाली गतिविधि बन चुकी है। यह बच्चों के ज्ञान को जीवन के साथ जोड़ने के लिए प्रोत्साहित नहीं करती।
(iii) सृजनात्मक चिन्तन एवं अन्तर्दृष्टि को हतोत्साहित करती है।
(iv) नई जानकारी का सृजन करने के लिए मानवीय क्षमता की आवश्यकता मात्रा को स्कूल में सीखा हुआ ज्ञान लाँघ जाता है।
(v) विद्यार्थी को भविष्य का ध्यान रखने एवं वर्तमान की उपेक्षा करने के लिए तैयार किया जाता है जो विद्यार्थी, समाज एवं राष्ट्र के लिए अच्छा नहीं है।
शिक्षा के मौलिक विषय (The Basic Concept of Education)
- विद्यार्थियों के जीवन को अर्थपूर्ण एवं अपनी क्षमताओं को विकसित करने योग्य बनाना।
- एक लक्ष्य को बनाए रखने एवं ऐसा ही करने के लिए दूसरों के अधिकार को पहचानने योग्य बनाना।
- ऐसे मूल्यों को बढ़ावा देना जो विविध संस्कृतियों वाले समाज में शीत, मानवता एवं सहनशीलता को पोषित करने वाले हों।
पाठ्यक्रम को कुछ मौलिक प्रश्न पूछने चाहिए जो निम्न प्रकार हैं-
- स्कूलों को कौन-कौन से शैक्षणिक उद्देश्य प्राप्त करने चाहिए।
- कौन-से शैक्षणिक अनुभव प्रदान किए जाने चाहिए हो इन उद्देश्यों की प्राप्ति करवा सकें।
- इन शैक्षणिक अनुभवों को किस प्रकार अर्थपूर्ण तरीके से संगठित किया जा सकता है।
- हम यह कैसे सुनिश्चित करते हैं कि यह शैक्षणिक उद्देश्य वास्तव में पूरे किए जा रहे हैं ?
राष्ट्रीय पाठ्यक्रम के ढाँचे (2000) का पुर्नावलोकन बच्चों पर पाठ्यक्रम के बोझ की समस्या को सम्बोधित करने के लिए किया गया। मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा 1990 के आरम्भ में नियुक्त की गई कमेटी ने समस्या का विश्लेषण किया तथा सूचनाओं की जानकारी मान लिया गया। अपनी रिपोर्ट बिना बोझ के सीखना में कमेटी ने संकेत दिया कि स्कूल में सीखने की क्रिया तब तक आनन्दायक अनुभव नहीं बन सकती जब तक हम बच्चे को ज्ञान ग्रहण करने वाला है यह धारणा नहीं बदलते एवं पाठ्य पुस्तकों को परीक्षा के लिए आधार के रूप में प्रयोग करने की परम्परा से आगे नहीं बढ़ते। इसके स्थान पर बच्चे को अपने भीतर की सृजनात्मक प्रकृति को महसूस करना चाहिए एवं अपने अनुभव के आधार पर ज्ञान का सृजन करने की क्षमता को भी समझना चाहिए।
कमेटी की अन्य सिफारिशें इस प्रकार थीं- पाठ्यक्रम में डिजाइन में परिवर्तन, पाठ्यक्रम में संगठन में परिवर्तन परीक्षा प्रणाली में परिवर्तन।
शिक्षा के लक्ष्य ( Aims of Education )
एन. सी. एफ.-2005 के प्रमुख लक्ष्य निम्नलिखित हैं-
(1) एनसीएफ-2005 के अनुसार शिक्षा का लक्ष्य किसी बच्चे के स्कूली जीवन को उसके घर, आस-पड़ोस के जीवन से जोड़ना है। इसके लिए बच्चों को स्कूल में अपने बाह्य अनुभवों के बारे में बात करने का मौका देना चाहिए। उसे सुना जाना चाहिए ताकि बच्चे को लगे कि शिक्षक उसकी बात को तवज्जो दे रहे हैं।
(2) शिक्षा का दूसरा प्रमुख लक्ष्य है आत्म-ज्ञान (Self-knowledge) यानी शिक्षा खुद को खोजने, खुद की सच्चाई को जानने की एक निरन्तर प्रक्रिया बने। इसके लिए बच्चों को विभिन्न तरह के अनुभवों का अवसर देकर इस प्रक्रिया को सुगम बनाने की बात एनसीएफ में कही गई है।
(3) शिक्षा के तीसरे लक्ष्य के रूप में साध्य और साधन दोनों के सही होने वाले मुद्दे पर चर्चा की गई है। इसमें कहा गया कि मूल्य शिक्षा अलग से न होकर शिक्षा की पूरी प्रक्रिया में शामिल होनी चाहिए तभी हम बच्चों के सामने सही उदाहरण पेश कर पाएँगे।
(4) सांस्कृतिक विविधता का सम्मान करने और जीवन जीने के अन्य तरीकों के प्रति भी सम्मान का भाव विकसित करने की बात करता है।
(5) वैयक्तिक अन्तर के महत्त्व को स्वीकार करने की बात करता है। इसमें कहा गया है कि हर बच्चे की अपनी क्षमताएँ और कौशल होते हैं। इसे स्कूल में व्यक्त करने का मौका देना चाहिए जैसे संगीत, कला, नाट्य, चित्रकला, साहित्य (किस्से कहानियाँ कहना), नृत्य एवं प्रकृति के प्रति अनुराग इत्यादि ।
(6) ज्ञान के वस्तुनिष्ठ तरीके के साथ-साथ साहित्यिक एवं कलात्मक रचनात्मकता को भी मनुष्य के ज्ञानात्मक उपक्रम का एक हिस्सा माना गया है। यहाँ पर तर्क (वैज्ञानिक अन्वेषण ) के साथ-साथ भावना (साहित्य) वाले पहलू को भी महत्त्व देने की बात कही गई है।
(7) इसमें कहा गया है, “शिक्षा को मुक्त करने वाली प्रक्रिया (Liberating process) के रूप में देखा जाना चाहिए अन्यथा अब तक जो कुछ भी कहा गया है वह अर्थहीन हो जाएगा। शिक्षा की प्रक्रिया को सभी तरह के शोषण और अन्याय (गरीबी, लिंग-भेद, जाति तथा साम्प्रदायिक झुकाव ) से मुक्त होना पड़ेगा जो हमारे बच्चों को इस प्रक्रिया से वंचित करते हैं।”
(8) आठवीं बिन्दु स्कूल में पढ़ने-पढ़ाने के कम के लिए अच्छा माहौल बनाने की बात करता है। साथ ही ऐसा माहौल बनाने में बच्चों की भागीदारी सुनिश्चित करने की भी बात करता है। यानी शिक्षक खुद आगे न आकर बच्चों को नेतृत्व करने का मौका दे।
(9) नौवां बिन्दु अपने देश के ऊपर गर्व की भावना विकसित करने की बात करता है ताकि बच्चे देश से हरा जुड़ाव महसूस कर सकें। इसके साथ ही कहा गया है, “बच्चों में अपने राष्ट्र के प्रति गौरव की भावना सम्पूर्ण मानवता की महान उपलब्धियों के प्रति गौरव को पीछे न कर दे।”
राष्ट्रीय पाठ्यक्रम का ढाँचा (2005) के निर्देशक सिद्धान्त [Guiding Principles of National Curriculum Frame Work (2005)]
राष्ट्रीय पाठ्यक्रम के ढाँचा, 2005 के निर्देशक सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
- (a) स्कूल के बाह्य जीवन के साथ ज्ञान को जोड़ना।
- (b) यह सुनिश्चित करना कि सीखना रखने वाले तरीकों से पृथक् कर दिया गया है।
- (c) पाठ्य पुस्तकों पर केन्द्रित होने के स्थान पर बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए पाठ्यक्रम को समृद्ध बनाना।
- (d) परीक्षाओं को अधिक लचीला एवं कक्षा-कक्ष के जीवन के साथ एकीकृत बनाना।
विषय जिनके प्रति पाठ्यक्रम को प्रतिक्रिया अवश्य होनी चाहिए (Concerns to which our Curriculum must Respond)
- सभी बच्चों को स्कूल में दाखिल करने एवं बनाए रखने का महत्त्व
- पाठ्यक्रम के क्षेत्रों को विस्तृत करने की आवश्यकता ताकि इसमें ज्ञान, कार्य एवं हस्त-शिल्प की विभिन्न परम्पराओं की समृद्ध विरासत को शामिल किया जा सके।
- विकेन्द्रीकरण एवं पंचायती राज संस्थाओं के योगदान पर एवं इसकी सुरक्षा बल
- पर्यावरण के प्रति बच्चों को भावपूर्ण बनाना।
- अपने आप प्राकृतिक एवं सामाजिक वातावरण के साथ समरूपता से रहना।
गुणवत्ता परिभाषा का परीक्षण बच्चों के लिए बनाए गए अनुभवों के दृष्टिकोण से जानकारी एवं निपुणताओं के अर्थों में करने की आवश्यकता है।
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