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राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान क्या है ? माध्यमिक शिक्षा की समस्या एवं समाधान

राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान क्या है ? माध्यमिक शिक्षा की समस्या एवं समाधान
राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान क्या है ? माध्यमिक शिक्षा की समस्या एवं समाधान

राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान क्या है ? विस्तृत विवेचना कीजिए।

माध्यमिक शिक्षा के पुनर्गठन की आवश्यकता स्वतन्त्रता के पश्चात् तुरन्त अनुभव की गई। उसी आवश्यकता के कारण पहले ताराचन्द समिति, फिर माध्यमिक शिक्षा आयोग तथा भारतीय शिक्षा आयोग का गठन हुआ। इन्हीं के प्रस्तावों के अनुसार शिक्षा का विकास हुआ तथा ढाँचा बदला गया। केन्द्र ने अखिल भारतीय माध्यमिक शिक्षा परिषद् का गठन किया।

विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में माध्यमिक शिक्षा के विकास के लिए विभिन्न पग उठाए गए, क्योंकि उन्हीं के आधार पर आर्थिक योजनाएँ बनाई जाती हैं। शिक्षा ही सभी प्रकार के विकास के लिए मानव शक्ति को तैयार करती है।

माध्यमिक शिक्षा का अर्थ एवं गठन (Secondary Education: Meaning and Organization)

माध्यमिक शिक्षा आयोग ने माना है कि, “प्राथमिक शिक्षा के उपरांत तथा विश्वविद्यालय की शिक्षा के पूर्व, जो समय विद्यार्थी विद्यालय में व्यतीत करता है, वही माध्यमिक शिक्षा का समय है किन्तु इस समय में एक या दो वर्ष का अन्तर होता रहा है। एक समय था जब प्राथमिक शिक्षा कक्षा चार पर समाप्त होती थी। कक्षा पाँच से सात तक की अवधि को मिडिल स्तर की शिक्षा कहा जाता था। फिर कक्षा आठ से दस तक, मैट्रिक या ऐंट्रेंस की शिक्षा के बाद, बोर्ड की परीक्षा होती थी। कक्षा ग्यारह व बारह, उस समय कॉलेज में इंटरमीडिएट के नाम से जाने जाते थे। फिर स्नातक तथा स्नातकोत्तर शिक्षाकाल भी दो वर्षों का था। उस समय 3 वर्ष की शिक्षा जो कक्षा आठ से दस तक की थी, माध्यमिक मानी जाती थी।” एक विद्वान के अनुसार, “इसके उपरान्त उच्च माध्यमिक, कक्षा ग्यारह भी माध्यमिक शिक्षा में मानी जाने लगी तथा कक्षा बारह को स्नातक शिक्षा में मिलाकर इण्टरमीडिएट समाप्त कर दिया गया। इसके उपरान्त कक्षा बारह भी माध्यमिक शिक्षा में आ गई। स्नातक शिक्षा भी, तीन वर्ष की ही रही। इस प्रकार अब कक्षा दस तक माध्यमिक तथा कक्षा बारह तथा उच्चतर माध्यमिक शिक्षा कही जाने लगी है। मिडिल की परीक्षा अब नहीं होती किन्तु आन्ध्र प्रदेश में, कक्षा सात की परीक्षा बोर्ड की ही होती है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न स्तर पर परीक्षाएँ ली जाती थीं।

अब सारे देश में एक ही शिक्षा प्रणाली है। कहा गया है, “1968 ई० की राष्ट्रीय शिक्षा नीति का सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान पूरे देश में एक-सी शिक्षा का ढाँचा तैयार करना है। अब 10+2+3 प्रणाली सारे देश में लागू कर दी गई है। कक्षा 10 का माध्यमिक, 12 पर उच्चतर माध्यमिक तथा 15 वर्ष की शिक्षा अवधि पर स्नातक परीक्षा प्रणाली लागू है।

बालक को आगे बढ़ाने में प्राथमिक शिक्षा आधार प्रदान करती है और व्यक्ति को जीवन की पृष्ठभूमि प्रदान करने का कार्य माध्यमिक शिक्षा करती है। प्राथमिक एवं उच्च शिक्षा के मध्य, माध्यमिक शिक्षा एक कड़ी के रूप में कार्य करती है। माध्यमिक शिक्षा के समुचित संगठन पर ही राष्ट्रीय शिक्षा का स्तर निर्भर करता है। इस सन्दर्भ में अग्रवाल एवं भारद्वाज ने लिखा है कि-“माध्यमिक शिक्षा की श्रेष्ठता पर ही सम्पूर्ण राष्ट्रीय शिक्षा निर्भर है। एक ओर तो माध्यमिक स्कूलों से प्राथमिक विद्यालयों के लिए अध्यापक मिलते हैं तो दूसरी ओर विश्वविद्यालय में प्रवेश भी यहीं से होता है। इस प्रकार माध्यमिक शिक्षा प्राथमिक और विश्वविद्यालयी शिक्षा के स्तर को भी ऊपर उठाना परम आवश्यक स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् राष्ट्र एवं व्यक्ति के विकास में माध्यमिक शिक्षा महत्त्वपूर्ण योगदान न दे सकी, क्योंकि उसके मार्ग में अनेक समस्यायें उत्पन्न हो गई हैं जिसका समाधान सरलता से नहीं किया जा सकता। माध्यमिक शिक्षा की प्रमुख समस्याओं तथा उनके समाधान का उल्लेख निम्नलिखित पंक्तियों में किया गया है-

माध्यमिक शिक्षा की समस्या एवं समाधान (Problems and Solutions of Secondary Education)

(1) उद्देश्यहीनता- माध्यमिक शिक्षा का उद्देश्यहीन होना माध्यमिक शिक्षा की सर्वाधिक विकट समस्या है। इस शिक्षा का एकमात्र साधन उद्देश्य या तो शिक्षार्थियों को विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने योग्य बनाना है अथवा उन्हें लिपिक बनाना है। आज माध्यमिक विद्यालयों में से शिक्षार्थियों की संख्या अधिक है जो यह नहीं बता सकते कि वे किसलिए शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं और भविष्य में उनकी योजना क्या है ? इसी कारण शिक्षार्थी अधर में ही रह जाते हैं और सार्थक अधिगमन न हो पाने के कारण उन्हें अपना भविष्य अन्धकारमय दिखाई देने लगता है।

माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्यों को निर्धारित करके ही इस समस्या का समाधान किया जा सकता है। माध्यमिक शिक्षा आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य बताये हैं-

  1. शिक्षार्थियों के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना।
  2. शिक्षार्थियों में नेतृत्व शक्ति का विकास करना।
  3. शिक्षार्थियों की व्यावसायिक कुशलता में वृद्धि करना।
  4. प्रजातान्त्रिक नागरिकता का विकास करना।
  5. अवकाश के सदुपयोग की शिक्षा प्राप्त करना।

(2) अपव्यय व अवरोधन की समस्या- अपव्यय व अवरोधन की समस्या केवल प्राथमिक स्तर पर ही नहीं होती माध्यमिक स्तर पर भी दिखाई देती है। माध्यमिक कक्षाओं में प्रतिवर्ष एक बड़ी संख्या में शिक्षार्थी अनुत्तीर्ण होते हैं अथवा शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। इसके अनेक कारण हैं; जैसे-विद्यालय की दयनीय दशा, अभिभावकों की निम्न आर्थिक स्थिति आदि ।

उपरोक्त समस्या का निराकरण करने हेतु-

  1. प्रत्येक कक्षा में 35 से अधिक शिक्षार्थी न हों।
  2. विद्यालय के वातावरण में सुधार किया जाए।
  3. योग्य, अनुभवी, प्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति की जाये।
  4. विद्यालयों को अधिकाधिक आकर्षक बनाना
  5. यथासम्भव क्रिया-विधि द्वारा शिक्षा प्रदान की जाये।
  6. रोचक एवं मनोवैज्ञानिक शिक्षण विधियों का प्रयोग किया जाये।
  7. आवश्यकतानुसार शिक्षण में सहायक सामग्री को प्रयुक्त किया जाये।
  8. पाठ्यक्रम में अधिक विषय न रखे जायें तथा जो भी विषय इसमें समाविष्ट हों वे व्यावहारिक व जीवन से सम्बन्धित होने चाहिए।
  9. अस्वस्थ शिक्षार्थी कक्षा में अनुपस्थित रहने के कारण परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाते हैं इसलिए सरकार द्वारा शिक्षार्थियों के स्वास्थ्य की ओर ध्यान दिया जाये।
  10. परीक्षा पद्धति को अधिकाधिक उपयोगी बनाया जाए।

(3) पाठ्यक्रम की अनुपयुक्तता- मुदालियर आयोग के अनुसार-“हमारे यहाँ विद्यालयों में दी जाने वाली शिक्षा जीवन से पूर्णतः पृथक् है। पाठ्यक्रम का निर्माण प्रारम्भिक विधियों से किया जाता है जिसमें वह रह रहा है।” हमारे यहाँ माध्यमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम संकीर्ण एवं एकमार्गी है। इसमें शिक्षार्थी को सर्वांगीण विकास करने का अवसर सुलभ नहीं होता। पाठ्यक्रम अव्यावहारिक एवं वास्तविक है और इसका जीवन से कोई भी सम्बन्ध नहीं है।

इस समस्या का समाधान निम्नलिखित उपायों द्वारा किया जा सकता है-

  1. पाठ्यक्रम में भिन्न-भिन्न विषयों, व्यवसायों एवं उद्योगों को सम्मिलित किया जाए।
  2. शिक्षार्थियों को रुचि के अनुकूल विषयों का चुनाव करने का अवसर दिया जाए।
  3. पाठ्यक्रम को अधिकाधिक रोचक बनाया जाये।

माध्यमिक शिक्षा आयोग ने पाठ्यक्रम की विभिन्नता पर बल देते हुए निम्नलिखित सुझाव दिये हैं-

  1. पाठ्यक्रम-नमनीय एवं लचीला हो।
  2. पाठ्यक्रम के समस्त विषय एक-दूसरे से सम्बद्ध हों।
  3. विषय सामाजिक जीवन से सम्बन्धित हो।
  4. पाठ्यक्रम शिक्षार्थियों की क्षमताओं एवं अयोग्यताओं को विकसित करने वाला हो।
  5. पाठ्यक्रम शिक्षार्थियों को अभिप्रेरित करने वाला हो।

(4) शिक्षार्थियों में व्याप्त अनुशासनहीनता- अनुशासनहीनता की समस्या माध्यमिक शिक्षा की एक अन्य विकट समस्या है। इसके लिए अनेक कारण उत्तरदायी हैं। जैसे-अभिभावकों द्वारा बालकों पर ध्यान न दिया जाना, वर्ष पर्यन्त तक विद्यालय में प्रवेश की अनुमति, विद्यालयों की अनियमितता, शिक्षण का निम्न स्तर, अयोग्य अध्यापक, अरुचिकर पाठ्यक्रम, दोषयुक्त परीक्षा प्रणाली आदि। वर्तमान शिक्षा प्रणाली शिक्षार्थियों में आत्मिक अनुशासन पैदा करने में पूर्णतः असक्षम है। अतः इस समस्या का समय पर समाधान न किया जाये तो यह समस्या देश के लिए बहुत बड़ा सिरदर्द बनकर रह जायेगी। उपरोक्त समस्या का निराकरण करने हेतु-

  1. पाठ्यक्रम को रुचिकर बनाया जाये।
  2. परीक्षा प्रणाली में सुधार किया जाये।
  3. शिक्षक एवं शिक्षार्थी की आर्थिक कठिनाइयों को दूर किया जाये।
  4. शिक्षार्थियों को दूषित राजनीति के दलदल से दूर रखा जाये।
  5. शिक्षण हेतु रोचक विधियों को प्रयुक्त किया जाये।
  6. चलचित्रों एवं काम-उद्दीपक उपन्यासों से शिक्षार्थियों को दूर रखा जाये।
  7. कक्षा में शिक्षार्थियों की संख्या कम रखी जाये जिससे शिक्षक प्रत्येक शिक्षार्थी का ध्यान रख सके।
  8. शिक्षार्थियों को अनुशासन के महत्त्व से अवगत कराया जाये।
  9. विद्यालय में पाठ्य-सामग्री का ध्यान रखा जाये ।
  10. विद्यालयों में वातावरण शुद्ध एवं उत्तम रखा जाये।
  11. विद्यालय के शिक्षक योग्य एवं अनुभवी होने चाहिए।
  12. उपर्युक्त समस्त कार्यों को पूर्ण करने के लिए सरकार, शिक्षकों एवं अभिभावकों द्वारा समन्वित रूप से कार्य किया जाये।

(5) दोषपूर्ण परीक्षा पद्धति- हमारे देश में माध्यमिक परीक्षा पद्धति अत्यन्त दोषपूर्ण है। आज शिक्षक एवं शिक्षार्थी दोनों ही परीक्षा में उत्तीर्ण होने का उद्देश्य लेकर पढ़ते तथा पढ़ाते हैं। इस प्रकार सर्वप्रथम उद्देश्य केवल परीक्षा उत्तीर्ण करना रह जाता माध्यमिक विद्यालय में मासिक परीक्षाओं पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता 1 है। शिक्षार्थियों का मूल्यांकन उसने परीक्षा में क्या तथा कितना लिखा है, के आधार पर किया जाता है और उसी के आधार पर शिक्षार्थियों को अगली कक्षा में प्रवेश दे दिया जाता है। इसके फलस्वरूप शिक्षार्थी केवल परीक्षा के समय कुंजियों से पढ़कर कुछ चयनित प्रश्नों के उत्तरों को रटकर परीक्षा में प्रश्नों के उत्तर लिख आते हैं। निबन्धात्मक शिक्षा प्रणाली द्वारा शिक्षार्थियों के मानसिक पक्ष का मूल्यांकन सही प्रकार से नहीं हो पाता है।

प्रचलित परीक्षा पद्धति में सुधार करके इस समस्या का समाधान हो सकता है इस सम्बन्ध में माध्यमिक शिक्षा आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिये हैं-

  1. बाह्य परीक्षायें कम ली जायें।
  2. विद्यालय में प्रत्येक शिक्षार्थी का विद्यालय अभिलेख रखा जाये। इस अभिलेख में शिक्षार्थी की विभिन्न क्षेत्रों में अर्जित सफलताओं को लिखा जाये।
  3. परीक्षा में केवल निबन्धात्मक प्रश्न ही न पूछे जायें।
  4. परीक्षाओं के कार्यों का मूल्यांकन अंकों के बजाय श्रेणी में किया जाये।
  5. श्रेणी प्रदान करते समय आन्तरिक परीक्षाओं, नियतकालीन परीक्षाओं तथा विद्यालयी अभिलेखों का ध्यान रखा जाये।

परीक्षा में सुधार करने के लिए कोठारी कमीशन ने निम्न सुझाव

  1. आन्तरिक मूल्यांकन व्यापक रूप से किया जाना चाहिए।
  2. शिक्षार्थियों के सम्पूर्ण पक्षों का मूल्यांकन किया जाना चाहिए।
  3. शिक्षार्थियों के सम्पूर्ण पक्षों का बाह्य परीक्षा एवं आन्तरिक मूल्यांकन को परीक्षा में उत्तीर्ण करने का आधार मानकर किया जाना चाहिए।
  4. वस्तुनिष्ठ एवं निदानात्मक परीक्षाओं को विशेष महत्त्व प्रदान किया जाना चाहिए।

(6) माध्यमिक विद्यालयों का प्रबन्ध- हमारे देश में विभिन्न प्रकार के माध्यमिक विद्यालय हैं जैसे निकाय, माध्यमिक विद्यालय, स्वसंचालित माध्यमिक विद्यालय, राजकीय माध्यमिक विद्यालय आदि। इसमें स्वसंचालित माध्यमिक विद्यालय की संख्या सबसे अधिक है। सरकार माध्यमिक शिक्षा के भार को स्वयं पर नहीं लेती अपितु अनुदान के रूप में निजी संस्थाओं को आर्थिक सहायता प्रदान करती है और विद्यालय प्रबन्धक का भार विद्यालयी प्रबन्धकों पर छोड़ देती है। इस सन्दर्भ में माध्यमिक शिक्षा आयोग का कहना है कि-“दुर्भाग्यवश इस शिथिलता के कारण अनेक विद्यालय हैं जैसे-शिक्षण संस्थाओं के रूप में न चलाये जाकर व्यावसायिक उद्योग के रूप में चलाये जाते हैं। अनेक स्थितियों में व्यक्ति स्वयं की हैसियत से अथवा व्यक्तियों के समूह बगैर उचित भवन अथवा उपकरणों के शिक्षार्थियों को दाखिल करके, विद्यालय को चलाने लगते हैं जिससे वे ऐसी स्थिति पैदा कर देते हैं कि शिक्षा विभाग के पास विद्यालयों को मान्यता देने के अलावा और कोई उपाय नहीं होता है।”

माध्यमिक शिक्षा का राष्ट्रीय शिक्षा का राष्ट्रीयकरण करके इस समस्या का निराकरण किया जा सकता है। समस्त प्राइवेट स्कूलों का प्रबन्ध सरकार द्वारा किया जाये और उन पर नियन्त्रण लगा दिया जाये।

(7) व्यवसायीकरण का अभाव – हमारे देश में माध्यमिक स्तर के पाठ्यक्रम में विभिन्नता एवं व्यवसायीकरण का नितान्त अभाव है। इस संबंध में माध्यमिक शिक्षा आयोग ने यह सुझाव दिया था कि “पाठ्यक्रम का विभिन्नीकरण करने के साथ ही बहुउद्देश्यीय विद्यालयों की स्थापना की जाये लेकिन सरकार को इस क्षेत्र में सफलता प्राप्त न हो सकी। आज का युग औद्योगीकरण का युग है अतः इस युग में सामान्य शिक्षा प्राप्त करके व्यक्ति जीवन में सफलता अर्जित नहीं कर सकता। इस दृष्टि से, माध्यमिक शिक्षा का व्यवसायीकरण करना नितान्त आवश्यक है। व्यवसायीकरण की समस्या का निराकरण करने हेतु कोठारी कमीशन का यह कहना है कि “माध्यमिक शिक्षा को विस्तृत पैमाने पर व्यवसायिक बनाया जाय और 1968 तक व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की शिक्षार्थी संख्या का निम्न माध्यमिक स्तर पर सम्पूर्ण छात्र का 20% और उच्चतर माध्यमिक स्तर का सम्पूर्ण छात्र का 50% कर दिया जाय।” इससे सम्बन्धित कोठारी कमीशन ने यह सुझाव दिया कि छात्र हेतु निम्न माध्यमिक स्तर दो प्रकार की शिक्षा व्यवस्था करनी चाहिए-

  1.  सामान्य शिक्षा और
  2.  व्यावसायिक शिक्षा

इन दोनों स्तरों पर व्यावसायिक शिक्षा की अवधि 1 से 3 वर्ष की रखी जाये। व्यावसायिक शिक्षा सम्बन्धित कोठारी कमीशन द्वारा दिये गये सुझावों का सभी जगह स्वागत किया गया, परन्तु हमारे देश में व्यावसायिक शिक्षा के लिए धन की व्यवस्था करना अत्यन्त कठिन है। माध्यमिक शिक्षा का व्यावसायीकरण करने के लिए यह आवश्यक है कि-

  1. देश के समस्त धनाढ्य वर्ग से शिक्षा कर लेना चाहिए।
  2. शिक्षार्थियों को व्यावसायिक केन्द्रों में ले जाकर इन्हें व्यावहारिक ज्ञान प्रदान किया जाना चाहिए।
  3. व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए इसके उपरान्त शिक्षार्थियों को रोजगार दिलाने का प्रयास करना चाहिए।

(8) सामुदायिक जीवन का अभाव- हमारे देश में अधिकांश माध्यमिक विद्यालयों में सामुदायिक जीवन का अभाव पाया जाता है। इसका सर्वप्रमुख कारण है-विद्यालयों में सामाजिक कार्यों को आयोजित न किया जाना चाहिए। सामाजिक कार्यों को न करने के परिणामस्वरूप शिक्षार्थियों में परस्पर सम्पर्क स्थापित नहीं हो पाता है। आज माध्यमिक विद्यालय शिक्षार्थियों को उत्तम नागरिक बनाने और उनमें सुसंगठित सामुदायिक जीवन व्यतीत करने की भावना विकसित करने में पूर्णतः असमर्थ है। इसके परिणामस्वरूप शिक्षा देश के योग्य एवं कर्त्तव्यनिष्ठ नागरिक नहीं बन पाते हैं ।

विद्यालयों को सामुदायिक जीवन का केन्द्र बनाकर इस समस्या का निराकरण किया जा सकता है। मुदालियर आयोग के शब्दों में, “शिक्षालय एक बहुत बड़े समुदाय के अन्तर्गत एक छोटा समुदाय है, जिसमें वैसी ही प्रवृत्तियाँ, धारणायें और व्यवहार की विधियाँ प्रतिबिम्बित होती हैं जो कि राष्ट्रीय जीवन में दृष्टिगोचर होती हैं।” डॉ० जाकिर हुसैन के मतानुसार, “हमारी समस्त शिक्षण संस्थायें सामुदायिक कार्य का केन्द्र होंगी।” इस कार्य को सभी के सहयोग (सरकार, शिक्षण, शिक्षार्थी) से ही पूर्ण किया जाता है।

(9) अवांछनीय शिक्षालयों की संख्या में वृद्धि – हमारे देश में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् माध्यमिक शिक्षा का विकास अत्यन्त तीव्र गति से हुआ। जैसे-जैसे माध्यमिक शिक्षा का विस्तार होता गया वैसे-वैसे अवांछनीय व्यक्तिगत माध्यमिक विद्यालय की संख्या में भी वृद्धि होती चली गई और आज ये विद्यालय स्वार्थ पूर्ति का साधन मात्र बनकर रह गये हैं। ऐसे विद्यालयों में शिक्षकों को तो कम वेतन दिया जाता है लेकिन शिक्षार्थियों को अत्यधिक शिक्षा शुल्क देना पड़ता है। ऐसे विद्यालय या तो किसी विशेष राजनीति दल की अथवा व्यक्ति विशेष की निजी सम्पत्ति होते हैं। इनका उद्देश्य केवल अधिकाधिक धनार्जन करना ही होता है।

उपरोक्त समस्या का निराकरण समस्त अवांछनीय विद्यालयों को बन्द करके किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त सरकार को माध्यमिक शिक्षा का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाना चाहिए जिससे इन विद्यालयों के प्रबन्धक लाभ प्राप्त न कर सकें।

(10) उचित निर्देशन एवं मार्गदर्शन का अभाव- माध्यमिक स्तर पर उचित निर्देशन एवं मार्गदर्शन के अभाव में अधिकांश शिक्षार्थी गलत विषयों का चयन कर लेते हैं जिसके फलस्वरूप उन्हें उन विषयों को समझने में अत्यन्त कठिनाई होती है। इसके अतिरिक्त उन्हें यह भी पता नहीं रहता कि वे किस उद्देश्य से शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। उद्देश्यहीनता के कारण उनकी अध्ययन में कोई रुचि नहीं होती है।

माध्यमिक शिक्षा आयोग ने इस समस्या का समाधान करने हेतु निर्देशन के महत्त्व को ध्यान में रखकर निम्नलिखित सुझाव दिये हैं-

(1) शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त शिक्षार्थी कौन-कौन से व्यवसाय कर सकते हैं? इस सम्बन्ध में शिक्षा अधिकारियों को विशेष ध्यान देना चाहिए।

(2) शिक्षार्थियों को उद्योगों का वास्तविक ज्ञान प्रदान करने हेतु उन्हें कल कारखानों में ले जाना चाहिए।

(3) सरकार को मार्गदर्शन एवं केरियर मास्टरी के प्रशिक्षण केन्द्रों की स्थापना भिन्न-भिन्न भागों में की जानी चाहिए।

(4) सरकार को मार्गदर्शन एवं मास्टरी के प्रशिक्षण की स्थापना की व्यवस्था करनी चाहिए। उपरोक्त समस्याओं के अतिरिक्त माध्यमिक शिक्षा की कुछ अन्य समस्याएँ भी हैं; जैसे—

  1. शिक्षण के निम्न स्तर की समस्या ।
  2. माध्यमिक शिक्षा के संगठन में समरूपता की व्यवस्था ।
  3. माध्यम की व्यवस्था ।
  4. प्रसार की समस्या ।
  5. मूल्यांकन की समस्या
  6. पाठ्य-पुस्तकों का अभाव।

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Anjali Yadav

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