राष्ट्रीय संकट के समय विद्यालयों के क्या कर्त्तव्य हैं ? स्पष्ट कीजिये।
राष्ट्रीय संकट और विद्यालय (National Emergency and Schools)
प्रत्येक राष्ट्र के समक्ष ऐसी घड़ी भी आती है, जब वह संकट में होता है। ऐसा संकट का समय उसके लिये अग्नि परीक्षा का समय होता है। ऐसी स्थिति में प्रत्येक नागरिक को संस्थाओं को एवं विद्यालयों को विशेष कर्त्तव्यों का पालन करना होता है। भारत पर भी अनेकों बार ऐसे संकट आये हैं, जिनमें से प्रमुख हैं-
- 1962 में चीन का भारत पर आक्रमण,
- 1965 में पाकिस्तान का भारत पर आक्रमण,
- 1971 में पुनः पाकिस्तान का भारत पर आक्रमण
इन सभी संकट के समय में भारत के प्रत्येक नागरिक ने चाहे वह किसी जाति का था, किसी भी धर्म का, एक जुट होकर अटूट साहस का परिचय दिया। इसी के कारण भारत को विजय प्राप्त हुई।
राष्ट्रीय संकट चाहे जैसा हो, विद्यालय जो स्वयं एक लघु समाज है, के बहुत से कर्त्तव्य होते हैं, जिनका विवरण निम्न प्रकार है-
1. साम्प्रदायिकता को समाप्त करना – विद्यालय में अनेक धर्मों और सम्प्रदायों के छात्र पढ़ते हैं, उसमें किसी भी प्रकार की धार्मिक, जातिगत, वंशगत, भाषागत, दलबन्दी और साम्प्रदायिक भावना विकसित नहीं होनी चाहिये। विद्यालय का प्रयास होना चाहिये कि — “लोकतन्त्र की सफलता के सफलतापूर्वक संचालन और राष्ट्रीय संगठन व एकता की पुष्टि के लिये यह अनिवार्य है कि साम्प्रदायिकता को भारतीय जीवन से पूर्णतः नष्ट कर दिया जाये।”
2. पाठ्य-पुस्तकों के पाठ्यक्रम की जाँच- राष्ट्रीय संकट के समय पाठ्यक्रम में से राष्ट्र विरोधी तथ्यों को तत्काल हटा देना चाहिये। विद्यालय का कार्य है-“पाठ्य पुस्तकों की जाँच, राष्ट्रीय दृष्टिकोण से पाठ्य पुस्तकों की पुनर्रचना, एकता आन्दोलन को सबल बनाना, लोकप्रिय मेलों तथा उत्सवों पर सभी लोगों को समान रूप से भाग लेना, समाचार पत्रों का उपयोग, साम्प्रदायिक दलों पर प्रतिबन्ध, जन शिक्षण, धार्मिक तथा साम्प्रदायिक संस्थाओं पर नियन्त्रण आदि कार्यों से राष्ट्रीय एकता की भावना का विकास किया जाता है। “
3. राष्ट्रीय एकता का विकास- राष्ट्रीय संकट के समय प्रत्येक विद्यालय का कर्त्तव्य है कि वह राष्ट्रीयता की भावना का विकास करने वाले कार्यक्रमों का आयोजन करे। राष्ट्रीय एकता समिति ने भी कुछ विषयों पर इस प्रकार विचार किया है-
(i) राष्ट्रीय जीवन में भावनात्मक एकता की क्रियाओं को बढ़ावा देने तथा सफल बनाने में शिक्षा की भूमिका का अध्ययन करना और इसके विकास में बाधक होने वाली प्रवृत्तियों की जाँच करना।
(ii) इस प्रकार के अध्ययन को ध्यान में रखते हुये सामान्यतया युवकों के लिये और विशेषतया स्कूलों तथा कॉलेज के छात्रों के लिये ऐसे ठोस शिक्षण कार्यक्रम के सुझाव देने, जिनसे उनमें भावनात्मक एकता की प्रक्रिया प्रबल बनाई जा सके।
4. भाषावाद को दूर करना- राष्ट्रीय संकट के समय विद्यालयों का कार्य भाषा के झगड़ों को समाप्त कर राष्ट्र विकास के कार्यों में लगना है। विद्यालयों को चाहिये कि माध्यम कुछ भी हो, उद्देश्य एक होना चाहिये।
5. सैनिक प्रशिक्षण– विद्यालयों का मुख्य कर्त्तव्य है दूसरी सुरक्षा पंक्ति बनाने के लिये छात्रों को सैनिक प्रशिक्षण दिया जाए, इससे छात्रों में अपने देश की सुरक्षा के लिये विश्वास बढ़ेगा तथा वे स्वावलम्बी होंगे।
6. उत्पादनोन्मुख शिक्षण- राष्ट्रीय संकट को टालने के लिए आवश्यक है कि शिक्षण को उत्पादनोन्मुख बनाना चाहिये। इस सम्बन्ध में डॉक्टर वीर बहादुर सिंह का कथन है-“यदि सामाजिक पुनर्निर्माण को सभी दल तथा शक्तियाँ सफल बनाना चाहती हैं तो सबको परम्परागत आर्थिक प्रणाली, साधनों की कमी, तथा भेदभाव को भूल कर एक होना पड़ेगा।” (If the socialist reconstruction is to be successful all parties and forces believing in this goal must come together the functional unity of these parties and forces will unlash the power that will decisively smash up the vestiges of the traditional economy, that breeds a scarcity and animosity in various social groups.)
श्री रुद्रमान के अनुसार- “क्रियात्मक प्रवृत्तियों द्वारा शिक्षण देना, जीवन शिक्षण का पहला कदम है। इसके द्वारा बालक का शारीरिक, बौद्धिक और सामाजिक विकास साथ-साथ सम्पन्न होता चलता है। उत्पादन मूलक शिक्षण इसी का अगला कदम है। उत्पादन मूलक शिक्षण अपने आप में मूलतः एक शैक्षिक कार्यक्रम है, किन्तु उसका आर्थिक पक्ष भी है। और वह यह कि उसके द्वारा बालक के भीतर आत्मनिर्भरता की क्षमता का विकास होता है। अपनी प्रारम्भिक स्थिति में वह आत्मनिर्भरता आंशिक होगी तथा बालक की शैक्षिक दीक्षा पूर्ण होते-होते वह भी स्वयं परिपूर्ण हो जायेगी अर्थात् पूर्णतया उत्पादन मूलक शिक्षण प्राप्त करने के पश्चात् छात्र में ऐसी योग्यता आ ही जानी चाहिये कि (1) वह प्राकृतिक साधनों तथा शक्तियों का बुद्धिमानीपूर्वक उपयोग कर सके। (2) परिवार तथा समुदाय में जो भी साधन उपलब्ध हैं, उनका कुशलतापूर्वक उपयोग करते हुए अधिक समृद्ध तथा विकासोन्मुख जीवन स्तर प्राप्त कर सके। “
7. राष्ट्रीय आन्दोलन– विद्यालयों को राष्ट्रीयता का विकास करने के लिए एक आन्दोलन चलाना चाहिये। राष्ट्रीय एकता समिति के अनुसार राष्ट्रीय दृष्टिकोण पैदा करने के लिये एक आन्दोलन प्रारम्भ किया जाना चाहिये। इस काम के लिये प्रत्येक प्रदेश के कुछ जिम्मेदार व्यक्तियों की एक कमेटी बनायी जानी चाहिये। इस कमेटी के कामों में यह देखना भी सम्मिलित होना चाहिये कि सरकारी तथा अन्य स्कूलों में पाठ्य-पुस्तकें इस प्रकार की हो कि जिनसे राष्ट्रीय दृष्टिकोण को बल मिल सके। इस सम्बन्ध में नयी पीढ़ी पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिये।
8. कुछ रचनात्मक सुझाव- प्रोफेसर बच्चन पाठक ने अपने लेख ‘जवानी का जोश’ और ‘दिशा बोध की समस्या’ में राष्ट्रीय संकट को दूर करने के कुछ रचनात्मक सुझाव निम्न प्रकार दिये हैं-
1. आजकल अपने नाम पर कॉलेज तथा विश्वविद्यालय खोलना रिवाज बनता जा रहा है, इसे रोका जाना चाहिये। अनिवार्य शिक्षा के बाद अधिकांश छात्रों को तकनीकी तथा कृषि-ज्ञान दिलाया जाना चाहिये तथा कुछ बहुत ही प्रतिभाशाली छात्रों को राजकीय खर्च से उच्च शिक्षा प्रदान की जानी चाहिये। चुनाव में जो छात्र नहीं जायेंगे, वे स्वतः शिक्षा की भीड़ से बच जायेंगे, परन्तु यह स्मरण रखना होगा कि किसी भी प्रकार की ‘बैकडोर’ व्यवस्था इसमें घातक सिद्ध होगी।
2. शिक्षक प्रतिनिधियों की काफी संख्या विधान परिषदों में होनी चाहिये। यह नियम बनाया जाना चाहिये कि शिक्षक प्रतिनिधि केवल शिक्षक ही हो सकते हैं, कोई पेशेवर नेता नहीं। इस व्यवस्था से जहाँ शिक्षक सरकार को उचित परामर्श दे सकेंगे, अधिकार प्राप्ति के लिये राजनीति के आकर्षण से भी बच सकेंगे।
3. शिक्षकों का सम्मान होना चाहिये। यह ठीक है कि शिक्षक राजनीति में क्रियाशील न हों, पर यह भी उचित है कि शिक्षा के सम्बन्ध में कोई राज नेता या विरोध पक्ष का सदस्य उल्टी-सीधी बातें न किया करे। सभी पक्षों के राजनीति, दल वाले एक ‘आचार संहिता’ बनायें, जिसमें किसी भी राजनीतिक उद्देश्य के लिए छात्रों का प्रयोग निषिद्ध माना जाना चाहिये।
4. अभिभावकों तथा नेताओं को शपथ लेनी होगी कि वे कभी भी अनुचित सिफारिश हेतु किसी शिक्षक के यहाँ नहीं जायेंगे। पास कराने के लिये प्रवेश दिलाने के लिये या बहुत अच्छा प्रमाण-पत्र दिलाने के लिये सिफारिश करना एक राष्ट्रीय अपराध है।
5. स्कूलों में शिक्षकों तथा छात्रों का प्रत्यक्ष सम्पर्क रहे। इसके लिये आवासीय विद्यालयों की स्थापना होनी चाहिये। छात्रों को प्रारम्भ से ही उत्तरदायित्व के काम दिये जाने चाहियें, शिक्षा में सांस्कृतिक, धार्मिक तथा मानवीय अंश बढ़ा दिये जाने चाहिये। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम धर्मनिरपेक्षता को अधार्मिकता का पर्याय समझने लगे हैं।
6. सामाजिक मूल्यों को बदलना होगा। आज के विद्यार्थी जितना नेताओं तथा अभिनेताओं से प्रभावित होते हैं, उतना और किसी से नहीं। वे जब देखते हैं बिना पढ़े तथा बिना संयमी बने ही ये नेता और अभिनेता सफलता की चोटी पर चढ़े हुये हैं तो वे भी उनका अनुकरण करने लगते हैं।
7. शिक्षकों, प्राध्यापकों तथा उपकुलपतियों के अधिकार बढ़ा दिये जाने चाहियें। वर्तमान कानून में भी संशोधन करना पड़ेगा। आजकल शिक्षालयों के निर्णयों को प्रायः अदालतों में चुनौती दे दी जाती है, इसलिए भी निर्भीक होकर शिक्षक अपना कार्य नहीं कर पाते।
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