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लिंग (जेण्डर) तथा शिक्षा सिद्धान्तः तुलनात्मक विश्लेषण | Theories on Gender and Education: Comparative Analysis in Hindi

लिंग (जेण्डर) तथा शिक्षा सिद्धान्तः तुलनात्मक विश्लेषण | Theories on Gender and Education: Comparative Analysis in Hindi
लिंग (जेण्डर) तथा शिक्षा सिद्धान्तः तुलनात्मक विश्लेषण | Theories on Gender and Education: Comparative Analysis in Hindi

लैंगिक मुद्दे के अन्तर्गत शिक्षा सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।

लिंग (जेण्डर) तथा शिक्षा सिद्धान्तः तुलनात्मक विश्लेषण (Theories on Gender and Education: Comparative Analysis)

शैक्षिक उपचारों की प्राविधियाँ (Education Interventions) सभी सम्भव नारीवादी सिद्धान्तों को समाहित नहीं कर पातीं फिर भी मुख्य प्रचलित नारीवादी शिक्षण के तरीकों (Feminist Pedagogy) के फ्रेमवर्क को प्रस्तुत कर पाती हैं। उदारवादी नारीवाद, जो कि न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था में सभी व्यक्तियों स्त्री व पुरुष की समानता व स्वतन्त्रता के पक्ष में है, काफी हद तक समाजीकरण तथा जेण्डर-अन्तर नारीवादियों से सहमत दिखाई पड़ता है, परन्तु स्त्रीत्व को परिभाषित करने में अलगाव दिखाई पड़ता है, क्योंकि समाजीकरण सिद्धान्तकार, स्त्रीत्व को लाद दी गई या थोप दी गई (Ascribed) भूमिका मानते हैं, जबकि जेण्डर-अन्तर स्त्रीत्व को प्राप्त या पैतृक (Interent) मानते हैं। दोनों ही सिद्धांतकार तन्त्र के अन्दर (Within the System) सुधार पर बल देते हैं, न कि तंत्र या व्यवस्था को बदलना चाहते हैं। समाजीकरण सिद्धान्तकार इस बात को स्पष्ट करते हैं कि शिक्षा को स्वयं को तार्किक मनुष्य के रूप में स्त्री व पुरुष में व्याप्त समानताएँ महत्त्वपूर्ण है। हालांकि मायरा सैडकर (Myra Sadker), राबर्टा हॉल (Roberta Hall), बर्निस सैण्डलर (Bernic Sandler) आदि सिद्धान्तकार कहते हैं कि स्त्रीत्व कोई प्राकृतिक अवस्था नहीं है बल्कि यह स्त्रियों को दी जाने वाली निरन्तर शिक्षा (Inferior Education) का परिणाम है। उन्हें बचपन से ही अपने रूप-सौन्दर्य के प्रति सचेत रहने को, स्वयं को कमजोर व असहाय मानने को बढ़ावा देने से, लड़कियाँ स्वयं ही दूसरों से स्वयं को कमतर मानने लगती हैं। अपने परिवार, स्कूल तथा समाज से लड़कियाँ स्वयं के प्रति अस्वीकृति भरे व्यवहार को सीखती हैं तथा मीडिया भी इस संदेश को पुनर्बलित करता रहता है कि स्त्रियाँ सजावटी वस्तुएँ हैं (Ornamental) न कि सक्रिय। जब भी लड़कियाँ कुछ बोलना चाहती हैं तो उन्हें रोका जाता है तथा तुच्छ महसूस कराया जाता है, इसलिए अधिकतर लड़कियाँ अपने वाक्यों को अनिश्चित अन्त, “शायद”, “हो सकता है” “फिर भी’ आदि पर खत्म करती हैं। लड़कियों में निहित निष्क्रियता, झिझक आदि उनके साथ किये गये व्यवहारों के कारण ही होती है। यदि अभिभावक लड़कियों से लड़कों के समान ही जटिल तथा चुनौतीपूर्ण प्रश्न पूछे तो सम्भव है कि लड़कियों में शर्मीलापन (self-effacing) दूर हो जाये। समाजीकरण सिद्धान्तकार तर्क देते हैं कि यदि लड़कियों से एक तार्किक तथा सक्षम, व्यक्ति की तरह व्यवहार किया जाये तो लड़कियाँ भी लड़कों की तरह ही स्मार्ट, स्वतन्त्र, आत्मविश्वासी तथा रचनात्मक सिद्ध हो सकती हैं। उदावादी नारीवादियों की तरह ही समाजीकरण सिद्धान्तकार मानते हैं कि सभी के लिए एक जेण्डर-निरपेक्ष न्याय (Gender-neutral Justice) होना चाहिए तथा कोई व्यक्ति किसी भी जेण्डर का हो उस समान नियम लागू होने चाहिए। इसलिए वर्षों से चले आ रहे लैंगिक भेदभाव को मिटाने के लिए सकारात्मक नीतियों व योजनाओं की अत्यन्त आवश्यकता है।

सामान्यतः समाजीकरण सिद्धान्त मुख्य रूप से तीन महत्त्वपूर्ण मुद्दे उठाता है- प्रथम, यह लड़कियों की कुछ क्रियाओं के प्रति स्वाभाविक रुझान होने की प्रवृत्ति को नहीं मानता तथा इस धारणा को ध्वस्त करता है कि यदि लड़कियाँ गणित, विज्ञान या खेलों में रुचि नहीं ले रही हैं तो उन्हें इन विषयों की शिक्षा देने की जरूरत भी नहीं है। यदि वे फिजिक्स में रुचि नहीं ले रही हैं तो इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वे इसे “पुरुषवादी विषय” (Masculine Subject) मान रही हैं या वे विश्वास करती हैं कि गृहिणी (Home Maker) की भूमिका में इससे कोई मदद नहीं मिलेगी। यह सब कोई कारण नहीं है कि लड़कियों को जेन्डर-निरपेक्ष विश्लेषण से दूर रखा जाए या फिर उन्हें सम्पूर्ण शिक्षा न दी जाये।

द्वितीय मुद्दा जो समाजीकरण सिद्धान्तकारों ने उठाया वह है स्कूलों तथा कॉलेजों में लड़के व लड़कियों के प्रति सुविधाओं में असमानता है। संस्थाओं जैसे विद्यालय स्तर पर कोई ऐसे उदाहरण होते हैं जहाँ विभेदीकरण तथा असमानता सामने आते हैं, जैसे खेल सुविधाओं में लड़कों के पास अधिक विकल्प तथा वित्तीय सुविधायें होना।

इस प्रकार से अन्य कई संस्थागत (Institutional Bias) सामने आते हैं, जैसे स्कूल तक पहुँच तथा प्रवेश की समस्या लड़कियों के लिए स्कूल में सहयोगी स्थितियाँ तथा एक प्रतिनिधित्वकारी पाठ्यचर्या/अन्ततः समाजीकरण सिद्धान्त महिलाओं के प्रति समाज द्वारा किये जा रहे भावुक बर्ताव (Sentimental treatment) की आलोचना करते हुए जेण्डर-निरपेक्ष प्रतिमान बनाये जाने पर बल देता है।

सिद्धान्तकारों का कहना है कि यदि स्त्रियों के साथ पुरुष से अलग बर्ताव चाहे वह कार्यस्थल हो, खेल का मैदान हो, कक्षा हो, राजनीति हो, या साहित्यिक क्षेत्र हो, अपनी परिभाषा में लैंगिक विभेदीकारी है तो शिक्षाशास्त्री स्त्रियों को निम्नतर सीढ़ी पर छोड़कर आगे नहीं बढ़ सकते। जेण्डर-अन्तर सिद्धान्तकार इसके विपरीत स्त्रियों को पब्लिक क्षेत्रों से समिति कर देने वाले भावनात्मक बर्ताबों की आलोचना नहीं कर पाते परन्तु यह स्त्रियों की उपलब्धियों को पुरुषों के उदाहरण से तुलना करके देखने की प्रवृत्ति की भर्त्सना जरूर करते हैं। इस प्रकार से वे “एक-जैसा” (Sameness) होने के आधार पर समानता (Equality) नहीं चाहते। उनका कहना है- स्त्रियाँ, पुरुषों से बराबरी (Equality) कर सकती हैं परन्तु उनको पुरुषों के समान (Identical) होने की आवश्यकता नहीं है। जेण्डर-अन्तर सिद्धान्तकार जेण्डर विविधता को प्रोत्साहित करते हैं तथा स्त्रियों के मूल्यों को पुरुषों के समान या अलग स्वतन्त्र क्षेत्र में पुनर्प्रतिष्ठित तथा सम्मानित करते हैं। एक तरफ जहाँ यह दोनों सिद्धान्तकार (समाजीकरण एवं जेण्डर-अन्तर) उदारवादी नारीवाद की तरह यह मानते हैं कि परिवर्तन लाने के लिए व्यवस्था में रह कर सुधार लाने हैं वही वामपंथी तथा संरचना एवं विखण्डन सिद्धान्तकार कहते हैं कि स्त्रियों के कार्य तथा उनसे जुड़े मूल्यों का अवमूल्यन नजरअंदाज करने या पक्षपात करने का परिणाम नहीं है बाल्कि समाज के सत्ता सम्बन्धों का परिणाम है। न तो समाजीकरण नारीवाद तुलनात्मक रूप से समान कार्य के लिए समान वेतन की माँग करते है न ही अन्तर नारीवाद द्वारा स्त्रियों के कार्य को सम्मानित दर्जा देने से कोई परिवर्तन आने वाला है, इसके विरोध में संरचनावादी सिद्धान्तकारी कहते हैं, चूँकि किसी भी स्त्री के कार्य को न तो पुरुष के कार्य जितना सराहा जाता है न कि वह उनके जितना उत्पादक तथा तार्किक श्रम माना जाता है, क्योंकि सांस्कृतिक, आर्थिक, संस्थागत रूप से स्त्रियों को उसी स्थिति में बनाये रखने का ( Status Quo) प्रयास किया जाता है, अतः किन्हीं भी नियमों की दुहाई देने या आदर्शों की बात करने से परिवर्तन नहीं आ सकता क्योंकि यह सभी संस्थायें शक्तिशाली हैं तथा इनके पास सत्ता है। वास्तविक परिवर्तन केवल तभी सम्भव है जब प्रभुत्वशाली वर्ग की सत्ता तथा सुविधाओं को छिन्न-भिन्न किया जायेगा, क्योंकि संरचनावादी नजरिये से देखने पर सत्ता (Power) एक सम्बन्धित धारणा नजर आती है जिसका तात्पर्य है दूसरों पर सत्ता। इसलिए स्त्रियों को यदि एक समूह के रूप में सत्ता चाहिए तो पुरुषों को एक समूह के रूप में अपनी सत्ता खोनी पड़ेगी। हालांकि स्त्री सत्ता के रूप में सत्ता तक पहुँच बना सकती है परन्तु समूह के रूप में महिलायें तब तक पुरुष के बराबर नहीं पहुँच सकर्ती जब तक व्यवस्था को मूलभूत रूप में नहीं बदला जाता। इसी के समान्तर पर थोड़ा भिन्न विचार रखते हुए विखण्डन सिद्धान्तकार कहते हैं, जेण्डर तथा योग्यता को निर्धारित करने वाले सामाजिक विमर्शों पर प्रश्न उठाने से पुरुष को लाभकारी स्थिति को धक्का पहुँचेगा। इस प्रकार से पुरुष हमेशा उस परिवर्तन का विरोध करेगा जिससे उनकी सत्ता या सुविधा को नुकसान पहुँचता हो। विखण्डन सिद्धान्तकार उन विमर्शो पर ध्यान केन्द्रित करते हैं जो हमारे विचारों तथा रुझानों को अच्छा और प्राकृतिक अपनाने को संगठित करते हैं; जैसे- भाषा, दृश्यचित्र, सांस्कृतिक अभ्यास तथा “Master narratives” इत्यादि। संरचनात्मकं सिद्धान्तकार उन तरीकों को स्पष्ट करते है जिनमें भौतिक, संस्थागत तथा दूसरे सत्ता सम्बन्ध सामाजिक लाभ को कुछ हाथों में ही दे देते हैं (सामाजिक लाभ; जैसे-धन, स्वास्थ्य, आराम, विद्वत्तापूर्ण सम्मान, सांस्कृतिक सत्ता तथा औद्योगिक नियन्त्रण आदि)।

जहाँ समाजीकरण सिद्धान्तकार एक तरफ यह मानते हैं कि प्रत्येक स्त्री की जीत समूची नारी जाति की जीत के रूप में देखने से विकास होगा वहीं संरचनावादियों का कहना है कि व्यक्तिगत रूप से एक स्त्री को सत्ता तक पहुँच देने से स्त्री व पुरुष के सत्ता सम्बन्धों को नहीं बदला जा सकता। इस प्रकार की प्रतीकात्मक जीत के प्रभाव को भावुक रूप से स्वीकारना तथा अपवाद के रूप में एक-दो उदाहरण देने से यह महसूस होता है कि हमारी व्यवस्था खुली हुई है, परन्तु वास्तव में इससे व्यवस्था या तन्त्र (System) में कोई बदलाव नहीं आता, बल्कि इस तरह के उदाहरणों से यथास्थिति (Status Quo) बनाये रखने में ही मदद मिलती है। सत्ता के पितृसत्तात्मक आधार कुछ प्रतिशत स्त्रियों को सत्ता के पद या सुविधा प्रदान कर सकते हैं, परन्तु वे इसे अपनी शर्तों तथा नियमों पर ही करने दे सकते हैं। जो कोई भी सुविधायें एक पितृसत्तात्मक पूँजीवाद; व्यक्तिगत कार्यरत महिला को देता है, फिर भी वह मानकर चलता है कि अधिकतर स्त्रियाँ मुफ्त या कम मूल्य वाला सेवा का कार्य करती रहेंगी। यहाँ तक कि वो स्त्रियाँ जो घर के बाहर कार्य करती हैं वे भी घर का आकर “द्वितीय पारी” का मुफ्त कार्य करती हैं (Second unpaid shift) । इस प्रकार संरचनावादी स्त्री-पुरुष के व्यक्तिगत सम्बन्धों को देखने के बजाय इस पर ध्यान केन्द्रित करते हैं कि किस प्रकार व्यवस्था स्वयं की सत्ता सम्बन्धों को संगठित करती है तथा उन्हें आकार देती है। संरचनावादियों के शैक्षिक योगदानों में, इसका उन मूल्यों को महत्त्व देना है जो उदारवादी विचारधारा से बाहर आते हैं, जिसमें प्रभुत्वशाली लोगों द्वारा दमित लोगों द्वारा दमित लोगों की उपलब्धियों को महत्त्व दिया जाता है, महिलाओं के कार्य का संस्थागत रूप से दोहन किया जाता हैं।

शिक्षा का कार्य न केवल विद्यमान असमानताओं को उदारतापूर्वक बताना है बल्कि इसको दमनकारी सम्बन्धों को बनाये रखने वाले स्त्रीत्व तथा पुरुषत्व के मूल्यों को भी सम्बोधित करना होता है। चूँकि संरचनावादी तथा विखण्डनकारी सिद्धान्तकार दोनों ही सत्ता को सम्बन्धित करके देखते हैं परन्तु वे सत्ता को परिभाषित भिन्न प्रकार से करते हैं।

इस सन्दर्भ में विखण्डनवादी सिद्धान्तकार मानते हैं कि सत्ता कोई स्थिर वस्तु नहीं बल्कि यह गतिशील है इसलिए इसे प्रश्न करना तथा बदलना काफी कठिन है। यह सत्ता को न तो अधिकार के रूप में देखते हैं न ही एक समूह या व्यक्ति का दूसरे समूह या व्यक्ति पर आरोपित करके देखते हैं, बल्कि यह मानते हैं कि यह एक अंतः क्रिया की प्रकृति है। विखण्डनकारी सिद्धान्तकार सभी प्रकार की द्वैधता (Dichotomy) पर सवाल उठाते हैं चाहे वह स्त्री / पुरुष द्वैधता ही क्यों न हो। विखडनवादी सिद्धान्तकार चूँकि परिवर्तन के लिए कोई निश्चित योजना नहीं दे पाते परन्तु वे शिक्षाविदों के लिए जेण्डर-समानता लाने के कई उपरकण जरूर दे देते हैं। इन उपकरणों के यह विश्लेषण शामिल है क्योंकि शैक्षिक रूप से उन्नत कक्षायें भी लैंगिक भेदभाव (Sexism) को दूर नहीं कर पा रही हैं इसमें विभिन्न जेण्डर के पहलू तथा सम्बन्धों जैसे-नस्लू, वर्ग तथा नृजातीय का विश्लेषण भी निहित है। अन्ततः विखण्डनवादी सिद्धान्तकार मानते हैं कि अर्थपूर्ण परिवर्तन यहाँ तथा अभी सम्भव है परन्तु यह क्रान्तिकारी होने के बजाय उद्भावित होगा तथा यह तभी सम्भव है जब हम सहज, स्वाभाविक तथा प्राकृतिक दिखने वाले सम्बन्धों पर प्रश्न उठा सकेंगे तथा उन्हें पुनर्संरचित करने की कठिनाइयों को भी सहन कर सकेंगे। इससे सम्भव है कि हम एकदम नये प्रकार के जेण्डर सम्बन्धों में प्रवेश कर पायें जिसकी वर्तमान में कल्पना भी असम्भव हो। एक तरफ जहाँ समाजीकरण सिद्धान्त, लड़कियों व स्त्रियों को सम्मिलित करने के लिए वर्तमान में विमान पुरुषत्व के लक्ष्यों तथा प्रतिमानों को उन्नत करने की बात करते हैं वही संरचनावादी तथा विखण्डन नारीवाद जेण्डर तथा अन्य प्रकार की असमानता को प्रकाश में लाने की बात करते हैं जिससे उन्हें दुबारा प्रस्तुत तथा क्रियान्वित न किया जा सके। वही जेण्डर अन्तर सिद्धान्त, विद्यालयों में एक नयी तथा स्वतन्त्र नीति लाने पर जोर देते हैं। शैक्षिक परिवर्तन में इसका सर्वाधिक योगदान इसकी वैकल्पिक दृष्टि ही है, जिससे स्कूलों में सकारात्मक उद्देश्यों की प्राप्ति हो सके परन्तु इस वैकल्पिक दृष्टि से अन्य बहुत-से मूल्य एवं व्यवस्थायें आधारित हैं जिन्हें प्रश्न किया जाना आवश्यक है। सबसे सरलतम विश्लेषण समाजीकरण सिद्धान्तकारों का है जो कहते हैं कि ‘स्त्रीत्व’ (Feminity) का तात्पर्य द्वितीयक दर्जे का प्राणी होना है। चूँकि यह पुरुषत्व के अधीन है अतः हमें उन्हें पुरुषों के बराबर लाने के लिए अवसर देने ही होंगे। संरचनावादियों के अनुसार घरेलू मूल्य (Domestic Values) पूरी तरह से ‘सेवा मूल्य’ (Service Values) है; इनका कार्य आदमियों, परिवारों तथा सार्वजनिक क्षेत्रों को सहारा देना है।

इस प्रकार उक्त सभी विश्लेषण हमें हालांकि जटिल मुद्दों को समझने की समझ प्रदान करते हैं परन्तु कोई एक भी प्रश्न का पूरा उत्तर प्रस्तुत करने में असमर्थ हैं। परन्तु एक साथ मिलकर वे प्रभावशाली दृश्य प्रस्तुत करते हैं। यदि हमें लड़कियों व स्त्रियों की स्थिति में कोई परिवर्तन लाना है, शैक्षिक संस्थानों के अन्दर या बाहर हमें तुरन्त एक आलोचनात्मक दृष्टिकोण वाले जेण्डर-आधारित शैक्षिक सुधार (Gender-Based Educational Intervention) की आवश्यकता होगी।

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Anjali Yadav

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