वैदिककालीन शिक्षा से आप क्या समझते हैं ? वैदिककालीन शिक्षा की शिक्षण विधि एवं पाठ्यक्रम की विवेचना कीजिए । अथवा वैदिक शिक्षा के अर्थ एवं महत्त्व की विवेचना कीजिए।
प्राचीन भारत में शिक्षा का बीजारोपण आज से लगभग 4000 वर्ष पूर्व हुआ परन्तु इस शिक्षा के सुसम्बद्ध रूप के दर्शन वैदिक युग में ही देखने को मिलते हैं। ऋग्वेद का रचना काल 2500 ई० पू० माना जाता है, तब से लेकर बौद्ध काल तक के सम्पूर्ण काल खण्ड को वैदिक काल की संज्ञा दी जाती है। कुछ विद्वान वैदिक काल और बौद्ध युग के आरम्भ के बीच के काल का पुनर्विभाजन करते हैं और उसे उपनिषद् और ब्राह्मण काल की संज्ञा देते हैं और यही कारण है कि उत्तर वैदिककालीन शिक्षा को ‘ब्राह्मणीय शिक्षा’ के नाम से पुकारते हैं परन्तु अध्ययन की सुविधा के लिए समस्त प्राचीन भारतीय शिक्षा को वैदिक-कालीन शिक्षा ही कहना अधिक संगत होगा।
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वैदिक शिक्षा का अर्थ (Meaning of Vedic Education)
प्राचीन भारतीय वैदिक साहित्य में शिक्षा शब्द का प्रयोग कई रूपों में किया गया है; जैसे विद्या, ज्ञान, प्रबोध और विनय आदि। प्राचीन भारतीय विद्वानों ने ‘शिक्षा’ शब्द का प्रयोग व्यापक और सीमित दोनों ही अर्थों में किया है। व्यापक अर्थ में व्यक्ति को सभ्य और उन्नत बनाना ही शिक्षा का उद्देश्य है और शिक्षा की यह प्रक्रिया आजीवन चलती रहती है। सीमित अर्थ में शिक्षा का तात्पर्य उस औपचारिक शिक्षा से है जिसे प्रत्येक बालक अपने प्रारम्भिक जीवन के कुछ वर्षों में गुरुकुल में रहकर ब्रह्मचर्य जीवन व्यतीत करते हुए अपने गुरु से प्राप्त करता है।
प्राचीन भारत में शिक्षा न तो पुस्तकीय ज्ञान का पर्यायवाची थी और न जीवनयापन का साधन। इसके विपरीत ‘वैदिक शिक्षा का तात्पर्य उस ज्ञान से था जिससे व्यक्ति का सर्वांगीण विकास हो सके तथा धर्म के मार्ग का अनुसरण करते हुए वह मानव जीवन के लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति कर सके। शिक्षा, जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में पथ-प्रदर्शन करने वाली प्रकाश थी जिसे प्राप्त करके व्यक्ति जीवन के चरम लक्ष्य की ओर अग्रसर होता था। डॉ० अल्तेकर ने लिखा है- “वैदिक युग से लेकर आज तक भारत में शिक्षा का मूल अभिप्राय यह रहा है कि शिक्षा प्रकाश की वह ज्योति है जो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में हमारा पथ-प्रदर्शन करती है।”
वैदिक शिक्षण विधि (Method of Vedic Teaching)
प्राचीन भारत में शिक्षण विधि निम्न प्रकार की थी-
(1) मौखिक शिक्षा की प्रधानता- वैदिक कालीन शिक्षा की विधि मौखिक थी। इसका प्रमुख कारण यह था कि उस समय लेखन कला के लिए पर्याप्त कागज नहीं था, मुद्रण कला का विकास नहीं हो पाया था, इसलिए पुस्तकों का अभाव था। छात्र अत्यन्त श्रद्धापूर्वक अपने गुरुओं के वचन को सुनते थे और उसे कंठस्थ कर लिया करते थे। गुरु के उच्चारण का अनुकरण करना छात्रों के लिए अत्यन्त आवश्यक था। छात्र जब शुद्ध उच्चारण कर लेते थे तो गुरु उसकी विधिवत् व्याख्या करता था। छात्र पाठ्यवस्तु का मनन एकान्त में करते थे। किसी भी बात को बताने के लिए गुरु अत्यन्त ही मनोरंजक ढंग का प्रयोग करता था।
(2) प्रश्नोत्तर, वाद-विवाद और शास्त्रार्थ विधि का प्रयोग- गुरुजन किसी तथ्य का अध्ययन कराने के लिए प्रश्नोत्तर विधि का प्रयोग करते थे। छात्र प्रश्नों के माध्यम से अपनी शंकाओं को गुरु के सामने प्रस्तुत करते थे और गुरु उनकी शंकाओं का समाधान करते थे। इसके लिए वाद-विवाद और शास्त्रार्थ विधि का भी प्रयोग किया जाता था। इसके लिए स्मरण, मनन, चिन्तन, वक्तृत्व आदि शक्तियों का समुचित विकास आवश्यक होता है।
(3) अग्रशिष्य प्रणाली का प्रचलन- गुरु के आश्रम में जो छात्र कुशाग्र बुद्धि के होते थे वे निम्न छात्रों को पढ़ाते थे। इसी को अग्रशिष्य प्रणाली कहा जाता है। इस विधि के प्रयोग का लाभ यह था कि छात्रों को अध्यापन कला की जानकारी भी हो जाती थी। आजकल के प्रशिक्षण विद्यालयों की भाँति छात्र शिक्षण अभ्यास करते थे।
(4) उदाहरणों, सूत्रों तथा मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों का प्रयोग- वैदिक काल की शिक्षा में उक्त विधियों के अतिरिक्त उपमा, रूपक, दृष्टान्त, लोकोक्ति, कहानियों आदि का प्रयोग किया जाता था। जहाँ आवश्यकता पड़ती थी निगमन और आगमन विधि का भी प्रयोग किया जाता था। साथ ही सरल से कठिन की ओर चलने, ज्ञात से अज्ञात की ओर चलने तथा अन्य शिक्षण सूत्रों का प्रयोग किया जाता था। छात्रों में होने वाले व्यक्तिगत भेदों पर भी ध्यान दिया जाता था। चूँकि वेद संस्कृत भाषा में थे और संस्कृत भाषा का प्रयोग सभी लोग करते थे, इसलिए संस्कृत भाषा के ही माध्यम से शिक्षा कार्य किया जाता था।
शिक्षण संस्थाओं के रूप (Forms of Educational Institutions)
प्राचीन भारत में अनेक प्रकार की शिक्षण संस्थायें थीं। इनका उल्लेख यहाँ संक्षेप में किया जा रहा है-
(i) टोल – टोल में संस्कृत की शिक्षा प्रदान की जाती थी। एक टोल में एक ही शिक्षक होता था।
(ii) चरण – चरण में वेद के एक अंग की शिक्षा प्रदान की जाती थी। एक चरण में एक ही शिक्षक होता था ।
(iiii) घटिका – घटिका में धर्म एवं दर्शन की उच्च शिक्षा प्रदान की जाती थी। एक घटिका में अनेक शिक्षक होते थे।
(iv) गुरुकुल- गुरुकुल में वेद, धर्मशास्त्र, साहित्य आदि की शिक्षा प्रदान की जाती थी। एक गुरुकुल में एक ही शिक्षक होता था।
(v) परिषद- परिषद में विभिन्न विषयों की शिक्षा प्रदान की जाती थी और एक परिषद में साधारणतया 10 शिक्षक होते थे।
(vi) विद्यापीठ- विद्यापीठ में व्याकरण एवं तर्कशास्त्र की शिक्षा प्रदान की जाती थी। एक विद्यापीठ में कई शिक्षक होते थे।
(vii) विशिष्ट विद्यालय – विशिष्ट विद्यालय के अन्तर्गत किसी विशिष्ट विषय की शिक्षा प्रदान की जाती थी, यथा-वैदिक विद्यालय में वेदों की और सूत्र महाविद्यालय में यज्ञ, हवन आदि की शिक्षा प्रदान की जाती थी। एक विशिष्ट विद्यालय में एक ही शिक्षक होता था।
(viii) मन्दिर महाविद्यालय – किसी मन्दिर से सम्बद्ध मन्दिर महाविद्यालय में धर्म, दर्शन, वेद और व्याकरण आदि की शिक्षा प्रदान की जाती थी। एक मन्दिर महाविद्यालय में अनेक शिक्षक होते थे।
(ix) ब्राह्मणीय महाविद्यालय – इस तरह महाविद्यालय को ‘चतुष्पथी’ के नाम से सम्बोधित किया जाता था क्योंकि इनमें चारों वेदों, शास्त्रों अर्थात् दर्शन, पुराण, कानून और व्याकरण की शिक्षा प्रदान की जाती थी। एक ब्राह्मणीय महाविद्यालय में एक शिक्षक होता था।
(x) विश्वविद्यालय- उच्च शिक्षा की कुछ संस्थाओं ने कालान्तर में विश्वविद्यालयों का रूप ग्रहण कर लिया। इन विश्वविद्यालयों में धार्मिक शिक्षा के साथ ही चित्रकला, चिकित्साशास्त्र आदि की भी शिक्षा प्रदान की जाती थी।
पाठ्यक्रम (Curriculum )
वैदिक संहिताओं के अध्ययन के साथ-साथ व्याकरण, गणित, काव्य, दर्शन, इतिहास, अर्थशास्त्र आख्यायिका, राजनीति, कृषि, विज्ञान, वास्तु- कला, शिल्पकला, चित्रकला, सैन्य – शिक्षा, पशु-विज्ञान, आयुर्वेद, शल्य-विज्ञान, न्यायशास्त्र व गृहशास्त्र आदि की भी शिक्षा दी जाती थी। शिक्षा इस प्रकार एकांगी न होकर सर्वांगीण विकास में सहायक सिद्ध हुई है। पाठ्यक्रम की कुछ निम्न विशेषताएँ थीं-
(1) वित्तीय विषयों का समावेश – ब्राह्मण काल के पाठ्यक्रम में शिक्षा विषय वैविध्य थी और सभी विषयों का स्थान पाठ्यक्रम में निर्धारित था। चारों संहिताओं के अतिरिक्त भी सभी विद्याओं का समावेश था। सबका उल्लेख ऊपर के सन्दर्भों में हो चुका है। पाठ्यक्रम के अन्तर्गत पिंगलशास्त्र को भी स्थान दिया गया।
(2) धार्मिक तत्त्वों की अधिकता – ब्राह्मणीय शिक्षा में धार्मिक तत्त्वों को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ। गुरुकुल में प्रविष्ट होने के उपरान्त प्रत्येक ब्रह्मचारी को वेदमंत्र, प्रार्थना तथा संध्या आदि सम्बन्धी श्लोक कंठस्थ करा दिये जाते थे। पाठ्यक्रम में यज्ञ, हवन इत्यादि कर्मकांडों की भी महत्ता थी।
(3) पुराण व इतिहास का समावेश – वैदिक साहित्य की प्रधानता के साथ पुराण व इतिहास को भी प्रधानता मिली। अथर्ववेद के अनुसार उस समय के शिक्षाशास्त्री वीरगाथा को महत्त्व देते थे।
(4) यज्ञ विषयक साहित्य निर्माण – आश्रमों में रहने वाले प्रत्येक ब्रह्मचारी को यज्ञ करने की विधि का पूर्ण ज्ञान कराया जाता था। पुरोहितवाद का बोलबाला दिन-प्रतिदिन होने लगा।
(5) पिंगल का समावेश – गुरु अपने शिष्यों को पिंगल का अध्ययन करने के लिए प्रोत्साहित करते थे ताकि वह शुद्धतापूर्वक मंत्रों को कंठस्थ कर सकें।
प्रत्येक वर्ण के लिए पाठ्य-विषय भी वर्णानुसार ही थे। शिक्षा के पाठ्यक्रम ने मानव के प्रत्येक क्षेत्र को प्रकाशमान किया। उस समय आध्यात्मिक उन्नति को भौतिक उन्नति से ऊँचा स्थान दिया गया। आध्यात्मिक उन्नति से ही शांति प्राप्त हो सकती है।
वैदिक शिक्षा का महत्त्व (Importance of Vedic Education)
प्राचीन भारत अथवा वैदिक युग में शिक्षा को विशेष महत्त्व प्रदान किया गया था। उसे प्रकाश का स्रोत अन्तर्दृष्टि, अन्तर्ज्योति, ज्ञान चक्षु और तीसरा नेत्र माना जाता था। उस युग में यह मान्यता थी कि शिक्षा का प्रकाश व्यक्ति के समस्त संशयों का उन्मूलन करता है और उसकी समस्त बाधाओं का निवारण करके समार्ग के पथ पर अग्रसर करता है। शिक्षा, ज्ञान प्रदान करती है और ज्ञान से मानव के अन्तर-चक्षु खुल जाते हैं। यही कारण है कि ज्ञान को तीसरा नेत्र माना जाता है। शिक्षा से प्राप्त अन्तर्दृष्टि व्यक्ति की बुद्धि-विवेक और कुशलताओं में वृद्धि करती है तथा उसके सुख, सुयश और समृद्धि में योगदान देती है। शिक्षा व्यक्ति को जीवन के यथार्थ महत्ता को समझने की क्षमता प्रदान करती है और उसे मानव जीवन के चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति में सहायता प्रदान करती है।
प्राचीन भारतीय मनीषियों की यह धारणा थी कि शिक्षा कामधेनु अथवा कल्पतरु की भाँति व्यक्ति की सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करती है तथा उसका सर्वांगीण विकास करके मोक्ष की ओर अग्रसर करती है। डॉ० ए० एस० अल्तेकर ने लिखा है- “शिक्षा को प्रकाश और शक्ति का ऐसा स्रोत माना जाता था, जो हमारी शारीरिक, मानसिक, भौतिक और आध्यात्मिक शक्तियों तथा क्षमताओं का निरन्तर एवं सामंजस्यपूर्ण विकास करके, हमारे स्वभाव को परिवर्तित करती है और उसे उत्कृष्ट बनाती है।”
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