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व्यक्ति और समाज के पारस्परिक सम्बन्ध | Relationship between Individual and Society in Hindi

व्यक्ति और समाज के पारस्परिक सम्बन्ध | Relationship between Individual and Society in Hindi
व्यक्ति और समाज के पारस्परिक सम्बन्ध | Relationship between Individual and Society in Hindi

व्यक्ति और समाज के पारस्परिक सम्बन्धों की विवेचना कीजिए

व्यक्ति तथा समाज परस्पर घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं। व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है तथा व्यक्ति ही मिलकर समाज का निर्माण करते हैं। दूसरी तरफ, समाज के बिना व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता है। समाज के बिना व्यक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है, क्योंकि समाज में रहकर ही व्यक्ति का सामाजिक-सांस्कृतिक प्राणी के रूप में विकास होता है। अतः व्यक्ति एवं समाज, दोनों का अस्तित्व एक-दूसरे पर आधारित एवं आश्रित है। व्यक्ति और समाज में क्या सम्बन्ध है ? इसके बारे में अनेक प्रश्न हमारे मस्तिष्क में पैदा होते हैं। मनुष्य किस अर्थ में सामाजिक प्राणी है ? समाज की व्यक्ति को क्या देन है ? तथा व्यक्ति की समाज पर निर्भरता के क्या आधार हैं ? यदि हम इन तीन बातों को समझ लें, तो हम व्यक्ति और समाज के परस्पर सम्बन्धों को अच्छी तरह से समझ सकते हैं।

मनुष्य किस अर्थ में सामाजिक प्राणी है ? (How Man is a Social Animal ?)

जब हम मानव जीवन का विश्लेषण करते हैं तो हमें दो प्रमुख आधार देखने को मिलते हैं – पहला मनुष्य का प्राणिशास्त्रीय आधार, और दूसरा, उसका सामाजिक आधार। इन्हीं दोनों आधारों के समन्वय से मनुष्य, मनुष्य के रूप में सामाजिक प्राणी बनता है। सामाजिक शब्द सामाजिक आधार तथा प्राणी शब्द उसके प्राणिशास्त्रीय आधार का परिचायक है। व्यक्ति जब जन्म लेता है तो वंशानुक्रम से उसे कुछ मानसिक और शारीरिक विशेषताएँ प्राप्त होती हैं, किन्तु उसका सामाजिक प्राणी के रूप में विकास समाज में ही सम्भव है। अतः व्यक्ति के सामाजिक विकास का आधार समाज ही है। ऐसे बहुत से उदाहरण देखे गए हैं, जिनमें प्राणिशास्त्रीय गुण रहने के बाद भी यदि मनुष्य को समाज का सम्पर्क नहीं मिल पाया तो वह मनुष्य नहीं बन पाया है। उसका समाज के बिना विकास भी सम्भव नहीं हो सका।

अरस्तू (Aristotle), डेविस (Davis) और कूले-(Cooley) ने इस बात पर बल दिया कि व्यक्ति और समाज को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। उदाहरण के लिए, अरस्तू के अनुसार, मनुष्यों के बिना समाज की कल्पना करना असम्भव है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं तथा दोनों में से एक की भी अनुपस्थिति से दोनों का ही निर्माण नहीं हो सकता। इसी प्रकार, कूले के अनुसार, जब हम व्यक्ति और समाज की ओर संकेत करते हैं तो हम दो पृथक् वस्तुओं पर विचार नहीं करते हैं। यद्यपि दोनों का मार्ग अलग-अलग होता है, परन्तु विषय एक ही होता है। अतः दोनों को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है। व्यक्ति का विकास समाज में रह कर ही सम्भव है, इसे हम अनेक वन्य उदाहरणों (Feral cases) द्वारा स्पष्ट कर सकते हैं। इस सन्दर्भ में प्रमुख वन्य उदाहरण निम्नलिखित हैं

1. अमेरिकी बालिका अन्ना- किंग्स्ले डेविस ने अन्ना का उदाहरण दिया है। जन्म लेते ही अन्ना को उसकी माँ से अलग ऊपर की मंजिल के एक कमरे में बन्द कर दिया गया। उसको जीवित रहने भर के लिए खाना दिया जाता था। अन्ना से बोलने तथा व्यवहार करने वाला कोई नहीं था। वह अपने बिस्तर पर एक ही करवट लेटी व बैठी रहती थी। जब अन्ना को छह वर्ष की आयु में कमरे से बाहर निकाला गया, तो पता चला कि वह न बोल सकती थी, न हँसती थी, न घूम-फिर ही सकती थी तथा न वह कोई अन्य इस प्रकार का हाव-भाव प्रदर्शित करती थी, जिससे उसकी बुद्धि का पता चले। उसकी टाँगें इस तरह काम नहीं करती थीं जैसे समाज में पले हुए व्यक्ति की। उसकी दशा दयनीय थी और वह कुछ भी अभिव्यक्त नहीं कर पाती थी। ऐसा प्रतीत होता था जैसे उसे कोई जड़ पदार्थ बना दिया गया हो। अतः यह समझा गया कि वह गूँगी है और देखने में भी असमर्थ है। वह स्वयं खाने-पीने, इधर-उधर घूमने तथा अन्य क्रियाएँ करने में असमर्थ थी। इससे स्पष्ट है कि समाज से बाहर छह वर्ष बिताने के बाद उसमें सामाजिकता का कोई गुण नहीं पनप पाया था। समाजीकरण की प्रक्रिया से वह वंचित थी। अतः हम यह कह सकते हैं कि मानव के सबसे बड़े पालक समाज से अलग रहकर कोई भी मनुष्य सामाजिक प्राणी नहीं बन सकता। मानव के जैविक आधार अथवा साधन केवल समाज में ही पूर्ण विकसित हो सकते हैं।

कमरे से बाहर निकालने और लगभग साढ़े चार वर्ष जीवित रहने के बाद अन्ना मर गई। इन साढ़े चार वर्षों में उसने सामाजिक व्यवहार सीखने में बड़ी तत्परता दिखाई। वह अपने छोटे से सामाजिक जीवन में निर्देशों का पालन करना, रंगों में अन्तर करना तथा तस्वीरों में अन्तर करना सीख गई थी। वह कपड़े साफ रखती थी, नित्य हाथ धोती थी और दाँतों पर बुश करती थी। वह गुड़िया को पहचानने तथा उससे प्यार करने लगी थी। वह वाक्यांश का प्रयोग करना भी सीख गई थी। वह बात करना भी थोड़ा-बहुत सीख पाई थी तथा दूसरे बच्चों की सहायता करती थी। थोड़ा-बहुत उसे दौड़ना भी आ गया था। किसी के व्यवहार के प्रति उसकी प्रतिक्रिया शिष्ट थी। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि समाज रूपी पिता से अलग होकर हम किस स्थिति में रहते हैं तथा समाज में वापस आ जाने पर हमारी कितनी प्रगति होती है। अन्ना का सामाजिक सम्पर्क काफी देर से आरम्भ हुआ, परन्तु उसकी प्रगति से यह स्पष्ट हो गया कि समाज का थोड़ा सम्पर्क भी व्यक्ति को क्या दे सकता है।

2. अमला तथा कमला- मानव एवं समाज के सम्बन्धों का रहस्योद्घाटन करने वाले दो और बच्चे सन् 1920 में भारत के दो शिकारियों को भेड़ियों की माँद से मिले। दोनों लड़कियाँ थीं। बड़ी लगभग आठ वर्ष की थी और छोटी लगभग दो वर्ष से कुछ कम की थी। बड़ी का नाम कमला तथा छोटी का नाम अमला रखा गया। छोटी लड़की की मृत्यु उसके पाए जाने के समय से लगभग एक वर्ष के अन्दर ही हो गई, अतः उस पर समाज के पड़ने वाले प्रभावों का कोई विशेष अध्ययन तथा परीक्षण नहीं किया जा सका। परन्तु कमला के पहले एवं बाद के परिवर्तित व्यवहार को ध्यान से देखा गया। जब वह जंगल से पकड़कर लाई गई थी तो वह पशुओं की तरह चारों हाथों-पैरों से चलती थी। वह आदमियों को देखकर गुर्राती थी और भेड़ियों के समान दिन में सोती थी और रात में घूमती थी। भेड़ियों के समान ही वह कच्चा माँस खाना पसन्द करती थी। कहने का तात्पर्य यह है कि समाज से दूर रहकर उसमें मानव समाज का एक भी गुण विकसित नहीं हो पाया था। परन्तु जब शिकारी परिवार ने उसे सिखाने में रुचि ली तो वह बहुत कुछ मानव व्यवहार सीखने लगी। वह पैरों पर चलना सीख गई। यद्यपि जब उसे भागना या तेज चलना पड़ जाता था तो वह पुरानी आदतवश चारों हाथ-पैरों का प्रयोग करती थी। वह कुछ शब्दों का उच्चारण भी कर लेती थी। कमला सत्रह वर्ष की अवस्था में मरी और तब तक उसने समाज के सम्पर्क से काफी मानव व्यवहार सीख लिया था।

3. कास्पर हाउजर – मानव तथा समाज के सम्बन्धों पर प्रकाश डालने वाला तथा मानव के लिए समाज के महत्व को प्रदर्शित करने वाला असमाजीकृत प्राणी का एक अन्य उदाहरण कास्पर हाउजर है। जन्म से लेकर सत्रह वर्ष की अवस्था तक यह बच्चा अमेरिका के न्यूरेम्बर्ग के जंगलों में अकेला पला। शायद कुछ राजनीतिक कुचक्रों के कारण उसे समाज से अलग रहने को बाध्य होना पड़ा। जब सन् 1928 में एक दिन वह न्यूरेम्बर्ग शहर की सड़कों पर देखा गया, तो लोगों को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि उसका मस्तिष्क बिल्कुल अविकसित था। वह मुश्किल से चल पाता था तथा एक-दो सार्थक वाक्यांशों का उच्चारण कर लेता था। समाजशास्त्रीय महत्त्व की जो बात उसमें थी, वह यह थी कि वह जड़ एवं चेतन में कोई भेद नहीं कर पाता था। वह आदमियों तक को जड़ पदार्थ समझने की गलती करता था। पाँच वर्ष बाद उसकी मृत्यु होने पर उसके शव की परीक्षा करने से यह पता चला कि उसकी मानसिक उन्नति सामान्य से कम थी। इस उदाहरण से भी हमें यह पता चलता है कि समाज के बिना व्यक्ति सामाजिक नहीं बन पाता है तथा व्यक्ति का विकास समाज के बिना असम्भव है। कास्पर हाउजर की असंस्कृत अवस्था का कारण उसकी जन्मजात मानसिक हीनता नहीं थी, बल्कि उसका समाज से अलग रहना था।

4. रामू – समाज से मानव अलगाव की कहानी सुनाने वाले जितने भी बच्चे भारत में इस प्रकार के मिले हैं, उन सभी में रामू बहुचर्चित है। रामू सन् 1954 में जंगल से भेड़ियों की माँद से प्राप्त हुआ। वह एकदम पशु समान था। भेड़ियों के समाज में रहने के कारण भेड़ियों की तरह ही उसका व्यवहार था तथा भेड़ियों तरह उसका खान-पान था। यहाँ तक कि रामू का मुँह भी भेड़ियों के साथ रहने तथा कच्चा माँस खाने के कारण मानव से ज्यादा चौड़ा हो गया था। वह आदमियों को देखकर या तो डर कर भाग जाता था या भेड़ियों की तरह उन पर गुर्राता था। वह आदमियों को काटने को भी दौड़ता था। जब लखनऊ के बलरामपुर अस्पताल में प्रशिक्षण व्यवस्था तथा चिकित्सा सम्बन्धी सुविधाओं के लिए उसे रखा गया तो उसने माँस के बजाय दाल-सब्जी व रोटी खाना भी सीख लिया। नर्सों के साथ उसका व्यवहार सामाजिक हो चुका था, किन्तु खाना उसे पचता नहीं था। यही कारण रहा कि. मानव समाज से इतने दिनों तक अलग रहने के बाद वह पुनः मानव समाज से सामंजस्य स्थापित न कर सका। निरन्तर बीमार रहने के बाद उसकी मृत्यु हो गई।

उपर्युक्त सभी उदाहरणों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि समाज से बाहर व्यक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है। अब प्रश्न यह पैदा होता है कि जब समाज अन्य पशु-पक्षियों में भी पाया जाता है, तो समाजीकरण तथा सामाजिक उपलब्धि मनुष्यों में ही क्यों पाई जाती है ? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए हमें यह बात ध्यान रखनी होगी कि मानव एक प्राणी तो अवश्य है, किन्तु अन्य प्राणियों से बिल्कुल भिन्न प्रकार का प्राणी है। मानव समाज में पाई जाने वाली संस्कृति केवल समाज को ही नहीं, वरन् स्वयं मानव को भी एक अनुपम प्राणी बना देती है। समाजीकरण स्वयं एक महान् सामाजिक उपलब्धि है। अब उन वरदानों पर विचार किया जाएगा जो व्यक्ति समाज से मिलते हैं और यदि उसे समाज से अलग कर दिया जाए तो वह उनसे वंचित रह जाता है।

व्यक्ति को समाज की देन  (Contribution of Society to Man)

व्यक्ति को समाज का योगदान निम्नांकित तथ्यों द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-

1. सांस्कृतिक प्रतिमान तथा चरित्र निर्माण (Cultural patterns and character building)– चरित्र निर्माण एक ऐसी चीज है, जो समाज में ही सम्भव है। समाज में रहकर ही मानव सांस्कृतिक प्रतिमानों को सीखता है। वह एक विशेष प्रकार के सांस्कृतिक प्रतिमान अपना लेता है तथा इसी के अनुरूप अपने चरित्र का निर्माण करता है।

2. व्यक्तित्व का विकास (Development of personality) – व्यक्तित्व का विकास भी समाज की ही देन है। व्यक्तित्व से हमारा अर्थ केवल व्यक्ति की बाह्य बनावट से नहीं है, बल्कि उसका आन्तरिक स्वभाव, उसकी आदतों, उसकी मनोधारणाओं तथा उसके विश्वासों और मूल्यों से भी है। व्यक्तित्व कुछ आदतें प्रबल (Dominant) होती हैं तथा कुछ उन्हीं पर आधारित है। व्यक्तित्व में हमारी जो प्रबल मनोधारणाएँ होती हैं, उनमें कोई भी परिवर्तन सरलता से नहीं हुआ करता है। व्यक्तित्व के जितने भी गुण होते हैं, उनमें से एक को भी हम जन्म से अपने साथ नहीं लाते, बल्कि पूरा व्यक्तित्व ही सामाजिक उपलब्धि होती है।

3. ‘स्व’ का विकास (Development of ‘self’) –‘स्व’ का विकास एक ऐसी चीज है जो हमारे व्यक्तित्व का आधार है तथा साथ ही हमारी समाजीकरण की प्रक्रिया को सम्भव बनाता है। यह एक मानसिक अस्तित्व है, जो व्यक्ति में सामाजिक सम्पर्क से पैदा होता है। ‘स्व’ अपने आप में एक सामाजिक उत्पत्ति है। यह तब उत्पन्न होता है, जब बच्चा दूसरों की प्रतिक्रियाओं को अन्तर्निहित करके दूसरों के कार्यों को दोहराने लगता है।

4. समाजीकरण (Socialization) – समाजीकरण व्यक्ति को समाज की एक अनुपम देन है। यदि समाज ने यह अनुपम भेंट व्यक्ति को न दी होती तो वह उस अर्थ में सामाजिक प्राणी न कहलाता, जिसमें कि आज है। समाजीकरण की प्रक्रिया ही वह महत्वपूर्ण साधन है, जिससे समाज हाड़-माँस के एक असभ्य जैविक प्राणी को पालकर सामाजिक बनाता है। मनुष्य समाजीकरण की प्रक्रिया के ही कारण एक पालतू पशु है।

व्यक्ति की समाज पर निर्भरता (Dependence of Man upon Society)

व्यक्ति के लिए समाज अनिवार्य है, क्योंकि समाज के बिना व्यक्ति का अस्तित्व मनुष्य के रूप में सम्भव नहीं है। व्यक्ति की समाज पर निर्भरता को तीन प्रमुख आधारों पर देखा जा सकता है-

1. पहला आधार जो व्यक्ति के लिए समाज की अनिवार्यता प्रतिपादित करता है, वह यह है कि समाज के अभाव में व्यक्ति का मनुष्य रूप में जीवन सम्भव नहीं है। जब व्यक्ति जन्म लेता है तो वह असहाय होता है और अपने शरीर की रक्षा के लिए वह अन्य व्यक्तियों या समाज पर आश्रित होता है। उसे जन्मजात गुण इतने प्राप्त नहीं होते कि वह पशुओं की तरह अन्य व्यक्तियों की सहायता के बिना अपने शरीर की रक्षा कर सके। उसके भोजन की व्यवस्था भी समाज द्वारा होती है, जोकि मानव की समस्त जरूरतों में सर्वोपरि है और उसके प्राणिशास्त्रीय विकास का आधार है। हिंसक पशुओं से भी उसकी रक्षा समाज ही कर सकता है और प्राकृतिक वातावरण, जो अनियन्त्रित और जीवन के विपरीत है, उससे भी समाज ही व्यक्ति को बचाता है। रोग आदि से भी व्यक्ति की रक्षा समाज ही करता है। कहने का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति अपने अस्तित्व के लिए समाज पर आश्रित है और उसके पास समाज का कोई विकल्प नहीं है। है

2. दूसरा आधार यह है कि समाज मनुष्य का स्वाभाविक विकास है। जब वह अपने अस्तित्व के लिए उस पर आश्रित है तो उसने अपनी बुद्धि तथा संगठन से समाज को निर्मित किया है। केवल भौतिक आवश्यकताएँ ही एकमात्र मानव की आवश्यकताएँ नहीं हैं, बल्कि उसकी अनेक मानसिक जरूरतें भी होती हैं, जिनकी पूर्ति भी समाज द्वारा होती है। उसका मानसिक विकास इस प्रकार का है कि वह समाज में ही रहना चाहता है। मनोवैज्ञानिक मानव की समाज में रहने की इच्छा का कारण मूलप्रवृत्तियों को मानते हैं। उदाहरण के लिए, मैक्डूगल (McDougall) का कहना है कि शिशु रक्षा, आत्म-प्रदर्शन, विनम्रता और मूल चरित्र की मूल प्रवृत्तियों का व्यक्ति के सामाजिक होने में विशेष योगदान रहता है।

3. तीसरा आधार यह है कि समाज मनुष्य का उन्नायक है। समस्त प्राणी जगत में मनुष्य सबसे अधिक बुद्धिमान है। विकसित मस्तिष्क होने के कारण वह केवल पशु-पक्षियों की तरह जीवन व्यतीत नहीं करना चाहता है। यही कारण है कि वह केवल वर्तमान अवस्था तक पहुँच सका है। यह उन्नति व्यक्ति विशेष के प्रयासों का परिणाम नहीं है वरन् समस्त समाज का योगदान है। यह संगठन का परिणाम है।

यहाँ पर यह उल्लेख करना भी आवश्यक है कि केवल व्यक्ति की समाज पर निर्भरता ही महत्त्वपूर्ण नहीं है, बल्कि समाज भी व्यक्तियों पर निर्भर है और समाज की सत्ता व्यक्तियों से पूर्णतः अलग नहीं है। सत्य तो यह है कि समाज भी व्यक्तियों पर निर्भर है, क्योंकि यदि व्यक्ति ही न हों तो समाज का अस्तित्व सम्भव नहीं होगा। वास्तव में, समस्त सामाजिक संरचना का आधार व्यक्ति ही होता है।

व्यक्ति और समाज में सम्बन्ध के बारे में सिद्धान्त (Theories of Relationship between Individual and Society) 

व्यक्ति और समाज के सम्बन्ध के बारे में तीन प्रमुख सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है, जोकि निम्न प्रकार हैं-

सामाजिक समझौते का सिद्धान्त (Theory of Social Contract)

इस सिद्धान्त के प्रमुख समर्थकों में हॉब्स (Hobbes), लॉक (Locke) तथा रूसो (Rousseau) के नाम उल्लेखनीय हैं। इन विद्वानों ने सम्पूर्ण मानव इतिहास को दो कालों में बाँटा है-पहला प्राकृतिक अवस्था का युग है, जिसमें मानव व्यवहार पर नियन्त्रण करने के लिए कोई नियम तथा कायदे आदि नहीं थे। मनुष्य अपनी आवश्यकता और इच्छानुसार कार्य करता था। वह अपने को केवल उन नियमों के अधीन मानता था, जो उसकी समझ के अनुसार प्रकृति ने उसके लिए बनाए थे। मानव जीवन के लिए यह परिस्थिति केवल असुविधाजनक ही नहीं थी, बल्कि असहनीय भी थी। लम्बे समय तक मानव जीवन का अस्तित्व इस परिस्थिति में बना रहना असम्भव था। अतः वह दूसरे युग में प्रवेश करता है, जिसे समझौते का काल कहा जाता है। इसी युग में राज्य, समाज और नागरिक का उदय हुआ। स्वयं को प्रथम अवस्था से मुक्ति देने के लिए मनुष्यों ने सामाजिक समझौते द्वारा समाज का निर्माण किया। इसके परिणामस्वरूप मनुष्य की स्वतन्त्रता और अधिकारों का अंशतः लोप हो गया और उसके स्थान पर उसे समाज का संरक्षण मिल गया। वास्तव में, वह अनेक प्रयोगों और त्रुटियों के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि सहयोग से ही जीवन सम्भव है। अतः उसने समाज की रचना की। यहीं पर प्राकृतिक नियमों का स्थान मानव निर्मित कानूनों या सामाजिक नियमों ने ले लिया। इनके फलस्वरूप उसने स्वयं को प्राकृतिक अधिकारों के बदले सामाजिक अधिकारों व नियन्त्रणों से घिरा पाया। इस सिद्धान्त के प्रवर्तकों के अनुसार सामाजिक जीवन एक कृत्रिम रचना है, क्योंकि इसकी रचना स्वयं मनुष्यों ने की है। समाज और मनुष्य दो अलग-अलग वस्तुएँ हैं और इनके बीच जो भी सम्बन्ध हैं वह समझौते के आधार पर की गई व्यवस्था के भीतर हैं। अतः समाज से अलग व्यक्ति का अस्तित्व सम्भव है, जैसा कि समझौते के पूर्व में था। यह सिद्धान्त यह मानकर चलता है कि व्यक्ति का पूर्ण महत्त्व है और समाज गौण है, क्योंकि यह उसी की रचना है। इस सिद्धान्त को समाज की व्यक्तिवादी विचारधारा (Atomistic view of society) भी कहा जाता है।

अन्य विद्वानों के लिए समाज एक सहयोगी अर्थव्यवस्था का एक कृत्रिम साधन है। व्यक्ति प्रारम्भ में स्वतन्त्र तथा अकेला था, परन्तु बाद में सामाजिक शान्ति एवं सुरक्षा के लिए समझौते द्वारा एक समाज का निर्माण किया गया। उसे कुछ अधिकार सौंप दिए गए। संक्षेप में, इस सिद्धान्त के अनुसार, यह कहा जा सकता है कि समाज मानवकृत एक रचना है, जिसे व्यक्तियों ने अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए समझौते द्वारा बनाया है। इसलिए समाज व्यक्ति पर उसी सीमा तक नियन्त्रण रख सकता है, जिस सीमा तक व्यक्ति ने अपनी शक्ति समाज को सौंपी है। इस सिद्धान्त में यद्यपि व्यक्ति और समाज के पारस्परिक सम्पर्क की महत्ता पर बल दिया गया है, फिर भी इसमें व्यक्ति को अधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है।

सिद्धान्त की आलोचना (Criticism of theory) 

सामाजिक समझौते के सिद्धान्त से बहुत से आधुनिक विद्वान् और समाजशास्त्री सहमत नहीं हैं। हॉब्स की आलोचना करते हुए विद्वानों ने यह कहा है कि हॉब्स ने मानव को सामाजिक गुणों से विहीन माना है, परन्तु पूर्णतः स्वार्थी मनुष्य समझौते से कैसे बँध सकता है ? हॉब्स ने इसे स्पष्ट नहीं किया है। उद्विकासीय सिद्धान्त के आधार पर मनुष्य का उद्विकास पशु से हुआ है तथा सामाजिक जीवन का अस्तित्व भी प्रारम्भ से ही रहा होगा, क्योंकि पशुओं में सामाजिकता एवं सहयोग पाया जाता है। इस तरह यह कथन भ्रामक है कि समाज की रचना कृत्रिम रूप से हुई। लॉक की आलोचना में विद्वानों का मत है कि उसकी कल्पनानुसार प्राकृतिक अवस्था में यदि मनुष्य भले, सदाचारी तथा सद्गुणी थे तो समाज की जरूरत ही क्यों पड़ी ? यह लॉक स्पष्ट नहीं कर सके हैं। रूसो ने एक तरफ यह कहा है कि समाज समझौते का परिणाम है। अतः स्वयं उन्हीं के कथन में विरोध है। साथ ही, जब प्रत्येक व्यक्ति ने अपने सारे अधिकार समाज को दे दिए तो वह समाज का दास बन गया, यह कहना भी उचित नहीं है। वास्तविकता यह है कि व्यक्ति समाज का दास नहीं, अपितु स्वामी बना हुआ है। इस सिद्धान्त की प्रमुख कमियाँ अग्रलिखित हैं-

1. समझौते का सिद्धान्त यह स्वीकार कर चलता है कि मनुष्य समाज से पहले भी मनुष्य ही था और समाज से बाहर रह भी सकता है। वास्तव में, ऐसा विचार गलत एवं वैज्ञानिक है। आज अनेक उदाहरणों द्वारा यह प्रमाणित हो चुका है कि मनुष्य समाज का सदस्य बनकर ही सामाजिक गुणों का विकास कर सकता है, अलग रहकर नहीं अर्थात् मनुष्य समाज की देन है।

2. मैकाइवर तथा पेज ने इसकी आलोचना करते हुए कहा है कि समझौते के सिद्धान्त को केवल उस अवस्था में सत्य माना जा सकता है, जब यह मान लिया जाए कि व्यक्ति और समाज का पृथक-पृथक अस्तित्व है। वास्तविकता यह है कि किसी एक के पहले या बाद में होने का प्रश्नही उत्पन्न नहीं होता। समाज और व्यक्ति आदिकाल से ही एक-दूसरे के साथ रह रहे हैं तथा किसी एक के बिना दूसरे के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह सिद्धान्त सम्भवतः राज्य की उत्पत्ति को समझाने के लिए प्रतिपादित किया गया होगा, जिसे बाद में व्यक्ति और समाज के सम्बन्धों को स्पष्ट करने के लिए प्रयोग में लाया जाने लगा।

3. वर्तमान में कोई भी विद्वान् यह नहीं मानता कि समाज स्वाभाविक न होकर कृत्रिम रचना है। इस सिद्धान्त के प्रवर्तक इस बारे में कोई ठोस प्रमाण प्रस्तुत करने में असमर्थ रहे हैं।

4. इस सिद्धान्त के अनुसार समाज और व्यक्ति का सम्बन्ध ठेकेदारी के समान । वास्तव में, यह सम्बन्ध ऐसा नहीं है क्योंकि दोनों के पारस्परिक सम्बन्ध ठेकेदारी सम्बन्धों से कहीं ज्यादा प्रगाढ़, घनिष्ठ और आन्तरिक हैं।

सावयवी सिद्धान्त ( Organismic Theory)

सावयवी सिद्धान्त सामाजिक समझौते के सिद्धान्त के बिल्कुल विपरीत है। यह सिद्धान्त समाज को ही सब कुछ मानता है और इस बात पर बल देता है कि समाज से बाहर व्यक्ति का अस्तित्व सम्भव नहीं है। प्राचीन रोमन, मीक तथा हिन्दू दार्शनिक आरम्भ से ही समाज को जैविक आधार पर समझने का प्रयास करते रहे हैं। ऋग्वेद में वर्ण की उत्पत्ति का यह सिद्धान्त कि ब्रह्मा के मुख, भुजा, जाँप और पैरों से क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र उत्पन्न हुए हैं, इसी धारणा को उत्पन्न करता है कि समाज को शरीर रचना के रूप में देखा जाता रहा है। प्लेटो (Plato) ने राज्य अथवा समाज को शरीर रचना की विशेषताओं के समान माना है। अरस्तू (Aristotle) ने भी आत्मा व शरीर की तुलना समाज के उच्च व निम्न वर्गों से की है। 19वीं शताब्दी से समाज को जैविक आधार पर समझाने के प्रयासों में बहुत वृद्धि हुई है। स्पेन्सर, लिलिनफेल्ड, शैफिक और नोविकों आदि आधुनिक विद्वान् इस सिद्धान्त के समर्थक माने जाते हैं। इस सिद्धान्त को समष्टिवादी विचारधारा (Holistic approach) के नाम से भी जाना जाता है।

स्पेन्सर (Spencer) का कहना है कि समाज एक जीव रचना है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि इस सिद्धान्त में समाज को एक जैविक रूप में देखा जाता है, जिसकी संरचना तथा प्रकार्य व्यक्तिगत जीव की तरह होते हैं। इसका जन्म, विकास एवं विनाश भी उन्हीं नियमों पर आधारित है जिन पर कि जीव का

सिद्धान्त की आलोचना (Criticism of theory)- जैविक सिद्धान्त के आधार पर लम्बे समय तक व्यक्ति की समाज पर पूर्ण निर्भरता व्यक्त की जाती रही है, किन्तु वर्तमान में यह सिद्धान्त अप्रमाणित और अवैज्ञानिक सिद्ध हो चुका है। जीव रचना और समाज रचना में कुछ ऐसे मौलिक अन्तर है कि दोनों को समान नहीं माना जा सकता। उदाहरणार्थ, जीव रचना मूर्त है, जबकि समाज अमूर्त है। जीव रचना समाज से ज्यादा सन्तुलित और निश्चित नियमों पर आधारित है। जीव चेतना कई स्थानों में फैली है। कहने का अर्थ यह है कि समाज को जीव रचना मानकर व्यक्ति तथा समाज के सम्बन्धों को स्पष्ट नहीं किया जा सकता। सावयवी सिद्धान्त यह मानकर चलता है कि समाज की तुलना में व्यक्ति का कुछ भी अस्तित्व नहीं है, बल्कि समाज ही सब कुछ है। इसके प्रवर्तक इस बात को भूल जाते हैं कि मनुष्य चेतनशील प्राणी है और उसके अपने मूल्य एवं विचार आदि होते हैं। शरीर की कोशिकाओं को अलग नहीं किया जा सकता, लेकिन व्यक्ति और समाज यद्यपि घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं, तथापि व्यक्ति समाज में इतना घुलमिल नहीं पाता कि वह अपना पृथक अस्तित्व ही समाप्त कर बैठे समाज व्यक्ति को प्रभावित अवश्य करता है पर इतना नहीं कि व्यक्ति अपने विचार तथा अक्ल में कुछ कर ही नहीं सकता। मैकाइवर तथा पेज के अनुसार, यह कहना बड़ा भ्रामक है कि हम समाज के उसी तरह अंग हैं, जिस प्रकार पत्तियाँ पेड़ों की होती हैं अथवा कोष्ठ शरीर के होते हैं। वस्तुतः समाज का बहुत सीमित अर्थ होता है। सावयवी सिद्धान्त में साहित्यिक एवं सुझावशील उपयोगिता काफी है, परन्तु सामाजिक जीवन के आधारभूत सम्बन्धों अथवा व्यक्ति और समाज के पारस्परिक सम्बन्धों की व्याख्या में इस सिद्धान्त को हमें अपनी विचारधारा में स्थान नहीं देना है। इसका कारण यह है कि सावयवी सिद्धान्त समझौते के सिद्धान्त की तरह समाज तथा व्यक्ति के बीच सम्बन्धों के एक पक्ष को अस्वीकार करता है।

सामूहिक मस्तिष्क का सिद्धान्त (Theory of Group Mind)

सामूहिक मस्तिष्क का सिद्धान्त भी सावयवी सिद्धान्त की तरह कुछ अस्पष्ट विचारों द्वारा निर्मित किया गया है। इसके अन्तर्गत समाज को एक सामूहिक मस्तिष्क का रूप प्रदान किया गया है। प्लेटो और हीगल ने इसी को आधार माना है। दुर्खीम तथा मीन आदि विद्वान् भी इसी का समर्थन करते हैं। मैक्डूगल (McDougall) ने तो अपनी पुस्तक का नाम ही दि ग्रुप माइन्ड (The Group Mind) रखा है। इनके अनुसार समाज की एक अलग व्यक्तिगत सत्ता होती है जो व्यक्तियों की प्रकृति तथा व्यवहार को नियन्त्रित करती है। स्पेन्सर (Spencer) का मत है कि समाज भी शरीर रखता है। दुखम (Durkhcim) सामूहिक चेतना (Collective conscience) की संज्ञा दी है, किन्तु सामूहिक मस्तिष्क जैसी कोई वस्तु वास्तव में हो ही नहीं सकती। मैकाइवर और पेज के अनुसार, इस सिद्धान्त में कोई समस्या उत्पन्न न होती यदि यह कहा जाता कि समूह में आमतौर पर उसके सदस्यों के थोड़े से लक्षण प्रकट होते हैं। इस सिद्धान्त के मानने वालों का आग्रह है कि समाज पूर्णतः मस्तिष्क की तरह है, जो अपने सदस्यों के लिए सामान्य दिखाई देता है। ऐसा स्वीकार करना एक भ्रम है।

तीनों सिद्धान्तों में प्रथम सिद्धान्त व्यक्ति को अधिक महत्त्वपूर्ण मानता है और दूसरे दोनों सिद्धान्त समाज को अधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं। वास्तव में, ये दोनों दृष्टिकोण एकपक्षीय हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि व्यक्ति और समाज में गहरा सम्बन्ध है और इनका अस्तित्व एक दूसरे पर आधारित है। इसलिए व्यक्ति को समाज से अधिक महत्त्वपूर्ण मानना अथवा समाज को व्यक्तियों से अधिक महत्त्वपूर्ण मानना उचित नहीं है। हम एक के बिना दूसरे की कल्पना तक नहीं कर सकते हैं। वस्तुतः व्यक्ति और समाज में कौन महत्त्वपूर्ण है, यह प्रश्न पूछना ही समाजशास्त्र की दृष्टि से उचित नहीं है।

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Anjali Yadav

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