टैगोर के शिक्षा दर्शन के आधारभूत तत्त्व क्या है? उनके अनुसार शिक्षा के अर्थ एवं उद्देश्यों को स्पष्ट कीजिए।
रविन्द्रनाथ टैगोर हमारे सम्मुख एक महान साहित्यकार कला-प्रेमी और दार्शनिक के रूप में ही नहीं आते बल्कि एक महान शिक्षा शास्त्री के रूप में भी आते हैं। उन्होंने अपने शिक्षा सम्बन्धी विचारों और योजनाओं को विश्व-भारती के रूप में व्यावहारिक रूप प्रदान किया है।
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शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त या तत्त्व
यदि टैगोर के शिक्षा दर्शन का अध्ययन किया जाय तो उसके अनेक आधारभूत दिखलायी पड़ेंगे। टैगोर शिक्षा का अर्थ वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही प्रकार की उन्नत मानते हैं। वे उसके माध्यम से मानव का शारीरिक, भौतिक, नैतिक, आध्यात्मिक और सब प्रकार का विकास देखते हैं।
टैगोर शिक्षा का उद्देश्य केवल क्लर्क, निपुण किसान या योग्य शिल्पी बनाना ही नहीं मानते बल्कि पूर्ण मानव बनाना उसका उद्देश्य मानते हैं।
टैगोर हमारे सम्मुख एक आदर्शवादी एवं प्रकृतिवादी के रूप में आते हैं तथा वे प्रकृति घनि सम्बन्ध रखकर शिक्षा प्रदान करने के पक्षपाती हैं। उनका कहना है कि विद्यार्थियों और नागरिकों को अनैतिक वातावरण एवं गन्दगी से दूर रखकर उन्हें शांतिमय वातावरण में शिक्षा प्रदान करनी चाहिए। टैगोर की यह मान्यता है कि शिक्षा राष्ट्रीय होनी चाहिए और उसमें देश के भूत एवं भविष्य की जानकारी होनी चाहिए। शिक्षा का माध्यम मातृ-भाषा होनी चाहिए क्योंकि विदेशी भाषा के द्वारा अनन्त मूल्यों की प्राप्ति सम्भव नहीं है। टैगोर की मान्यता थी कि बालकों को शिक्षा ग्रहण करने की पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान की जानी चाहिए और उन्हें अपनी ज्ञान-शक्ति के विस्तार का अवसर प्राप्त होना चाहिए। पुस्तकों के बजाय प्रत्यक्ष श्रोतों से शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए।
टैगोर की यह भी मान्यता है कि शिक्षा व्यावहारिक जीवन से सम्बन्धित होनी चाहिए और उसमें सामाजिक आदर्शों, परम्पराओं, प्रथाओं एवं रीति-रिवाजों को मान्यता प्रदान की जानी चाहिए। बालकों को इस प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए कि उनमें उच्चकोटि की धार्मिकता की भावना जाग्रत हो और वे मानव-कल्याण की ओर अग्रसर हो । शिक्षा बालकों में परोपकारिता एवं सहिष्णुता आदि गुणों को लाने में समर्थ होनी चाहिए।
टैगोर के अनुसार शिक्षा द्वारा सत्यम् शिवम्, सुन्दरम् आदि मूल्यों का साक्षात्कार विद्यार्थी को कराया जाना चाहिए। सुन्दरम् के विकास के लिए छात्रों को संगीत, चित्रकारी और अभिनय कला आदि की शिक्षा विशेष रूप से प्रदान की जाय। टैगोर का कहना था कि शिक्षा की कोई भी लाभप्रद एवं राष्ट्रीय प्रणाली विदेशी नमूने पर नहीं बनायी जा सकती है और उसके हेतु यह आवश्यक है कि भारतीय परिस्थितियों को ध्यान में रखकर शिक्षा की नवीन योजनायें बनायी जायें। हमारी शिक्षा, हमारी परम्पराओं, प्रथाओं एवं आदर्शों के अनुरूप होनी चाहिए। टैगोर यह मानते थे कि शिक्षा तब गतिशील और सजीव हो जाती है जबकि उसका समुदाय के जीवन से सम्बन्ध स्थापित कर दिया जाय। भारत में शिक्षा की योजना बनाते समय इस तथ्य को भी ध्यान में रखना चाहिए।
टैगोर के अनुसार शिक्षा का अर्थ
टैगोर शिक्षा के अत्यन्त व्यापक अर्थ को ग्रहण करते हैं और उनका कहना है कि शिक्षा को व्यक्ति के शारीरिक, बौद्धिक, नैतिक, सामाजिक विकास में सहायक होनी चाहिए। साथ ही शिक्षा व्यावहारिक भी होनी चाहिए और उसमें सामाजिक परम्पराओं, आदर्शों, आवश्यकताओं, मूल्यों एवं मान्यताओं को मान्यता मिलनी चाहिए। शिक्षा के प्रति टैगोर का दृष्टिकोण व्यापक एवं उदार है। वह लिखते हैं “उच्चतम शिक्षा वह है जो हमारे जीवन के सभी अस्तित्त्वों के साथ सामन्जस्यपूर्ण सम्बन्ध बनाती है।”
जीवों या वस्तुओं में सामन्जस्य या समरसता तभी आ सकती है जबकि व्यक्ति की समस्त शक्तियों पूरी तरह से विकसित हो जायें। इस स्थिति को ही टैगोर पूर्ण मनुष्यत्व मानते हैं और उनका कथन है कि इस पूर्ण मनुष्यत्व की प्राप्ति ही शिक्षा का उद्देश्य है। टैगोर यह कहते हैं कि केवल ज्ञानार्जन ही शिक्षा नहीं है बल्कि शिक्षा के द्वारा बालक की समस्त क्षमताओं का विकास होना चाहिए।
टैगोर के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य
(1) शारीरिक विकास- टैगोर यह मानते हैं कि शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य बालक का शारीरिक विकास है। बालक का शारीरिक विकास तभी हो सकता है जबकि बालक को प्रकृति के स्वतन्त्र वातावरण में खेलने-कूदने, उठने-बैठने और अध्ययन करने की स्वतन्त्रता प्रदान की जाय। टैगोर किताबी शिक्षा की अपेक्षा शारीरिक विकास को अधिक महत्त्व प्रदान करते हैं। वह लिखते हैं, “पेड़ों पर चढ़ने, तालाबों में डुबकियाँ लगाने, फूलों को तोड़ने और बिखेरने और प्रकृति माता के साथ नाना प्रकार की शैतानियाँ करने से बालकों के शरीर का विकास, मस्तिष्क का आनन्द और बचपन के स्वाभाविक आवेगों से सन्तुष्टि प्राप्त होती है।” इससे स्पष्ट है कि उनके अनुसार शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य शारीरिक विकास है क्योंकि शारीरिक विकास के बिना मानसिक और बौद्धिक विकास सम्भव नहीं है।
(2) मानसिक या बौद्धिक विकास- शिक्षा का उद्देश्य केवल मात्र शरीर का विकास ही नहीं है, बल्कि शरीर के विकास के साथ ही मानसिक या बौद्धिक विकास भी शिक्षा का उद्देश्य हैं। पुस्तकों से सहायता प्राप्त करना मानसिक विकास का केवल एक अंग मात्र है। वास्तविक मानसिक विकास प्रकृति एवं जीवन की वास्तविक परिस्थितियों से प्रत्यक्ष रूप में ज्ञान करना ही हो सकता है। टैगोर अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में लिखते हैं “पुस्तकों के बजाय प्रत्यक्ष रूप से जीवित व्यक्तियों, को जानने का प्रयास करना शिक्षा है। इससे न केवल कुछ ज्ञान प्राप्त होता है, जितना कक्षा में सुने जाने वाले व्याख्यानों से होना असम्भव है। यदि हमारे मस्तिष्क को संवेगों और कल्पना की वास्तविकता से पृथक कर दिये जाते हैं, तो वे निर्बल तथा विकृत हो जाते हैं।
(3) संवेगात्मक विकास- टैगोर शरीर और मन के विकास के साथ ही संवेगों का विकास भी शिक्षा का उद्देश्य स्वीकार करते हैं। उसका कहना है कि संगीत चित्रकला और कविता आदि के द्वारा बालक को संवेगात्मक प्रशिक्षण प्रदान किया जाना चाहिए जिससे कि उनमें प्रेम, दया, सहानुभूति आदि की भावनायें उत्पन्न हो सकें।
(4) जीवन के सामन्जस्य की क्षमता का विकास- टैगोर की यह भी मान्यता थी कि शिक्षा इस प्रकार की होनी चाहिए कि बालक जीवन की परिस्थितियों के साथ पूरी तरह से सामन्जस्य स्थापित कर सके। यदि शिक्षा जीवन की वास्तविक परिस्थितियों से सामन्जस्य स्थापित करने में समर्थ नहीं है तो वह शिक्षा व्यर्थ है। टैगोर के शब्दों में, “इस समय हमारा ध्यान चाहने वाली प्रथम और महत्त्वपूर्ण समस्या हमारी शिक्षा और हमारे जीवन में सामन्जस्य स्थापित करने की है। “
(5) सामाजिक विकास- टैगोर शिक्षा के माध्यम से बालक के वैयक्तिक विकास के साथ ही उसका सामाजिक विकास भी करना चाहते है। यद्यपि यह ठीक है कि वह प्रकृति के स्वतन्त्र वातावरण में बालक को शिक्षा प्रदान करना चाहते हैं परन्तु इसके साथ ही वे यह भी कहते हैं कि बालक में सामाजिक गुणों का विकास करना भी शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए जो शिक्षा बालकों में सामाजिक गुणों का विकास करने में समर्थ नहीं होती वह वास्तविक शिक्षा नहीं है।
(6) नैतिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा विकास टैगोर अति नैतिकवादी है और आध्यात्मिक क्षेत्र में उनकी गहन आस्था है। यही कारण है कि टैगोर शिक्षा का उद्देश्य नैतिक और आध्यात्मिक विकास भी मानते हैं। उनका विचार था कि शिक्षा बालकों में नैतिक गुणों का विकास करने में समर्थ होनी चाहिए। वास्तविक नैतिक शिक्षा वही है जिसमें आध्यात्मिकता का भी पुट हो। अनुशासन, शान्ति, धैर्य आदि गुणों का मानव में होना आवश्यक है और उनका विकास शिक्षा के माध्यम से किया जाना चाहिए। मानव, मानव इसलिए है कि उसमें नैतिकता और आध्यात्मिकता की भावना होती है। यदि शिक्षा बालकों में नैतिक गुणों के विकास करने में समर्थ नहीं है और उनमें आध्यात्मिक भावना नहीं ला पाती है तो वह व्यर्थ है। नैतिकता के सम्बन्ध में टैगोर ने लिखा है, “यह सत्य है कि हमको पश्चिम से विज्ञान अपनाना है किन्तु यह हमारे लिए बड़ा अपमानजनक है यदि हम अपनी निजी, नैतिक, बौद्धिक सम्पत्ति भूल जाते हैं जो बहुत ही अधिक मूल्यवान हैं।
गुरूदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर का आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उन्होंने शिक्षा में स्वतंत्रता एवं आत्मक्रिया के सिद्धान्तों पर बल दिया। टैगोर ने शिक्षा व्यवस्था में मानवतावाद का संदेश दिया जिससे शिक्षा के माध्यम से विश्व बन्धुत्व की भावना का विकास हो। टैगोर ने शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हिन्दी को बनाने पर विशेष बल दिया। टैगोर के प्रयासों से ही शिक्षा के पाठ्यक्रम में कला, संगीत, कहानी, व्यायाम आदि को सम्मिलित किया गया। टैगोर ने ही आध्यात्मवाद को व्यवहारिक जीवन से सम्बन्धित किया।
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