जन शिक्षा, ग्रामीण शिक्षा, स्त्री शिक्षा व धार्मिक शिक्षा पर टैगोर के विचार स्पष्ट कीजिए ।
टैगोर ने विभिन्न प्रकार की शिक्षा पर अपने विचार व्यक्त किये हैं। शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों में उनकी महान् देन है। विभिन्न प्रकार की शिक्षा के सम्बन्ध में टैगोर के विचारों की चर्चा यहाँ की जा रही है।
Contents
(1) जन शिक्षा पर टैगोर के विचार
टैगोर का विचार था कि भारतीय जनता को अपार कष्टों का सामना अज्ञान के फलस्वरूप ही सहना पढ़ रहा है। अशिक्षा ही समस्त समस्याओं का मूल कारण हैं। इस हेतु उन्होंने जन-शिक्षण की व्यवस्था की। उनका कहना था कि जन-शिक्षा के माध्यम से आपसी भेद-भाव समाप्त होंगे और समाज उन्नतिशील बनेगा। यह जन-शिक्षा समाज की परम्पराओं और समाज के जीवन के साथ घनि रूप से जुड़ी होनी चाहिए। उनका कथन था कि जन-साधारण की शिक्षा-व्यवस्था दो रूपों में की जा सकती है-
(i) प्रारम्भिक एवं अनिवार्य शिक्षा द्वारा,(ii) समाज व प्रौढ़ शिक्षा द्वारा टैगोर के अनुसार सभी बालकों को प्राथमिक शिक्षा अवश्य प्रदान की जानी चाहिए। साथ ही समाज के प्रोढ़ों को भी शिक्षित करने की व्यवस्था करनी चाहिए। जन-शिक्षा का माध्यम मातृ-भाषा होनी चाहिए। जन शिक्षा के हेतु उन्होंने कीर्तन, भजन, संगीत का कार्यक्रम, सम्मेलन, रामायण एवं महाभारत की कथाओं का आयोजन अति आवश्यक बतलाया। साथ ही उन्होंने प्रदर्शनियों, गोष्ठियों, सभाओं आदि को भी आयोजित करना बतलाया क्योंकि जन-शिक्षा समाज के सहयोग से ही प्रदान की जा सकती हैं।
टैगोर शिक्षा को केवल पुस्तकीय ही नहीं बनाना चाहते थे बल्कि वे उसे व्यावहारिक बनाना चाहते थे। उनका कहना है कि व्यावहारिक शिक्षा द्वारा स्थानीय व्यवसायों और उद्योग धन्धों की उन्नति की जानी चाहिए और जन-शिक्षा की निःशुल्क व्यवस्था की जानी चाहिए। प्रौढ़ शिक्षा के हेतु रात्रि-पाठशालाओं, ग्रामीण सचल पुस्तकालयों एवं अन्य साधनों का प्रयोग किया जाना चाहिए। इस कार्य का आयोजन शिक्षकों और शिक्षार्थियों द्वारा किया जाना चाहिए।
( 2 ) ग्रामीण जीवन पर टैगोर के विचार
भारत की अधिकांश जनसंख्या गाँवों में निवास करती है और इस कारण टैगोर गाँव के पुनर्निर्माण को अत्यन्त आवश्यक मानते हैं। और ग्राम्य-सुधार के लिए यह ग्रामीण शिक्षा की व्यवस्था करना चाहते हैं। टैगोर ने अपनी विश्वभारती में एक ‘ग्राम्य-कल्याण विभाग की स्थापना की जिसका उद्देश्य . ग्रामवासियों की विभिन्न समस्याओं को हल करना और उनकी सेवा करना रखा। इस विभाग में ग्रामवासियों की शिक्षा के लिए रात्रि-पाठशालाओं का आयोजन किया और कृषि शिक्षा की व्यवस्था की।
टैगोर ने ग्रामीण पाठशालाओं के लिए पुस्तकालयों की योजना पर बल दिया और ग्रामीण शिक्षा के अन्तर्गत कीर्तन, लोक-गीत, धर्म-ग्रन्थों के पठन-पाठन को प्रमुख स्थान दिया। टैगोर ग्राम्यवासियों को हस्त-कौशल, स्वास्थ्य आदि की उचित शिक्षा प्रदान करना चाहते थे। उनका कहना था कि ग्रामीण शिक्षा के हेतु विभिन्न प्रकार की समितियों का गठन किया जाय और ग्रामों में सभी अवस्थाओं के लोगों के लिए उचित शिक्षा की व्यवस्था हो। इसी कारण टैगोर ने गाँवों में प्राथमिक सेकेण्डरी, उच्च, कृषि, व्यावसायिक सभी प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था करना आवश्यक बतलाया।
(3) स्त्री शिक्षा पर टैगोर के विचार
टैगोर ने स्त्री शिक्षण पर अपने विचार अत्यन्त स्पष्ट रूप में व्यक्त किये हैं। वे समाज में स्त्रियों की गिरती हुई दशा को देखकर चिन्तित थे और चाहते थे कि स्त्रियों को उचित स्थान प्राप्त हो ।
वह स्त्रियों को भी पुरुषों के तुल्य ही शिक्षा प्रदान करने के पक्षपाती थे। उनका कहना था, कि “ज्ञान के दो विभाग है, एक विशुद्ध ज्ञान का दूसरा उपयोगी ज्ञान का विशुद्ध ज्ञान के क्षेत्र में पुरुष और स्त्री में कोई भेद नहीं है, व्यावहारिक उपयोगिता के व्रत में भेद होता है। स्त्री को परिपक्व मानव प्राणी बनाने के लिए विशुद्ध ज्ञान प्राप्त करना चाहिए और सही स्त्री होने के लिए उपयोगी ज्ञान……।” “टैगोर वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही दृष्टिकोणों से स्त्री शिक्षा का समर्थन करते थे और उनके अनुसार भारतीय समाज का यह दुर्भाग्य है कि यहाँ स्त्रियों को पुरूषों के तुल्य शिक्षा प्राप्त नहीं हुई है। आवश्यकता इस बात की है। स्त्री और पुरूष दोनों ही मिल-जुल कर समाज के उत्थान में योगदान दें। इस हेतु स्त्रियों के लिए उचित शिक्षा की व्यवस्था अत्यन्त आवश्यक है। टैगोर ने 1908 ई. में शान्ति-निकेतन में स्त्री-शिक्षा विभाग स्थापित किया परन्तु कुछ कठिनाइयों के कारण इस विभाग को कुछ ही समय वाद बन्द कर देना पड़ा। 1922 ई. में इस कार्य के लिए वहाँ पुनः ‘नारी भवन’ को स्थापना की गयी जिसे कि “नारी विभाग’ के नाम से पुकारा गया। इस विभाग द्वारा स्त्रियों की पुरुषों के समान ही शिक्षा प्रदान की जाती है। साथ ही वहाँ गृह-कार्य, सिलाई-कढ़ाई, कला कौशल आदि की भी उचित व्यवस्था है। स्त्रियों की व्यायाम और सेवा आदि की सुविधायें भी प्रदान की जाती है और संगीत का भी शिक्षण प्रदान किया जाता है, स्त्रियों के सर्वाण विकास की भी व्यवस्था वहाँ की गयी है।
( 4 ) राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा पर टैगोर के विचार
टैगोर को राष्ट्रोत्थान की प्रबल चिन्ता थी और इसीलिए उन्होंने अपनी शिक्षा में राष्ट्रीय दृष्टिकोण की ओर विशेष ध्यान दिया। वह भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं से विशेष प्रभावित थे और इसीलिए उन्होंने अपनी शिक्षा-प्रणाली में उन परम्पराओं को स्थान दिया। उनके पास एक कवि हृदय था और यह कवि हृदय राष्ट्रीय परम्पराओं के साथ मिलकर राष्ट्रीय शिक्षा के नवीन दृष्टिकोण को रखने में समर्थ हुआ। टैगोर की भारतीय दर्शन और भारतीय परम्पराओं में गहन आस्था थी। वह शिक्षा के माध्यम से राष्ट्रीय भावना का विकास करना चाहते थे। उनके अनुसार शिक्षा देश की दासता की बेड़ियों को काटने में सहायक सिद्ध होगी और ऐसी शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए जो देशवासियों में राष्ट्रीय भावना को जागृत करे।
टैगोर की राष्ट्रीयता संकुचित नहीं थी और वे अन्तर्राष्ट्रीयतावाद के समर्थक थे। उनका कहना था कि संकुचित भौगोलिक सीमाओं का राष्ट्र, राष्ट्र नहीं होता बल्कि समस्त संसार ही मानव-राष्ट्र है और शिक्षा की योजना इस प्रकार से की जानी चाहिए कि समस्त मानव जाति का उत्थान हो ।
टैगोर ने प्रथम महायुद्ध की विभीषिकाओं को समझा था और इसी कारण वह मानव जाति के विचारों से प्रभावित थे। वह मानव जाति और अन्तर्राष्ट्रीयता का विकास करने वाली शिक्षा का समर्थन करते थे। उनका कहना था कि विश्वविद्यालयों में विभिन्न देशों के शिक्षार्थियों को अध्ययन के लिए आना चाहिए जिससे कि सांस्कृतिक आदान-प्रदान असम्भव हो। अतः वे अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा के हेतु प्रशिक्षण संस्थाओं में अन्तर्राष्ट्रीय भावना का वातावरण उत्पन्न करना चाहते थे।
इस प्रकार स्पष्ट है कि जहाँ एक ओर टैगोर राष्ट्रीय शिक्षा की व्यवस्था करते हैं, वहाँ दूसरी ओर मानव जाति के दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा पर बल देते हैं।
(5) धार्मिक शिक्षा पर टैगोर के विचार
टैगोर धार्मिक व्यक्ति थे। परन्तु उनकी धार्मिकता संकुचित धार्मिकता नहीं हैं। उनका कहना था कि धर्म असीम के प्रति उत्कृष्ट इच्छा है, असीम की आनन्दमयी अनुभूति है। वह मानव-सेवा को सबसे बड़ा धर्म मानते थे।
टैगोर कर्मवादी थे और सिद्धान्तों की अपेक्षा वह कर्मों को अधिक महत्त्व देते थे। धर्म को वह साम्प्रदायिकता से अलग करना चाहते थे वह एक ऐसी धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था करना चाहते थे जो मनुष्य को कर्त्तव्यनि एवं मानव-प्रेमी बनाये। उन्होंने सामान्य एवं अबाधिक ढंग को धार्मिक शिक्षा पर बल दिया। ‘शांति-निकेतन’ में किसी सम्प्रदाय विशेष के कर्मकाण्डों की शिक्षा. नहीं प्रदान की जाती थीं बल्कि मानव-प्रेम का पाठ पढ़ाया जाता था। प्रत्यक्ष प्रार्थना हेतु सभी अपने-अपने ढंग से पूजा करते थे, अपने-अपने महापुरूषों का जन्म-दिवस मनाते थे। विद्यार्थियों की कर्त्तव्यपरायणता की भावना को विकसित करने के लिए धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था की गयी थी। धार्मिक शिक्षा के अन्तर्गत गरीबों की सेवा, गिरे हुए को ऊपर उठाना, सहयोग से कार्य करना, अशिक्षितों को पढ़ाना आदि बातों को स्थान दिया गया था। मानव जाति की सेवा ही मानव-जाति का मुख्य उद्देश्य था।
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