शिक्षा मनोविज्ञान की विभिन्न विधियाँ क्या हैं ? प्रत्येक का उदाहरण सहित वर्णन कीजिए।
शिक्षा मनोविज्ञान की विधियाँ (Methods of Educational Psychology)
शिक्षा मनोविज्ञान की अध्ययन विधि से तात्पर्य मनोवैज्ञानिकों द्वारा अपने तथ्यों के संकलन में अपनी परिकल्पनाओं की जाँच के लिए अपनायी गयी प्रक्रिया से होता है। विधि शब्द के अर्थ को स्पष्ट करते हुए चार्ल्स रीड ने लिखा है—“वैज्ञानिक भाषा में विधि शब्द का प्रयोग उस मार्ग को सूचित करता है जिस पर चलकर सत्य की खोज की जाती है।”
शिक्षा मनोविज्ञान में जिन पद्धतियों का प्रयोग किया जाता है उनमें मुख्यत: प्रमुख निम्न प्रकार हैं-
(1) आत्मनिरीक्षण विधि- आत्मनिरीक्षण या अन्तर्दर्शन पद्धति वह पद्धति है, जिसमें व्यक्ति स्वतः अपनी मानसिक प्रक्रियाओं का अध्ययन कर उनकी व्याख्या करता है। मनोविज्ञान ने इस पद्धति को वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान किया। अन्तर्दर्शन में विद्यार्थी अपनी अनुभूतियों के स्वरूपों को समझने का वैज्ञानिक प्रयास करता है। इस प्रयास में अपनी मानसिक क्रियाओं के नियमों को भी समझाने की कोशिश करता है। जब व्यक्ति अन्तदर्शन करता है तो वह अपना ध्यान बाह्य पदार्थों से हटाकर मानसिक क्रियाओं पर लगा देता है। एक क्रोधान्वित बालक जब अपनी मानसिक अवस्था का पता लगाने के लिए मन का अन्तर्दर्शन करता है तो क्रोध जागृत करने वाले बाह्य उद्दीपकों से अपना ध्यान हटाकर मानसिक क्रियाओं पर लगाता है।
इस प्रकार अन्तर्दर्शन पद्धति मनोविज्ञान की मुख्य पद्धति है जिसके द्वारा अपने मन का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करने में समर्थ होते हैं। अन्तर्दर्शन की परिभाषा प्रस्तुत करते हुए वी० एन० झा ने लिखा है कि अन्तर्दर्शन स्वयं अपने मन का निरीक्षण करने की प्रक्रिया है। यह एक प्रकार का आत्म निरीक्षण है जिसमें हम अपनी संवेदनाओं तथा किसी मानसिक कार्य के समय घटित होने वाले अन्य व्यापारों का निरीक्षण, विश्लेषण तथा वर्णन करते हैं।
(2) प्रयोगात्मक पद्धति- निरीक्षण का अर्थ होता है कि पूर्व निर्धारित दशाओं में मानव व्यवहार का अध्ययन करना-
प्रयोगात्मक विधि एक प्रकार की ‘नियन्त्रित परीक्षण की विधि है। इस विधि में प्रयोगकर्ता एवं अन्य द्वारा निर्धारित की हुई परिस्थितियों या वातावरण में किसी व्यक्ति का अध्ययन करता है, या किसी समस्या के सम्बन्ध में तथ्य एकत्र करता है। मनोविज्ञान ने इस विधि का प्रयोग करके न केवल बालकों और व्यक्तियों के व्यवहार व वरन् चूहों, बिल्लियों के व्यवहार का अध्ययन किया जाता है। मनोवैज्ञानिक प्रयोग का उद्देश्य किसी निश्चित परिस्थितियों या दशाओं में मानव व्यवहार से सम्बन्धित किसी विश्वास या विचार का परीक्षण करना है।
(3) निरीक्षण पद्धति- निरीक्षण एक ऐसी पद्धति है जिसमें परीक्षक, दूसरे व्यक्तियों की गतिविधियों का निरीक्षण करता है। सामान्यतः निरीक्षण का अर्थ ‘ध्यानपूर्वक देखने’ से लगाया जाता है। हम किसी व्यक्ति के व्यवहार, आचरण, क्रियाओं, प्रतिक्रियाओं, आदि को ध्यानपूर्वक देखकर उसकी मानसिक दशा का अनुमान लगा सकते हैं। जैसे—जब कोई व्यक्ति तेज़ आवाज में बोल रहा हो और उसका चेहरा लाल हो, तो हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि वह व्यक्ति क्रुद्ध है।
इस विधि अन्तर्गत, निरीक्षणकर्त्ता द्वारा अध्ययन किए जाने वाले व्यवहार का निरीक्षण किया जाता है और इसी आधार पर उस विषय में अपनी धारणा बनाता है। व्यवहारवादियों द्वारा इस विधि को विशेष महत्त्व प्रदान किया गया है।
(4) व्यक्ति इतिहास पद्धति – प्रायः मनोवैज्ञानिक को अनेक प्रकार के व्यक्तियों का सामना करना पड़ता है। इसमें से कोई मानसिक रोगी; अपराधी, झगड़ालू या समाज विरोधी कार्य करने वाला व्यक्ति हो सकता है। मनोवैज्ञानिक के विचार से व्यक्ति का भौतिक, पारिवारिक या सामाजिक वातावरण उसमें मानसिक असंतुलन उत्पन्न कर देता है, जिसके परिणामस्वरूप वह अवांछनीय व्यवहार करने लगता है। इसका वास्तविक कारण जानने के लिए वह व्यक्ति का पूर्व इतिहास जानने का प्रयत्न करता है। इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु वह व्यक्ति उसके माता-पिता, शिक्षकों, पड़ोसियों, सम्बन्धियों एवं मित्रों में पूछताछ करता है। इस प्रकार वह व्यक्ति के वंशानुक्रम, पारिवारिक और सामाजिक वातावरण, रुचियों, क्रियाओं, शारीरिक स्वास्थ्य, शैक्षिक और संवेगात्मक विकास के सम्बन्ध में तथ्य एकत्र करता है। इन तथ्यों की सहायता से वह उन कारणों को पता कर लेता है, जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति मनोविकारों का शिकार बनकर अनुचित आचरण करने लगता है। इस प्रकार, इस विधि का उद्देश्य व्यक्ति के किसी विशिष्ट व्यवहार के कारण की खोज करना है। इसके सम्बन्ध में एक प्रमुख विद्वान का कथन निम्न प्रकार है-
“व्यक्ति इतिहास विधि का मुख्य उद्देश्य किसी कारण का निदान करना है।” -क्रो एवं क्रो
(5) तुलनात्मक विधि- इस विधि का प्रयोग अनुसन्धान के लगभग सभी क्षेत्रों किया जाता है। इस विधि का प्रयोग उस समय किया जाता है। जब दो व्यक्तियों या समूहों का अध्ययन किया जाता है और उनके व्यवहार से सम्बन्धित समानताओं और असमानताओं को जानना होता है। मनोवैज्ञानिकों ने इस विधि का प्रयोग करके अनेक उपयोगी तुलनाएँ की हैं, जैसे—पशु एवं मानव व्यवहार की तुलना, तथा प्रजातियों की विशेषताओं की विभिन्न वातावरणों में पाले गए बालकों की तुलना आदि।
तुलना इन तुलनाओं के माध्यम से उन्होंने अनेक आश्चर्यजनक घटकों को उत्पन्न करके हमारे ज्ञान और मनोविज्ञान की परिधि का विस्तार किया है।
(6) विकारात्मक या विकासात्मक पद्धति- यह विधि निरीक्षण विधि से काफी हद तक मिलती है। इस विधि के अन्तर्गत निरीक्षक, बालक के शारीरिक और मानसिक विकास एवं अन्य बालकों और वयस्कों से उसके सम्बन्धों का अर्थात् सामाजिक विकास का अति सावधानी के साथ एक लेखा तैयार करता है। निरीक्षक इस लेखे के आधार पर बालक की विभिन्न आवश्यकताओं, अवस्थाओं और विशेषताओं का विश्लेषण करता है। इसके साथ-साथ वह इस बात का भी विश्लेषण करता है कि बालक के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और व्यवहार सम्बन्धी विकास को वंशानुक्रम एवं वातावरण किस प्रकार प्रभावित करता है। यह कार्य अति दीर्घकालीन है, क्योंकि बालक का निरीक्षण उसके जन्मावस्था से प्रौढ़ावस्था तक किया जाना अनिवार्य है। यह विधि दीर्घकालीन होने के कारण महँगी है। इसके सम्बन्ध में एक प्रमुख विद्वान ने सत्य ही कहा है कि-
“इस प्रकार के अनुसंधान का अनेक वर्षों तक किया जाना अनिवार्य है। अतः यह बहुत मँहगा है।” – गैरेट
(7) प्रश्नावली पद्धति – जब कोई प्रयोगकर्ता किसी शिक्षा समस्या के सम्बन्ध में अनेक व्यक्तियों से अवगत होना चाहता है तो उन सभी से साक्षात्कार करने के लिए उसे पर्याप्त समय व धन की जरूरत होती है। इन दोनों में बचत करने के लिए वह समस्या से सम्बन्धित कुछ प्रश्नों की प्रश्नावली तैयार करता है और उनके पास भेज देता है, तत्पश्चात् उनसे जो उत्तर प्राप्त होते हैं, वह उनका अध्ययन और वर्गीकरण करता है फिर उन्हीं के आधार पर अपने निष्कर्षों को प्रस्तुत करता है।
(8) मनोविश्लेषण पद्धति- इस विधि के जनक वायना के प्रसिद्ध चिकित्सक फ्रायड थे। उन्होंने बताया कि व्यक्ति के ‘अचेतन मन’ का उस पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। यह मन उसकी अतृप्त इच्छाओं का पुंज होता है और निरन्तर क्रियाशील रहता है। परिणामस्वरूप व्यक्ति की अतृप्त इच्छाएँ अवसर पाते ही प्रकाश में आने का प्रयत्न करती हैं, जिससे वह अनुचित व्यवहार करने लगता है। अतः इस विधि के माध्यम से व्यक्ति के ‘अचेतन मन’ का अध्ययन करके उसकी अतृप्त इच्छाओं की जानकारी हासिल की जाती है। तत्पश्चात् इन इच्छाओं का बहिष्कार करके व्यक्ति का उपचार किया जाता है, और इस प्रकार उसके व्यवहार के अति उत्तम बनाने का प्रयत्न किया जाता है। .
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