शैक्षिक पर्यवेक्षण के विकास पर प्रकाश डालिए।
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शैक्षिक पर्यवेक्षण का उद्भव तथा विकास (Growth and Development of Educational Supervision)
पर्यवेक्षण का प्रत्यय अधिक प्राचीन नहीं है। सन् 1909 ई० से पूर्व इसका अस्तित्व ही नहीं था। सर्वप्रथम इंग्लैण्ड के बोस्टन नामक नगर में इस शब्द का प्रयोग किया गया। वहाँ विद्यालयों का निरीक्षण कार्य करने के लिए सन् 1909 ई० में एक विशेष समिति की स्थापना की गयी, जिसमें कुछ चुने हुए धर्माधिकारी, कुछ घनिक व्यक्ति तथा कुछ न्यासी (Trustee) सम्मिलित किए गए। इस समिति का कार्य सामान्य रूप से भवन की देखभाल करना, विद्यालयों के लिए सामान जुटाना एवं शिक्षकों की नियुक्ति पर ध्यान देना था। इस समिति के अधिकांश सदस्य अशिक्षित एवं अप्रशिक्षित होते थे, उनमें कार्यक्षमता अधिक नहीं होती थी, इसीलिए वे निरीक्षण कार्य को भी अपर्याप्त तथा अनियन्त्रित ढंग से करते थे। कुछ .. समय पश्चात् निरीक्षण की आवश्यकता पर और अधिक बल दिया जाने लगा। सन् 1914 ई० से निरीक्षकों के लिए शैक्षिक योग्यता को अनिवार्य माना जाने लगा। सन् 1921 ई० से निरीक्षण के क्षेत्र में शिक्षित व्यक्तियों का हस्तक्षेप प्रारम्भ हुआ। सुप्रसिद्ध विद्वान इलियट (Elliot) ने शिक्षण कार्य, शिक्षण विधि तथा शिक्षण के उद्देश्यों के सम्बन्ध में अपने सुझाव दिए। सन् 1922 ई० में बर्टन (Burton) ने निरीक्षण के महत्व पर अधिकाधिक ध्यान आकृष्ट किया। बर्टन ने शिक्षा के सुधार कार्यक्रमों में निरीक्षण के स्थान को सर्वोपरि माना। बर्टन का मत था कि शिक्षण कार्य में सुधार एवं उन्नति के लिए, शिक्षक कार्य में सुधार करने के लिए, विषय एवं पाठ्य-वस्तु का चयन करने के लिए, परीक्षण तथा मापन के लिए तथा शिक्षकों की योग्यताओं के आधार पर उनका श्रेणीकरण करने के लिए निरीक्षण का अत्यधिक महत्व है। इस प्रकार निरीक्षण के प्रत्यय का उद्भव इंग्लैण्ड में हुआ जो आगे चलकर पर्यवेक्षण के स्वरूप में परिवर्तित होता चला गया।
भारतवर्ष में पर्यवेक्षण का प्रादुर्भाव- भारतवर्ष में पर्यवेक्षण का प्रारम्भ पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली का अनुकरण करने के परिणामस्वरूप ही हुआ। भारतवर्ष में वुड डिस्पैच (Wood Despatch) की संस्तुतियों के फलस्वरूप प्रत्येक प्रान्त में शिक्षा मण्डलों तथा निरीक्षण मण्डलों की स्थापना की गयी। पर्यवेक्षण के सन्दर्भ में वुड डिस्पैच की संस्तुति अत्यधिक महत्वपूर्ण है। “हमारी शिक्षा प्रणाली का भविष्य में अत्यावश्यक अंग निरीक्षण प्रणाली का उचित स्वरूप होगा। हमारी इच्छा है कि सरकार द्वारा चलाए गए विद्यालयों तथा महाविद्यालयों में निरीक्षकों की पर्याप्त संख्या में नियुक्ति की जाए जो समय-समय पर इन विद्यालयों की गतिविधियों की व्याख्या भी प्रस्तुत कर सकेंगे। ये निरीक्षक इन विद्यालयों में परीक्षा सम्बन्धी कार्यों में भी सहायता करेंगे।” इन सुझावों का परिणाम यह हुआ कि शिक्षण कार्य की गुणात्मकता को परखने के लिए एवं विद्यालय को दिए गए अनुदानों का उचित प्रयोग परखने के लिए निरीक्षकों की नियुक्ति की गयी। निरीक्षकों के अधिकारों में भी कुछ वृद्धि की गयी, जिसके परिणामस्वरूप निरीक्षक शिक्षण संस्थाओं में आतंक भी उत्पन्न करने लगे। वास्तव में, यह समय भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम का था तथा निरीक्षकों को अधिक अधिकारों को देने का आशय तत्कालीन राष्ट्रीय भावनाओं को कुचलना था। सन् 1921 ई० में महात्मा गाँधी जी के नेतृत्व में असहयोग आन्दोलन हुए तथा पर्याप्त संख्या में राष्ट्रीय संस्थाएँ खोली गयीं। सन् 1919 ई० में “सैडलर-कमीशन” (Sadler Commission) की रिपोर्ट के अनुसार अधिकांश रूप में निरीक्षण द्रुतगति से किया जाता है, उसमें सौहार्दपूर्ण सुझावों का अभाव है। शिक्षण पद्धति तथा संगठन सुधार की ओर लेषमात्र भी ध्यान नहीं दिया जाता है, जो कि विद्यालयों के लिए अत्यावश्यक है।”
वास्तव में, इन आयोगों तथा समय-समय पर नियुक्त समितियों के प्रतिवेदनों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि भारत में सुयोग्य तथा प्रशिक्षित निरीक्षकों का सर्वथा अभाव है, जिसके कारण यहाँ की शिक्षा-व्यवस्था दूषित तथा प्रभाव शून्य है। इन प्रतिवेदनों का एक प्रभाव यह भी हुआ कि निरीक्षण के स्थान पर पर्यवेक्षण के महत्व को समझा जाने लगा। निरीक्षक के कार्यों में सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार को सम्मिलित किया जाने लगा। सन् 1934 ई० में अंग्रेजी सरकार द्वारा दो परामर्शदाताओं “Wood एवं Abbot” को भारतवर्ष के विद्यालयों का निरीक्षण करने के लिए भेजा गया। उनके कथन का … सारांश निरीक्षण के कार्य में सुधार रूप में स्वीकार किया जा सकता है। उनके अनुसार- “निरीक्षक का मुख्य कर्तव्य विद्यालयों का निरीक्षण करना है। इस कार्य को उसे सहानुभूतिपूर्वक करना चाहिए तथा अपने ज्ञान और अनुभव के आधार पर सलाह भी देनी चाहिए, जो शिक्षकों की सहायता करेगी और शिक्षक विद्यालयों को उन्नत तथा मानवीयता के गुणों से भरपूर बनाने का प्रयत्न करेंगे। निरीक्षक को स्वतन्त्र होना चाहिए, प्रशंसा एवं आलोचना करने में भी उसे स्वतन्त्र रहना चाहिए, परन्तु उसकी आलोचना शिक्षकों का उत्साहवर्द्धन करने के लिए होनी चाहिए, निन्दा करने के लिए नहीं।”
आचार्य नरेन्द्र देव द्वारा प्रस्तुत प्रतिवेदन में निरीक्षकों के कार्यों को अत्यधिक परम्परागत तथा मशीनवत् बताया गया तथा उसमें पर्याप्त सुधार करने के लिए सुझाव भी दिए गए। इसी क्रम में सन् 1952 में डॉ० ए० एस० मुदालियर जो ‘माध्यमिक शिक्षा आयोग’ के अध्यक्ष थे, उन्होंने भी अपनी रिपोर्ट में निरीक्षण की तत्कालीन स्थिति को शोचनीय बतलाते हुए कहा कि- “अनेक साक्षियों के आधार पर कहा जा सकता है कि निरीक्षण केवल नाम मात्र के हैं। निरीक्षक द्वारा किसी स्थान पर व्यतीत किया गया समय अपर्याप्त है, उसका अधिकांश समय प्रचलित एवं परम्परागत प्रशासन के कार्यों में ही व्यतीत होता है। “
‘माध्यमिक शिक्षा आयोग’ की सिफारिशों के आधार पर पर्यवेक्षक के महत्व को और अधिक स्वीकार किया गया। यह धारणा बनी कि शिक्षा संस्थाओं को उचित निर्देशन पर्यवेक्षक द्वारा ही दिया जा सकता है। पर्यवेक्षकों की गुणात्मकता तथा शक्ति में वृद्धि करने के प्रयास किए गए। निरीक्षक को विद्यालयों के प्रशासनिक कार्यों के प्रति पूर्णरूप से उत्तरदायी स्वीकार किया गया। “माध्यमिक शिक्षा आयोग” की प्रमुख संस्तुतियाँ (Recommendations) इस प्रकार थीं-
- जो निरीक्षक नियुक्त हों, उन्हें शैक्षिक तथा प्रशासनिक दोनों प्रकार के कार्यों का निरीक्षण करने के अतिरिक्त विद्यालयों के हिसाब-किताब तथा कार्यालय से सम्बन्धित सभी मामलों का निरीक्षण करना चाहिए।
- मुख्य निरीक्षक के साथ विशिष्ट योग्यता प्राप्त टोली निरीक्षकों (Panel Inspectors) की नियुक्ति की जानी चाहिए, जिससे विद्यालय के शिक्षण कार्य का गहराई से निरीक्षण किया जा सके।
- कम से कम दस वर्षों के अनुभवी अध्यापकों, प्रधानाचार्यों तथा प्रशिक्षण महाविद्यालयों के सुप्रशिक्षित प्रवक्ताओं को निरीक्षण करने के लिए भेजा जाना चाहिए।
- निरीक्षकों का कर्त्तव्य विद्यालयों की उन्नति में सहयोग देना होना चाहिए।
- निरीक्षकों के साथ प्रशासनिक कर्त्तव्यों की देखभाल के लिए क्षमतायुक्त व्यक्तियों की नियुक्ति होनी चाहिए।
माध्यमिक शिक्षा आयोग की संस्तुतियों को भारतीय सरकार द्वारा स्वीकार किया गया। इसके साथ ही पर्यवेक्षण के महत्व पर दृष्टि रखते हुए भारतीय सरकार ने पर्यवेक्षण का गहन अध्ययन करने के लिए इस आयोग को पुनः प्रेरित किया। इसी उद्देश्य से सरकार द्वारा सीनियर सैकेण्डरी प्रोजेक्ट टीम की नियुक्ति की गयी। इस टीम में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के व्यक्तियों को भी सम्मिलित किया गया, जिनकी “प्रमुख संस्तुतियाँ” निम्नलिखित थीं-
- निरीक्षक का कर्त्तव्य निर्णय देने की अपेक्षा परामर्श देने का अधिक होना चाहिए।
- निरीक्षकों के लिए प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की जानी चाहिए।
- विद्यालयों को कुछ स्वतन्त्रता अधिक दी जानी चाहिए, जिससे प्रत्येक विद्यालय ऐसी उचित योजनाओं की व्यवस्था कर सके, जिसमें अध्यापक भाग ले सकें तथा विद्यालय के कार्यों में सहायता देने की योग्यता प्राप्त कर सकें।
- प्रशासन की भावना में शीघ्र परिवर्तन किया जाना चाहिए। निरीक्षकों के कर्त्तव्यों में नियमों तथा कानूनों तथा मशीनवत् कार्य प्रणाली की अपेक्षा मानवीय सम्बन्धों की ओर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए।
- निरीक्षण कार्य की क्षमता में वृद्धि करने के लिए निरीक्षकों को विशिष्ट प्रशिक्षण भी दिया जाना चाहिए।
- निरीक्षक के दैनिक प्रशासनिक कार्यों को किसी अन्य सहायक निरीक्षक को सौंप दिया जाना चाहिए।
उपुर्यक्त सभी संस्तुतियों’ का प्रभाव यह हुआ कि विद्यालयों में ‘निरीक्षण एवं पर्यवेक्षण’ की प्रक्रिया पर अधिकाधिक लगा। ‘निरीक्षण’ शब्द में व्याप्त भय तथा आशंका को दूर कर के परामर्श एवं सुझाव को अधिक महत्व दिया जाने लगा।
पर्यवेक्षण के सम्बन्ध में शिक्षा आयोग’ की संस्तुतियाँ (Recommendations of Education Commission) – शिक्षा आयोग की स्थापना भारतीय शिक्षा के क्षेत्र में ऐतिहासिक क्रान्ति के रूप में स्वीकार की जाती है। शिक्षा आयोग (1964-66) ने जहाँ शिक्षा के सम्बन्ध में विस्तृत प्रतिवेदन प्रस्तुत किए, वहाँ पर्यवेक्षण के सम्बन्ध में भी महत्वपूर्ण संस्तुतियाँ प्रकाशित कीं। आयोग की पर्यवेक्षण कार्य के सम्बन्ध में उपयोगी धारणा बनी। आयोग का मत था कि शैक्षिक सुधारों में वृद्धि करने के लिए सहानुभूतिपूर्ण एवं आदर्श पर्यवेक्षण प्रणाली की अत्यन्त आवश्यकता है। “
शिक्षा आयोग के अनुसार ‘पर्यवेक्षण’ को शैक्षिक सुधार के लिए महत्वपूर्ण साधन के रूप में स्वीकार किया गया। आयोग ने भारतवर्ष के समस्त राज्यों की शिक्षा का ध्यानपूर्वक अवलोकन किया एवं शिक्षा के गिरते हुए स्तर के लिए ‘पर्यवेक्षण में शिथिलता’ को सर्वप्रमुख कारण माना। ‘आयोग’ ने ‘पर्यवेक्षण में सुधार के लिए निम्नलिखित सुझाव भी प्रस्तुत किए-
1. ‘प्रशासन तथा पर्यवेक्षण’ दोनों कार्यों का भार एक ही अधिकारी पर है। इसका कुप्रभाव पर्यवेक्षण कार्य पर ही होता है, क्योंकि प्रशासनिक कार्यों में अधिक समय देने के कारण पर्यवेक्षण का महत्व-शून्म तथा प्रभावहीन हो जाता है।
2. पर्यवेक्षण की पुरानी पद्धतियाँ जो विकास की अपेक्षा नियन्त्रण को अधिक महत्व देती हैं, अब एक प्रचलित हैं।
3. आयोग का मत था कि संस्थाओं की संख्या में वृद्धि हुई है, परन्तु इसके अनुपात में निरीक्षकों की संख्या बहुत कम है। अतएव शैक्षिक स्तर को बनाए रखने के लिए इस अनुपात में सुधार किया जाना चाहिए।
4. निरीक्षण करने वाले कर्मचारियों में पर्याप्त कुशलता नहीं होती ।
5. निरीक्षकों को खण्ड विकास दल (Block Development Team) का भी सदस्य होना पड़ता है, जिससे वे गैर शैक्षिक कार्यों (Non-educational work) को करने के कारण पर्यवेक्षण कार्य में अधिक रुचि नहीं ले पाते।
आयोगों एवं समय-समय पर नियुक्त अनेक समितियों ने पर्यवेक्षण के सम्बन्ध में उपयोगी. सुझाव प्रस्तुत किए। इसका प्रभाव पर्यवेक्षण के महत्व को अधिकाधिक समझने में सहायक हुआ। पर्यवेक्षण के अन्तर्गत प्रचलित पुरानी पद्धतियों को समाप्त करके पर्यवेक्षण के कार्य में सुधार करने का अधिकाधिक प्रयास किया गया। पर्यवेक्षण का वर्तमान स्वरूप अधिक परिष्कृत तथा संशोधित है। इस स्वरूप का निर्धारण करने में पर्यवेक्षण सम्बन्धी अनेक सुझावों का प्रमुख हाथ है।
शैक्षिक पर्यवेक्षण का परम्परागत प्रत्यय (Traditional Concept of Educational Supervision)
‘शैक्षिक प्रशासन’ का स्वरूप हमेशा से एक ही स्थिति में नहीं रह सका। आज तो पर्यवेक्षण का प्रत्यय पर्याप्त आधुनिक परिष्कृत एवं महत्वपूर्ण दिखाई पड़ता है, किन्तु पूर्व समय में पर्यवेक्षण का परम्परागत रूप अत्यन्त संकीर्ण, सुझाव-रहित तथा अधिकारिक (Authoritative) था। इस प्रकार के प्रत्यय से सम्बन्धित कुछ बातों का उल्लेख करना आवश्यक है।
परम्परागत प्रत्यय (Traditional concept) – शैक्षिक पर्यवेक्षण के प्राचीन रूप को ही परम्परागत प्रत्यय के अन्तर्गत प्रस्तुत किया जा सकता है। वास्तव में, यह ‘पर्यवेक्षण’ निरीक्षण ही अधिक था। सरकार द्वारा नियुक्त निरीक्षक एक साधारण व्यक्ति होता था, जिसका मुख्य कर्त्तव्य सरकार द्वारा दिए गए अनुदानों का निरीक्षण करना था। निरीक्षक के प्राचीन एवं परम्परागत विचारों के अनुसार ही शिक्षा का कार्य संचालित करना होता था। निरीक्षण कार्य में शासक तथा शासित भावना प्रबल होती थी। निरीक्षक का ध्यान शिक्षक की त्रुटियों को खोजने की ओर होता था, छात्रों के विकास कार्य के प्रति उसका लगाव नहीं होता था। वास्तव . यह स्थिति केवल भारतवर्ष में ही नहीं वरन् विश्व के सभी देशों में व्याप्त थी। आई तथा नेटजर’ (Eye & Netzer) ने इस परम्परागत निरीक्षण के विषय में अपना मत प्रकट करते हुए कहा है कि, “निरीक्षण का मुख्य सम्बन्ध विद्यालय प्रशासन तथा निर्धारित पाठ्यक्रम के अनुसार आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सभाएँ करने से अधिक होता था। शिक्षण सामग्री की उन्नति से इसका कोई सम्बन्ध नहीं था।”
परम्परागत शैक्षिक पर्यवेक्षण के दोष (Demerits of Traditional Educational Supervision)
परम्परागत पर्यवेक्षण में केवल दोष ही अधिक थे। इसके अन्तर्गत निरीक्षक अपनी तानाशाही प्रवृत्ति को अपनाकर शिक्षण संस्थाओं में द्रुतगति से कार्य कराते थे और अपने मिथ्या अहं की सन्तुष्टि करके ही निरीक्षक के उत्तरदायित्व को पूरा करना समझते थे। इस प्रकार के पर्यवेक्षण के दोषों का संक्षेप में इस प्रकार उल्लेख किया जा सकता है-
- शिक्षाधिकारियों का ध्यान शासन भावना की ओर अधिक तथा छात्रों की सीखने की प्रवृत्ति में वृद्धि करने की ओर कम होता था।
- शिक्षकों को परम्परागत शिक्षा प्रणाली को अपनाने के लिए विवश किया जाता था तथा उन्हें नवीन सुझावों तथा सुधारों से वंचित ही रखा जाता था।
- शिक्षकों को शैक्षिक कार्यों में पहल करने के लिए किसी प्रकार की प्रेरणा नहीं दी जाती थी।
- इस प्रकार के परम्परागत निरीक्षण में सर्वत्र अपर्याप्तता, असुरक्षा, निराशा तथा आशंका व्याप्त होती थी। वस्तुतः, यह दशा मानसिक स्वास्थ्य के सिद्धान्तों के प्रतिकूल थी।
- इस प्रकार के पर्यवेक्षण में निरीक्षकों द्वारा शिक्षकों के छिद्रान्वेषण कार्य को ही अधिक महत्व दिया जाता था।
- इस प्रकार का पर्यवेक्षण शिक्षकों के रचनात्मक कार्यों के प्रति अनुदार दृष्टिकोण रखता था तथा उनके व्यक्तित्व तथा व्यवसाय के विकास में रुचि नहीं रखता था।
- पुरम्परागत पर्यवेक्षण में जनतान्त्रिक सिद्धान्तों का उल्लंघन किया जाता था।
- प्राचीन विचारों से पोषित निरीक्षकों के रूढ़िगत विचारों से शिक्षा प्रक्रिया प्रभावित होती थी, जिसमें विकास की जाता था। प्रक्रिया प्रायः सुप्त ही रहती थी।
- परम्परागत पर्यवेक्षण का कुप्रभाव शिक्षकों को सम्मान भावना पर आघात करने वाला था।
- परम्परागते निरीक्षण की व्यवस्था मानवीय सम्बन्धों की श्रेष्ठता में बाधक होती थी।
- परम्परागत पर्यवेक्षण के अन्तर्गत शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम, शिशु मनोविज्ञान आदि की पूर्ण अवहेलना की जाती थी।
- परम्परागत शैक्षिक पर्यवेक्षण में स्वतन्त्रता, अप्रदर्शिता तथा मौलिकता के सिद्धान्तों का हनन करके अनेक स्थान पर दमन, नियन्त्रण तथा मानसिक दासता की नीतियों को अधिक रूप में अपनाया जाता था।
व्यापक दृष्टिकोण का प्रारम्भ (Beginning of Broad outlook)–परम्परागत पर्यवेक्षण के दोषों की ओर धीरे-धीरे जनता एवं शिक्षाविदों का ध्यान आकर्षित होता गया। शैक्षिक सुधार, छात्र व्यक्तित्व विकास, शिक्षक एवं शिक्षण कार्य में सुधार करने के लिए योजनाएँ बनाई जाने लगीं। पर्यवेक्षण को शिक्षा का विकास करने वाली प्रक्रिया समझा जाने लगा एवं शिक्षकों को शिक्षणकला में दक्ष बनाने के सम्बन्ध में विचार किया जाने लगा। इस सम्बन्ध में जॉन ए० बार्टकी (John A. Bartky) ने सुझाव दिया, “क्योंकि सम्पूर्ण पर्यवेक्षण ही प्रकृतिवश शिक्षण प्रक्रिया से सम्बन्धित है। अतएव पर्यवेक्षण 1411 को भी शिक्षकों का शिक्षक समझा जाना चाहिए।
इन सभी सुधारों एवं सुझावों का स्वागत करने के उपरान्त भी अभी तक शैक्षिक पर्यवेक्षण का क्षेत्र उन्नत नहीं हो इसका मुख्य कारण चैकित्सिक साधनों (Remedial Treatment) का अभाव था। पर्यवेक्षक के अभावों की पाया था। खोज तो हो चुकी थी अर्थात रोग का निदान (Diagnosis) तो हो गया था, किन्तु उसमें सुधार किस प्रकार किया जाए, अभी इस ओर ध्यान नहीं गया था। निरीक्षक के अधिकारों में कमी करने की धारणा अवश्य बनी थी, किन्तु अभी तक निरीक्षक का कार्य शिक्षकों तथा प्रधानाचार्यों के कार्यों की देखभाल करना ही अधिक समझा जाता था, परन्तु कालान्तर में इस यथास्थिति (Status quo) को भंग किया गया। विश्व के सभी देशों में पर्यवेक्षण के रूप में नवीनता तथा आधुनिकता लाने के लिए भरपूर प्रयास किया जाने लगा।
शैक्षिक पर्यवेक्षण का आधुनिक प्रत्यय (Modern Concept of Educational Supervision)
शैक्षिक पर्यवेक्षण के आधुनिक प्रत्यय में सहयोग भावना एवं सामूहिक प्रयास को अधिक महत्व दिया जाता है। कि केवल भारतवर्ष में ही नहीं, अपितु ग्रेट ब्रिटेन, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, आदि देशों में शिक्षा के क्षेत्र में अनेक सुधार हुए। इन सुधारों में पर्यवेक्षण के क्षेत्र में भी आशाजनक सुधार करने पर ध्यान आकर्षित किया गया। इन सुधारों की आवश्यकता भी परिस्थितिवश ही प्रतीत हुई, जैसे- भारतवर्ष की स्वतन्त्रता प्राप्ति के साथ-साथ शैक्षिक सुविधाओं में भी विस्तार किया गया। छात्र संख्या में भी वृद्धि हुई तथा शिक्षा के प्रति जन-जागरण भी अधिक होने लगा। सरकारी सहायता से विद्यालय भवनों का निर्माण किया गया तथा शिक्षकों की नियुक्ति में भी वृद्धि की गयी। शिक्षा के क्षेत्र में पाठ्यक्रम, शिक्षा के उद्देश्य एवं शिक्षक प्रशिक्षण को भी विकसित किया गया। इन सभी बातों का प्रभाव यह हुआ कि वर्तमान युग में शैक्षिक प्रशासन तथा पर्यवेक्षण को एक ऐसी प्रक्रिया समझा जाने लगा, जो विद्यालयों की दशा को उत्तम बनाने में हो सकती है।
शिक्षा के प्रमुख आधारों में समाजशास्त्रीय आधार को मुख्य रूप में स्वीकार किया जाता है। इसी विचार के अनुसार शिक्षा को सामाजिक परिवर्तन का साधन भी माना गया है। बालकों के सर्वांगीण विकास में अध्यापक, प्रधानाचार्य तथा विद्यालय का प्रमुख हाथ होता है। अनेक विचार गोष्ठियों के फलस्वरूप पर्यवेक्षण का कार्य विद्यालय की उन्नति में निश्चित रूप से सहायक होता है। शिक्षाशास्त्रियों तथा उच्च कोटि के विचारकों ने पर्यवेक्षण के सम्बन्ध में नये ढंग से विचार करना प्रारम्भ किया। पर्यवेक्षण को प्रधानाचार्य तथा अध्यापकों के मिले-जुले प्रयास का परिणाम ही अधिक समझा जाने लगा। सन् 1956 में मद्रास में प्रधानाचार्यों की एक मुख्य गोष्ठी में पर्यवेक्षण पर गम्भीर विचार करते हुए यह मत स्पष्ट किया गया कि प्रभावशाली पर्यवेक्षण के अन्तर्गत छिद्रान्वेषण की अपेक्षा निर्देशन देना अधिक होता है, उसमें रचनात्मक सुझावों को अधिक महत्व दिया जाता है, प्रधानाचार्य का आदर्श तथा अनुकरणीय चरित्र ही अध्यापकों को प्रभावित करने में अत्यधिक सक्षम सिद्ध हो सकता है।
शैक्षिक पर्यवेक्षण के आधुनिक प्रत्यय का मूल उद्देश्य शिक्षक की सहायता करना ही है। इसके अतिरिक्त कक्षा भवन का पर्यवेक्षण, पाठ्यक्रम विस्तार, मूल्यांकन एवं परीक्षा, बालक का मनोवैज्ञानिक अध्ययन आदि कार्यों में सुधार करना भी वर्तमान पर्यवेक्षण का प्रमुख कार्य है। आधुनिक प्रत्यय की सर्वाधिक विशेषता ‘सहयोग की भावना है। इस सम्बन्ध में एन० सी० ई० आर० टी० दिल्ली (1966) की एक रिपोर्ट में भी संकेत किया गया है—“पर्यवेक्षण एक सहयोगात्मक कार्य है, जिसमें शिक्षक तथा निरीक्षक दोनों सक्रिय होकर भाग लेते हैं।”
पर्यवेक्षण के वर्तमान स्वरूप का निर्माण करने में ‘शिक्षा आयोग’ का मत भी सहायक सिद्ध हुआ। आयोग का मत था, ‘पर्यवेक्षण शिक्षकों की वैयक्तिक योग्यताओं की अभिवृद्धि में सहायक होता है। यह एक ऐसी विशिष्ट सेवा है जो उन्हें छात्रों को समझने तथा छात्रों का चहुंमुखी विकास करने में सहायता करती है। वास्तव में, शैक्षिक पर्यवेक्षण का आधुनिक प्रत्यय शिक्षण सामग्री की उन्नति करने की प्रक्रिया से ही प्रारम्भ होता है एवं इसके अन्तर्गत शिक्षकों को कार्यक्षमता की अभिवृद्धि की ओर अधिकाधिक ध्यान आकर्षित किया जाता है। आधुनिक शैक्षिक पर्यवेक्षण की कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं, जिन्हें स्पष्ट करना आवश्यक प्रतीत होता है।
आधुनिक पर्यवेक्षण की विशेषताएँ (Characteristics of Modern Supervision)
आधुनिक पर्यवेक्षण की विशेषताएँ जनतान्त्रिक प्रणाली के अनुकूल हैं। इस प्रकार के पर्यवेक्षण द्वारा छात्रों का एवं अध्यापकों के व्यक्तित्व का अधिक विकास किया जा सकता है। कुछ विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. अधिक जनतान्त्रिक तथा प्रवृत्यात्मक (More democratic and attitudinal) – जनतन्त्र के मुख्य सिद्धान्त “समानता, स्वतन्त्रता, भ्रातृभाव” आदि हैं। आधुनिक पर्यवेक्षण में समानता एवं स्वतन्त्रता के अवसर प्रदान किए जाते हैं। वास्तव में, यह पर्यवेक्षण भयमुक्त तथा आशंका-युक्त होता है। इसके अन्तर्गत पर्यवेक्षक का रूप भयावह तथा आतंकवादी न होकर सौहार्दपूर्ण अधिक होता है। यह पर्यवेक्षण आधुनिक प्रवृत्तियों पर आधारित है। विद्यालय को आजकल एक लघु समाज’ कहा जाता है। विद्यालय रूपी समाज में जनतन्त्रात्मक प्रणाली के अनुरूप ही शिक्षा के उद्देश्यों एवं शिक्षण विधियों को अपनाया जाना चाहिए। आधुनिक पर्यवेक्षण इन सभी बातों की ओर ध्यान आकर्षित करता है, यथा-संरक्षकों तथा छात्रों की आवश्यकतानुसार शिक्षा का प्रबन्ध करना, छात्रों की विभिन्न प्रवृत्तियों का अधिकाधिक विकास करना, पर्यवेक्षक के स्वस्थ दृष्टिकोण के अनुकूल शिक्षण विधि में परिवर्तन करना, आदि की ओर आधुनिक पर्यवेक्षण सजग रहता है। आधुनिक पर्यवेक्षण में सहयोगात्मक भावना व्याप्त होने के कारण छात्रों तथा शिक्षकों को अपनी विभिन्न प्रवृत्तियों को उचित रूप में विकसित करने के पर्याप्त अवसर प्रदान किए जाते हैं।
2. रचनात्मक (Constructive) – आधुनिक पर्यवेक्षण का किसी एक ही व्यक्ति के आदेश पर संचालन नहीं किया जाता है। इस प्रकार के पर्यवेक्षण में सुधार पर ध्यान दिया जाता है जिसके लिए सभी सम्बन्धित व्यक्तियों का परामर्श लिया जाता है, उनकी मौलिकता तथा रचनात्मकता को विकसित करने के लिए स्वतन्त्रता प्रदान की जाती है। शिक्षण विधि एवं शिक्षण सामग्री में नवीन प्रयोगों को करने के लिए शिक्षकों को उत्साहित किया जाता है। शिक्षकों की अन्तर्निहित क्षमताओं का विकास करने के लिए आधुनिक पर्यवेक्षण पूर्ण सहयोग प्रदान करता है।
3. सहयोगात्मक (Cooperative) – आधुनिक पर्यवेक्षण में सहयोग भावना पर अधिक बल दिया जाता है। इसके अन्तर्गत शिक्षक एवं प्रधानाचार्य तथा अन्य पर्यवेक्षक मिल-जुल कर समस्या का समाधान करते हैं। इस प्रक्रिया से कार्यकर्ताओं के आत्म-विश्वास में वृद्धि होती है। पर्यवेक्षक द्वारा शिक्षकों को सहयोग देने के लिए उत्साहित किया जाता है।
4. वैज्ञानिक विधि (Scientific Method)- आधुनिक पर्यवेक्षण प्राचीन तथा परम्परागत विधियों में विश्वास नहीं रखता। इसके अन्तर्गत जो विधि या नवीन पद्धति अपनाई जाती है, वह पूर्णतया परीक्षित या विश्वसनीय होती है। आधुनिक पर्यवेक्षण में वैज्ञानिक विधि को अपनाया जाता है। इस पर्यवेक्षण के विभिन्न कार्यक्रमों में समस्या का चयन, तथ्यों का • संकलन तथा वर्गीकरण, सम्भावित विधियों का चयन, परिकल्पना का निर्माण, व्याख्या तथा सामान्यीकरण आदि वैज्ञानिक विधियों के सोपानों पर अधिक ध्यान दिया जाता है। आधुनिक पर्यवेक्षण के किसी भी कार्य में शीघ्रता नहीं की जाती, अपितु प्रत्येक कार्य में गम्भीर विचार तथा गहन परीक्षण को अपनाया जाता है।
5. वस्तुनिष्ठ तथा प्रभावपूर्ण (Objective and more effective) – आधुनिक पर्यवेक्षण के समस्त कार्यक्रमों में वैज्ञानिक पद्धति को अपनाया जाता है। इसलिए इस पर्यवेक्षण के कार्यक्रमों में अधिक वस्तुनिष्ठता एवं विश्वसनीयता होती है। सभी व्यक्तियों का आधुनिक पर्यवेक्षण के प्रति अधिक लगाव तथा अपनापन होता है। यह पर्यवेक्षण छात्रों तथा शिक्षकों के हृदय पर शीघ्र तथा स्थायी प्रभाव डालता है। विचार स्वतन्त्रता, सहयोग, समन्वय, रचनात्मकता आदि गुणों के कारण भी आधुनिक पर्यवेक्षण अधिक प्रभावकारी होता है।
6. ‘शिक्षक सेवा’ पर आधारित (Based on Teacher Service) – आधुनिक पर्यवेक्षण का मुख्य उद्देश्य शिक्षकों का केवल मूल्यांकन करना नहीं, अपितु शिक्षकों की सेवा करना है। इस पर्यवेक्षण में सेवा भावना तथा भ्रातृभावना पर अधिक ध्यान दिया जाता है। ‘बार, बर्टन एवं बुकनर ने पर्यवेक्षण को एक कुशल तकनीकी सेवा के रूप में इस प्रकार स्वीकार किया है—“पर्यवेक्षण एक विशिष्ट तकनीकी सेवा है, जिसका मुख्य सम्बन्ध शिक्षा की दशाओं का अध्ययन करने और उनमें उन्नति करने से है।”
इसी प्रकार एच० आर० डगलस ने भी “पर्यवेक्षण को शिक्षकों को व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप में उत्साहित करने, समायोजित करने तथा निर्देशित करने की प्रक्रिया माना है।” आधुनिक पर्यवेक्षण को शिक्षण सेवा के लिए महत्वपूर्ण समझा जाता है।
7. ‘नेतृत्व’ शक्ति विकास में सहायक (Encouraging for the Development of Leadership) – आधुनिक पर्यवेक्षण दमननीति से दूर होता है। इसीलिए यह पर्यवेक्षण शिक्षकों एवं छात्रों की नेतृत्व शक्ति के विकास में सहायक होता है। मुख्य पर्यवेक्षक अपनी सहायता के लिए अन्य सहायक पर्यवेक्षकों की नियुक्ति करता है, जिससे अन्य व्यक्तियों के व्यक्तित्व का भी विकास होता है। विद्यालयों में उपप्रधानाचार्य, क्रीड़ास्थल, पुस्तकालयाध्यक्ष, पाठ्येत्तर विभिन्न कार्यक्रमों, ‘वाद-विवाद, संगीत एवं नाटक’ आदि के अध्यक्ष नियुक्त किए जाते हैं। इन कार्यक्रमों का संचालन सभी व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुकूल स्वतन्त्र वातावरण में करते हैं, जिससे उन्हें नेतृत्व शक्ति को विकसित करने का प्रशिक्षण भी मिलता है। छात्रों को भी अनेक कार्यों के प्रति उत्तरदायी बनाकर उन्हें नेतृत्व का प्रशिक्षण दिया जाता है। इस प्रकार आधुनिक पर्यवेक्षण नेतृत्व शक्ति के विकास में पूर्णरूपेण सहायक होता है।
8. नवीन विधि अनुसन्धान एवं उपागम हेतु सहायक (Helpful in New Method, Research and Approaches) – आधुनिक पर्यवेक्षण की विधियाँ परम्परागत पर्यवेक्षण की विधियों से सर्वथा पृथक् हैं। इसमें आकस्मिक निरीक्षण, छिद्रान्वेषण, व्यक्तित्व प्रदर्शन के स्थान पर अनौपचारिक निरीक्षण, परामर्श एवं शिक्षक-सम्मान को अधिक उत्साहित किया जाता है। पर्यवेक्षण आज ‘चोर-सिपाही’ के खेल जैसा न होकर सहयोगी, आशंकारहित एवं सिखाने वाला अधिक होता है। पर्यवेक्षण के कार्य को उन्नत बनाने के लिए विभिन्न प्रणालियों को अपनाया जाता है, जिनमें कार्यशाला (Workshop), अध्ययन समूह (Study group), सम्मेलन (Conferences), क्रियात्मक अनुसन्धान (Action research) आदि की ओर अधिक ध्यान दिया जाता है। पर्यवेक्षण में सुधार करने के लिए जो अनुसन्धान किए जाते हैं, उन्हें प्रोत्साहन दिया जाता है तथा उनके निष्कर्षों को अपनाने का प्रयास किया जाता है। विज्ञान एवं तकनीकी द्वारा आविष्कृत नवीन उपागमों (Approaches) को भी आधुनिक पर्यवेक्षण में महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है। इन सभी नवीन प्रयोगों एवं उपागमों को अपनाकर आधुनिक पर्यवेक्षण के शिक्षा स्तर को ऊपर उठाने के लिए अधिकाधिक उपयोगी बनाया जाता है। वस्तुतः, इस पर्यवेक्षण को अधिक प्रविधियुक्त (More technical) कहा जा सकता है। शिक्षण कौशल की वृद्धि में विभिन्न तकनीकियों के निरन्तर प्रयोग में आधुनिक पर्यवेक्षण विश्वास रखता है। आधुनिक पर्यवेक्षण यह मानकर ही अधिक परिश्रम करता है कि शिक्षण कार्य (Task of Teaching) इतना सुलभ नहीं है, जिसे साधारण योग्यता वाले व्यक्ति भी आसानी से कर सकते हैं। योग्यतम तथा प्रभावशाली शिक्षक बनाने में आधुनिक पर्यवेक्षण पूर्णरूपेण सहायक होता है।
9. समस्या समाधान हेतु अधिक जागरूक (More Conscious for problem Solving) – आधुनिक पर्यवेक्षण समस्या समाधान के प्रति सुप्त ( Problem Blind) कदापि नहीं होता। ‘शिक्षण प्रक्रिया, शिक्षण कौशल, शिक्षण सुविधा, छात्र विकास के मार्ग में उपस्थित कठिनाइयों का शीघ्र निवारण करने के लिए आधुनिक पर्यवेक्षण सदैव तत्पर रहता है। समस्या समाधान के लिए सभी सम्बन्धित व्यक्तियों का परामर्श लेकर आधुनिक पर्यवेक्षण में जनतान्त्रिक प्रणाली से कार्य किया जाता है। पर्यवेक्षक जानबूझकर भी कुछ मुख्य समस्याओं को शिक्षकों के सम्मुख प्रस्तुत करते हैं, जिससे उनकी रचनात्मक योग्यताओं का अधिकाधिक लाभ उठाया जा सकता है। सारांश यह है कि समस्त शैक्षिक कार्यक्रमों में उत्तम दशा उत्पन्न करने के प्रमुख उत्तरदायित्व का आधुनिक पर्यवेक्षण द्वारा कुशलतापूर्वक निर्वाह किया जाता है।
10. अधिकाधिक अधिकारी तथा समन्वयकारी (More integrative and Coordinative) – आधुनिक पर्यवेक्षण का अकेला होकर कार्य करने की प्रणाली में विश्वास नहीं है। शैक्षिक उन्नति के लिए सभी व्यक्तियों तथा सभी स्थान से सहायता प्राप्त करने, कन्धे से कन्धा भिड़ाकर कार्य करने एवं उपयोगी व्यक्तियों को एक साथ जोड़ने के लिए आधुनिक पर्यवेक्षण अद्भुत प्रयास करता है। एक विद्यालय की गतिविधियों से दूसरे विद्याल का सम्बन्ध जोड़ने तथा सामूहिक रूप में कार्यक्रमों का आयोजन करने का भी प्रयास किया जाता है। शिक्षक तथा छात्र एक दूसरे के गुणों से प्रभावित होकर अपना शैक्षिक स्तर ऊँचा उठा सकें, इसके लिए आधुनिक पर्यवेक्षण अधिक जागरूक तथा प्रयत्नशील रहता है।
परम्परागत तथा आधुनिक पर्यवेक्षण का संक्षेप में अन्तर (Difference between Traditional and Modern Supervision)
परम्परागत (Traditional) | आधुनिक (Modern) |
1. शिक्षककेन्द्रित अधिक। | 1. शिक्षण, शैक्षिक सामग्री, विधि, छात्र, मूल्यांकनकेन्द्रित । |
2. आलोचना की प्रचुरता तथा सुधारात्मक नहीं। | 2. सुझावात्मक, सहयोगात्मक एवं शिक्षक के लिए अधिक प्रोत्साहन । |
3. समस्याओं के प्रति अनास्था । | 3. समस्या समाधान हेतु जागरूक । |
4. प्राचीन तथा विकास शून्य कार्यक्रमों में विश्वास। | 4. नवीन उपागमों तथा अनुसंधानों को प्रोत्साहन तथा पर्यवेक्षण विधि को आधुनिकतम बनाने का प्रयास। |
5. अधिक स्थिर एवं प्रभावशून्य । | 5. पर्याप्त शिथिल, रचनात्मक, मौलिक एवं प्रभावयुक्त । |
6. केवल निरीक्षण पर आधारित । | 6. अध्ययन, विश्लेषण सेवा पर आधारित । |
7. आकस्मिक निरीक्षण में विश्वास। | 7. सुनिश्चित तथा अनौपचारिक पर्यवेक्षण की योजना। |
8. अनियमित, अव्यवस्थित एवं योजना रहित । | 8. निश्चित, व्यवस्थित तथा योजनाबद्ध । |
9. अधिकारिक तथा तनावपूर्ण । | 9. जनतान्त्रिक, शंकामुक्त एवं तनाव रहित । |
10. अनिश्चित एवं आत्मनिष्ठ । | 10. सुनिश्चित, विश्वसनीय तथा वस्तुनिष्ठ । |
11. केवल प्रशासन से सम्बन्धित । | 11. प्रशासन के अतिरिक्त समुदाय से भी सम्बन्धित । |
12. केवल निरीक्षक द्वारा निर्देशित। | 12. पर्यवेक्षक, शिक्षक एवं छात्रों के मिले-जुले प्रभाव से युक्त। |
वस्तुतः, परम्परागत एवं आधुनिक पर्यवेक्षण में एक महत्वपूर्ण अन्तर यह भी है कि परम्परागत पर्यवेक्षक का व्यक्तित्व में ही प्रधान होता है। अन्य कर्मचारी उसी के आदेशों की प्रतीक्षा करते हैं, किन्तु आधुनिक पर्यवेक्षण में शिक्षक प्रत्येक कार्य को करने के लिए आगे आते हैं एवं पर्यवेक्षक का व्यक्तित्व परामर्शदाता के रूप में पीछे होता है। ‘बार, बर्टन तथा ब्रुकनर’ का निम्नलिखित कथन आधुनिक पर्यवेक्षण की विशेषता की ओर ही संकेत करता है—”शिक्षकों की उन्नति करने में पर्यवेक्षकीय कार्य इतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना शिक्षकों की भूमिका महत्वपूर्ण है। पर्यवेक्षक तो शिक्षकों के कार्य में केवल भाग लेता है, शेष कार्य शिक्षकों को ही करना पड़ता है। “
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