स्त्री शिक्षा की आवश्यकता और महत्त्व का उल्लेख कीजिए। स्त्री शिक्षा के विकास के मार्ग में कौन-कौन सी समस्याएँ हैं ? विवेचन कीजिए। इस सम्बन्ध में कोठारी आयोग तथा भक्तवत्सलम कमेटी के सुझावों का उल्लेख कीजिए।
भारतवर्ष में प्राचीन काल में पुरुष एवं स्त्री दोनों को ही शिक्षा प्राप्त करने के समान अधिकार थे। स्त्रियाँ भी पुरुषों की भाँति गुरुकुलों में शिक्षा प्राप्त करती थीं। भारत पर मुसलमानों के आक्रमण तथा कालान्तर में मुसलमानों का ही भारत में शासक बन जाने के कारण इस काल में स्त्रियों का घर से बाहर निकलना कम होता गया तथा पर्दे में रहना और बाल विवाह जैसी प्रथाएँ प्रारम्भ हुई। इसके कारण स्त्रियों की शिक्षा में अवनति हुई।
मुगल काल में अंग्रेजों का भारत में आना आरम्भ हुआ तथा 1757 के प्लासी के युद्ध के बाद भारत में अंग्रेजों का शासन हो गया। अंग्रेजों का उद्देश्य भारतवासियों को गुलाम बनाकर रखना तथा अपने स्वार्थों को पूरा करना था। इसलिये उन्होंने भारतवासियों की शिक्षा की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया। ब्रिटिश काल में स्त्रियों की शिक्षा न के बराबर थी। जब 15 अगस्त, 1947 को भारत स्वतन्त्र हुआ, तब साक्षरता लगभग 15 प्रतिशत थी। स्त्रियों की साक्षरता का प्रतिशत इससे काफी कम था। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में लोकतान्त्रिक शासन पद्धति अपनायी गयी। स्वतन्त्र भारत सरकार ने देशवासियों के जीवन स्तर को ऊँचा उठाना अपना लक्ष्य रखा। लोकतन्त्र को सफल बनाना और जीवन स्तर को उन्नत बनाने के लक्ष्य को प्राप्त करना तभी सम्भव था, जब देश के नागरिक शिक्षित हों। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये भारत सरकार ने संविधान की धारा 45 के अनुरूप 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बालकों के लिये अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की। अतएव यह कहा जा सकता है कि स्वतंत्र भारत में स्त्रियों की शिक्षा महत्त्वपूर्ण है।
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स्त्री शिक्षा का महत्व (Importance of Women Education)
“एक लड़के की शिक्षा केवल एक व्यक्ति की शिक्षा है, किन्तु एक लड़की की शिक्षा सारे परिवार की शिक्षा है।” -जवाहरलाल नेहरू
श्रीमती हंसा मेहता के अनुसार, “यदि हमें नये आधार के समाज का निर्माण करना है तो स्त्रियों को वास्तविक और प्रभावपूर्ण ढंग से पुरुषों के समान अवसर देने होंगे।”
कोठारी आयोग 1964-66 ने भी लिखा है कि, “स्त्रियों की शिक्षा पुरुषों की शिक्षा से अधिक मत्वपूर्ण है। मानवीय साधनों के पूर्ण विकास के लिए घरों का सुधार तथा बच्चों के आवरण को बचपन की कोरी प्लेट के समय डालने के लिए स्त्री शिक्षा पुरुषों की शिक्षा से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है।”
इस वक्तव्य से स्त्री शिक्षा का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है। भारत में स्त्री शिक्षा की स्थिति हमेशा से ही शोचनीय रही है।
विश्वविद्यालय आयोग (1948-49) ने स्त्री शिक्षा का महत्व इस प्रकार बताया है-“स्त्री शिक्षा के विना लोग शिथिन नहीं हो सकते। यदि शिक्षा को पुरुषों अथवा स्त्रियों के लिए सीमित करना हो तो यह अवसर स्त्रियों को दिया जाए क्योंकि उन्हीं के माध्यम से भावी पीढ़ी को शिक्षा दी जा सकती है।”
“There can not be an educated people without educated women. If general education had to be limited to men or to women, that should be given to women, for then it would most surely be passed on to next generation.”
समाज के बहुमुखी विकास के लिए स्त्री शिक्षा ही सर्वाधिक उपयुक्त आधार है। स्त्रियों की शिक्षा जनसंख्या वृद्धि दर में कमी करने में भी काफी सहायक हो सकती है। घर की चार दीवारी के बाहर स्त्रियों का कार्य आज राष्ट्र के सामाजिक और आर्थिक जीवन का एक अंग बन गया है। इसका प्रभाव स्त्रियों के जीवन स्तर तथा कार्यक्षेत्र दोनों पर पड़ेगा। भारतीय पुरुष प्रधान समाज में नारी का स्थान गौण होने के कारण उसकी आर्थिक पराधीनता है। स्त्री शिक्षा उसे स्वावलम्बी बनाने तथा सामाजिक एवं पारिवारिक स्तर को उन्नत करने में सहायता कर सकती है।
स्त्री शिक्षा की समस्यायें (Problems of Women Education)
स्त्री शिक्षा को क्रियान्वित करने में अनेक समस्यायें हैं, जिनका वर्णन निम्न प्रकार है-
1. प्राथमिक शिक्षा (Primary Education) – बालिकाओं की प्राथमिक शिक्षा में भी उपयुक्त व आवश्यक कदम नहीं उठाये जा रहे हैं, जैसे-लड़कियों के लिए पृथक् स्कूल खोजने के प्रयास एवं दूसरी ओर माता-पिता का सह-शिक्षा स्कूलों में अपनी लड़कियों को भेजने की आशंका
2. प्रशासनिक (Administrative) – स्त्री शिक्षा के क्रियान्वयन के लिए उचित प्रशासनिक व्यवस्था का अभाव है। अच्छे एवं पर्याप्त निरीक्षकों की कमी के कारण स्त्री शिक्षा का कुशल नियोजन नहीं हो पा रहा है। विभिन्न आयोगों ने स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में प्रशासनिक स्तर पर कम से कम उप निदेशक के पद की अनिवार्यता पर बल दिया है, परन्तु इस दिशा में उदासीन ही रहा है।
3. माध्यमिक शिक्षा (Secondary Education) – माध्यमिक स्तर पर विशेषकर लड़कियों के लिए उपयोगी पाठ्यक्रम के समायोजन में ऐसे विषयों का अभाव है, जिसमें उनकी रुचि व्यावहारिक रूप से उपयोगी हो
4. उच्च शिक्षा (Higher Education) – उच्च शिक्षा में अधिक लड़कियाँ अग्रसर हो रही हैं, परन्तु यह प्रगति सन्तोषजनक नहीं है, क्योंकि उच्च स्तर पर स्त्री शिक्षा के लिए सरकारी प्रोत्साहन की कमी है। अतः प्राथमिक व माध्यमिक स्तर पर स्त्री शिक्षा की गति धीमी होने के कारण उच्च शिक्षा पर भी इसका प्रभाव रहेगा।
5. सामाजिक समस्यायें (Social Problems) – स्त्री शिक्षा के सम्बन्ध में भारतीय समाज में अनेक दोषपूर्ण धारणायें हैं, जैसे-अधिक शिक्षित लड़की के लिए अधिक शिक्षित वर और अधिक शिक्षित वर के लिए अधिक दहेज की व्यवस्था। ऐसी बातें समाज में स्त्री शिक्षा के मार्ग में कठिन समस्यायें हैं।
6. नौकरी की समस्या (Problem of Employment)- भारत में करोड़ों युवक शिक्षा प्राप्त करके भी बेरोजगार हैं। वे रोजी-रोटी के लिए भटकते रहते हैं। वहाँ स्त्रियों को तो शिक्षा के तुरन्त बाद रोजगार मिल पाना कठिन है। शिक्षा काल में न ही ऐसे व्यावसायिक पाठ्यक्रम हैं, जो उसे आत्म-निर्भर बना सकें। ऐसी स्थिति में शिक्षा के प्रति स्त्रियों में आकर्षण का अभाव रहता है।
कोठारी आयोग के विचार (Views of Kothari Commission)
कोठारी आयोग ने अपनी रिपोर्ट में स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहन देने के लिए कुछ सुझाव दिये हैं, जिनका विवरण निम्न प्रकार है-
1. प्रभावशाली कार्यक्रम (Major Programme) – आयोग के अनुसार आने वाले वर्षों में नारी शिक्षा के लिए प्रभावशाली कार्यक्रम चलाये जाने चाहियें। नर-नारी शिक्षा के वर्तमान अन्तर को दूर किया जाना चाहिए।
2. पाठ्यक्रम (Curriculum)- हंसा मेहता समिति की सिफारिशों के आधार पर स्त्री शिक्षा के पाठ्यक्रम को विकसित किया जाये। गृहविज्ञान को वैकल्पिक विषयों में रखा जाये तथा उसे अनिवार्य न बनाया जाये। संगीत, कला, विज्ञान व गणित अध्यापक की सुविधाओं में वृद्धि की जाये। प्रौढ़ महिलाओं में साक्षरता लाने के लिए अलग संक्षिप्त पाठ्यक्रम का आयोजन किया जाना चाहिये।
3. अनुपात में कमी (Gap between Education of Men and Women) – माध्यमिक स्तर पर प्रयत्न करके लड़कों तथा लड़कियों का वर्तमान अनुपात 3 : 1 से 2 : 1 तक पहुँचाना चाहिए एवं उच्च शिक्षा स्तर पर लड़की लड़कों का अनुपात 1 : 4 है, वह भी शीघ्र ही 1: 3 होना चाहिए। इस कार्य के लिए छात्रवृत्तियाँ आदि की सुविधायें उदारतापूर्वक दी जानी चाहियें।
4. अनुसंधान (Research Facility) – विशेष रूप से महिलाओं की शिक्षा पर काम करने के लिए एक या दो विश्वविद्यालयों में अनुसंधान कार्यक्रम चलाये जाने चाहियें।
5. नौकरी की व्यवस्था (Employment of Women)- शिक्षित स्त्रियों के लिए अंश या पूर्णकालीन रोजगार की व्यवस्था पर बल दिया जाये।
भक्तवत्सलम कमेटी के सुझाव (Suggestions of Bhakatvatsalam Committee)
राष्ट्रीय शिक्षा परिषद् ने मद्रास राज्य के मुख्यमन्त्री श्री भक्तवत्सलम की अध्यक्षता में 1963 में एक समिति को नियुक्त किया, जिसने स्त्री शिक्षा के सम्बन्ध में विशेषकर ग्रामीण क्षेत्र में जनता के असहयोग के कारणों की जाँच की तथा निम्नलिखित सिफारिशें कीं-
1. जनता के सहयोग के क्षेत्र (Areas for the Co-operation of Masses) – लोगों के सहयोग द्वारा प्राइवेट स्कूलों को प्रोत्साहन देना, श्रमदान द्वारा स्कूल भवन निर्माण एवं अध्यापकों के आवास में ग्रामीण जनता का सहयोग लेना एक अच्छा कदम होगा। लड़कियों की शिक्षा के प्रति विरोध की भावना को समाप्त करने के लिए अध्यापक जनता का सहयोग ले सकते हैं। स्कूलों में मिड-डे-मील (Mid Day Meal) की व्यवस्था होनी चाहिए।
2. स्त्री शिक्षा परिषद् (Women Education Council) – समाज में स्त्री शिक्षा को समुचित नेतृत्व देने के लिए स्त्री-शिक्षा परिषद् की स्थापना होनी चाहिए। महिला मण्डल जैसी संस्थायें भी गाँवों और शहरों में स्त्री शिक्षा का प्रचार करने में उपयोगी सिद्ध होंगी।
3. स्कूलों का प्रसार (Expansion of Schools) – स्त्री शिक्षा के लिए राज्य सरकारों को प्रोत्साहन देने की जरूरत है। 300 से कम जनसंख्या वाले गाँवों में प्राथमिक स्कूल, 1,500 तक व इससे अधिक जनसंख्या वाले गाँवों में मिडिल स्कूल स्थापित करने चाहियें।
4. प्रचार कार्यक्रम (Publicity Programmes) – राज्य सरकारों गोष्ठी आयोजन, रेडियो व दूरदर्शन जैसे संचार माध्यमों का प्रयोग करना चाहिए।
5. पूर्व प्राथमिक स्कूल (Pre-Primary School) – ग्रामीण क्षेत्रों में पूर्व प्राथमिक कक्षाओं का भी आयोजन किया जाना चाहिए। इससे छोटी उम्र में ही बच्चों को स्कूल जाने की आदत पड़ेगी।
6. अध्यापिकाओं की नियुक्ति तथा भत्ते – सभी स्कूलों में पर्याप्त अध्यापिकाओं की नियुक्ति होनी चाहिए ताकि वे अध्यापन के साथ-साथ लड़कियों को अध्ययन के लिए प्रोत्साहित भी कर सकें। ऐसी अध्यापिकाओं को विशेष प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए तथा ग्रामीण और पहाड़ी तथा पिछड़े क्षेत्रों में कार्य करने वाली महिलाओं को विशेष भत्ते दिए जायें।
7. पाठ्यक्रम में सुधार (Improvement in Curriculum) – यद्यपि लड़के तथा लड़कियों के लिए पाठ्यक्रम एक जैसा ही हो, परन्तु ऐच्छिक विषयों में लड़कियों को व्यावहारिक चीजें सिखाने का प्रबन्ध होना चाहिए। उनमें अधिकाधिक क्रियात्मकता हो और व्यावसायिक रूप से आत्म-निर्भरता प्रदान करने वाले विषयों का समावेश होना चाहिए।
8. छात्रावासों की व्यवस्था ( Boarding Houses) – ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों के स्कूलों के साथ होस्टल सुविधा होनी चाहिए। इन छात्रावासों के लिए अधिकाधिक आर्थिक सहायता दी जानी चाहिए। इनमें निःशुल्क पुस्तकों की व्यवस्था करके ग्रामीण स्त्रियों को इनके प्रति और आकर्षित किया जा सकता है।
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