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निदानात्मक परीक्षण
हिन्द शिक्षण में कमजोर छात्रों की जानकारी उपलब्धियों एवं परीक्षा परिणामों से प्राप्त हो जाती है परन्तु इससे यह ज्ञात नहीं हो पाता है कि छात्रों की कमजोरियों के कारण क्या हैं अथवा उनकी अधिगम सम्बन्धी कठिनाइयाँ क्या हैं ? अतः हिन्दी में छात्रों की कठिनाइयों एवं कमजोरियों अथवा गलतियों की जानकारी प्राप्त करने के लिए जिन परीक्षाओं का प्रयोग किया जाता है, वे नैदानिक अथवा निदानात्मक परीक्षाएँ कहलाती हैं।
शिक्षा-शब्दकोश में निदानात्मक परीक्षण अथवा परीक्षा का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है, “निदानात्मक परीक्षण विशेष रूप से उपचारात्मक उपायों के लिए आधार के रूप में छात्रों की विशेष कमजोयों को सुनिश्चित करने के विचार से एक सीमित विषय-क्षेत्र अथवा सम्बन्धित उप-क्षेत्र में उपलब्धि के मापन के लिए एक परीक्षा है।”
निदानात्मक परीक्षण की विशेषताएँ
निदानात्मक परीक्षण की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
- निदानात्मक परीक्षण के द्वारा छात्रों के हिन्दी से सम्बन्धित कठिनाइयों या कमजोरियों का पता लगाया जाता है।
- यह परीक्षण निर्देशन, परामर्श एवं शिक्षण हेतु महत्त्वपूर्ण उपाय सुझाने में समर्थ है।
- छात्रों की वांछनीय एवं वास्तविक उपलब्धियों के मध्य दूरी को समाप्त कराने में सहायता करता है
- यह अच्छे निर्देशन, परामर्श एवं शिक्षण हेतु महत्त्वपूर्ण उपाय सुझाने में समर्थ है।
- इसके द्वारा हिन्दी की किसी विशेष समस्या या क्षेत्र में छात्रों की कठिनाई या कमजोरी का पता करने का प्रयास किया जाता है।
- इसमें समय-सीमा पूर्ण निर्धारित नहीं होती है।
- निदानात्मक परीक्षाओं में छात्रों को अंक नहीं दिये जाते हैं। इसमें यह जानने का प्रयास किया जाता है कि कौन-कौन से प्रश्न छात्रों ने हल नहीं किये हैं या किन प्रश्नों को हल करने में उन्होंने कठिनाई अनुभव की ।
- छात्रों की कमियों या कठिनाइयों को दूर करने के लिए उपचारात्मक शिक्षण की व्यवस्था कराने में सहायता देता है।
- ये परीक्षाएँ आवश्यकतानुसार एक से अधिक बार भी आयोजित की जा सकती हैं।
हिन्दी शिक्षण में निदान के स्तर
हिन्दी शिक्षण में निदान के निम्नलिखित स्तर हैं-
- समस्या या कठिनाई ग्रस्त छात्र की पहचान करना- सर्वप्रथम हिन्दी शिक्षण में समस्या या कठिनाई ग्रस्त छात्रों की पहचान की जाती है।
- कठिनाई की प्रकृति की जानकारी – तत्पश्चात् छात्रों द्वारा कृत त्रुटियों की प्रकृति की जानकारी की जाती है।
- समस्या या कठिनाई का कारण ज्ञात करना- छात्रों द्वारा कृत त्रुटियों की प्रकृति की जानकारी हो जाने के उपरान्त उनके कारणों का पता किया जाता है।
- उपचार करना- समस्या या कठिनाई के कारण ज्ञात हो जाने के उपरान्त उपचार किया जाता है। चूँकि उपचार के कोई नियम नहीं हैं, वह समस्या की प्रकृति पर निर्भर करता है।
हिन्दी शिक्षण में उपचारात्मक अध्यापन
वह अध्यापक जिसने छात्रों को उनके दोषों के सुधार के लिए इस प्रकार का शिक्षण दिया जिससे कि उनके दोषों के कारणों को जानकर उन्हें दूर करने का प्रयास किया जाय, उपचारात्मक अध्यापन कहलाता है।
वाचन में होने वाली भूलों का कोई एक कारण नहीं होता। कुछ छात्र ऐसे मन्द बुद्धि के होते हैं कि वाचन को शुद्धतापूर्वक शीघ्रता से नहीं कर पाते। अध्यापक ऐसे बालकों की बुद्धि तो नहीं बढ़ा सकता, परन्तु वह उनकी बौद्धिक क्षमता के अनुसार उपयुक्त शिक्षण देने की व्यवस्था कर सकता है। इन बालकों को व्यक्तिगत शिक्षण इस प्रकार दिया जाये कि उन्हें वाचन का अधिकाधिक समय मिले। कुछ छात्र स्वभाव से लजालु होते हैं। वे पूरी कक्षा में या कुछ छात्रों के समक्ष सस्वर वाचन करने से घबड़ाते हैं। कभी-कभी मौनवाचन तक में घबड़ाहट के कारण पाठ्यवस्तु का भाव ठीक प्रकार से ग्रहण नहीं कर पाते, ऐसे बालक मीनवाचन में अधिक समय लेते हैं।
ऐसे बालकों के साथ अधिक सहानुभूति और ढाँढस बँधाने की आवश्यकता है। कक्षा में बालकों की संख्या कम रखकर ही उन्हें उपयुक्त शिक्षा दी जा सकती है। अभ्यस्त होने पर उन्हें बड़ी कक्षाओं में लाया जा सकता है। वास्तव में ये बालक आत्मविश्वास खो बैठते हैं। इनमें आत्म-विश्वास पैदा करने की भारी आवश्यकता होती है। यदि कोई बालक इन्द्रिय दोष (जैसे जीभ, आँख या कान के दोष) से पीड़ित हो तो चिकित्सकों की सहायता लेकर उसके शिक्षण की व्यवस्था करना आवश्यक है, शरीर अस्वस्थ, रोगी, शीघ्र थकने वाले बच्चों को भी चिकित्सकों की सहायता लेकर शिक्षण देना चाहिए। वातावरण और संगति के दोषों को दूर करने पर भी पूरा-पूरा ध्यान देना आवश्यक है।
ध्यानपूर्वक देखा जाये तो पाठ्य पुस्तकों का चयन, पाठ्यवस्तु का क्रम और विभाजन, अशुद्ध उच्चारण का अभ्यास अध्यापक की असावधानी वाचन के अभ्यास के अभाव और दोष, सहायक सामग्री का अभाव, अध्यापक के व्यवहार में सहानुभूति की कमी, अध्यापक की अयोग्यता, व्यक्तिगत ध्यान का अभाव, अध्यापक का व्यवहार प्रिय न होना आदि बातें शिक्षण प्रणाली को दूषित करती हैं। इन कारणों पर ध्यान दिया जाय तो उपचारात्मक अध्यापन में अच्छी सफलता मिल सकती है।
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