मूल्यांकन का अर्थ स्पष्ट कीजिये। विद्यालयों में किसी छात्र की प्रगति के पूर्ण तथा सही मूल्यांकन को आप किस प्रकार सुनिश्चित कर सकते हैं ?
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मूल्यांकन का अर्थ (Meaning of Evaluation)
मूल्यांकन एक व्यापक एवं उद्देश्य केन्द्रित प्रक्रिया है। शिक्षा के क्षेत्र में इसका प्रमुख कार्य शिक्षा को उद्देश्य केन्द्रित बनाना है। इस प्रक्रिया के आधार पर व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व के विकास की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। इसे व्यक्ति के व्यवहार का तुलनात्मक अध्ययन करने वाली एक सुव्यवस्थित प्रणाली के रूप में स्वीकार किया जाता है।
यद्यपि ‘मूल्यांकन’ का शाब्दिक अर्थ है ‘मूल्य का अंकन’ करना, किन्तु इसकी धारणा अधिक विस्तृत है। रिंगस्टोन (Wringstone) के अनुसार, “मूल्यांकन एक सापेक्षित नया तकनीकी शब्द है, जो रूढ़िगत परीक्षाओं में निहित मापन की धारणा को अधिक व्यापकता प्रदान करता है।”
“Evaluation is a relatively new technical term, introduced to design a more comprehensive concept of measurement that is implied in conventional tests and examinations.”
क्वीलैन एवं हेन्ना (Kvillen and Hanna) ने मूल्यांकन की धारणा को पारिभाषित करते हुये कहा है, “यह बच्चे के सर्वांगीण विकास – शारीरिक, सामाजिक एवं बौद्धिक तथा उसकी रुचियों, अभिरुचियों एवं योग्यताओं का मापन है। “
“It is measurement of all-round growth of a child, including his physical, social and intellectual development, as well as his interests, aptitudes and abilities.”
उपर्युक्त कथनों से स्पष्ट है कि मूल्यांकन ऐसी प्रक्रिया है, जिसके द्वारा विद्यार्थी की केवल शैक्षिक उपलब्धियों का ही मापन नहीं होता, अपितु उसके सर्वांगीण विकास- शारीरिक, बौद्धिक शक्ति, सामाजिक योग्यताओं एवं क्षमताओं के विकास का भी मापन होता है। केवल इतना ही नहीं, बल्कि मूल्यांकन में विद्यार्थियों की रुचियों एवं अभिरुचियों के विकास का मापन भी शामिल हैं। भारतीय शिक्षा आयोग (Indian Education Commission-1946) ने मूल्यांकन की धारणा ने हैं की व्यापकता को प्रकट करते हुये कहा है, “अब इस बात पर सभी सहमत हैं कि मूल्यांकन एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है, समूची शिक्षा पद्धति का अभिन्न अंग है और शैक्षिक उद्देश्यों से पूर्णतया सम्बन्धित है। यह विद्यार्थी की अध्ययन-आदतों तथा अध्यापक की शिक्षण विधियों को प्रभावित करती है और इस प्रकार न केवल शैक्षिक उपलब्धि का मापन करती है, बल्कि उसका सुधार भी करती है।”
“It is now agreed that evaluation is a continuous process, is an integral part of the total system of education and is intimately related to education objectives. It exercises a great influence on the pupils study habits and the teacher’s method of instruction and thus helps not only to measure educational achievement but also a improve it.”
भारतीय शिक्षा आयोग (1964) द्वारा प्रस्तुत मूल्यांकन की व्यापक धारणा का यदि विश्लेषण किया जाये तो यह निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं-
- मूल्यांकन छात्रों के सर्वांगीण विकास का मापन करता है।
- मूल्यांकन की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। इस प्रक्रिया के चलते रहने से शिक्षा प्रणाली में अपेक्षित सुधार सम्भव हो सकते हैं।
- मूल्यांकन अध्यापक की योग्यताओं एवं उसके द्वारा अपनाई गई शिक्षण विधियों का मापन करता है।
- मूल्यांकन यह बताता है कि शिक्षा के उद्देश्य कहाँ तक प्राप्त हुये।
प्रायः यह सभी मानते हैं कि मूल्यांकन की प्रणाली, जो केवल परीक्षाओं तक सीमित है, विश्वसनीय एवं प्रामाणिक नहीं है। यह न तो विद्यार्थियों की विभिन्न योग्यताओं एवं क्षमताओं का सही-सही मूल्यांकन करती है और न ही अध्यापकों के कार्यों का ठीक मूल्यांकन करती है। इसमें जरा भी सन्देह नहीं कि मूल्यांकन की परीक्षाओं पर आधारित प्रणाली कई बुराइयों को जन्म देती है, परन्तु परीक्षायें फिर भी होती हैं। बुराई होते हुए भी ये शिक्षा का अनिवार्य अंग हैं। मूल्यांकन से ही विद्यार्थियों की सामान्य तथा विशिष्ट योग्यताओं, क्षमताओं एवं रुचियों का ज्ञान होता है, और उन्हीं के अनुरूप उन्हें उचित व्यवसायों की ओर अग्रसर किया जा सकता है। अध्यापकों की कार्य कुशलता तथा उनके द्वारा प्रयुक्त की गई शिक्षण विधियों की उपयोगिता का ठीक मापन भी मूल्यांकन द्वारा होता है। केवल इतना ही नहीं, बल्कि माता-पिता की सन्तुष्टि भी बालकों के मूल्यांकन से होती है। शिक्षा अधिकारियों को भी मूल्यांकन से ही अपनी योजनाओं तथा उनके कार्यान्वयन की सफलताओं एवं न्यूनताओं का ज्ञान होता है। तात्पर्य यह कि मूल्यांकन अनिवार्य है।
छात्रों के मूल्यांकन के विभिन्न क्षेत्र (Different Areas of Student’s Evaluation)
विद्यार्थियों के ‘मूल्यांकन’ की कटु आलोचना इसलिए होती है, क्योंकि प्रचलित परीक्षायें उसका समूचा मूल्यांकन करने में असमर्थ हैं। उनमें केवल ज्ञान होता है कि अमुक विद्यार्थियों ने विभिन्न विषयों के कितने अंक प्राप्त किये अर्थात् इन परीक्षाओं के विद्यार्थियों की केवल शैक्षिक उपलब्धियों का मूल्यांकन होता है, जबकि शिक्षा के उद्देश्य इससे कहीं अधिक व्यापक हैं। ये परीक्षायें न तो विद्यार्थियों के चारित्रिक विकास का मूल्यांकन करती हैं, न सामाजिक विकास का तथा न ही शारीरिक विकास का। परीक्षायें एकांगी हैं और उन्हें किसी भी दृष्टिकोण से पूर्ण नहीं कहा जा सकता है। मूल्यांकन द्वारा निम्नलिखित क्षेत्रों में विद्यार्थियों का मूल्यांकन किया जाना चाहिये-
- शैक्षिक उपलब्धियों का मूल्यांकन (Evaluation of Scholastic achievements)।
- सामाजिक विकास का मूल्यांकन (Evaluation of Social Development)
- चारित्रिक एवं व्यक्तित्व का मूल्यांकन (Evaluation of Character & Personality Development)
- शारीरिक विकास का मूल्यांकन (Evaluation of Physical Development)
1. शैक्षिक उपलब्धियों का मूल्यांकन (Evaluation of Scholastic Achievements) –
सम्पूर्ण शिक्षा सत्र में विद्यार्थियों को निश्चित पाठ्यक्रम के अनुसार अनेक विषयों का शिक्षण प्रदान किया जाता है। सत्र (Session) के पश्चात् यह जानना आवश्यक होता है कि किस विद्यार्थी ने उन विषयों का कितना ज्ञान प्राप्त किया है। उत्तीर्ण होने के लिए निश्चित अंक निर्धारित किये जाते हैं और प्रथम तथा द्वितीय श्रेणी (First and Second Division) के लिए भी अंक निश्चित किये जाते हैं। शैक्षिक उपलब्धियों के इस मूल्यांकन के लिए परीक्षायें आयोजित की जाती हैं। इन परीक्षाओं को यथा सम्भव उपयोगी बनाने के लिए इन्हें निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जाता है-
(i) लिखित परीक्षा के विद्यार्थियों को प्रश्न-पत्र दिया जाता है और उन्हें प्रत्येक प्रश्न के उत्तर लिखकर देने को कहा जाता है। कुछ समय पहले तक प्रश्न-पत्र में केवल निबन्धात्मक प्रश्न (Essay Type Questions) पूछे जाते थे, किन्तु अब ऐसा नहीं है। निबन्धात्मक-प्रश्नों में सबसे बड़ा दोष यह है कि इनमें विश्वसनीयता तथा प्रमाणिकता कम होती है और इनका अंकन प्रायः व्यक्तिनिष्ठ होता है, परन्तु इन दोषों के होते हुए भी इनको बिल्कुल समाप्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि इनकी सहायता से मालूम होता है कि विद्यार्थी प्राप्त ज्ञान को व्यावहारिक रूप देने, संगठित करने, अभिव्यक्त करने तथा उससे समस्याओं के समाधान में कहाँ तक सक्षम हैं। इसलिए प्रश्न-पत्र में ये प्रश्न तो होते ही हैं, इनके अतिरिक्त और भी कई प्रकार के प्रश्न होते हैं। लिखित परीक्षा में निम्नलिखित प्रकार के प्रश्न होते हैं-
(A) निबन्धात्मक प्रश्न (Essay Type Questions) – इन प्रश्नों से विद्यार्थियों की विषयों की सुसंगठित एवं क्रमानुसार अभिव्यक्ति की योग्यता का परीक्षण होता है। इससे मालूम होता है कि विद्यार्थी अपनी बात तर्कपूर्ण, न्यायसंगत तथा विश्वस्त रूप से अभिव्यक्त करने में कहाँ तक योग्य है।
(B) लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Type Questions ) – प्रश्न-पत्र में कई ऐसे प्रश्नों को सम्मिलित किया जाता है, जिनके उत्तर बहुत छोटे-तीन या चार पंक्तियों में समाप्त होने वाले होते हैं। इन प्रश्नों के विद्यार्थियों को संक्षिप्त रूप में सही बात लिखने की योग्यता का परीक्षण होता है। ये प्रश्न निबन्धात्मक प्रश्नों की अपेक्षा अधिक विश्वसनीय तथा प्रामाणिक होते हैं, क्योंकि इनका उत्तर अनुमान से नहीं दिया जा सकता।
(C) वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Questions) – वस्तुनिष्ठ प्रश्नों के उत्तर एक अथवा दो शब्दों में दिए जाते हैं जैसे—”हाँ” या “नहीं”, “ठीक है”, “गलत है” आदि। कई बार केवल चिन्हों के प्रयोग में उत्तर दिया जाता है, जैसे—”√” या “x” वस्तुनिष्ठ प्रश्न अधिक विश्वसनीय एवं प्रामाणिक होते हैं। इनका उत्तर देने में बहुत कम समय लगता है और इनका अंक भी अपेक्षाकृत होता है।
प्रश्न-पत्र में तीनों प्रकार के प्रश्नों को सम्मिलित करके मूल्यांकन को अधिक से अधिक उपयोगी बनाया जा सकता है।
(ii) मौखिक परीक्षा (Oral Test) – लिखित परीक्षा से विद्यार्थियों की लिखित अभिव्यक्ति की जाँच होती है, परन्तु उदाहरण, पुस्तक-पाठ में गति, शुद्ध-भाषा के मौखिक रूप को समझना, शुद्ध तथा स्पष्ट मौखिक अभिव्यक्ति, तापमापक यन्त्र को पढ़ना आदि का परीक्षण लिखित परीक्षा द्वारा नहीं हो सकता। इनके परीक्षण के लिए मौखिक परीक्षाओं का आयोजन किया जाना चाहिये ।
(iii) सैशनल कार्य का मूल्यांकन (Evaluation of Sessional Works)– विद्यार्थियों की शैक्षिक योग्यताओं का मूल्यांकन करने के लिए प्रायः लिखित परीक्षाओं का प्रयोग किया जाता है। इससे विद्यार्थियों की उपलब्धियों का पूर्णरूप से मूल्यांकन नहीं हो पाता। मौखिक परीक्षाओं के सम्मिलित करने से मूल्यांकन को कुछ अधिक व्यापक एवं विश्वसनीय बनाया जा सकता है, लेकिन इतने से भी मूल्यांकन को पूर्ण नहीं कहा जा सकता, इनमें अवसर, भाग्य तथा मन स्थिति का बहुत दखल है। मान लो यदि कोई विद्यार्थी परीक्षा नहीं दे पाता तो क्या उसको अनुत्तीर्ण कर देना चाहिये। यदि कोई विद्यार्थी परीक्षा के दिन मानसिक रूप से परेशान है और प्रश्नों के ठीक उत्तर जानते हुये भी ठीक उत्तर नहीं दे पाता, क्या उसकी योग्यता की ठीक जाँच हो पायेगी ? ऐसी न्यूनताओं को कम करने के लिए मूल्यांकन प्रणाली में “सैशनल कार्य” (Sessional Work) को सम्मिलित करने की धारणा को बल मिल रहा है। सैशनल कार्य में गृह-कार्य (Home Work), कक्षा-कार्य (Class-Work), समय-समय पर होने वाली लघु-परीक्षायें, पुस्तकालय का प्रयोग, प्रयोगात्मक कार्य, पाठ सहायक क्रियाओं में कार्य — आदि शामिल हैं। समय-समय पर इनका अंकन करके इन्हें विद्यार्थी के समूचे परिणाम में दर्ज करना चाहिये।
2. सामाजिक विकास का मूल्यांकन (Evaluation of Social Development)-
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है (Man is a Social Animal) । इसलिए उसके लिए शिक्षा का सामाजिक होना आवश्यक है। स्कूल एक ऐसा छोटा समाज होता है, जहाँ तक बालक के भीतर कई प्रकार के सामाजिक गुण (Social Traits) उत्पन्न किये जा सकते हैं। यह गुण जैसे—नागरिकता, सहयोग, समाज सेवा आदि हमारे प्रजातन्त्रीय समाज के लिए आवश्यक हैं। स्कूल एक विशेष प्रकार का ऐसा वातावरण होता है, जहाँ बालक के अन्दर सामाजिक गुण उत्पन्न हो सकते हैं। प्रत्येक बालक की सामाजिक उन्नति का अनुमान हो सकता है। इसलिए अध्यापक यह देखें कि बालक के अन्दर कितनी सामाजिक भावना उत्पन्न हुई है। यह कार्य निम्नलिखित दो ढंगों द्वारा हो सकता है—
(i) भिन्न-भिन्न सहगामी क्रियाओं (Co-curricular Activities) के विषय में योग्यता का मापदण्ड तैयार करना। इस काम के लिए प्रत्येक गुण के माप करने के लिए पाँच प्वाइंट का पैमाना बहुत होता है। अपनी सहायता स्वयं करने की योग्यताओं का स्वतन्त्रतापूर्वक दिखावा करने का अवसर देना चाहिये।
(ii) बालक का दैनिक काम, उसका खेलों में भाग, स्काऊटिंग, समाज-सेवा सभी प्रकार की सामाजिक क्रियायें, खाना पकाना (Cooking), स्वच्छता, छात्रावास की व्यवस्था तथा अन्य स्कूल की क्रियायें।
3. चारित्रिक विकास एवं व्यक्तित्व का मूल्यांकन (Evaluation of Character and Personality Development) –
शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य व्यक्तित्व का सर्वपक्षीय विकास करना है। इसलिए वास्तविक शिक्षा सहनशीलता, नेतृत्व, स्वयं-नियन्त्रण, सामाजिक प्रकृति, सच्चाई, जोश, परिश्रम, आत्म-विश्वास एवं प्रसन्न रहना आदि सिखाती है। यह सभी गुण बालक के दैनिक व्यवहार द्वारा स्पष्ट किये जाते हैं। इसलिए अध्यापक को बालक के स्वभाव, श्रेणी में तथा बाहर पढ़ाई के कार्य, प्रयोगशाला, स्कूल की क्रियायें, वर्कशाप आदि को देखना चाहिये। अध्यापक इसका मूल्यांकन निम्नलिखित प्रकार से कर सकता है-
(i) विद्यार्थी की अपनी डायरी के आँकन जब वह अपनी दैनिक बातों को नोट करता है, महत्वपूर्ण घटनायें तथा अन्य इधर-उधर के विचार।
(ii) सूझ-बूझ सम्बन्धी परीक्षाएँ, रुचि परीक्षा तथा विद्यार्थियों की अन्य परीक्षाएँ उनकी रुचियों का अनुमान लगाने के लिए।
(iii) समय-समय पर किये गये विद्यार्थी के व्यक्तित्व की परीक्षायें।
अध्यापक को विद्यार्थी के व्यवहार सम्बन्धी गुणों का अभिलेख अपनी संचित अभिलेख पुस्तक (Cumulative Record Book) में रखना चाहिये।
4. शारीरिक विकास का मूल्यांकन (Evaluation of Physical Development)-
अच्छे शरीर में अच्छे मन का निवास (Sound Mind in a Sound Body) यह एक पुरानी कहावत है। शिक्षा के उद्देश्यों में से एक महत्वपूर्ण उद्देश्य अच्छी स्वास्थ्य सम्बन्धी आदतें हैं, जैसे-अच्छी शारीरिक हालत, बीमारियों से दूर रहना, तथा सहन शक्ति। इस सम्बन्ध में अध्यापकों का भी कर्तव्य है कि वह कभी-कभी बालक के शारीरिक विकास का अंकन करते रहें। उसको उनकी कमजोरियों तथा दोषों को ढूंढने का प्रयास करना चाहिये। यह डॉक्टरी निरीक्षण द्वारा ही सम्भव हो सकता है ताकि वह उनके शारीरिक दोषों के बारे में जान कर उनकी चिकित्सा कर सके।
शारीरिक विकास का कार्यक्रम या आंकन निम्न प्रकार हो सकता है-
(i) अल्प-कालिक डॉक्टर या पूर्ण कालिक डॉक्टर की नियुक्ति करके विद्यार्थियों को समय-समय पर शारीरिक जाँच करवाते रहना चाहिये और उनको स्वस्थ रखने के लिए उचित उपचार की व्यवस्था होनी चाहिये ।
(ii) प्रत्येक विद्यार्थी की शारीरिक क्षमताओं तथा कमजोरियों का रिकार्ड रखना चाहिये और वांछित उपचार की व्यवस्था होनी चाहिये, जिससे सत्र के अन्त में ज्ञात हो सके कि प्रत्येक विद्यार्थी का शारीरिक विकास कहाँ तक हुआ।
(iii) वर्ष के आरम्भ तथा अन्त में प्रत्येक विद्यार्थी की शारीरिक जाँच होनी चाहिये।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि विद्यार्थी का मूल्यांकन केवल उसकी शैक्षिक उपलब्धियों के परीक्षण तक सीमित नहीं है। उसके समूचे मूल्यांकन में उसके चारित्रिक विकास, सामाजिक विकास एवं शारीरिक विकास को सम्मिलित करना भी आवश्यक है। इसी प्रकार मूल्यांकन-विधि में केवल लिखित परीक्षायें पर्याप्त नहीं हैं। लिखित परीक्षायें भी तब तक अपूर्ण हैं, जब तक उनमें निबन्धात्मके प्रश्नों के साथ-साथ लघुत्तर-प्रश्नों तथा वस्तुनिष्ठ परीक्षायें सम्मिलित न की जायें। अतः विद्यार्थियों के सही और यथा सम्भवपूर्ण मूल्यांकन के लिए लिखित परीक्षा के अतिरिक्त, मौखिक परीक्षा, सैशनल-वर्क तथा संचित अभिलेख (Cumulative Records) को भी सम्मिलित करना चाहिये।
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