धर्म एवं शिक्षा के सम्बन्धी का विस्तृत वर्णन कीजिए।
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धर्म और शिक्षा का सम्बन्ध (Relationship Between Religion and Education)
धर्म और शिक्षा का सम्बन्ध- धर्म तथा शिक्षा का सम्बन्ध घनिष्ठ है। शिक्षा द्वारा हम व्यक्ति में जिन गुणों का विकास करना चाहते हैं। धर्म ने भी उन्हीं गुणों के विकास को अपना लक्ष्य बनाया है। दोनों में बालक के शारीरिक विकास के साथ-साथ आध्यात्मिक विकास पर बल दिया जाता है। दोनों में व्यक्ति को वातावरण से ऊपर उठाने का आग्रह किया जाता है। दोनों ही व्यक्ति की आकांक्षा को बढ़ाते हैं और दोनों के द्वारा व्यक्ति भावों एवं विचारों के क्षेत्र में ऊँचा उठता है।
शिक्षा व्यक्ति में स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष दृष्टिकोण का विकास करना चाहती है। अब धर्म भी यही करने का दावा करता है। धर्म द्वारा हम क्षमा, स्वतन्त्रता, समानता और मानवता का पाठ पढ़ते हैं। ये गुण जनतन्त्र के लिए आवश्यक हैं और शिक्षा के लिए भी ये ध्येय स्वरूप हैं। धर्म जनतन्त्रीय आदर्शों के प्रति श्रद्धा उत्पन्न करने का एक साधन है। शिक्षा द्वारा बालक को सभ्य व सुसंस्कृत बनाने का प्रयास किया जाता है। इस कार्य में धर्म बड़ा सहायक सिद्ध होता है। ‘धर्म-विहीन’ शिक्षा का समर्थन नहीं किया जा सकता। हमारे देश के कर्णधारों ने भी धर्म और शिक्षा के सम्बन्ध को पहचानकर धार्मिक शिक्षा का समर्थन किया है। महात्मा गाँधी, डॉ. राधाकृष्णन्, महामना मालवीय, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, स्वामी दयानन्द स्वामी विवेकानन्द आदि मनीषियों ने शिक्षा में धर्म की व्यवस्था को आवश्यक माना है।
आज चारों ओर संघर्ष ही संघर्ष दिखायी पड़ रहा है। विद्यालयों में पढ़ाये जाने वाले विषय बालक का केवल बौद्धिक विकास करते हैं। व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास की चिन्ता केवल धर्म को है। धर्म ने सदा सद्गुणों का विकास किया है। धर्म से चारित्रिक बल आता है। वैज्ञानिक तर्क-बुद्धि के साथ-साथ चारित्रिक बल आवश्यक है। भौतिक समृद्धि के साथ साथ आध्यात्मिक शान्ति आवश्यक है। अतः शिक्षा को व्यापक धार्मिक भावना पर आधारित होना चाहिए।
धर्म निरपेक्ष भारत में धार्मिक शिक्षा (Religious Education in Secular India)
धर्म-निरपेक्ष भारत में धार्मिक शिक्षा देने के सम्बन्ध में भी बड़ा भ्रम व्याप्त है। श्रीप्रकाश समिति ने अपने प्रतिवेदन के तेरहवें अनुच्छेद में धार्मिक शिक्षा की समस्या पर विचार किया है और चौदहवें अनुच्छेद में संविधान की मान्यताओं का उल्लेख किया है। संविधान की 28वीं धारा में यह कहा गया है कि राज्य द्वारा सहायता प्राप्त विद्यालयों में धार्मिक शिक्षण नहीं दिया जायेगा। किन्तु यह धारा उन शैक्षिक संस्थाओं पर लागू होगी जिन्हें राज्य प्रशासित तो करता है किन्तु जिनकी स्थापना धार्मिक शिक्षा प्रदान करने का आग्रह करने वाले प्रदाय या न्यास के द्वारा की गयी हो। राज्य द्वारा सहायता प्राप्त किसी भी विद्यालय में धार्मिक शिक्षा को छात्र या अभिभावक की सहमति के बिना नहीं प्रदान किया जायेगा। संविधान की 30वीं धारा के अनुसार धार्मिक या भाषायी अल्पसंख्यकों को अपनी इच्छा की शिक्षा संस्था स्थापित करने का अधिकार दिया गया है और इस प्रकार के विद्यालय को अनुदान देने में राज्य कोई भेदभाव की नीति नहीं बरतेगा।
अतः यह कहा जा सकता है कि विद्यालयों में यदि धार्मिक शिक्षा दी जाए तो वह संविधान विरुद्ध नहीं है। धर्म निरपेक्षता का अर्थ सम्प्रदाय निरपेक्षता से ही लगाना चाहिए। हाँ, धार्मिक शिक्षा की अपनी एक सीमा है और इस सीमा का उल्लंघन नहीं होना चाहिए। इस सौन्दर्य न्यायमूर्ति वी. आर. कृष्ण अय्यर की अग्रलिखित पंक्तियाँ उल्लेखनीय हैं—
“इसमें सन्देह नहीं कि यदि भारत को समाज सांस्कृतिक साझेदारी वाला संयुक्त परिवार बनाना है तो कई समुदायों के सामूहिक व्यक्तित्व की रक्षा करनी होगी। धर्म-निरपेक्षता का बन्धन बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक दोनों के लिए अनिवार्य है। प्रत्येक धर्म को कुछ अनुशासन स्वीकार करना होगा और उसे धर्मेत्तर क्षेत्र से, उन लौकिक मामलों से अपने को अलग करना होगा जिनका अनुच्छेद 25 के अन्तर्गत स्पष्ट उल्लेख कर स्वतन्त्रता की गारण्टी दी गई है।’
“राजनैतिक दलों को ईश्वरवाद पर बहुत भरोसा है। यह धार्मिकता, पुरातन पन्थ, सत्ता की भूख, भाई-भतीजावाद, धन की और अफसर, राजनेता और राजनैतिक दल (कुछ अपवादों सहित) छात्र संगठन, मजदूर संगठन, महिला संगठन, खेलकूद के क्लब, कला क्लब, समाचार पत्र और सांस्कृतिक केन्द्र यहाँ तक कि सारे के सारे विश्वविद्यालय में अपना-अपना साम्प्रदायिक और जातीय रंग है।
धर्माध्यक्ष के किरीट और राजदण्ड के बीच स्पष्ट सीमाएँ हैं और राष्ट्रीय चार्टर आध्यात्मिक बातों तथा मनुष्य और सृष्टा के सम्बन्ध के परे के क्षेत्र में ईश्वरीय हस्तक्षेप का निषेध करता है। धार्मिक समुदायों द्वारा जब इन सीमाओं से परे हस्तक्षेप किया जाता है तो धर्म-निरपेक्षता का सन्तुलन बिगड़ जाता हैं, क्रुद्ध धर्मान्धता तथा असन्तोष और प्रतिन्द्धिता की भावना पैदा होती है।
तमिलनाडु, असम, खालिस्तान और गोरखलैण्ड के ऐतिहासिक अनुभवों का सबक बहुत चिन्ताजनक है। भारत का विभाजन इन्हीं ताकतों का परिणाम था और इन्हीं कारणों से अब देश के पुनः विभाजन के अशुभ लक्षण प्रकट हो रहे हैं। अतः धार्मिक शिक्षा द्वारा संकीर्णता को कभी बढ़ावा नहीं देना चाहिए। सच्ची धार्मिक शिक्षा उदारवादी, मानवतावादी एवं आध्यात्मिकतावादी होती है। इसके द्वारा विघटनशील शक्तियों को निरुत्साहित किया जाना चाहिए।
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