वेदान्त दर्शन में शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यचर्या, विधियाँ, अनुशासन एवं शिक्षक-शिक्षार्थी की विवेचना कीजिए।
भारत में शिक्षा पर स्वतन्त्र रूप से विचार करना आधुनिक युग की देन है। इससे पूर्व के विचारक तो मनुष्य के जीवन पर समग्र रूप से विचार करते थे। शंकर ने भी शिक्षा पर स्वतन्त्र रूप से विचार नहीं किया है परन्तु उनकी तत्त्व मीमांसा से शिक्षा के उद्देश्य, ज्ञान मीमांसा से ज्ञान के स्वरूप एवं ज्ञान प्राप्त करने की विधियों और आचार मीमांसा से शिक्षा द्वारा मनुष्य के व्यवहार में किए जाने वाले परिवर्तनों के बारे में जानकारी होती है। यहाँ हम शंकर के शैक्षिक विचारों को क्रमबद्ध करने का प्रयास करेंगे।
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शिक्षा का सम्प्रत्यय
शंकर के अनुसार मनुष्य जीवन का अन्तिम उद्देश्य मुक्ति है और इस मुक्ति के लिए उन्होंने ज्ञान मार्ग का समर्थन किया है। उनकी दृष्टि से जब मनुष्य को यह ज्ञान हो जाता है कि ब्रह्म सत्य है और शेष सब असत्य है तभी वह सांसारिक माया मोह से मुक्त होता है, भेद दृष्टि से मुक्त होता है और सबमें स्वयं को और स्वयं में सबको देखता है, और इस ज्ञान की होती है शिक्षा से। शिक्षा के विषय में उन्होंने उपनिषदीय विचार का समर्थन किया है। उनकी दृष्टि से शिक्षा वह है जो मुक्ति दिलाए (सा विद्या या विमुक्तये)।
शिक्षा के उद्देश्य
शंकर ने मनुष्य जीवन के दो पक्ष माने हैं-एक अपरा (व्यावहारिक) और दूसरा परा (आध्यात्मिक)। शिक्षा के द्वारा वे मनुष्य के दोनों पक्षों का विकास करने पर बल देते थे, परन्तु इन दोनों पक्षों का विकास (मुक्ति के उद्देश्य) को सामने रखकर ही होना चाहिए। व्यावहारिक पक्ष में उन्होंने मनुष्य के शारीरिक, मानसिक एवं चारित्रिक विकास के साथ-साथ उसके वर्ण-कर्म की शिक्षा को सम्मिलित किया है और आध्यात्मिक पक्ष (मुक्ति) के लिए उन्होंने ज्ञान को आवश्यक माना है और ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधन चतुष्टय के पालन को आवश्यक बताया है। वे इस से सूक्ष्म सत्य को भी जानते थे कि साधन चतुष्टय का पालन करने के लिए मनुष्य का शरीर और मन स्वस्थ होने चाहिए। उनकी दृष्टि से शिक्षा को ये सब कार्य करने चाहिए। शंकर के द्वारा प्रतिपादित शिक्षा के इन उद्देश्यों को हम आज की भाषा में स्थूल के क्रम में निम्नलिखित रूप में अभिव्यक्त कर सकते हैं-
साध्य उद्देश्य-
- मुक्ति
साधन उद्देश्य-
- शारीरिक विकास एवं शरीर शुद्धि
- मानसिक एवं बौद्धिक विकास
- नैतिक एवं चारित्रिक विकास
- वर्णानुसार कर्म (व्यवसाय) की शिक्षा
- इन्द्रिय निग्रह एवं चित्त शुद्धि
- आध्यात्मिक विकास
शिक्षा की पाठ्यचर्या
शंकर के अनुसार शिक्षा की पाठ्यचर्या में मनुष्य के अपरा (व्यावहारिक) एवं परा (आध्यात्मिक) दोनों पक्षों से सम्बन्धित ज्ञान एवं क्रियाओं का समावेश होना चाहिए। व्यावहारिक जीवन के लिए उन्होंने पाठ्यचर्या में व्यावहारिक ज्ञान (भाषा, चिकित्साशास्त्र, गणित एवं वर्ण क्रम आदि) तथा व्यावहारिक क्रियाओं (आसन, व्यायाम. भोजन एवं ब्रह्मचर्य आदि) का समावेश किया है और आध्यात्मिक जीवन के लिए पारमार्थिक विषय (साहित्य, धर्म एवं दर्शन आदि) एवं पारमार्थिक क्रियाओं (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि) का समावेश किया है।
व्यावहारिक दृष्टि से मनुष्य-मनुष्य में भेद होता है। शंकर की दृष्टि से यह भेद कर्म जनित है और जगत नियन्ता का विधान है। उनकी दृष्टि से वर्ण भेद भी कर्म जनित है। वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों अलग-अलग कर्मों में विश्वास रखते थे और उन्हें अपने-अपने कर्मों का कुशलतापूर्वक सम्पादन करने हेतु अलग-अलग शिक्षा (पाठ्यचर्या) का विधान करने के पक्ष में थे परन्तु परा विद्या के लिए सबको समान ज्ञान एवं समान क्रियाएँ करने पर बल देते थे।
शिक्षण विधियाँ
ज्ञान और ज्ञान प्राप्ति के साधनों के सम्बन्ध में शंकर ने विस्तृत चर्चा की है। इस सम्बन्ध में उनके विचारों का सार संक्षेप में प्रस्तुत है।
ज्ञान प्राप्त करने के उपकरण- शंकर ने ज्ञान प्राप्ति के उपकरणों को दो भागों में विभाजित किया है-ब्रह्मा उपकरण और आन्तरिक उपकरण बाह्य उपकरणों में कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ आती हैं और आन्तरिक उपकरणों में मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त आते हैं। शंकर चित्त की अलग सत्ता मानी है। इनका स्पष्टीकरण है कि इन्द्रियाँ किसी वस्तु अथवा क्रिया के प्रति तभी क्रियाशील होती हैं जब मन उनके तथा वस्तु अथवा क्रिया के बीच संयोजन करता है। बुद्धि इसमें काट-छाँट कर उसे अहम् से जोड़ती है और अहम् से ज्ञान अथवा क्रिया चित्त पर अंकित होती है और चित्त से आत्मा को प्राप्त होती है।
ज्ञान प्राप्त करने के स्त्रोत- शंकर ने ज्ञान के चार स्त्रोत माने हैं— प्रत्यक्ष अनुमान, शब्द और तर्क । इन्द्रिय प्रत्यक्ष को ये तब तक स्वीकार नहीं करते जब तक वह आत्मा द्वारा प्रत्यक्ष नहीं हो जाता। अनुमान में ये पूर्व अनुभवों के आधार पर नए अनुभवों को तर्क द्वारा स्वीकार करने की बात करते हैं। शब्द के रूप में ये निगम (वेद) और आगम (तन्त्र) ग्रन्थों को श्रेष्ठ मानते हैं। तर्क का अर्थ है बौद्धिक कसौटी, अतः जब तक इन्द्रिय प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द द्वारा प्राप्त ज्ञान बौद्धिक तर्क की कसौटी पर नहीं कसा जाता तब तक उसके बारे में सत्य असत्य होना प्रमाणित नहीं हो सकता।
ज्ञान प्राप्ति के सोपान- ज्ञान प्राप्ति के शंकर ने तीन सोपान बताए हैं-श्रवण (वेद, ब्रह्मण, आरण्यक, उपनिषद् एवं गीता आदि ग्रन्थों का गुरुमुख द्वारा श्रवण अथवा उनका स्वाध्याय), मनन (श्रवण अथवा अध्ययन द्वारा प्राप्त ज्ञान पर चिन्तन) और निदिध्यासन (प्राप्त ज्ञान का नित्य प्रयोग)। ये श्रवण अथवा अध्ययन के पश्चात् प्राप्त ज्ञान पर अधिकारी विद्वानों के साथ वाद-विवाद को भी अच्छा मानते थे।
शिक्षण सम्बन्धी शंकर के इन विचारों को यदि हम आज की भाषा में कहना चाहें तो यह कह सकते हैं कि शंकर शिक्षण के सन्दर्भ में निम्नलिखित के पक्षधर थे-
- इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष ।
- इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष का पूर्वज्ञान के आधार पर अनुमान |
- शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त ज्ञान का श्रवण अथवा अध्ययन।
- उपरोक्त में से किसी भी प्रकार से प्राप्त ज्ञान पर चिन्तन, वाद-विवाद एवं बौद्धिक तर्क ।
- प्राप्त ज्ञान का नित्य प्रयोग एवं उसके द्वारा सत्य का चयन असत्य का त्याग।
अनुशासन
शंकराचार्य ने बाल प्रकृति की चार अवस्थाओं का वर्णन किया है-
क्षिप्त— यह वह अवस्था है जब बच्चा अपनी इन्द्रियों के अधीन रहता है और अपना ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाता।
विक्षिप्त— यह वह अवस्था है जब बच्चा अपनी इन्द्रियों पर कुछ नियन्त्रण करने लगता है और थोड़े समय तक ध्यान केन्द्रित कर सकता है।
मुधा— यह वह अवस्था है जिसमें बालक का अपनी इन्द्रियों पर काफी नियन्त्रण हो जाता है परन्तु आलस्यवश पूर्णरूप से ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाता।
एकाग्रता – यह वह अवस्था है जब बच्चे की इन्द्रियों, मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त सभी पर आत्मा का नियन्त्रण होता है।
शंकर के अनुसार जो बच्चा इनमें से जिस स्तर पर होता है। वह उसी कोटि में अनुशासित कहा जाता है। वास्तविक अनुशासन का अर्थ है एकाग्रता।
शिक्षक
शंकर की दृष्टि से गुरु के दो कार्य हैं-शिष्य को व्यावहारिक जीवन के लिए तैयार करना और उसे आध्यात्मिक जीवन की प्राप्ति कराना। इनमें से दूसरा कार्य मुख्य और गम्भीर है । वेदान्ती शिक्षक शिष्य को प्रारम्भ में उपदेश देता है- ‘तत्वमसि’ अर्थात् तू ही ब्रह्म है। और शिष्य अन्त में यह अनुभव करता है- ‘अहं ब्रह्मास्मि’ अर्थात् मैं ही ब्रह्म हूँ। इस ब्रह्मज्ञान की चर्चा जीवन मुक्त व्यक्ति ही कर सकता है इसलिए शिक्षक को जीवन मुक्त होना चाहिए। हमारी अपनी दृष्टि से तो व्यावहारिक ज्ञान देने वाले शिक्षक को भी जीवन मुक्त (सांसारिक सुख-दुःख से विरक्त, अभेद दृष्टि वाला एवं सबसे प्रेम करने वाला) होना चाहिए। आज के शिक्षक यदि शंकर के जीवन मुक्त शिक्षक बन सकें तो फिर समाज का पुनरुत्थान निश्चित है।
शिक्षार्थी
अद्वैत वेदान्त के अनुसार प्रत्येक छात्र अनन्त ज्ञान एवं शक्ति का स्रोत है, उनमें जो शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक भिन्नता दिखाई देती है तह कर्मजनित है। यह भिन्नता उनका तटस्थ लक्षण है, स्वरूप लक्षण नहीं । इस प्रकार आध्यात्मिक दृष्टि से सब छात्र समान हैं और व्यावहारिक दृष्टि से उनमें भिन्नता है। शंकर के अनुसार ब्रह्म ज्ञान के इच्छुक छात्रों को साधन चतुष्टय का पालन करना चाहिए। इस साधन चतुष्टय में इन्द्रिय निग्रह, मन की एकाग्रता, भोग से विरक्ति और गुरु में श्रद्धा का महत्त्व तो व्यावहारिक ज्ञान की प्राप्ति की दृष्टि से भी होता है। आज के छात्र यदि शंकर की यह बात मान लें तो शिक्षा जगत की सभी समस्याओं का अन्त हो जाए।
विद्यालय
शंकर के युग में व्यावहारिक शिक्षा की व्यवस्था परिवार एवं समुदायों में होती थी और आध्यात्मिक शिक्षा की गुरुगृहों में वास्तविक अर्थ में ये गुरुगृह ही उस समय के विद्यालय थे । शंकर के अनुसार ये गुरुगृह (विद्यालय) जन कोलाहल से दूर प्रकृति की सुरम्य गोद में होने चाहिए। यहाँ के शिक्षक जीवन मुक्त और शिष्य ब्रह्मज्ञान के इच्छुक होने चाहिए। विद्यालयों में शिष्यों को साधन चतुष्टय का पालन करना चाहिए।
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