बौद्ध दर्शन के मूल सिद्धान्तों की विवेचना कीजिए।
बौद्ध दर्शन के मूल सिद्धान्त (Fundamental Principles of Buddhism ) बौद्ध दर्शन की तत्त्व मीमांसा, ज्ञान मीमांसा और मूल्य एवं आचार मीमांसा को यदि हम सिद्धान्तों के रूप में क्रमबद्ध करना चाहें तो निम्नलिखित रूप में कर सकते हैं—
1. यह ब्रह्माण्ड परिणामशील है- श्रौत दर्शन के अनुसार इस ब्रह्माण्ड का मूल तत्त्व आध्यात्मिक है और चार्वाक दर्शन के अनुसार यह ब्रह्माण्ड चार मूलभूतों (भौतिक पदार्थों) से निर्मित है। लेकिन बुद्ध ने इसके विपरीत परिणाम की सत्ता स्वीकार की है। बुद्ध के अनुयायियों ने भी इस पर अपने-अपने विचार व्यक्त किए हैं। वैभाषिकों एवं सौत्रान्तिकों के अनुसार यह ब्रह्माण्ड स्कन्धों के घात-प्रतिघात का प्रतिफल है। योगाचार विज्ञान को इस ब्रह्माण्ड का मूल तत्त्व मानते हैं और माध्यमिक शून्य को। परन्तु एक बात ये भी मानते हैं कि यह जगत परिणामशील हैं।
2. वस्तु जगत और मानसिक जगत दोनों की सत्ता है- वैभाषिकों के अनुसार यह इन्द्रियग्राह जगत सत्य है और इसके साथ-साथ मन (चित्त अथवा विज्ञान) के जगत की भी सत्ता है, परन्तु हैं सब परिवर्तनशील योगाचार और माध्यमिक इस वस्तु जगत की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार नहीं करते। योगाचार दर्शन के अनुसार यह बाह्य जगत विज्ञान (मन अथवा चित्त) की अभिव्यक्ति है और माध्यमिक दर्शन के अनुसार यह बाह्य जगत शून्य (अनिर्वचनीय परम तत्त्व) की अभिव्यक्ति है। ये दोनों सम्प्रदाय वस्तु जगत की केवल व्यावहारिक सत्ता मानते हैं।
3. आत्मा परमात्मा की आध्यात्मिक सत्ता नहीं है- बौद्ध दर्शन आध्यात्मिक तत्त्व आत्मा परमात्मा के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता। उसके स्थान पर वैभाषिक एवं सौत्रान्तिक क्रियाशील तत्त्व की सत्ता में विश्वास करते हैं, योगाचार विज्ञान की सत्ता में और माध्यमिक शून्य की सत्ता में।
4. मनुष्य स्कन्धों का संघात मात्र है— हीनयानियों का मत है कि संसार के समस्त पदार्थ पाँच स्कन्धों से निर्मित हैं। ये पंच स्कन्ध हैं-रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान। महायानी इसे विज्ञान अथवा शून्य की प्रतीति मानते हैं। दोनों सम्प्रदाय यह बात स्वीकार करते हैं कि प्राणी (मनुष्य) पूर्वकर्मों के कारण उत्पन्न होने वाले धर्मों का संघात मात्र है, यह तो उसका भ्रम है कि उसके अन्दर कोई आत्मा है। आष्टांगिक मार्ग से व्यक्ति को वस्तुओं की अनित्यता का अभास हो जाता है।
5. मनुष्य का विकास बाह्य एवं आन्तरिक क्रियाओं द्वारा होता है- बौद्ध मतावलम्बी कारण कार्य सिद्धान्त में विश्वास करते हैं। इनकी दृष्टि से मनुष्य का विकास पूर्वजन्म में किए गए, वर्तमान में किए जा रहे और भविष्य में किए जाने वाले कर्मों पर निर्भर करता है। हीनयान के अनुसार मानव के विकास का चरम रूप अर्हत पद की प्राप्ति हैं और महायान के अनुसार बुद्धत्व की प्राप्ति।
6. मनुष्य जीवन का अन्तिम उद्देश्य निर्वाण की प्राप्ति है— हीनयानी निर्वाण को दुःखों का अभाव मात्र मानते हैं परन्तु महायानी निर्वाण को आनन्द रूप मानते हैं। वैभाषिक एवं सौत्रान्तिकों के अनुसार इन्द्रिय भोग से विमुख होना अर्थात् तृष्णा के विरोध से दुःखों का अन्त ही निर्वाण है। इनके अनुसार निर्वाण के दो रूप हैं-सोपधिशेष और निरूपधिशेष। इनके विपरीत योगाचार का मत है कि क्लेशावरण तथा ज्ञेयावरण की निवृत्ति से निर्वाण लाभ हो सकता है। माध्यमिक परमार्थ तत्त्व ‘शून्य’ की अनुभूति को निर्वाण मानते हैं। इस प्रकार निर्वाण का अर्थ बौद्ध दर्शन के भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों में भिन्न-भिन्न है।
7. निर्वाण के लिए अष्टांग मार्ग आवश्यक है- हीनयानी, वैभाषिक और सौत्रान्तिक बुद्ध द्वारा बताए मार्ग का अनुसरण करते है। उनके अनुसार चार आर्य सत्यों के ज्ञान और अष्टांग मार्ग का अनुसरण करने से निर्वाण की प्राप्ति होती है। महायानी, योगाचार और माध्यमिक निर्वाण के लिए चार आर्य सत्यों के ज्ञान और अष्टांग मार्ग के अनुसरण के साथ-साथ भक्ति पर भी बल देते हैं।
8. आर्य अष्टांग मार्ग पर चलने के लिए त्रिरत्न का पालन आवश्यक है- बौद्ध दर्शन में त्रिरत्न-शील, समाधि और प्रज्ञा को मानव आचरण का मूल माना गया है। शीलों में भी पंचशील (अहिंसा, अस्तेय, सत्य भाषण, ब्रह्मचर्य और नशा न करना) तो गृहस्थ और भिक्षुक दोनों के लिए आवश्यक बताए गए हैं। समाधि अर्थात् चित्त की नैसर्गिक एकाग्रता और प्रज्ञा को भी निर्वाण के लिए आवश्यक माना गया है।
9. राज्य मनुष्य के आचरण पर नियन्त्रण रखने वाली संस्था है- बौद्ध धर्म के प्रतिपादक बुद्ध शाक्य गणाधिपति शुद्धोधन के पुत्र थे। उनकी दृष्टि से राजा का कर्तव्य है प्रजा का पालन करना। साधु के रूप में उन्होंने इस प्रजा पालन में प्रजा को सद्मार्ग पर लगाने की बात भी राजा के कर्तव्यों में जोड़ दी। आगे चलकर बौद्ध धर्म और दर्शन के प्रचार में भी राज्य का सहयोग प्राप्त किया गया। किसी भी स्थिति में बौद्ध दार्शनिक राजा अथवा राज्य से यह आशा करते रहे कि वह प्रजा के आचरण पर नियन्त्रण रखे ।
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