शिक्षाशास्त्र / Education

इवान इलिच के निर्विद्यालयीकरण सम्बन्धी विचार | Ivan Illich’s views on de-education in Hindi

इवान इलिच के निर्विद्यालयीकरण सम्बन्धी विचार | Ivan Illich's views on de-education in Hindi
इवान इलिच के निर्विद्यालयीकरण सम्बन्धी विचार | Ivan Illich’s views on de-education in Hindi

इवान इलिच के निर्विद्यालयीकरण सम्बन्धी विचार पर प्रकाश डालिए। अथवा इवान इलिच का शिक्षा के क्षेत्र में योगदान की विवेचना कीजिए।

इवान इलिच का निर्विद्यालयीकरण का सम्प्रदाय एक प्रस्तावित शिक्षा योजना के रूप में सुझाया गया हैं। इसके अनुसार स्कूलों की कमी के कारण शिक्षा की उपलब्धता में कमी नहीं आनी चाहिए। बस इसके लिए सीखने व सिखाने हेतु जिम्मेदारी को बदलना होगा क्योंकि मानव समाज में इसके उपयोग हेतु सभी संसाधन उपलब्ध है। इसके पहले भी प्राचीन एवं मध्ययुगीन समाज में यदि हम शिक्षा के सन्दर्भ में देखें तो एक एक शिक्षक के रूप में छात्रों हेतु व्यक्तिगत अध्ययन या छोटे समूहों में दी जा रही शिक्षा का प्रचलन रहा था और इसे एक समस्या नहीं माना गया। स्वर्गीय एल.के. ओड (अध्ययन, शिक्षा विभाग, वनस्थली विद्यापीठ राजस्थान) ने इवान इलिच की इस अवधारणा की बहुत मार्मिक समीक्षा निम्न शब्दों में की थी—

इलिच द्वारा प्रतिपादित ‘निर्विद्यालयीकरण’ का विचार आधुनिक सभ्य समाज में व्याप्त विसंगतियों का विश्लेषण कर यह बताने का प्रयास करता है कि ‘संस्थागत शिक्षा केवल निरर्थक ही नहीं है अपितु समाज में असमानता एवं स्तरीकरण उत्पन्न करने के लिए एक साधन के रूप में प्रयुक्त की जाती है। शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति को विभिन्न प्रकार के बन्धनों से मुक्त कर स्वतन्त्र बनाना है, परन्तु इलिच के विश्लेषण के आधार पर यह स्पष्ट लगता है कि संस्थागत शिक्षा मुक्त करने की बजाय मनुष्य को विभिन्न प्रकार के शिंकजों में जकड़ती हैं। सबसे मजबूत शिकंजा औद्योगीकृत अर्थव्यवस्था का है जिसमें व्यक्ति विवश होकर उन वस्तुओं एवं सेवाओं का उपभोग करता है जिनका उत्पादन आर्थिक निगमों एवं बड़े-बड़े कारखानों में होता रहा है। संस्थागत शिक्षा इस प्रकार व्यक्ति को आश्रित बना देती है।

इस स्थिति से निपटने के विराजो विकल्प इलिच ने प्रस्तुत किया है वह है निर्विद्यालयीकरण जहाँ सामाजिक व्यवस्था सरल होती है, निर्विद्यालयीकरण का विचार सुगमता के साथ चल सकता है परन्तु आज की जटिल सामाजिक व्यवस्था में निर्विद्यालयीकरण के सम्प्रत्यय केवल वैचारिक अथवा काल्पनिक स्तर पर रह जाता है। तथा सामाजिक व्यवस्था में आवश्यक परिवर्तन किए बिना यदि यह विचार क्रियान्वित भी किया जाता है तो इससे दलित वर्ग का शोषण बढ़ सकता है और असमानता घटने की जगह बढ़ सकती है। अतः इलिच के निर्विद्यालयीकरण (Deschooting) का विचार उस समाज के लिए अधिक संगत है जहाँ विद्यालयीकरण अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया है परन्तु जहाँ करोड़ों लोग आज भी निरक्षरता एवं अज्ञान के अंधेरे में पड़े हैं। उनके लिए निर्विद्यालयीकरण निरर्थक सा प्रतीत होता है। जहाँ संस्थागत शिक्षा का प्रबन्ध ही नहीं है वहाँ निर्विद्यालयीकरण का क्या औचित्य हो सकता है परन्तु संस्थागत शिक्षा में होने वाली हानियों तथा खतरों पर दृष्टि रखने पर इसे अनौपचारिक शिक्षा के साथ जारी रखा जा सकता है। इस प्रकार इलिच की निर्विद्यालयीकरण की संकल्पना का सार है कि स्कूल एक प्रकार में जाति व्यवस्था का उदात्तीकरण करता है, वह जन्म पर आधारित विभाजन की जगह ‘ऊँची’ और नीची कक्षा या डिग्री के नाम से समाज का वर्गीकरण करता है। अतः इलिच के अनुसार-

“एक शिक्षा व्यवस्था के तीन प्रयोजन होने चाहिए–

(i) इसको उन सभी में, जो सीखना चाहते हैं, को उनकी जीवन शैली में किसी भी समय पर संसाधनों को उपलब्ध कराना चाहिए.

(ii) उनको जो अपने ज्ञान को औरों को बाँटना चाहते हैं। सशक्त करना चाहिए, और

(iii) उन लोगों को जो किसी भी प्रयोग को जनता के सामने प्रस्तुत करना चाहते हैं, अपनी चुनौती को सूचित करने का अवसर प्रदान करना चाहिए।”

“A good educational system should have three purpoles-(i) it should provide all who want to learn with access of available resources at anytime in their lives; empower all who want to share what they know to find there who want to learn it from than; and finally, furnish all who want to present an issue to the public with the opportunity to make their challenge known.”

इलिच के इन क्रान्तिकारी विचारों को हिन्दुस्तान समाचार पत्र में ‘Spokesman of our time : Ival Illich’ शीर्षक से 1981 में छापा गया था, जिसमें उनके योगदान को निम्न रूप में प्रस्तुत किया गया था।

→ समाज में स्कूलों की स्थापना मूलतः प्रौद्योगिकीय समाज के निदान (Diagnouis) हेतु की गई थी। शिक्षा के क्षेत्र में ज्ञान का अत्यधिक उत्पादन (Over production of knowledge) ज्ञान के लिए अभिशाप सिद्ध हुआ है।

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि इवान इलिच शिक्षण प्रक्रिया में सीखने व सिखाने हेतु जिम्मेदारी में कुछ बदलाव लाना चाहते थे। उनकी राय में शिक्षण व्यावसायिक रूप में नहीं होना चाहिए। स्कूलों में विद्यार्थी उपस्थिति को अनिवार्य न बनाते हुए शिक्षण संस्थानों की स्वयं को सुविधा केन्द्रों के रूप में बदलना चाहिए जहाँ हर छात्र को वस्तुओं, स्थानों, घटनाओं व रिकॉड तक पहुँचने की अनुमति होनी चाहिए ताकि वह अपनी रुचि की प्रत्येक वस्तु में कुशलता प्राप्त कर सकें क्योंकि आज उन कुशलताओं की बहुत आवश्यकता है जिन्हें पहले दुर्लभ माना जाता था। शिक्षा में कुशलता प्राप्त करने हेतु विद्यार्थियों को नई तकनीकी उपलब्ध कराई जाय, उन्हें ऐसे उपकरण (Gadgets) उपलब्ध कराए जाये जिन्हें वे अब तक नहीं खरीद पा रहे थे।

शिक्षक की भूमिका

शिक्षक की भूमिका के सन्दर्भ में इलिच का कहना है कि शिक्षक को छात्रों की सीखने की क्रिया को अच्छी तरह मॉनीटर करना चाहिए ताकि वे स्वयः यह तय कर सके कि उन्हें विद्यालय में उपस्थित रहना है या नहीं। इस सन्दर्भ में अध्यापक को विद्यार्थी के प्रत्येक निर्णय को स्वीकार करना चाहिए परन्तु जहाँ अवश्यक हो उसे आवश्यक अनुभवों का लाभ उठाने को प्रेरित भी करना चाहिए। इस प्रकार शिक्षक व विद्यार्थियों को आपस में एक-दूसरे को पढ़ाना चाहिए और एक-दूसरे से सीखना चाहिए व एक-दूसरे की कमजोरियों को मिलकर खोजना चाहिए। इस प्रकार उनके अनुसार शिक्षक की भूमिका, विद्यार्थियों को उनके शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण में सहायता देना, सीखने में आने वाली बाधाओं को दूर करना व उनमें अन्तर्दशी चेतना उत्पन्न करके उनके उद्देश्यों के प्राप्ति के भिन्न मार्गों को ढूंढने में मदद करना आदि के रूप में होनी चाहिए। इस प्रकार इलिच एक नये युग की खोज करना चाहते थे जहाँ विशेषाधिकार व वर्ग विशेष की स्वतन्त्रता वाली व्यवस्था न हो। अतः हमें मिलकर ऐसे विश्व की रचना करनी होगी जिसमें घृणा व क्रोध का कोई स्थान हो तथा आशा, आनन्द व उल्लास का वातावरण बना रहे।

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Anjali Yadav

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