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गाँधीजी के राज्य सम्बन्धी विचार

गाँधीजी के राज्य सम्बन्धी विचार
गाँधीजी के राज्य सम्बन्धी विचार

गाँधीजी के राज्य सम्बन्धी विचारों की विवेचना कीजिए।

गाँधीजी के राज्य सम्बन्धी विचार

राज्य और व्यक्ति सम्बन्ध को लेकर एक तरफ आदर्शवादी जैसी ‘सर्वसत्तावादी राज्य की अवधारणा’ प्रचलित है तो दूसरी तरफ व्यक्तिवाद जैसी ‘राज्य को आवश्यक बुराई’ तथा अराजकतावाद जैसी ‘राज्य की एक बुराई’ और उसके आधार पर उसका तुरन्त पूर्णतः उन्मूलन करने का समर्थन करने वाली विचारधारा विद्यमान है। गांधीजी आदर्श समाज की रचना की दृष्टि से अराजकतावादी तथा मनुष्य की अपूर्णता की दृष्टि में राज्य को एक आवश्यक बुराई मानने वाली व्यक्तिवादी विचारधारा के समर्थक हैं।

एक दार्शनिक अराजकतावादी होने के कारण गाँधीजी राज्य को एक हिंसा-आधारित संगठन होने के नाते मनुष्य के अहिंसक नैतिक विकास में उसे एक बाधक मानते हैं। इस दृष्टि से उनका कथन है कि “राज्य हिंसा का घनीभूत और संगठित रूप है। एक व्यक्ति में आत्मा होती है। लेकिन राज्य आत्म-रहित एक यन्त्र है, वह हिंसा पर जीवित रहता है और हिंसा से उसे कभी पृथक् नहीं किया जा सकता।” राज्य को संगठित हिंसा का प्रनिनिधि रूप मानने के कारण वे राज्य को अपने आदर्श अहिंसक समाज में कोई स्थान प्रदान नहीं करते हैं वरन् इसके विपरीत वे अराजकतावादियों की तरह उसके उन्मूलन के पक्षधर हैं। उनका आदर्श समाज राज्यविहीन है।

लेकिन वे मनुष्य को अपूर्ण मानते हैं और इसलिए राज्य के अस्तित्व को वे उसकी अपूर्णता का परिचायक। अतः वे सिद्धान्त राज्यविहीन समाज के आदर्श को स्वीकार करके भी उसे व्यावहारिक नहीं मानते और इसलिए वे व्यक्तिवादियों की तरह राज्य को एक बुराई के स्थान पर ‘राज्य को एक आवश्यक बुराई’ मानते हैं और चाहते हैं कि राज्य का कार्य-क्षेत्र अत्यन्त सीमित हो और व्यक्ति को अपना नैतिक विकास करने हेतु अधिकतम स्वतन्त्रता प्राप्त हो। इसलिए वे कहते हैं, “राज्य की शक्तियों की वृद्धि को मैं बड़ी आशंका की दृष्टि से देखता हूँ। ऊपर से जान पड़ता है कि बढ़ती हुई राज्य की शक्ति शोषण को रोककर लोगों का हित कर रही है लेकिन वास्तव में इसमें मानव-जाति की बड़ी हानि होती है क्योंकि इससे व्यक्ति का व्यक्तित्व जो सभी प्रकार की उन्नति का मूल है, वह नष्ट हो जाता है।” राज्य के प्रति अपने इस दृष्टिकोण के कारण गाँधीजी आवश्यक बुराई के रूप में राज्य के अस्तित्व को स्वीकार करके भी उसका क्षेत्राधिकार कम से कम रखने के पक्षधर थे।

अतः राज्य के क्षेत्राधिकार या कार्य-क्षेत्र को न्यूनतम रखने के लिए गाँधीजी ने कुछ ऐसे साधनों को अपनाने का सुझाव दिया है जिनसे कि वह अपने कार्यों को न्यूनतम रख सके और वह व्यक्ति की स्वतन्त्रता का अतिक्रमण करने की स्थिति में नहीं रहें। इस हेतु उन्होंने मुख्यतः निम्नलिचिात सुझाव दिये हैं-प्रथम, सत्ता का विकेन्द्रीकरण, द्वितीय, राज्य का अति सीमित शासनाधिकार तथा तृतीय, राज्य सम्प्रभुता खण्डन ।

1. सत्ता का विकेन्द्रीकरण-

राज्य सत्ता को सीमित और न्यूनतम रखने हेतु गाँधीजी ने सबसे महत्वपूर्ण सुझाव यह दिया कि उसकी सत्ता का विकेन्द्रीकरण कर दिया जाये। “न रहेगा बाँस, न बजेगी बांसुरी” के आधार पर जब राज्य के पास विकेन्द्रीकरण के कारण बहुत कम या न्यूनतम आवश्यक सत्ता रहेगी तो फिर उसके दुरुपयोग की सम्भावना और अवसर भी स्वतः समाप्त हो जायेंगे। गाँधीजी के अनुसार राज्य सत्ता का बँटवारा या उसका विकेन्द्रीकरण उसके दुरुपयोग को या व्यक्ति स्वतन्त्रता में अनावश्यक हस्तक्षेप को रोकने का एक कारगार उपाय है। और स्वरूप प्रस्तुत करते हुए राज्य सत्ता को केन्द्र, प्रान्त, जिला या ताल्लुका और ग्राम के स्तर तक विभाजित करना चाहते हैं तथा ग्राम को सत्ता का वास्तविक केन्द्र और राज्य सत्ता का मुख्य स्रोत बनाना चाहते थे। इस तरह वे सत्ता के प्रवाह की वर्तमान ऊपर से नीचे की ओर की स्थिति को बदलकर नीचे से ऊपर की ओर करना चाहते हैं, ताकि राज्य सत्ता वास्तविक रूप से जनसत्ता में परिवर्तित हो जाये।

2. राज्य का अतिसीमित शासनाधिकार-

राज्य द्वारा अपनी सत्ता का दुरुपयोग न किया जा सके, इस हेतु गाँधीजी उसके शासनाधिकार का क्षेत्र अति सीमित रखना चाहते हैं। व्यक्ति स्वातन्त्र्य में उसका हस्तक्षेप कम से कम हो, यह तभी सम्भव है जबकि उसका शासनाधिकार का क्षेत्र अतिसीमित हो। राज्य के पास करने के लिए बहुत कम काम हो। उसके उत्तरदायित्व सीमित हो। गाँधीजी भी इस दृष्टि से हेनरी चोरी की इस मान्यता में विश्वास रखते थे कि वह सरकार सबसे अच्छी है जो कम से कम शासन करती है।” राज्य शासन के सम्बन्ध में दरअसल यह एक व्यक्तिवादी मान्यता है जो राज्य को आवश्यक बुराई माने जाने के सिद्धान्त पर आधारित है। इसके आधार पर ही राज्य के कार्यक्षेत्र को अत्यधिक सीमित रखने के समर्थक थे। गाँधीजी के लिए राज्य का महत्व एक आवश्यक बुराई से अधिक नहीं था। मनुष्य की अपूर्णता के कारण वे उसके अस्तित्व को स्वीकार करने के लिए बाध्य थे लेकिन उसके कार्य-क्षेत्र को अत्यधिक सीमित रखकर वे उसके द्वारा अपनी सत्ता का दुरुपयोग न किया जा सके, इसकी व्यवस्था किये जाने के पक्ष में थे। इस तरह “कम से कम राज्य सत्ता और अधिक से अधिक स्वतन्त्रता” रूपी सिद्धान्त में उनका दृढ़ विश्वास था।

3. राज्य सम्प्रभुता का खंडन –

गाँधीजी आदर्शवादी विचार को हीगल, ग्रीन आदि के अनुसार राज्य की सम्प्रभुता या सर्वोच्चता में विश्वास नहीं रखते थे और न ही यह मानते थे कि इस आधार पर व्यक्ति को राज्य की हर आज्ञा को अपनी मानकर पालन करना चाहिए। इस दृष्टि से उनकी मान्यता थी कि राज्य व्यक्ति की श्रद्धा का पात्र तभी हो सकता है जबकि वह उसके कल्याण की चिन्ता करे और तदनुसार कार्य करे। उनके अनुसार “राज्य के प्रति श्रद्धा-भाव कोई स्थायी सिद्धान्त नहीं है वरन् एक आपसी आदान-प्रदान है। राज्य व्यक्ति के कल्याण के लिए कार्य करे और बदले में उसकी श्रद्धा को प्राप्त करे। यदि राज्य ऐसा नहीं करता है और अपनी सत्ता का दुरुपयोग कर व्यक्ति स्वातन्त्र्य को कुचलता है, अधिकारों का हनन करता है, अपने कानून के माध्यम से अन्याय और अत्याचार करता है और व्यक्ति को अपने अंत:करण के विरुद्ध अपने आदेशों को मानने के लिए बाध्य करता है तो ऐसी स्थिति में उसका यह अधिकार ही नहीं, कर्तव्य भी है कि वह राज्य और उसकी सत्ता का विरोध करे लेकिन यह विरोध हिंसात्मक नहीं, अहिंसात्मक होना चाहिए। इस प्रकार गाँधीजी राज्य सम्प्रभुता के सिद्धान्त का खंडन करते हैं तथा उसके जनसम्प्रभुता में परिवर्तित होने पर ही व्यक्ति के लिए उसके आदेशों का पालन आवश्यक बताते हैं। ऐसा नहीं होने पर वे व्यक्ति को उसका अहिंसक विरोध करने का अधिकार प्रदान करते हैं।

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Anjali Yadav

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