हिन्दी विषय की पाठ्य पुस्तक की शिक्षाशास्त्रीय विश्लेषण कीजिए ।
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पाठ्य-पुस्तकों की आवश्यकता
आधुनिक शिक्षा प्रणाली में पाठ्य-पुस्तकों का महत्त्व दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है। ये आधुनिक शिक्षा का आधार बन चुकी हैं। विद्यार्थियों को अपने ज्ञान में वृद्धि करने के लिए इनका अवलम्बन करना ही पड़ता है। इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए विश्वविद्यालय एवं शिक्षा-मण्डल विभिन्न कक्षाओं एवं परीक्षाओं के लिए पाठ्य-पुस्तकों का निर्धारण करते हैं। ये पाठ्य-पुस्तकें न केवल विद्यार्थियों के लिए वरन् अध्यापकों के लिए भी महत्त्वपूर्ण होती हैं। एक साधारण या नये अध्यापक के लिए पाठ्य-पुस्तकें पथ-प्रदर्शक का कार्य करती हैं। पाठ्य-पुस्तकें अध्यापक को इस बात का ज्ञान करा देती हैं कि उसे कक्षा में किस प्रकार पढ़ाना है। जब अध्यापक अनुभवहीन होता है, ऐसी अवस्था में पाठ्य-पुस्तकें उसके लिए वरदान साबित होती हैं। उसे बड़ी आसानी से ज्ञात हो जाता है कि वर्षभर उसे कब, क्या पढ़ाना चाहिए जहाँ पर प्रश्न एक सुयोग्य अध्यापक का उठता है, वह पाठ्य पुस्तक के बिना भी पढ़ाना जानता है।
पाठ्य-पुस्तकों के प्रकार
वैसे तो पाठ्य-पुस्तकें कई प्रकार की हैं, किन्तु अध्यापन की दृष्टि से इन्हें दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- (1) व्यापक अध्ययन की पुस्तकें, (2) सहायक पुस्तकें।
(1) व्यापक अध्ययन की पुस्तकें- इनसे आशय उन पुस्तकों से लगाया जाता है जिनके द्वारा बालकों के शब्द-भंडार तथा सूक्ति भण्डार में वृद्धि होती है। इसे हम इस प्रकार भी कह सकते हैं कि जिन शब्दों-सूक्तियों और लोकोक्तियों का समावेश पाठ्य पुस्तक में किया गया है, बच्चे उनका सही-सही प्रयोग कर सकें।
(2) सहायक पुस्तकें- इन पुस्तकों को हम द्रुत वाचन की पुस्तकें भी कह सकते हैं। इन पुस्तकों का उद्देश्य शब्दार्थ समझाना या व्याख्या करना नहीं होता है बल्कि तीव्र गति से वाचन का अभ्यास करना होता है। विद्यार्थी शीघ्रातिशीघ्र इनको पढ़कर भावार्थ ग्रहण कर लें, यही इन पुस्तकों का मुख्य उद्देश्य होता है। इन पुस्तकों के वाचन में विद्यार्थी अध्यापक की सहायता ले सकते हैं।
पाठ्य-पुस्तक की विशेषताएँ
पाठ्य-पुस्तक को विषयानुरूप अच्छा बनाने के लिए उनमें निम्नांकित विशेषताओं का होना आवश्यक है-
(1) सार्थकता- किसी भी पाठ्य पुस्तक की यह प्रथम कसौटी होती है कि उद्देश्य के अनुसार वह सार्थक है या नहीं अर्थात् पाठ्य पुस्तकों से अपेक्षित लाभ प्राप्त हुए या नहीं। सार्थकता प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि उसमें ऐसे पाठ न हों जो विषय से असंबद्ध दिखायी पड़ें। पाठ्य विषय में एकता और निरन्तरता होनी चाहिए तथा उसका विभाजन भिन्न-भिन्न अनुच्छेदों में हो, एक वाक्य दूसरे वाक्य से एक अनुच्छेद दूसरे अनुच्छेद से जुड़ा रहना चाहिए। ऐसा गुण आ जाने पर पुस्तक सार्थक हो जाती है।
(2) उपयुक्तता- विद्यार्थियों के शारीरिक एवं मानसिक विकास की अवस्थायें भिन्न होती हैं। अतः पुस्तकों में उनकी आयु के अनुसार मानसिक रुचियों पर ध्यान देना चाहिए। प्रारम्भिक कक्षाओं के विद्यार्थी अद्भुत और रहस्यमयी कहानियाँ; जैसे- राजा-रानी की कहानी, जादूगर की कहानी, परी कथायें आदि चाव से पढ़ते हैं। इसी प्रकार माध्यमिक स्तर के विद्यार्थी जीवनियों आदि के प्रति अधिक उत्सुक होते हैं। अतः पाठ्य पुस्तकों में ऐसे विषयों को ही स्थान दिया जाना चाहिए जो विद्यार्थियों की आवश्यकता के अनुरूप हों।
(3) अभ्यास- इसके अन्तर्गत पाठ्य पुस्तक में उन विषयों को भी शामिल किया जाना चाहिए जिन्हें विद्यार्थी पूर्व की कक्षा में पढ़ चुका है। इसका लाभ यह होता है कि विद्यार्थी वर्तमान पाठ्य-पुस्तक को पढ़ने के लिए तैयार हो जाता है तथा पाठ्यक्रम से तारतम्य स्थापित कर लेता है।
(4) भाषा सरलता से जटिलता की ओर- पाठ्य पुस्तकों का पाठ्य-विषय एक क्रम में होना चाहिए। भाषा विद्यार्थी की आयु के अनुसार सरलता से कठिनता की ओर होनी चाहिए। यहाँ पर ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि विद्यार्थी का आयु के अनुसार भाषा न अधिक सरल हो और न अधिक कठिन हो ।
(5) साहित्य की सभी धाराओं को स्थान देना चाहिए- पाठ्य पुस्तकों का निर्माण इस प्रकार करना चाहिए कि विद्यार्थी साहित्य की सभी धाराओं से परिचित हो जायें।
(6) कविताओं की पर्याप्तता- पाठ्य पुस्तक के अन्तर्गत उचित परिमाण में कविताओं को स्थान दिया जाना चाहिए। प्रारम्भिक अवस्था में बाल गीत तथा साधारण तुकबन्दी वाली कविताओं को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए। तदुपरान्त वर्णनात्मक तथा कल्पनात्मक कविताओं को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए।
(7) मौलिकता की सुरक्षा- प्रायः देखा जाता है कि पाठ्य पुस्तकों के संपादक लेखकों की रचना को संक्षिप्त कर देते हैं या उसे अपने शब्दों में ढाल देते हैं। ऐसा करने से रचना की मौलिकता की सुरक्षा अवश्य की जाये जिससे विद्यार्थी रचना के सही स्वरूप और भाव को ग्रहण कर सकें।
(8) विषयानुसार चित्रों का प्रयोग- प्राथमिक कक्षाओं में विषयों के अनुसार चित्रों का अवश्य प्रयोग करना चाहिए इससे विषय रुचिकर हो जाता है।
(9) सम्पूर्ण राष्ट्र का प्रतिनिधित्व- पाठ्य पुस्तकों में विषयों का चुनाव इस अनुपात में करना चाहिए कि राष्ट्र के प्रदेशों का परिचय दिया जा सके। लेखों, कहानियों और कविताओं का चुनाव करते समय प्रत्येक प्रान्त के लेखकों और महापुरुषों की रचना शामिल करना चाहिए।
(10) रोचकता- पाठ्य पुस्तक में रोचकता के प्रति असावधान नहीं रहना चाहिए। सामग्री चाहे भले ही महत्त्वपूर्ण हो किन्तु रोचकता के अभाव में व्यर्थ हो जायेगी तथा विद्यार्थी उदासीन हो जायेंगे।
(11) रचनाओं का आकार- यह भी एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है। सामान्यतः एक पीरियड 35 से लेकर 40 मिनट तक का होता है। अतः रचनायें ऐसी हों जिनका वाचन इस अवधि में पूर्ण किया जा सकें।
(12) जिल्द और मूल्य- विद्यार्थी किताब पूरे वर्ष के लिए खरीदता है अतः जिल्द ऐसी होनी चाहिए कि खराब दशाओं में प्रयोग करने पर भी पुस्तक सुरक्षित रहे। इसी प्रकार पुस्तक का मूल्य भी वाजिब रखना चाहिए।
(13) आवरण और कागज़- पुस्तकों का आवरण आकर्षक और रंग-बिरंगा होना चाहिए क्योंकि इससे बच्चों की रुचि जाग्रत होती है। इसी प्रकार छपाई का कागज़ चिकना और मजबूत रहना चाहिए इससे पुस्तक टिकाऊ हो जाती है।
भाषा शिक्षण में पाठ्य पुस्तकों का महत्त्व
पाठ्य पुस्तक की आवश्यकता एवं महत्त्व के निम्नलिखित कारण हैं-
- पाठ्य-पुस्तकें छात्रों तथा अध्यापकों के लिये मार्गदर्शन का काम करती हैं।
- पाठ्य पुस्तकों के द्वारा परीक्षा के समय छात्रों को सहायता मिलती है।
- इनके द्वारा छात्रों एवं अध्यापकों के समय की बचत होती है।
- मन्द बुद्धि छात्रों के लिए पाठ्य-पुस्तकें अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होती हैं।
- पाठ्य-पुस्तकों के माध्यम से छात्रों की स्मरण एवं तर्क शक्ति विकसित होती हैं।
- पाठ्य-पुस्तकें किसी निर्धारित कार्य की तैयारी के लिए आवश्यक होती हैं।
- ये छात्रों को गृहकार्य देने एवं एकरूपता लाने में सहायक सिद्ध होती हैं।
- पाठ्य-पुस्तकों के स्वाध्याय द्वारा ज्ञान प्राप्त करने में छात्रों को प्रेरणा प्राप्त होती है।
- अतीत के ज्ञान का संचय इन्हीं के द्वारा ही सम्भव है।
- पाठ्य-पुस्तक में ज्ञान को क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
- यह अध्यापक को शिक्षण की दृष्टि से कक्षा स्तर का बोध कराती हैं।
- पाठ्य-पुस्तक में विषय-सामग्री का संगठन निर्धारित पाठ्यक्रम के अनुसार होने के कारण अध्यापक को विषय-वस्तु का ज्ञान सरलता से हो जाता है।
- यह विद्यार्थियों में अन्वेषणात्मक अध्ययन करने की आदत का निर्माण करती है।
- इसके द्वारा अध्यापकों तथा विद्यार्थियों को उपयोगी एवं बहुमूल्य अनुभव प्राप्त होते हैं।
- इनसे छात्रों को विषय-सामग्री के सन्दर्भ में पूर्ण निर्देशन प्राप्त होते हैं।
- हार्न के अनुसार, “शिक्षण विधि एवं पाठ्यवस्तु के सुधार में अच्छी पाठ्य पुस्तकों का स्थान सर्वोपरि है।”
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