अधिगमकर्त्ता के विकासात्मक स्तरानुसार लक्षणों की विवेचना कीजिए।
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अधिगमकर्त्ता के विकासात्मक स्तरानुसार लक्षण (Developmental Stage wise Characteristics of the Learners)
1. शैशवावस्था
शैशवावस्था के अन्तर्गत शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और संवेगात्मक विकास से सम्बन्धित प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
(1) शारीरिक विकास में तीव्रता- शैशवावस्था में शारीरिक विकास में तीव्रता होती है। बालक के जीवन के प्रथम तीन वर्षों में शारीरिक विकास अत्यन्त तीव्र गति से होता है। पहले वर्ष में लम्बाई और भार दोनों ही अत्यन्त तीव्र गति से बढ़ते हैं। उसकी कर्मेन्द्रियों, आन्तरिक अंगों, मांसपेशियों आदि का उत्तरोत्तर विकास होता है।
(2) अपरिपक्वता- शैशवावस्था में शिशु शारीरिक और बौद्धिक रूप से अपरिपक्व होता है और शनैः शनैः स्वाभाविक रूप से पालन-पोषण द्वारा ही वह परिपक्व होता है।
(3) पर निर्भरता – जन्म के पश्चात् कुछ समय तक शिशु दूसरा पर निर्भर रहता है। उसे भोजन और अन्य शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु तथा स्नेह और सहानुभूति प्राप्त करने हेतु दूसरों पर ही आश्रित रहना होता है।
(4) मूल-प्रवृत्त्यात्मक व्यवहार- शैशवकाल में अधिकांश व्यवहार मूल प्रवृत्तियों पर आधारित होते हैं। भूख लगने पर शिशु रोता है, क्रोधित होता है और जो भी वस्तु उसके पास आती है उसे मुँह में डाल लेता है।
(5) मानसिक क्रियाओं में तीव्रता- शिशु की मानसिक क्रियाओं के अन्तर्गत स्मृति, ध्यान, कल्पना, संवेदना, प्रत्यक्षीकरण आदि का विकास अत्यन्त तीव्र गति से होता है। गुडएनफ ने लिखा है- “व्यक्ति का जितना भी मानसिक विकास होता है, उसका आधा तीन वर्ष की आयु तक हो जाता है।”
(6) सीखने की प्रक्रिया में तीव्रता- शैशवावस्था में सीखने की गति अत्यन्त तीव्र होती है। गैसेल का विचार है- “बालक 6 वर्षों में बाद के 12 वर्षों से दूना सीख लेता है।”
(7) दोहराने की प्रवृत्ति- शैशवावस्था में किसी कार्य को दोहराने की विशेष प्रवृत्ति पाई जाती है। ऐसा करने में शिशु को आनन्द आता है। इसी आधार पर किण्डरगार्टेन और मॉण्टेसरी स्कूलों में बच्चों से गीत और रचना की आवृत्ति करवाई जाती है।
(8) अनुकरण द्वारा सीखने की प्रवृत्ति- शिशु सबसे अधिक और शीघ्रतापूर्वक अनुकरण विधि से सीखते हैं। वे परिवार में माता-पिता, भाई-बहन और अन्य सदस्यों के व्यवहार का अनुकरण करके शीघ्रतापूर्वक सीख जाते हैं।
(9) अकेले और साथ खेलने की प्रवृत्ति- यदि शिशु के व्यवहार का भली-भाँति निरीक्षण किया जाय तो यह देखा जा सकता है कि उसमें पहले अकेले एकान्त में खेलने और बाद में दूसरों के साथ खेलने की प्रवृत्ति होती है।
(10) सामाजिक भावना का विकास- शैशवावस्था के अन्तिम वर्षों में सामाजिक भावना का विकास होता है।
2. बाल्यावस्था
विकास की दृष्टि से बाल्यावस्था की प्रमुख विशेषताएँ निम्नवत् हैं-
(1) शारीरिक एवं मानसिक विकास की गति में स्थिरता- बाल्यावस्था में विकास की गति में स्थिरता एवं स्थायित्व आ जाता है। विकास की दृष्टि से इस अवस्था को दो भागों में बाँटा जा सकता है– (i) 6 से 9 वर्ष तक “संचय काल” (Conservation period) और (ii) 10 से 12 वर्ष तक “परिपक्वता का काल” (Consolidation period)
शैशवावस्था एवं पूर्व-बाल्यावस्था (6 से 9 वर्ष) में जो विकास होता है, वह प्राकृतिक नियमों के अनुसार उत्तर- बाल्यावस्था (10 से 12 वर्ष) की अवस्था दृढ़ होने लगता है। बालक की चंचलता शैशवावस्था की अपेक्षा कम हो जाती है और वह वयस्कों से मिलता जुलता व्यवहार करने लगता है।
(2) नैतिकता का विकास- सामाजिकता से बालक में नैतिकता का प्रादुर्भाव होने लगता है। उसमें यह भावना विकसित होने लगती है कि पास-पड़ोस, विद्यालय तथा समाज के लोगों की दृष्टि में वह अच्छा बने और वह उनका आदर करे।
(3) सामूहिकता की भावना का विकास- बाल्यकाल में सामूहिकता की भावना अपने शुद्धतम रूप में विकसित होती है। चूँकि इस अवस्था में बालक एक बहुत बड़े क्षेत्र में विचरण करता है, उसमें स्पर्धा की भावना के बजाय परमार्थ की भावना आने लगती है।
(4) वास्तविकता की पहचान- बाल्यावस्था में बालक बाह्य दुनिया में विचरण करने लगता है। वह विभिन्न वस्तुओं के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करता है। उससे उसके ज्ञान एवं अनुभवों में वृद्धि होती है। इस प्रक्रिया द्वारा वह जीवन की वास्तविकताओं से परिचित होता है और उन्हें पहचानता है। उसे अनुभूति होने लगती है कि समाज और जीवन के प्रति उसके क्या उत्तरदायित्व हैं।
(5) बहिर्मुखी भावना का विकास- जैसे-जैसे बालक के पर्यावरण में विस्तार होता – है और वह अपने आस-पास की चीजों के प्रति जिज्ञासु होता है, उसकी अन्तर्मुखी भावना में कमी आने लगती है और उसका स्थान बहिर्मुखी भावना लेने लगती है।
(6) अनुभवों का संचय एवं उनकी वृद्धि- बाल्यावस्था में जो अनुभव वह प्राप्त करता है वह उसके मानस पटल पर दृढ़ता से अंकित हो जाता है। धीरे-धीरे उसके मस्तिष्क में अनुभवों का संचय होने लगता है।
(7) जिज्ञासा में वृद्धि- मानसिक परिपक्वता के साथ-साथ बालक में जिज्ञासा की वृद्धि होती है। मानसिक शक्तियों के विकास के परिणामस्वरूप बालक अपने वातावरण के प्रति अधिक रुचि लेने लगता है। इस रुचि के फलस्वरूप उसमें जिज्ञासा बढ़ती है।
(8) खेल-कूद के प्रति आकर्षण- बाल्यावस्था में बालकों में खेल-कूद के प्रति काफी आकर्षण होता है। सामूहिकता की भावना से प्रेरित होकर वह अपने संगी-साथियों के साथ खेल-कूद में भाग लेता है। बालक एक समूह का सदस्य होता है, वह अपने समूह के प्रति दायित्व का अनुभव करता है और अपने नेता को आज्ञानुसार कार्य करना अपना कर्त्तव्य समझता है।
3. किशोरावस्था
यहाँ किशोरावस्था की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख किया जा रहा है-
(1) शारीरिक परिवर्तन- इस अवस्था में महत्त्वपूर्ण शारीरिक परिवर्तन होते हैं। इस अवस्था में शारीरिक दृष्टि से यौवन के आरम्भ के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। बालक पुरुषत्व की ओर, बालिका स्त्रीत्व की ओर बढ़ने लगती हैं। दोनों में परिपक्वता आ जाती है। हॉल ने लिखा है- “इस अवस्था में न केवल गति क्रिया बढ़ती है, वरन् गति-शक्ति भी विकसित होती है।”
(2) मानसिक परिवर्तन- किशोरावस्था में शारीरिक विकास के साथ ही मानसिक विकास में भी वृद्धि होती है। किशोरों में कल्पना, दिवास्वप्नों की अधिकता, तर्क एवं निर्णय शक्ति में वृद्धि और विरोधी मानसिक दशाएँ आदि मानसिक गुण देखे जाते हैं।
(3) भावात्मक जीवन- किशोरावस्था में बालक की भावनाएँ अत्यन्त प्रबल होती हैं। किशोर का जीवन अत्यन्त भावात्मक होता है। वह हर समय उमंगों में ही डूबा रहता है। कभी कभी भावावेश में असाधारण कहे जाने वाले कार्य भी कर डालता है। वह अनेक संवेगों का अनुभव करता है।
(4) विरोधी मानसिक दशाएँ- इस अवस्था में विरोधी मानसिक दशाएँ उत्पन्न होती हैं। ये कभी किशोर को स्वार्थी तथा कभी स्वार्थरहित बना देती हैं। इस कारण किशोर संवेगात्मक जीवन में समायोजन नहीं कर पाता। उच्च स्तर पर किशोरावस्था प्रारम्भिक बाल्यावस्था का पुनरावर्तन है। बालक बौद्धिक रूप से श्रेष्ठ होता है, परन्तु संवेगात्मक रूप से अधिक उलझन युक्त और अव्यवस्थित रहता है।
(6) बुद्धि का चरम विकास- सभी मनोवैज्ञानिक इस मत से सहमत हैं कि किशोरावस्था में बुद्धि का अधिकतम विकास हो जाता है। जॉन्स तथा कामरेड के अनुसार, 16 वर्ष की अवस्था में, हरमैन के अनुसार, 15 वर्ष की अवस्था में और स्पीयरमैन के अनुसार, 14 वर्ष की अवस्था में बुद्धि का पूर्ण विकास हो जाता है।
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