अध्यापकों की स्थिति और अध्यापक शिक्षा के सम्बन्ध में शिक्षा आयोग के सुझावों की विवेचना कीजिए।
‘कोठारी आयोग’ के लगभग सभी सदस्यों ने अध्यापकों की दयनीय स्थिति का अनुभव किया था और उनकी यह स्पष्ट धारणा थी कि जब तक अध्यापकों की स्थिति में सुधार नहीं किया जायेगा तब तक सुयोग्य व्यक्ति शिक्षण व्यवसाय की ओर आकर्षित नहीं होंगे। ‘आयोग’ ने स्पष्ट रूप से कहा – “शिक्षकों की आर्थिक, सामाजिक एवं व्यावसायिक स्थिति को समुन्नत बनाने और प्रतिभाशाली तरुण व्यक्तियों को शिक्षण-व्यवसाय के प्रति पुनः आकर्षित करने के लिए सघन एवं सतत् प्रयासों की आवश्यकता है।”
‘कोठारी आयोग’ ने शिक्षकों की स्थिति में सुधार हेतु जो विचार व्यक्त किये उन्हें यहाँ संक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा है-
(अ) वेतन- ‘आयोग’ ने शिक्षकों के वेतन के सम्बन्ध में निम्न सुझाव दिये –
(i) भारत सरकार द्वारा संचालित विद्यालयों के अध्यापकों के लिए न्यूनतम वेतनमान निश्चित किया जाना चाहिये और राज्यों एवं केन्द्र प्रशासित क्षेत्रों को भी अपनी परिस्थिति के अनुरूप समान अथवा उच्च वेतन निर्धारित करने चाहिये।
(ii) विभिन्न प्रबन्धों जैसे सरकार, स्थानीय निकाय अथवा निजी प्रबन्धों के अधीन चल रहे एक ही कोटि के स्कूल अध्यापकों का वेतनमान समान हो। समानता का यह सिद्धान्त शीघ्रातिशीघ्र लागू होना चाहिये और यदि आवश्यक हो तो इस सिद्धान्त पर पूरी अमल करने के लिए एक पंचवर्षीय कार्यक्रम बना लेना चाहिये।
(iii) विश्वविद्यालयों और उनसे सम्बद्ध महाविद्यालयों के वेतनमानों में पर्याप्त वृद्धि की जानी चाहिये ।
(ब) शिक्षकों के वेतनमान – ‘कोठारी आयोग ने शिक्षकों के विभिन्न स्तरों पर विभिन्न प्रकार की शैक्षिक योग्यताओं वाले शिक्षकों के हेतु विभिन्न प्रकार से वेतनमान लागू करने का सुझाव दिया।
(स) वेतनमान सम्बन्धी सुझाव – ‘कोठारी आयोग’ ने शिक्षकों के वेतनमान ही नहीं निर्धारित किये बल्कि उनके वेतन-क्रम के सम्बन्ध में भी सुझाव दिये, वे हैं-
- शिक्षकों के वेतन-क्रम पाँच वर्ष के बाद दोहराये जाने चाहिये।
- आयोग ने शिक्षकों के जो वेतनमान निर्धारित किये हैं उन्हें तुरन्त लागू किया जाना चाहिये।
- शिक्षकों को सरकारी कर्मचारियों के बराबर महँगाई भत्ता दिया जाना चाहिये।
- वेतनमान के सुझावों को क्रियान्वित करने के साथ ही शिक्षकों की योग्यताओं और नियुक्तियों की विधियों में भी सुधार किया जाना चाहिये।
(द) कार्य एवं सेवा की दशायें – ‘कोठारी आयोग’ ने शिक्षकों के कार्य एवं सेवा की दशाओं के सम्बन्ध में निम्नलिखित सुझाव दिये-
(i) शिक्षकों को कुशलतापूर्वक कार्य करने हेतु शिक्षण संस्थाओं द्वारा न्यूनतम सुविधायें प्रदान की जानी चाहिये।
(ii) शिक्षकों को व्यावसायिक उन्नति हेतु उपयुक्त अवसर प्रदान किये जाने चाहिये।
(iii) शिक्षकों को पाँच वर्ष में कम-से-कम एक बार देश के किसी भी स्थान पर भ्रमण करने हेतु उनके वेतन के अनुसार रियायती दर पर रेल टिकट दिये जाने चाहिये।
(iv) सरकारी और गैर-सरकारी विद्यालयों के शिक्षकों की सेवा-दशाओं में समानता पायी जानी चाहिये।
(v) ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यरत शिक्षकों को निवास स्थान प्रदान करने के प्रयास किये जाने चाहिये।
(vi) शिक्षकों हेतु सहकारी गृहनिर्माण योजनाओं को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। शिक्षकों में प्रचलित ट्यूशन की प्रथा को नियन्त्रित करने का प्रयास किया जाना चाहिये।
(vii) बड़े नगरों में कार्य करने वाले शिक्षकों को मकान किराये हेतु देने की प्रथा प्रारम्भ की जानी चाहिये।
(viii) शिक्षकों को सभी नागरिक अधिकारों का प्रयोग करने की पूर्ण स्वतन्त्रता दी जानी चाहिये।
(ix) शिक्षकों पर किसी तरह के निर्वाचन में भाग लेने हेतु कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाया जाना चाहिये।
(x) शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर अध्यापिकाओं की नियुक्ति को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
(xi) ग्रामीण क्षेत्रों में कार्य करने वाली अध्यापिकाओं हेतु विशेष भत्ते की व्यवस्था की जानी चाहिये।
(xii) अध्यापिकाओं हेतु ‘पत्र-व्यवहार द्वारा शिक्षा’ (Correspondence Courses) की सुविधाओं का विस्तार किया जाना चाहिये।
अध्यापक शिक्षा – ‘कोठारी आयोग’ ने अध्यापक शिक्षा के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए कहा- “शिक्षा की गुणात्मक उन्नति के लिए अध्यापकों की व्यावसायिक शिक्षा का ठोस कार्यक्रम अनिवार्य है।” अध्यापक शिक्षा के सम्बन्ध में “कोठारी आयोग’ ने अध्यापक शिक्षा के दोषों का उल्लेख किया और उसके बाद इस शिक्षा के सुधारों के सम्बन्ध में विचार व्यक्त किये। यहाँ इनका उल्लेख किया जा रहा है-
(अ) अध्यापक शिक्षा के दोष- ‘आयोग’ के अनुसार अध्यापक शिक्षा के निम्न दोष हैं-
- प्रशिक्षण संस्थाओं का कार्य निम्न अथवा साधारण कोटि का है।
- प्रशिक्षण संस्थाओं के पाठ्यक्रम में नवीनता, सजीवता और वास्तविकता का अभाव है।
- प्रशिक्षण संस्थाओं में कार्य करने के योग्य अध्यापकों की कमी है।
- प्रशिक्षण संस्थाओं द्वारा प्रशिक्षण किये जाने वाले अधिकार प्रशिक्षण परम्परागत हैं।
- प्रशिक्षण संस्थाओं में प्रयुक्त की जाने वाली शिक्षण विधियाँ घिसी-पिटी हैं और शिक्षण के वर्तमान उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायता नहीं प्रदान करती।
- प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षकों को शिक्षण प्रदान करने वाली संस्थाओं का इन विद्यालयों के दैनिक जीवन और विश्वविद्यालय से किसी तरह का कोई सम्बन्ध नहीं है।
(ब) अध्यापक शिक्षा की पृथकता का अन्त – ‘कोठारी आयोग ने कहा- “शिक्षकों की व्यावसायिक शिक्षा को प्रभावपूर्ण बनाने के लिए उसे एक ओर विश्वविद्यालयों के साहित्यिक जीवन से और दूसरी ओर विद्यालय-जीवन एवं शिक्षा सम्बन्धी नवीनतम विचारों के सम्पर्क में लाया जाना परम आवश्यक है।’ इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु ‘आयोग’ ने निम्न सुझाव दिये –
(i) ‘शिक्षा’ विषय को विश्वविद्यालयों के बी. ए. और एम. ए. पाठ्यक्रमों में सम्मिलित किया जाना चाहिये।
(ii) कुछ विशिष्ट विद्यालयों में अध्यापक शिक्षा के पाठ्यक्रमों के विकास, अध्ययन एवं अनुसन्धान हेतु शिक्षा विभागों की स्थापना की जानी चाहिये।
(iii) सभी प्रशिक्षण संस्थाओं में प्रसार सेवा विभाग’ (Extensive Service Department) का निर्माण किया जाना चाहिये।
(iv) प्रशिक्षण काल में छात्राध्यापकों को शिक्षण अभ्यास हेतु केवल मान्यता प्राप्त विद्यालय का ही प्रयोग किया जाना चाहिये।
(v) प्रशिक्षण संस्थाओं तथा उनसे सम्बद्ध शिक्षण अभ्यास के विद्यालयों को समय-समय पर दूसरे स्थान पर कार्य करना चाहिये।
(vi) विभिन्न प्रकार की शिक्षण संस्थाओं की पृथकता का अन्त करने हेतु सभी को ‘प्रशिक्षण विद्यालय’ कहा जाना चाहिये और उन्हें अपने क्षेत्र के विश्वविद्यालयों से सम्बद्ध किया जाना चाहिये।
(vii) सभी राज्यों में ‘कॉम्प्रीहेन्सिव कॉलेजों’ (Comprehensive Colleges) की स्थापना की जानी चाहिये तथा उनमें शिक्षा के विभिन्न स्तरों हेतु अध्यापकों को प्रशिक्षण प्रदान किया चाहिये।
(viii) प्रत्येक राज्य में अध्यापक शिक्षा की राज्य परिषद्’ (State Council of Teacher Education) का निर्माण किया जाना चाहिये जिस पर सभी स्तरों के शिक्षकों के प्रशिक्षण का दायित्व डाला जाना चाहिये।
(स) व्यावसायिक शिक्षा की उन्नति अध्यापक शिक्षा की व्यावसायिक उन्नति हेतु ‘कोठारी आयोग’ ने निम्नलिखित सुझाव दिये-
(i) शिक्षण के अभ्यास में गुणात्मक उन्नति करने का प्रयास किया जाना चाहिये।
(ii) छात्राध्यापकों हेतु विशिष्ट कार्यक्रम तथा पाठ्यक्रमों का निर्माण किया जाना चाहिये।
(iii) आधारभूत शिक्षा के सभी स्तरों पर कार्यक्रमों तथा पाठ्यक्रमों के उन आधारभूत उद्देश्यों को पढ़ाया जाना चाहिये जिसके हेतु छात्राध्यापकों को तैयार किया जा रहा है।
(iv) सभी प्रशिक्षण संस्थाओं के पाठ्यक्रमों की शिक्षा की विषय-सामग्री का इस तरह रूपान्तर किया जाना चाहिये कि छात्राध्यापकों को विद्यालयों में पढ़ाये जाने वाले विषय के उद्देश्य, प्रयोजन तथा जटिलताओं का ज्ञान प्राप्त हो सके।
(v) विश्वविद्यालयों में सामान्य तथा व्यावसायिक शिक्षा के एकीकृत (Integrated) पाठ्यक्रम प्रारम्भ किये जाने चाहिये।
(द) प्रशिक्षण की अवधि – ‘कोठारी आयोग’ ने विभिन्न प्रशिक्षण स्तरों की अवधि के सम्बन्ध में निम्नलिखित सुझाव दिये-
(i) प्राथमिक विद्यालय के उन अध्यापकों हेतु जिन्होंने सेकेण्डरी स्कूल पाठ्यक्रम उत्तीर्ण किया है- प्रशिक्षण की अवधि दो वर्ष रखी जानी चाहिये ।
(ii) माध्यमिक विद्यालयों के उन अध्यापकों हेतु जो स्नातक हैं- प्रशिक्षण की अवधि एक वर्ष रखी जानी चाहिये परन्तु कुछ वर्ष बाद इसे दो वर्ष कर दिया जाना चाहिये।
(iii) शिक्षा में स्नातकोत्तर (एम. एड.) पाठ्यक्रम की अवधि डेढ़ वर्ष रखी जानी चाहिये।
(य) प्रशिक्षण संस्थाओं की उन्नति- ‘कोठारी आयोग’ ने ‘अध्यापक प्रशिक्षण’ संस्थाओं की गुणात्मक उन्नति हेतु निम्न सुझाव दिये-
(i) प्रशिक्षण विद्यालयों के अध्यापकों के पास शिक्षा की उपाधि (Degree in Education) के साथ ही 2 स्नातकोत्तर उपाधियाँ (Post Graduate Degrees) भी होनी चाहिये।
(ii) प्रशिक्षण विद्यालयों के अध्यापकों में डॉक्टर (Ph.D.) की उपाधियों वाले शिक्षकों की संख्या उचित अनुपात में होनी चाहिये।
(iii) विज्ञान, गणित, मनोविज्ञान और समाजशास्त्र की शिक्षा देने वाले अध्यापक विशेषज्ञ होने चाहिये, भले उन्होंने प्रशिक्षण प्राप्त न किया हो।
(iv) प्रत्येक प्रशिक्षण संस्था में संलग्न एक प्रयोगात्मक विद्यालय (Experimental School) होना चाहिये।
(v) प्रशिक्षण संस्थाओं के छात्राध्यापकों से किसी तरह का शुल्क नहीं लेना चाहिये तथा उनको ऋण तथा छात्रवृत्तियों के रूप में आर्थिक सहायता प्रदान की जानी चाहिये।
(vi) प्रशिक्षण संस्थाओं के पुस्तकालयों, प्रयोगशालाओं आदि की दशा अत्यन्त दयनीय है अतः इनमें सुधार किया जाना चाहिये।
(vii) विभिन्न विश्वविद्यालयों में कार्य करने वाले, प्रशिक्षित शिक्षकों को प्रशिक्षण प्रदान करने हेतु केन्द्रीय स्थानों पर ग्रीष्मकालीन संस्थाओं की योजना प्रारम्भ की जानी चाहिये।
(viii) प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षकों को शिक्षण प्रदान करने वाले अध्यापक के पास या तो ‘शिक्षा’ में एम. ए. की उपाधि होना चाहिये अथवा बी. एड. की उपाधि के साथ किसी विषय की स्नातकोत्तर उपाधि होनी चाहिये।
(र) प्रशिक्षण सुविधाओं का विस्तार – ‘कोठारी आयोग’ ने प्रशिक्षण सुविधाओं के विस्तार के सम्बन्ध में निम्न सुझाव दिये-
(i) प्रशिक्षण संस्थाओं के आकार में एक निश्चित योजना के अनुसार पर्याप्त विस्तार किया जाना चाहिये।
(ii) अल्पकालीन प्रशिक्षण और पत्र-व्यवहार द्वारा प्रशिक्षण की सुविधाओं का विस्तार किया जाना चाहिये।
(iii) शिक्षकों की माँग की पूर्ति हेतु शिक्षण कार्य में संलग्न प्रशिक्षित शिक्षकों को प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए सभी राज्यों को प्रशिक्षण की सुविधाओं के विस्तार हेतु एक योजना तैयार करनी चाहिये।
(iv) विद्यालय शिक्षकों को अध्यापन कार्य करते हुए शिक्षा और प्रशिक्षण प्रदान करने की सुविधा की दृष्टि से विश्वविद्यालयों और प्रशिक्षण संस्थाओं को विभिन्न प्रकार के कार्यक्रमों का आयोजन करना चाहिये।
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