अभिवृद्धि एवं विकास से आप क्या समझते हैं ? विकास की कौन-कौन सी अवस्थाएँ हैं? वृद्धि और विकास को प्रभावित करने वाले कारकों की विवेचना कीजिए।
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अभिवृद्धि और विकास का अर्थ (Meaning of Growth and Development)
शिक्षा मनोविज्ञान शैक्षिक परिस्थितियों में मानव व्यवहार का अध्ययन करता है तथा उसका लक्ष्य बालक के व्यवहार में वांछनीय परिवर्तन करना है। अतएव शिक्षक के लिए बालक की अभिवृद्धि और विकास के विषय में तथा उनके फलस्वरूप होने वाले परिवर्तनों को जानना आवश्यक है। प्रायः अभिवृद्धि एवं विकास को एक ही अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है क्योंकि दोनों शब्द बढ़ने की दिशा की ओर संकेत करते हैं, परन्तु मनोवैज्ञानिकों ने इन दोनों शब्दों में कुछ अन्तर स्पष्ट किया है। सामान्य रूप में अभिवृद्धि का तात्पर्य शरीर और उसके अंगों में आकार, भार, ऊँचाई अथवा लम्बाई से होता है। मनोवैज्ञानिक फ्रैंक द्वारा अभिवृद्धि को कोशीय वृद्धि के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। उसका मत है- “शरीर और व्यवहार के किसी पहलू में जो परिवर्तन होते हैं उन्हें अभिवृद्धि कहा जाता है और समय की दृष्टि से व्यक्ति में जो परिवर्तन होता है उसे विकास कहते हैं।” विकास का तात्पर्य अधिक व्यापक है। जब शैशव से बाल्य और किशोरावस्था तक पहुँचते-पहुँचते हाथ एवं अन्य अंगों के आकार में परिवर्तन अथवा लम्बाई-चौड़ाई में वृद्धि दिखाई देती है तो यह कहा जाता है कि बालक का शरीर बढ़ रहा है। इससे यह स्पष्ट है कि अभिवृद्धि को मापा अथवा तौला जा सकता है। कभी-कभी यह दिखाई देता है कि बालक के हाथ-पैर के आकार में वृद्धि होने पर भी उसी अनुपात में उसका विकास नहीं हुआ। विकास अवयवों की कार्यक्षमता की ओर संकेत करता है। हमने पहले ही यह स्पष्ट किया है कि अभिवृद्धि का मापन हो सकता है, परन्तु विकास व्यक्ति की क्रियाओं में निरन्तर होने वाले परिवर्तनों में दिखाई देता है। अतएव “विकास शरीर के गुणात्मक परिवर्तनों का नाम है जिसके फलस्वरूप व्यक्ति की कार्यक्षमता, कार्यकुशलता और व्यवहार में उन्नति अथवा अवनति होती है।”
मनोविज्ञान के क्षेत्र में विकास का अर्थ केवल अभिवृद्धि अथवा शारीरिक आकार और अंगों में परिवर्तन होना ही नहीं है, बल्कि उसका तात्पर्य नई-नई विशेषताओं और क्षमताओं का विकसित होना है जो प्रारम्भिक जीवन से आरम्भ होकर क्रमशः परिपक्वावस्था तक चलती रहती है। वास्तव में विकास बहुमुखी प्रक्रिया है और अभिवृद्धि से तात्पर्य केवल शारीरिक विकास है।
फ्रैंक ने लिखा है- “शरीर एवं व्यवहार के किसी पहलू में जो परिवर्तन होते हैं उन्हें अभिवृद्धि कहा जाता है और समय की दृष्टि से व्यक्ति में जो परिवर्तन होता है वह विकास कहलाता है।”
हरलॉक ने लिखा है- “विकास अभिवृद्धि तक सीमित नहीं है, इसके बजाय इसमें प्रौढ़ावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम निहित रहता है। विकास फलस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताएँ और नवीन योग्यताएँ प्रकट होती हैं। “
विकास और अभिवृद्धि में इस प्रकार अन्तर है-
- विकास एक समग्र प्रक्रिया है और अभिवृद्धि विकास का केवल शारीरिक पहलू है।
- विकास और अभिवृद्धि दोनों बढ़ने की ओर संकेत करते हैं।
- अभिवृद्धि से तात्पर्य शरीर, उसके विभिन्न अंगों, भार, कद, ऊँचाई, लम्बाई में विकास से होता है। विकास का तात्पर्य समय की दृष्टि से व्यक्ति में होने वाले परिवर्तनों से है।
- विकास व्यापक और अभिवृद्धि सीमित है। विकास अवयवों की कार्यक्षमता की ओर संकेत करता है।
- अभिवृद्धि का मापन सम्भव है परन्तु विकास को नित्यप्रति की क्रियाओं में होने वाले परिवर्तनों में देखा जा सकता है।
विकास की अवस्थाएँ (Stages of Development)
यहाँ व्यक्ति का विकास किन चरणों में पूरा होता है, इस सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वानों द्वारा किया गया विकास का वर्गीकरण प्रस्तुत किया जा रहा है-
(1) शैले का वर्गीकरण- शैले ने विकास प्रक्रिया का वर्गीकरण निम्नवत् किया है-
- शैशवकाल (Infancy) – 1 से 5 वर्ष तक,
- बाल्यकाल (Childhood)- 5 से 12 वर्ष तक,
- किशोरावस्था (Adolescence) – 12 से 18 वर्ष तक ।
(2) रॉस का वर्गीकरण- रॉस ने विकास की अवस्थाओं का वर्गीकरण निम्न प्रकार किया है —
- शैशव–1 से 3 वर्ष तक,
- प्रारम्भिक बाल्यकाल-3 से 6 वर्ष तक,
- उत्तर- बाल्यकाल- 6 से 12 वर्ष तक,
- किशोरावस्था-12 से 18 वर्ष तक।
(3) कॉलसनिक का वर्गीकरण- कॉलसनिक ने विकास प्रक्रिया का वर्गीकरण निम्न चरणों में किया है-
- गर्भाधान से जन्म तक- पूर्व जन्म (Prenatal) काल,
- शैशव (Neonatal) जन्म 3 अथवा 4 सप्ताह तक,
- प्रारम्भिक शैशव (Pre-Infancy) – 1 अथवा 2 माह से 15 माह तक,
- उत्तर-शैशव (Late Infancy) – 15 माह से 30 माह तक,
- पूर्व बाल्यकाल (Pre-Childhood) ढाई वर्ष से पाँच वर्ष तक,
- किशोरावस्था (Adolescence)- 12 से 21 वर्ष तक।
- मध्य बाल्यकाल (Middle Childhood)-5 से 9 वर्ष तक,
- उत्तर बाल्यकाल (Late Childhood) – 9 से 12 वर्ष तक,
(4) डॉ. अर्नेस्ट जोन्स का वर्गीकरण- विकास के विभिन्न वर्गीकरणों में डॉ. अर्नेस्ट जोन्स का वर्गीकरण ही अधिक समीचीन प्रतीत होता है। उनका मत है कि मनुष्य का विकास चार सुस्पष्ट अवस्थाओं में होता है-
- शैशवावस्था (Infancy)- जन्म से 5 अथवा 6 वर्ष तक,
- बाल्यावस्था (Childhood) 6 से 12 वर्ष तक,
- किशोरावस्था (Adolescence) – 12 से 18 वर्ष तक,
- प्रौढ़ावस्था (Adulthood)- 18 वर्ष के बाद।
शिक्षा की दृष्टि से पहली तीन अवस्थाओं का विशेष महत्त्व है।
विकास को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Influencing Development)
विकास का रूप एवं गति कई कारणों से प्रभावित एवं परिवर्तित होती है। शारीरिक विकास पर एक ओर जहाँ भोजन और सामान्य स्वास्थ्य का प्रभाव पड़ता है वहीं दूसरी ओर वातावरण सम्बन्धी कारकों, जैसे- प्रकाश, वायु तथा जलवायु का भी प्रभाव पड़ता है। व्यक्तित्व के विकास पर जन्मजात प्रवृत्तियों और सामाजिक वातावरण का प्रभाव पड़ता है। इस तरह विकास को केवल एक ही कारण प्रभावित नहीं करता बल्कि उसको प्रभावित करने वाले अनेक कारक होते हैं ये कारक एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं। यहाँ विकास को प्रभावित करने वाले कारकों की चर्चा संक्षेप में की जा रही है-
(1) बुद्धि (Intelligence) – बालक के विकास को प्रभावित करने वाले कारकों में बुद्धि का महत्त्वपूर्ण स्थान है। हरलॉक का विचार है- “उच्च स्तर की बुद्धि विकास को तीव्रगामी बनाने से सम्बन्धित होती है, जबकि निम्न स्तर की बुद्धि पिछड़ेपन से सम्बन्धित होती है।”
टरमैन महोदय ने निष्कर्ष निकाला कि चलने-फिरने की योग्यता प्राप्त करने में औसत बालक 14 महीने, कुशाग्र बालक 13 महीने, मन्द बुद्धि वाले 22 महीने तथा मूर्ख बालक 30 महीने लेते हैं। इसी प्रकार बातचीत करने में कुशाग्र 11 महीने, औसत बालक 19 महीने व मन्द बुद्धि वाले 34 से 51 महीने तक का समय ले लेते हैं।
(2) यौन भिन्नता (Sex Difference) – यौन भिन्नता भी विकास की प्रक्रिया में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। शारीरिक विकास के सन्दर्भ में इसका परिचय हमें स्पष्ट रूप से मिलता है। लड़कियाँ, लड़कों की अपेक्षा शीघ्र ही परिपक्वता को प्राप्त कर लेती हैं। साथ ही साथ लड़कियाँ अपने व्यक्तित्व की पूर्णता को भी लड़कों की अपेक्षा अति शीघ्र प्राप्त कर लेती हैं, किन्तु मानसिक योग्यताओं के विकास के सम्बन्ध में इसके विपरीत पाया जाता है।
(3) अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ (Glands of Internal Secretion) – आधुनिक अध्ययनों से यह ज्ञात हुआ है कि बालकों के विकास पर अन्तःस्रावी ग्रन्थियों का भी प्रभाव पड़ता है। पैराथाइराइड ग्रन्थि (Parathyriod Gland) कैल्सियम (Calcium) को रक्त में मिलाने में सहायता प्रदान करती है। यदि इस ग्रन्थि से कम स्राव होता है तो हड्डियों का विकास ठीक से नहीं हो पाता। थाइराइड ग्रन्थि (Thyroid Gland) से थाइरेक्सिन नामक स्त्राव होता है जो शारीरिक एवं मानसिक विकास हेतु अत्यन्त आवश्यक है। इसी तरह सीने में स्थित थाइमस ग्रन्थि (Thymus Gland) एवं मस्तिष्क के पास स्थित पिनियल ग्रन्थि (Pineal Gland) भी शारीरिक एवं मानसिक विकास को प्रभावित करती हैं।
(4) पौष्टिक भोजन (Nutrition) – विकास की विभिन्न अवस्थाओं में सामान्य रूप से प्रारम्भिक काल में भोजन सामान्य विकास को प्रभावित करता है। भोजन की मात्रा न तो अधिक होनी चाहिए और न ही कम भोजन में पौष्टिक तत्त्वों का होना अत्यन्त आवश्यक है। भोजन में पौष्टिक तत्त्वों के अभाव के फलस्वरूप हड्डी एवं त्वचा आदि के रोग उत्पन्न हो जाते हैं।
(5) शुद्ध वायु एवं सूर्य का प्रकाश (Fresh Air and Sun-light) – बालक के सामान्य एवं स्वस्थ विकास के लिए शुद्ध वायु और सूर्य के प्रकाश की आवश्यकता होती है। यह देखा जाता है कि स्वच्छ वातावरण में रहने वाले बालकों का विकास गन्दी बस्तियों में रहने वाले बालकों की अपेक्षा ठीक ढंग से होता है।
(6) रोग एवं चोट (Disease and Injury) – किसी भी प्रकार की शारीरिक एवं मानसिक चोट बालक के विकास को अवरुद्ध कर सकती है। सिर की चोट, विषैली दवाइयों के प्रभाव आदि से विकास दूषित हो जाते हैं। बाल्यकाल में रोगी रहने के कारण बालक का विकास मन्द हो जाता है और रोग के परिणामस्वरूप बालक के अनेक गुण अविकसित रह जाते हैं।
(7) प्रजाति (Tribe) – विभिन्न देशों की प्रजातियों का विकास विभिन्न प्रकार से होता है। भूमध्य-सागरीय प्रदेशों में रहने वाले बालक शारीरिक दृष्टि से उत्तर यूरोप में रहने वाले बालकों से तीव्र गति से बढ़ते हैं। पश्चिमी देशों के बालक और बालिकाएँ भारतीय या पूर्व देशों के बालक एवं बालिकाओं की अपेक्षा शीघ्र परिपक्वता प्राप्त कर लेती हैं।
(8) संस्कृति (Culture) – विकास पर देश की संस्कृति का भी प्रभाव पड़ता है। विकसित देशों और पिछड़े हुए देशों की संस्कृति वहाँ के लोगों के विकास को प्रभावित करती है।
(9) परिवार में स्थान (Position in Family) – बालक के विकास में उसके परिवार में स्थान का भी प्रभाव पड़ता है। यह देखा जाता है कि परिवार में द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ बच्चों का विकास प्रथम बच्चे की अपेक्षा तीव्र गति से होता है। इसका कारण यह है कि बाद में होने वाले बच्चों को विकसित वातावरण प्राप्त होता है और उन्हें पहले भाई-बहनों का अनुकरण करने का अधिक अवसर उपलब्ध होता है। परिवार में सदस्यों की संख्या अधिक या कम होने का भी बालक के विकास पर प्रभाव पड़ता है। अधिक संख्या वाले परिवार बच्चों की ओर अधिक ध्यान नहीं दे पाते। इस कारण उनका विकास तीव्र गति से नहीं हो पाता। परिवार की आर्थिक स्थिति भी बालक के विकास को प्रभावित करती है।
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