शिक्षाशास्त्र / Education

टैगोर के शिक्षा सम्बन्धी सिद्धान्त | Tagore’s theory of education in Hindi

टैगोर के शिक्षा सम्बन्धी सिद्धान्त | Tagore's theory of education in Hindi
टैगोर के शिक्षा सम्बन्धी सिद्धान्त | Tagore’s theory of education in Hindi

टैगोर के शिक्षा सम्बन्धी सिद्धान्तों की विवेचना कीजिए।

टैगोर के शिक्षा सम्बन्धी सिद्धान्त- टैगोर एक महान् व्यक्ति और शिक्षाशास्त्री थे। उन्होंने शिक्षा और शिक्षालय सम्बन्धी कुछ सिद्धान्तों का उल्लेख किया है।

(अ) शिक्षा सम्बन्धी सिद्धान्त ये निम्न प्रकार हैं-

(1) एकता का सिद्धान्त- टैगोर का विचार था, “वास्तव में मानव जातियों में स्वाभाविक अन्तर होता है जिन्हें सुरक्षित रखना और सम्बन्धित करना है और शिक्षा कार्य इन अन्तरों के होते हुए भी हमारी एकता की अनुभूति कराना है, विषमताओं के होते हुए भी अनेकता के बीच सत्य का खोजना है।” इस प्रकार टैगोर मानवीय जगत् में एकता स्थापित करने की दृष्टि से शिक्षा की व्यवस्था करते हैं। वैयक्तिक जगत् में भी आध्यात्मिक विचारात्मक एकता की ओर संकेत करते हैं। इस एकता के दृष्टिकोण को एक अन्य दृष्टिकोण से देखने पर ज्ञात होता है कि टैगोर ने उसे पूर्णता के सिद्धान्त में बदल दिया है। उन्होंने शरीर की शिक्षा, बुद्धि की शिक्षा, आत्मा की शिक्षा और आत्माभिव्यक्ति की शिक्षा में जो एकता स्थापित की है उसके द्वारा मनुष्य को पूर्णता हेतु प्रयत्न किया गया है।

(2) प्राकृतिक एवं सामाजिक शक्तियों के संचालय का सिद्धान्त- टैगौर मानते थे। कि शिक्षा के विकास में प्राकृतिक एवं सामाजिक शक्तियाँ काम करती हैं परन्तु जब ये शक्तियाँ सन्तुलित ढंग से कार्य करती है और व्यक्ति जब अपने विकास में इन व्यक्तियों का यथोचित मात्रा में प्रयोग करते हैं तो उसके परिणामस्वरूप उनका पूर्ण विकास होता है। टैगोर प्राकृतिक वातावरण और सामाजिक शक्तियों के मध्य सन्तुलन स्थापित करके शिक्षा प्रदान करके के पक्षपाती है।

(3) क्रिया का सिद्धान्त- जॉन डीवी, फ्रोबेल, पेस्टालाजी, मान्टेसरी और गाँधी आदि के समान ही टैगोर भी क्रिया द्वारा शिक्षा प्रदान करने के पक्षपाती हैं। शान्ति निकेतन में जीवन को देखने से स्पष्ट है कि प्रातःकाल के वैयक्तिक संगीत से लेकर पूरे दिन का कार्यक्रम शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं से पूर्ण होता है।

(4) अचेतन का सिद्धान्त- टैगोर आधुनिक मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों में विश्वास करते थे। मनोविज्ञान में अचेतन मन का अध्ययन हुआ है, फलस्वरूप जो सिद्धान्त अनुकूल है उसका प्रयोग शिक्षा के क्षेत्र में किया गया है। टैगोर का विचार था कि व्यक्ति अचेतन रूप में अधिक सीखता है और उससे उसकी शिक्षा पूर्ण होती है। टैगोर उन मनोविश्लेषणात्मक विधियों के समर्थक है, जो स्वतन्त्र अभिव्यक्ति में विश्वास रखते हैं। टैगोर का विचार था कि अचेतन का सिद्धान्त मानव के मध्य अत्यन्त प्राचीन काल से स्थापित रहा है। टैगोर ने विश्वासपूर्वक कहा है कि “मेरा विश्वास है कि बच्चों को चेतन बुद्धि की अपेक्षा उनका अर्धचेतन मन अधिक सक्रिय रहता है। अति महत्त्वपूर्ण पाठों में से अधिकतर इसी में से हम लोगों को पढ़ाये गये हैं। बिना किसी प्रकार की थकान पैदा किये ही अगणित पीढ़ियों के अनुभव हमारी प्रकृति में संगृहिता हो गये हैं। “

(5) संयम एवं आत्मानुशासन का सिद्धान्त- टैगोर भारतीय परम्पराओं और भारतीय मान्यताओं के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने शिक्षण में आत्मसंयम को विशेष महत्त्व प्रदान किया है और आत्मानुशासन को आवश्यक बतलाया है। वह ब्रह्मचर्य को मानव व्यक्तित्व के विकास के लिए अत्यन्त आवश्यक मानते हैं और कहते हैं कि इसके द्वारा मनुष्य अपने जीवन के महान् लक्ष्य को प्राप्त करता है। उनका विचार है कि शिक्षा शांति एवं स्थिरता की दशा में ही सुलभ है, इसी कारण हमारी प्राचीन शिक्षा व्यवस्था में संयम और आत्मानुशासन पर बल दिया गया है। टैगोर ने प्राचीन गुरूकुल एवं आश्रम की शिक्षा को आदर्श माना है। उन्होंने लिखा है “ब्रह्मचर्य का प्रयोजन विद्यार्थी को शांति एवं स्थिरता प्रदान करना जिससे वह मूल प्रवृत्तियों को असामयिक एवं उद्याम प्रेरणा से अपने को बचा सके और जीवन तथा शिक्षा में निष्ठापूर्ण सम्बन्ध स्थापित कर सके।”

( ब ) शिक्षण पद्धति का सिद्धान्त

 शिक्षा के उपयुक्त सिद्धान्तों के साथ ही टैगोर ने शिक्षण सम्बन्धी सिद्धान्तों का भी निर्धारण किया है जिनकी चर्चा यहाँ संक्षेप में की जा रही है।

(1) प्रेम, दया एवं सहानुभूति का सिद्धान्त- टैगोर का विचार था कि शिक्षा, प्रेम और सहानुभूति के साथ प्रदान की जानी चाहिए। यदि शिक्षक एवं विद्यार्थी के मध्य प्रेम नहीं है और शिक्षक को शिक्षार्थी से सहानुभूति नहीं हैं तो उचित शिक्षण प्रदान ही नहीं किया जा सकता।

(2) समस्त सुविधाओं को प्रदान करने का सिद्धान्त- टैगोर का विचार है कि शिक्षक को शिक्षा प्रदान करते समय छात्रों को समस्त सुविधायें प्रदान करनी चाहिए। यदि छात्र को समस्त शैक्षणिक सुविधायें प्राप्त नहीं होती तो वह उचित प्रकार से शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाता।

(3) स्वतन्त्रता एवं आनन्द का सिद्धान्त शिक्षक को शिक्षार्थियों के हेतु स्वतन्त्र वातावरण का निर्माण करना चाहिए। स्वतन्त्र वातावरण में ही शिक्षण प्रभावी होगा, साथ ही आनन्द के सिद्धान्त को ध्यान में रखा जाना चाहिए। शिक्षण इसी प्रकार से प्रदान किया जाय कि उससे छात्रों को आनन्द की प्राप्ति हो टैगोर खेल द्वारा शिक्षा के समर्थक थे। उनका विश्वास था कि जिस शिक्षण में छात्रों को आनन्द की प्राप्ति नहीं होती है वह शिक्षण प्रभावी नहीं होता। टैगोर ने लिखा है “यह हमारा दृढ़ मत है कि स्वतन्त्रता के माध्यम से ही जीवन में पूर्ण विकास आ सकता है।”

(4) जीवन को केन्द्र मानकर शिक्षण का सिद्धान्त- टैगोर का कहना था कि शिक्षण कार्य जीवन को केन्द्र मानकर प्रदान किया जाना चाहिए।

(5) ज्ञानेन्द्रियों द्वारा शिक्षण का सिद्धान्त- टैगोर का कथन था कि छात्रों को उच्च शिक्षण प्रकृति के माध्यम से ही दिया जा सकता है और इस हेतु ज्ञानेन्द्रियों का प्रयोग अति आवश्यक है। यहाँ उनके विचार फ्रोबेल तथा माण्टेसरी के विचारों से बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं।

(6) विवेकपूर्ण शिक्षण का सिद्धान्त- टैगोर का कथन था कि शिक्षण केवल ज्ञान प्रदान करने के लिए ही नहीं प्रदान किया जाता बल्कि उसके द्वारा छात्रों को विचार शक्ति को भी उत्तेजित किया जाता है। शिक्षण इस प्रकार होना चाहिए कि छात्र चीजों को समझ सकें और अपने जीवन की गुत्थियों को सुलझाने में समर्थ हो सकें।

(7) मातृ-भाषा शिक्षण का सिद्धान्त- टैगोर का विश्वास था कि जो शिक्षण मातृ-. भाषा के माध्यम से प्रदान किया जाता है वह अधिक प्रभावी होता है। उन्होंने अंग्रेजी के माध्यम से शिक्षा प्रदान करने का विरोध किया, यद्यपि वह अंग्रेजी भाषा के ज्ञान के समर्थक थे।

(8) कला के माध्यम से शिक्षण का सिद्धान्त- टैगोर का कथन था कि शिक्षण कार्य कला के माध्यम से किया जाना चाहिए। कला के माध्यम से जो शिक्षा प्रदान की जाती है उससे जीवन में आनन्द, प्रसन्नता और पूर्णता की प्राप्ति होती है। शिक्षा का यही सर्वोच्चतम रूप है। विश्व-बन्धुत्व की भावना का विकास कला के माध्यम से आसानी से हो सकता है।

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Anjali Yadav

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