डीवी के अनुसार शिक्षा का पाठ्यक्रम एवं अध्ययन पद्धति की विवेचना कीजिए ।
पाठ्यक्रम- जॉन डीवी का विश्वास था कि अभी तक पाठ्यक्रम में क्रियाओं का स्थान नहीं है वरन् विषयों का है, किन्तु केवल विषय ही जीवन की समस्याएँ नहीं हैं। हमें जीवन में केवल भूगोल या अंकगणित नाम के विषयों से कोई काम नहीं पड़ता। हाँ, जीवन के समाधान के लिए हमें अंकगणित, भूगोल, विज्ञान, इतिहास आदि अनेक विषयों के ज्ञान की आवश्यकता पड़ सकती है। इसीलिए प्रारम्भ में ऐसी ही क्रियाओं का समावेश पाठ्यक्रम में किया जाये जो अविकसित बालकों की बुद्धि के अनुसार ही हो और धीरे-धीरे उन क्रियाओं को जटिल समस्याओं के अनुरूप ढाल दिया जाये। जॉन डीवी ने समाज की आवश्यकताओं, क्रियाओं, उपयोगिता, व्यावहारिकता तथा प्रयोगात्मकता पर आधारित पाठ्यक्रम बनाने के लिए कुछ सिद्धान्तों का निर्माण किया, जो इस प्रकार है-
1. रुचि का सिद्धान्त ( Principle of Interest ) डीवी के अनुसार बालकों में चार प्रकार की रुचियाँ पायी जाती है, यथा-वार्तालाप एवं विचार विनिमय में रुचि (Interest in conversation and communication), खोज में रुचि (Interest in inquiry), रचना की रुचि (Interest in construction) तथा कलात्मक अभिव्यक्ति में रुचि (Interest in artistic expression)। डीवी ने इन रुचियों के आधार पर पाठ्यक्रम में भाषा, गणित, विज्ञान, इतिहास, भूगोल, सिलाई, बागवानी, ड्राइंग, संगीत आदि को स्थान प्रदान किया है।
2. लचीलेपन का सिद्धान्त (Principle of Flexibility ) जॉन डीवी अनम्य पाठ्यक्रम का विरोध करता है तथा नम्य पाठ्यक्रम का समर्थन करता है, जिसे बालक की रुचि, अवस्था और आवश्यकतानुसार बदला जा सके अथवा जिसे देश और समाज की माँग के अनुकूल परिवर्तित किया जा सके। इससे बालकों की भिन्नता की आवश्यकता भी पूर्ण हो सकेगी।
3. क्रियाशीलता का सिद्धान्त (Principle of Activity ) पाठ्यक्रम की रचना में क्रियाशीलता को महत्त्व देते हुए डीवी ने लिखा है- “यदि ये क्रियाएँ समुदाय की क्रियाओं का रूप ग्रहण करेंगी तो ये बालक में नैतिक गुणों और स्वतन्त्रता के दृष्टिकोण का विकास करेंगी। इसलिए पाठ्यक्रम में उन्हीं क्रियाओं को समाविष्ट करना चाहिए जो उन्हें क्रियाशील बनायें और उनके आत्मानुशासन को उन्नत करें।
4. सहसम्बन्ध का सिद्धान्त (Principle of Correlation ) पाठ्यक्रम भली भाँति संयुक्त (Integrated) होना चाहिए, क्योंकि बालक का मस्तिष्क तो एक संयुक्त इकाई है। जो समन्वित रूप में ज्ञान ग्रहण करता है। वह अलग-अलग शक्तियों का समूह नहीं है जैसा कि शक्ति मनोविज्ञान (Faculty Psychology) में विश्वास करने वालों का मत है। अतः जॉन डीवी ने सभी विषयों को सह-सम्बन्धित रूप में पढ़ाये जाने की व्यवस्था की है।
5. बालकेन्द्रित पाठ्यक्रम का सिद्धान्त (Principle of Child-centered Curriculum ) – बालक की मनोवैज्ञानिक विकास स्थिति को ध्यान में रखते हुए एवं उसकी स्वाभाविक प्रवृत्तियों और कार्यों का ठीक-ठीक ज्ञान करके तद्नुसार पाठ्यक्रम बनाया जाये। उसमें निहित विषय ऐसे हों जिन्हें बालक सरलता से समझ सकें तथा उनके जीवन के लिए उपयोगी हों। जॉन डीवी का मत है कि बालक की बुद्धि इतनी विवेकनिष्ठ बन जानी चाहिए कि वह स्वयं वस्तु, घटना तथा क्रिया के सब पक्षों का सूक्ष्म परीक्षण करके उसकी वास्तविकता की स्वयं खोज कर सके। डीवी के अनुसार बालक को इतना चेतन और जिज्ञासु बना दिया जाये कि वह अपनी प्रेरणा से प्रत्येक वस्तु के तथ्यों को जानने, पहचानने और समझने के लिए प्रयत्नशील बना रहे पाठ्यक्रम का उद्देश्य बालक में तर्क-शक्ति का विकास करना है, उसे अन्धविश्वासी बनाना नहीं । अतः पाठ्यक्रम के विषय और क्रियाएँ वैयक्तिक रुचियों के अनुकूल हों, जिससे उसका विकास स्वाभाविक ढंग से हो सके।
6. उपयोगिता का सिद्धान्त (Principle of Utility) – डीवी के अनुसार- “मनुष्य की मूलभूत सामान्य समस्याएँ भोजन, घर, वस्त्र, घर को सजावट और आर्थिक उत्पादन, विनिमय तथा उपयोग से सम्बन्धित हैं।” डीवी का विश्वास है कि इन्हीं समस्याओं को हल करना जीवन का उद्देश्य है। अतः पाठ्यक्रम में उन विषयों एवं क्रियाओं को स्थान दिया जाना चाहिए जो इन समस्याओं के समाधान में सहायता दें।
अध्ययन पद्धति
जॉन डीवी ने शिक्षण विधि के तर्क को स्पष्ट करते हुए लिखा है- “विधि का अर्थ विषयवस्तु की उस व्यवस्था से है जो उसको उपयोग के लिए सर्वाधिक प्रभावपूर्ण बनाती है। विधि विषयवस्तु के प्रतिकूल नहीं होती है, वरन् यह तो वांछित परिणामों की ओर विषयवस्तु का प्रभावकारी निर्देशन है।”
डीवी के मतानुसार शिक्षा प्रत्यक्ष जीवन है, जीवन की तैयारी नहीं तथा छात्रों को स्वानुभव द्वारा अध्ययन करने का अवसर दिया जाना चाहिए। डीवी के अनुसार शिक्षण की पद्धतियाँ निम्नलिखित हैं—
1. करके सीखना (Learning by Doing)- जॉन डीवी की सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था ही क्रिया-प्रधान है। उसका विश्वास था कि “सभी प्रकार की शिक्षा (सीखना) क्रियाओं द्वारा ही सम्भव है।” उसने पूरे प्रयोजनवाद को ही इसी सिद्धान्त का आधार बनाया और कहा—”केवल क्रिया से ही ज्ञान प्राप्त हो सकता है और विकास भी सम्भव है।’
2. समस्या समाधान पद्धति (Problem Solving Method)- जॉन डीवी के मतानुसार जब व्यक्ति किसी समस्या के समाधान का मार्ग खोजता है, उसी समय उसकी विचार प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। डीवी के शब्दों में– “विचार समस्या का निराकरण है’ (Thinking is problem solving), विचार बौद्धिक चिन्तन है (Thinking is intelligent thinking )।” डीवी ने समस्या पद्धति के पाँच सोपान/चरण बताये हैं-
- समस्या का ज्ञान (Recognition of Problem)
- परिस्थितियों का निरीक्षण (Observation of Conditions)
- परिस्थितियों का चयन अथवा सम्भाव्यकरण (Formation of Rational Elaboration Suggested Conclusion)
- परिकल्पना की जाँच (Experimental Testing)
- पड़ताल (Verification)
3. निरीक्षण विधि (Observation Method)– डीवी की समस्यामूलक शिक्षण विधि में आगमन, निगमन तथा निरीक्षण विधि का प्रयोग किया गया है।
4. क्रियाशील विधि (Activity Method) जॉन डीवी कहते हैं कि क्रिया द्वारा ही मस्तिष्क की उपज होती है और क्रिया से ही मस्तिष्क का विकास सम्भव है।
5. प्राजेक्ट पद्धति ( Project Method)- जॉन डीवी के शिष्य किलपैट्रिक ने इसे प्रतिपादित किया। प्रोजेक्ट से अभिप्राय है विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिए मन से स्वीकार की गयी सामाजिक पर्यावरण में होने वाली प्रक्रिया। इस पद्धति के निम्नलिखित सोपान हैं-
- परिस्थितियों का चयन (Creating the Situation)
- प्रोजेक्ट का चयन (Choosing the Project )
- योजना बनाना (Planning)
- क्रियान्विति (Execution of the Plan)
- मूल्यांकन (Evaluation)
- लेखा-जोखा (Recording)
शिक्षक का कार्य है कि वह सर्वप्रथम बालकों के समक्ष परिस्थितियाँ उत्पन्न करे, जिससे वे समस्या को पहचान लें। उसके पश्चात् योजना बनाकर समस्या का क्रियान्वयन किया जाता है। बालक एक-दूसरे के सहयोग से समस्या को सक्रिय रूप से सुलझाने का प्रयास करता है। समस्या के क्रियान्वयन के पश्चात् निश्चित परिणामों को प्राप्त कर नवीन मूल्यों का निर्माण किया जाता है। यह एक सक्रिय पद्धति है।
6. खेल विधि (Play Method)- बालक खेलते समय स्वाभाविक रूप से अनेक वस्तुओं का निर्माण करता है, अतः डीवी के कथनानुसार बालक की प्रारम्भिक शिक्षा में समस्यापूर्ण कार्य देकर खेलों द्वारा उसका समाधान करने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देना चाहिए।
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