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पंडित मदन मोहन मालवीय जी के शैक्षिक चिन्तन पर प्रकाश डालिए।
मालवीय जी ने हमें कोई नई शिक्षा योजना तो नहीं दी परन्तु इन्होंने शिक्षा जगत में जो कार्य किए उनसे शिक्षा के सम्बन्ध में उनकी अपनी धारणा का पता अवश्य चलता है। शिक्षा के प्रति इनकी अपनी इस धारणा को ही उनका शिक्षा दर्शन माना जा सकता है। यहाँ इनके शैक्षिक चिन्तन का क्रमबद्ध वर्णन प्रस्तुत है।
शिक्षा का सम्प्रत्यय
मालवीय जी परम्परावादी व्यक्ति थे; ये ज्ञान की प्राप्ति को ही शिक्षा मानते थे। ये यह मानते थे कि बिना शिक्षा के व्यक्ति को सच्चा ज्ञान नहीं हो सकता और बिना सच्चे ज्ञान के व्यक्ति, समाज अथवा राष्ट्र का विकास नहीं किया जा सकता। साफ जाहिर है कि मालवीय जी शिक्षा को ज्ञान प्राप्ति और व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र के विकास का साधन मानते थे।
शिक्षा के उद्देश्य
मालवीय जी की सनातन धर्म में अटूट आस्था थी। ये इसे संसार का सर्वश्रेष्ठ धर्म मानते थे। सनातन धर्म के अनुसार मनुष्य जीवन के चार उद्देश्य हैं-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। मालवीय जी शिक्षा द्वारा इन्हीं उद्देश्यों की प्राप्ति पर बल देते थे। इन्होंने स्पष्ट किया कि इन उद्देश्य की प्राप्ति के लिए पहली आवश्यकता स्वस्थ शरीर है। अतः शिक्षा का सर्वप्रथम उद्देश्य मनुष्य का शारीरिक विकास होना चाहिए। इनके अनुसार स्वस्थ शरीर के बाद दूसरी आवश्यकता है, ज्ञान, बुद्धि और विवेक की, अतः शिक्षा द्वारा इनका विकास भी होना चाहिए। मालवीय जी सच्चे समाज सेवक और अपनी संस्कृति के सच्चे अनुयायी थे। ये शिक्षा द्वारा संस्कृति की रक्षा पर बहुत बल देते थे। चरित्र को ये मनुष्य का अति आवश्यक गुण मानते थे अतः शिक्षा के द्वारा उसके विकास पर भी बल देते थे। ये शिक्षा द्वारा मनुष्य को अपनी रोजी-रोटी कमाने योग्य भी बनाना चाहते थे। ये सच्चे राष्ट्र भक्त थे और शिक्षा द्वारा बच्चों में राष्ट्रीयता के विकास की बात करते थे। आत्मिक उन्नति को तो ये मनुष्य जीवन का अन्तिम उद्देश्य मानते थे। इनके द्वारा निश्चित शिक्षा के इन उद्देश्यों को आज की भाषा में निम्नलिखित रूप में क्रमबद्ध किया जा सकता है-
1. शारीरिक विकास – मालवीय जी के अनुसार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति का पहला साधन शरीर है, स्वस्थ शरीर है, आरोग्य है। साफ जाहिर है कि ये मनुष्य के शरीर को साधन नानते थे, साध्य नहीं। परन्तु साध्य (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) की प्राप्ति के लिए शरीर की पहली आवश्यकता है तो शिक्षा द्वारा मनुष्य को स्वास्थ्य की रक्षा की शिक्षा देना आवश्यक है अतः यह मनुष्य जीवन का उद्देश्य हो या न हो परन्तु शिक्षा का तो सर्वप्रथम उद्देश्य होना चाहिए। मालवीय जी ने एक स्थान पर यह भी लिखा है कि यदि राष्ट्र निवासियों का शरीर दुर्बल होगा तो राष्ट्र भी दुर्बल होगा। इन्होंने स्वास्थ्य के तीन खम्भे बताए हैं–आहार, शयन और ब्रह्मचर्य। इनकी दृष्टि से शिक्षा द्वारा मनुष्य को उचित आहार, शयन और ब्रह्मचर्य का ज्ञान कराना चाहिए और तदनुकूल आचरण (व्यवहार) में प्रशिक्षित करना चाहिए।
2. मानसिक एवं बौद्धिक विकास- मनुष्य के मानसिक एवं बौद्धिक विकास से मालवीय का तात्पर्य विभिन्न भाषाओं और विभिन्न विषयों के ज्ञान से था। इन्होंने स्पष्ट किया कि भाषा और विविध विषयों का ज्ञान ही मनुष्य को विवेकशील बनाना है और विवेक से मनुष्य अच्छे-बुरे में भेद करता है, करणीय और अकरणीय कर्मों को समझता है और सच्चे मार्ग का अनुसरण करता है। यूं मालवीय जी भारतीय ज्ञान को सर्वश्रेष्ठ मानते थे परन्तु साथ ही यह भी स्वीकार करते थे कि भौतिक विकास के लिए पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान अपेक्षाकृत अधिक उपयोगी है। ये भारतीयों को भारतीय और पाश्चात्य दोनों ज्ञान-विज्ञान से परिचित कराकर उन्हें उन्नत करने के पक्ष में थे।
3. सामाजिक विकास- मालवीय जी इस बात को मानते थे कि सभी प्राणियों में परमात्मा व्याप्त है। इनका विश्वास था कि प्राणीमात्र की सेवा से मनुष्य परमात्मा की प्राप्ति कर सकता है। सामाजिक विकास से मालवीय जी का तात्पर्य मनुष्य में परसेवा भाव उत्पन्न करने से ही था। मनुष्य में इस परसेवा भाव के विकास के लिए ये सनातन धर्म की शिक्षा को आवश्यक मानते थे। इनका स्पष्ट मत था कि सनातन धर्म परसेवा का सच्चा पाठ पढ़ाता है।
4. सांस्कृतिक विकास- मालवीय जी भारतीय संस्कृति के अनन्य पुजारी थे। ये इसे संसार की श्रेष्ठतम् संस्कृति मानते थे। ये भारतीयों को इस संस्कृति का स्पष्ट ज्ञान कराने पर बल देते थे और उन्हें तद्नुकूल आचरण (व्यवहार) में प्रशिक्षित करने पर बल देते थे। ये भारतीय संस्कृति के मूल तत्त्वों-चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र), चार आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास), चार पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) और अतिथि सत्कार में विश्वास करते थे, इनमें इनकी अटूट आस्था थी। ये भारतीयों को इनका स्पष्ट ज्ञान कराने पर बल देते थे, उन्हें तदनुकूल आचरण करने पर बल देते थे। हमारी संस्कृति की एक बड़ी विशेषता सहिष्णुता भी है। मालवीय जी भारतीयों में इस गुण के विकास पर भी बल देते थे। इनका विश्वास था कि सहिष्णु व्यक्ति किसी का अहित नहीं कर सकता। वह तो सबका आदर करता है और यह बात सही भी है। मालवीय जी भारत की इस संस्कृति को सुरक्षित रखने पर बल देते थे। इनका विश्वास था कि इसी संस्कृति से विश्व का कल्याण हो सकता है।
5. नैतिक एवं चारित्रिक विकास- मालवीय जी नैतिक नियमों के पालन को आवश्यक मानते थे और चरित्र बल की श्रेष्ठता स्वीकार करते थे। इन्होंने शिक्षा द्वारा मनुष्य के नैतिक एवं चारित्रिक विकास पर विशेष बल दिया है। ये धार्मिक नियमों को नैतिकता और चरित्र का आधार मानते थे। यही कारण है कि ये मनुष्य के नैतिक एवं चारित्रिक विकास के लिए धर्म शिक्षा को आवश्यक मानते थे।
6. व्यावसायिक एवं आर्थिक विकास- हमारे चार पुरुषार्थों में ‘अर्थ’ दूसरे नम्बर पर आता है। अर्थ का वास्तविक अर्थ है-साधन। और क्योंकि धन सब वस्तुओं को प्राप्त करने का साधन है इसलिए उसे अर्थ कहते हैं। मालवीय जी देश की गरीबी और बेरोजगारी की समस्या से भी चिन्तित थे। इस सबके लिए इन्होंने शिक्षा में व्यावसायिक शिक्षा (कृषि, कला-कौशल एवं अन्य उद्योगों की शिक्षा) की व्यवस्था करने पर बल दिया था। इन्होंने स्पष्ट किया कि भारत कृषि प्रधान देश है इसलिए यहाँ कृषि शिक्षा की विशेष व्यवस्था होनी चाहिए। साथ ही इन्होंने यह स्पष्ट किया कि किसी राष्ट्र का विकास भारी उद्योगों द्वारा किया जा सकता है इसलिए देश में उद्योगों की शिक्षा की व्यवस्था भी होनी चाहिए। इनकी दृष्टि से व्यक्तियों को विभिन्न व्यवसायों में निपुणता प्रदान करने के लिए सभी व्यवसायों की शिक्षा की उत्तम व्यवस्था होना आवश्यक है।
7. राष्ट्रीयता का विकास- मालवीय जी के अनुसार भारतीय राष्ट्रीयता का मूल आधार हिन्दुत्व है। हिन्दुत्व से मालवीय जी का बड़ा विस्तृत अर्थ था। इनके अनुसार हिन्दुत्व भारत के धर्म-दर्शन का नाम है, एक ऐसे धर्म-दर्शन का नाम जो प्राणी मात्र के कल्याण में विश्वास करता है, एक ऐसे धर्म-दर्शन का नाम जो शाश्वत है। इन्होंने स्पष्ट शब्दों में घोषणा की कि भारत में हिन्दुत्व के अभाव में राष्ट्रीयता की कल्पना ही नहीं की जा सकती। इन्होंने स्पष्ट किया कि हमारा धर्म-दर्शन किसी से द्वेष करना नहीं सिखाता, यह तो विश्व को एक कुटुम्ब मानता है, यह केवल देशवासियों के कल्याण की बात नहीं करता अपितु विश्व कल्याण में विश्वास करता है। इन्होंने आगे स्पष्ट किया कि यही हमारी राष्ट्र की वास्तविक पहचान है, यही हमारे राष्ट्र की मूल धरोहर है। साफ जाहिर है कि मालवीय जी संकुचित राष्ट्रीयता (राष्ट्रवाद) के पक्षधर नहीं थे, ये तो वसुधैव कुटुम्बकम् के पोषक थे। ये शिक्षा द्वारा इसी राष्ट्रीयता की सुरक्षा पर बल देते थे।
8. राजनैतिक जागरूकता- उस समय हमारा देश परतन्त्र था, हम अंग्रेजों के गुलाम थे। मालवीय जी कांग्रेस के स्वतन्त्रता आन्दोलन से भी जुड़े थे। ये जिस मंच से भी भाषण करते, अपने धर्म-दर्शन और संस्कृति की रक्षा पर बल देते और इनकी रक्षा के लिए ये स्वराज की प्राप्ति की बात करते थे और शिक्षा द्वारा बच्चों को स्वतन्त्रता संग्राम के लिए तैयार करने पर भी बल देते थे। यही उस समय हमारा विशेष लक्ष्य था।
9. आध्यात्मिक उन्नति – मालवीय जी मनुष्य जीवन के चार लक्ष्य मानते थे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। अर्थात् मनुष्य धर्म आधारित इच्छाएँ करें, इन इच्छाओं की पूर्ति के लिए धर्म आधारित मार्ग का अनुसरण करें और धर्म का पालन करते हुए मोक्ष की प्राप्ति करें। मोक्ष को ये मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य मानते थे और इसकी प्राप्ति के लिए उसकी आध्यात्मिक उन्नति आवश्यक समझते थे। यूँ तो ये लौकिक एवं पारलौकिक दोनों प्रकार की प्राप्ति के लिए धर्म आधारित आचरण पर बल देते थे परन्तु पारलौकिक की प्राप्ति के लिए ईश्वर में विश्वास, ईश्वर भक्ति और मानव सेवा को आधारभूत आवश्यकता मानते थे। ये भक्ति योग और कर्म योग के समर्थक थे और प्रत्येक हिन्दू (भारतीय) से इनके पालन की अपेक्षा करते थे। ये इस बात पर सबसे अधिक बल देते थे कि शिक्षा द्वारा मनुष्य को भक्ति योग और कर्म योग का सच्चा पाठ पढ़ाना चाहिए।
शिक्षा की पाठ्यचर्या
मालवीय जी ने शिक्षा की पाठ्यचर्या की कोई क्रमबद्ध रूपरेखा तो प्रस्तुत नहीं की परन्तु उसके निर्माण के सम्बन्ध में कुछ सुझाव अवश्य दिए हैं। इनका पहला सुझाव तो यह है कि हमारा पाठ्यक्रम हमारे धर्म और संस्कृति पर आधारित होना चाहिए। इन्होंने स्पष्ट किया कि हमें हमारे धर्म और संस्कृति का सही ज्ञान संस्कृत साहित्य से होता है इसलिए भारतीयों को संस्कृत भाषा का ज्ञान अवश्य और अनिवार्य रूप से कराना चाहिए। मालवीय जी हिन्दी भाषा के बहुत बड़े पक्षधर थे। इन्होंने स्पष्ट किया कि हिन्दी इस देश के बहुसंख्यक वर्ग की भाषा है इसलिए इसे राष्ट्रभाषा घोषित करना चाहिए और इसकी शिक्षा को अभी से अनिवार्य करना चाहिए। ये जानते थे कि उस समय विज्ञान और तकनीकी के ज्ञान के लिए अंग्रेजी भाषा जानना अति आवश्यक था इसलिए इन्होंने अंग्रेजी भाषा की शिक्षा पर भी बल दिया। इस सम्बन्ध में इन्होंने कहा कि अंग्रेजी तथा अन्य विदेशी भाषाएँ इस उद्देश्य से पढ़ाई जाएँ कि भारतीय साहित्य तथा भाषा में उनसे भली प्रकार सहायता मिल सके। मालवीय जी ने शिक्षा का एक उद्देश्य व्यावसायिक एवं आर्थिक विकास बताया और इसके लिए पाठ्यचर्या में कला-कौशल, विज्ञान एवं तकनीक और व्यावसायिक शिक्षा को स्थान दिया। मालवीय जी प्रारम्भ से ही कला प्रेमी थे, ये अपने विद्यालयी जीवन में साहित्यिक स्थान परियात कालक्रयाओं में बढ़-चढ़कर भाग लेते थे। ये कला को जीवन का अनिवार्य अंग मानते थे इसलिए इन्होंने शिक्षा की पाठ्यचर्या में इन्हें अनिवार्य रूप से स्थान देने पर बल दिया। इन्होंने अपने जीवन काल में जिन पाठशालाओं की स्थापना की उनमें हिन्दी और संस्कृत भाषा, भारतीय धर्म और दर्शन और साहित्यिक एवं सांस्कृतिक क्रियाओं को अनिवार्य किया था। इन्होंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय का प्रारम्भ भी इन्हीं विभागों एवं विषयों से किया था—
1. वैदिक विभाग- इस विभाग में वेद, वेदांग, स्मृति, दर्शन, पुराण, इतिहास और ज्योतिष की शिक्षा की व्यवस्था थी।
2. आयुर्वेद विभाग- इस विभाग में शरीर विज्ञान और आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति की व्यवस्था थी।
3. विज्ञान एवं कौशल विभाग– इस विभाग में विज्ञान, गणित, शिल्प, इंजीनियरिंग और तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था थी।
4. कृषि विभाग – इस विभाग में कृषि शिक्षा की व्यवस्था थी। मालवीय जी ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के सभी पाठ्यक्रमों में धर्म और संस्कृति की शिक्षा को अनिवार्य किया और उसे समझने के लिए संस्कृत भाषा के अध्ययन पर बल दिया।
शिक्षण विधियाँ
‘मालवीय जी परम्परावादी व्यक्ति थे इसलिए प्राचीन भारतीय शिक्षण विधियों को उत्तम मानते थे। श्रवण, मनन और निदिध्यासन को तो ये अध्ययन अध्यापन की सर्वोत्तम विधि मानते थे। पर इस सन्दर्भ में ये आधुनिक विचारों से भी अनभिज्ञ नहीं थे। ये स्वयं अध्यापक रहे थे और प्राचीन एवं अर्वाचीन दोनों शिक्षण विधियों को कुछ अपने ही तरीकों से प्रयोग करते थे।
1. निरीक्षण विधि- मालवीय जी इस तथ्य से परिचित थे कि बच्चे देख-सुनकर अधिक सरलता और स्पष्टता के साथ सीखते हैं। इन्होंने इस बात पर बल दिया कि जहाँ यह सम्भव हो, बच्चों को इसी प्रकार सिखाना चाहिए। इसे आज की भाषा में निरीक्षण विधि कहते
2. क्रिया एवं अभ्यास विधि- कला-कौशलों, उद्योग और विज्ञान्नो के शिक्षण के लिए इन्होंने स्वयं करके देखने और स्वयं अभ्यास करके सीखने पर बल दिया। कला-कौशल की शिक्षा के सन्दर्भ में इसे आज कार्यशाला विधि कहते हैं और विज्ञान की शिक्षा के सन्दर्भ में प्रयोगशाला विधि कहते हैं।
3. व्याख्यान विधि- उच्च कक्षाओं के लिए इन्होंने व्याख्यान विधि का समर्थन किया है। इन्होंने इस बात पर बल दिया कि शिक्षकों को व्याख्यान देते समय उदाहरण और दृष्टान्त प्रस्तुत करने चाहिए और विषय सामग्री को स्पष्ट करना चाहिए।
4. स्वाध्याय विधि- मालवीय जी के अनुसार उच्च स्तर पर स्वाध्याय का विशेष महत्त्व है। इन्होंने स्पष्ट किया कि इस स्तर पर आते-आते छात्र स्वयं पढ़कर स्वयं समझने योग्य हो जाते हैं अतः इस स्तर पर छात्रों को स्वाध्याय के अवसर प्रदान किए जाएँ। स्वाध्याय के सम्बन्ध में ये अपने छात्रों से कहा करते थे कि पढ़ते समय सारी दुनिया को एक ओर रख दो और पुस्तक में लेखक की विचारधारा में डूब जाओ, यही तुम्हारी समाधि है, यही तुम्ह उपासना है और यही तुम्हारी पूजा है। ये अपने छात्रों से यह भी आशा करते थे कि वे किसी विषय पर विभिन्न लेखकों और समालोचकों की पुस्तकें पढ़ें और उसके बाद स्वयं चिन्तन-मनन करें और सही तथ्यों को जानने का प्रयत्न करें। साफ जाहिर है कि ये केवल पुस्तक पठन को स्वाध्याय नहीं मानते थे परन्तु पुस्तक के पठन के बाद चिन्तन-मनन को भी आवश्यक समझते थे।
अनुशासन
मालवीय जी शिक्षा के क्षेत्र में अनुशासन का होना आवश्यक मानते थे परन्तु ये अनुशासन से अर्थ आत्मानुशासन से लेते थे। दण्ड के भय से स्थापित व्यवस्था को ये अनुशासन नहीं मानते थे। ये इस बात पर बल देते थे कि शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों को अपने ऊपर स्वयं नियन्त्रण रखना चाहिए और मन, वचन व कर्म से शुद्ध होना चाहिए। इनका स्पष्ट मत था कि छात्र तो तभी अनुशासन में रहेंगे जब शिक्षक अनुशासन में रहेंगे अतः आवश्यक है कि शिक्षकों में का आचरण अपने में आदर्श एवं अनुकरणीय होना चाहिए। आज की भाषा में इस प्रकार स्थापित अनुशासन को प्रभावात्मक अनुशासन कहते हैं। इस प्रकार से अनुशासन स्थापित करने में दण्ड का कोई स्थान नहीं होता। मालवीय जी स्वयं इतने वर्ष शिक्षक रहे कुलपति रहे और फिर रेक्टर रहे परन्तु कभी भी किसी से रुष्ट नहीं हुए। सच्चे अनुशासन की प्राप्ति के लिए ये नित्य पूजा-पाठ और संध्या करने, नियमित रूप से उपवास करने और नियमित जीवन जीना आवश्यक समझते थे। इनका विश्वास था कि नित्य पूजा-पाठ एवं संध्या करने वाला व्यक्ति स्वभावतः अनुशासित हो जाता है। और जब कभी किसी से जाने-अनजाने कोई अनुशासनहीनता हो जाती थी, अपराध हो जाता था तो ये उसे दण्ड नहीं देते थे, केवल प्रायश्चित कराते थे।
शिक्षक
मालवीय जी ने अपना जीवन शिक्षक के रूप में प्रारम्भ किया था। ये प्राचीन परम्परा के अनुयायी थे और शिक्षकों को समाज में सर्वोच्च स्थान देते थे। इनके अनुसार शिक्षक को धर्म परायण, विद्वान और सत्यानुवेषी होना चाहिए और शिक्षार्थियों के प्रति समर्पित होना चाहिए। इसके साथ-साथ प्रत्येक शिक्षक का आचरण आदर्श और अनुकरणीय होना चाहिए। ये शिक्षकों से यह भी अपेक्षा करते थे कि वे समाज सेवक और राष्ट्र भक्त हों। इनका विश्वास था कि ऐसे शिक्षकों से ही शिक्षार्थी सच्चे ज्ञान और उच्च आचरण की शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं।
शिक्षार्थी
मालवीय जी शिक्षार्थियों से ब्रह्मचर्य पालन की अपेक्षा करते थे। ये अपने शिष्यों को प्रातः काल उठने, नित्य संध्यावन्दन करने, बड़ों का आदर करने, शिक्षकों में श्रद्धा रखने और उनकी आज्ञा का पालन करने और प्राणीमात्र की सेवा करने का उपदेश देते थे। इनके अनुसार विद्यार्थियों को अपने मन, वचन और कर्म पर संयम रखना चाहिए, विनम्र होना चाहिए, सादा जीवन जीना चाहिए और विद्या से प्रेम करना चाहिए। ये भारत में प्राचीन गुरु-शिष्य परम्परा को पुनः स्थापित करना चाहते थे।
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