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यथार्थवाद से आप क्या समझते हैं? यथार्थवादी शिक्षा के सिद्धांत

यथार्थवाद से आप क्या समझते हैं? यथार्थवादी शिक्षा के सिद्धांत
यथार्थवाद से आप क्या समझते हैं? यथार्थवादी शिक्षा के सिद्धांत

 यथार्थवाद से आप क्या समझते हैं? यथार्थवादी शिक्षा के सिद्धांतों की विवेचना कीजिए ।

यथार्थवाद का अर्थ – यथार्थवाद को अंग्रेजी में “रियालिज्म” (Realism) कहते हैं। यह शब्द दो शब्दों के योग से बना है- Real + ism Real का अर्थ है वस्तु और Ism का अर्थ है वाद, अतः यथार्थवाद का अर्थ है-वस्तु सम्बन्धित विचारधारा। वस्तुओं की वास्तविकता में विश्वास रखने के कारण ही इसे यथार्थवाद कहते हैं। यथार्थवाद के अन्तर्गत सिद्धान्तों व विचारों का कोई महत्व नहीं है। यथार्थवादी विचारधारा का आधार भौतिकवाद है! भौतिकवाद के अनुसार मात्र भौतिक जगत ही सत्य है।

परिभाषा- विद्वानों द्वारा यथार्थवाद की अग्रलिखित परिभाषा दी गयी है—

1. ब्राउन के अनुसार– “यथार्थवाद के अनुसार समस्त भौतिक वस्तुयें अथवा बाहरी जगत के पदार्थ वास्तविक हैं तथा उनका अस्तित्व देखने वाले से अलग है। यदि उनको देखने वाला व्यक्ति न तो भी उनका अस्तित्व होगा तथा वे भी वास्तविक होंगे।”

2. बटलर का कथन है— “यथार्थवाद इस संसार को सामान्यतः उसी रूप में स्वीकार करता है, जिस रूप में वह हमें दिखाई देता है।”

3. रॉस का कहना है— “यथार्थवाद इस तथ्य पर जोर देता है कि जिन वस्तुओं की अनुभुति हम प्रत्यक्ष रूप में करते हैं उनके पीछे तथा उनसे सम्बद्ध वस्तुओं का जगत वास्तविक होता है। “

4. गुड के अनुसार — “यथार्थवाद वह सिद्धान्त है जिसके अनुसार भौतिक जगत चेतन मन से स्वतन्त्र रूप में अस्तित्व रखता है, उसकी प्रकृति व गुण उसके ज्ञान से मालूम होते हैं। “

यथार्थवाद के प्रमुख सिद्धान्त

(1) ज्ञान की प्राप्ति ज्ञानेन्द्रियाँ द्वारा ही सम्भव यथार्थवाद के अनुसार मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियों तथा वस्तुओं के सम्पर्क द्वारा हमें जो भी संवेदन (Sensation) प्राप्त होते हैं, वही वास्तविक सत्य है। रसेल (Ressel) ने अन्तिम रूप से पदार्थ की रचना अणु द्वारा नहीं, बल्कि संवेदनाओं द्वारा स्वीकार की है और इसी के ज्ञान वास्तविक ज्ञान मानते हैं।

(2) मनुष्य भौतिक जगत का एक अंग है— इस व्यवस्था अनुसार मनुष्य के पास मन (मस्तिष्क) होने के कारण यह संसार का सर्वश्रेष्ठ पदार्थ है और भौतिक जगत का एक अंग है।

(3) भौतिक जगत ही सत्य है- यथार्थवाद के अनुसार संसार अनेक पदार्थों के योग से बना है। पदार्थ को ये स्वतंत्र सत्ता मानते हैं। इसकी अनुभूति इन्द्रियों द्वारा की जा सकती है अतः वे भौतिक संसार को ही सत्य मानते हैं।

(4) अवयव का सिद्धान्त- यथार्थवाद के अनुसार, संसार में जड़ (अचर) तथा चेतन (चर) वस्तुएँ एक अवयव बनाती हैं। व्हाइटहैंड के अनुसार, “जगत विकास की प्रक्रिया में एक तरंगित अवयव है। परिवर्तन इस तरंगित जगत का मुख्य लक्षण है। शाश्वत वास्तविकता का सार तत्व प्रक्रिया है, मस्तिष्क को अवयव के कार्य के रूप में जानना चाहिए।”

(5) आध्यात्मिक संसार का अस्तित्व नहीं है- परलोक को ये कल्पना मात्रा मानते हैं। और मन की भी अपनी भौतिक सत्ता है। विज्ञान इसी को मस्तिष्क कहता है।

(6) बालक का विकास संसार की नियमित प्रक्रिया के अनुसार- यथार्थवादी के अनुसार इस जगत के होने वाले समस्त परिवर्तनों में एक नियमितता होती है। उनके अनुसार, मनुष्य का विकास भी कुछ नियमों के अनुसार होता है।

(7) ज्ञानेन्द्रियों के प्रशिक्षण पर बल – सुखपूर्वक जीने के लिए भौतिक जगत का ज्ञान आवश्यक है और ज्ञानेन्द्रियों ज्ञान के द्वारा है। अतः ज्ञान प्राप्त करने के लिए यथार्थवादी ज्ञानेन्द्रियों के प्रशिक्षण पर बल देते हैं।

(8) मनुष्य जीवन का उद्देश्य सुखपूर्वक जीना है— यथार्थवादी मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ पदार्थ मानते हैं और मानव जीवन के किसी अन्तिम उद्देश्य में विश्वास नहीं करते हैं। सुखपूर्वक जीने के लिए यथार्थवादी शारीरिक मानसिक विकास पर बल देते हैं।

(9) मनुष्य संसार का सर्वश्रेष्ठ पदार्थ है- यथार्थवादी मनुष्य को भी संसार का एक पदार्थ मानते हैं, परन्तु इतना ये भी मानते हैं कि यह अन्य पदार्थों से भिन्न है, क्योंकि इसके पास मन (मस्तिष्क) है। मनुष्य अपने इस मन (मस्तिष्क) से ही जगत में व्यवस्थित वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त करता है और जगत की वस्तुओं का वास्तविक प्रयोग कर सुखपूर्वक जीवन जीने में सफल होता है। इनके अनुसार मन को यह ज्ञान ज्ञानेन्द्रियों (आँख, कान, नाक, त्वचा और जिह्वा) द्वारा प्राप्त होता है। मनुष्य ने जो कुछ भी विकास किया है उसका मूल कारण उसकी ज्ञानेन्द्रियाँ और मन ही हैं। संसार के अन्य पदार्थों के पास इस कोटि की न तो ज्ञानेन्द्रियाँ हैं और न मनुष्य जैसा मन, इसलिए वे किसी प्रकार की प्रगति नहीं कर सके। मनुष्य अपनी इन शक्तियों के कारण ही संसार का सर्वश्रेष्ठ पदार्थ है।

(10) मनुष्य का विकास संसार की नियमितता के अनुसार होता है – यथार्थवादी इस भौतिक संसार में एक नियमितता देखते हैं। उनका कथन है कि संसार में जो कुछ परिवर्तन होते हैं उनमें एक नियमितता है। परिवर्तन का दूसरा नाम विकास है। अतः स्पष्ट है कि. मनुष्य का विकास कुछ नियमों के अनुसार होता है। वे इस बात का खण्डन करते हैं कि मनुष्यों के पास आध्यात्मिक शक्तियाँ हैं और उनका विकास उनके आधार पर होता है। उनका तर्क है कि यदि मनुष्य के पास कुछ आध्यात्मिक शक्तियाँ हैं और वे अपने में पूर्ण हैं तो मानव समाज से दूर जंगल में मनुष्यों का विकास मनुष्य के रूप में क्यों नहीं होता। यही कारण है कि यथार्थवादी पर्यावरण को विशेष महत्त्व देते हैं।

(11) सुखपूर्वक जीने के लिए वस्तुजगत का ज्ञान आवश्यक है- यथार्थवादियों का विश्वास है कि जो मनुष्य संसार की वस्तुओं का जितना अधिक ज्ञान रखता है और अपने उपभोग की वस्तुओं का जितना अधिक उपयोग करता है वह उतना ही अधिक सुखी रहता है। से न आज यह बात किसी से छिपी नहीं है कि हम प्राकृतिक पदार्थों का विभिन्न रूपों में प्रयोग कर भौतिक सुख प्राप्त करते हैं, परन्तु यह तभी सम्भव है जब हमें वस्तुजगत का ज्ञान हो।

(12) वस्तुजगत के वास्तविक ज्ञान के लिए भौतिक विज्ञान का ज्ञान एवं उसका प्रयोग आवश्यक है – यथार्थवादी संसार में एक नियमितता देखते हैं और उनका स्पष्टीकरण है कि इसका ज्ञान हम ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान को व्यवस्थित करके प्राप्त करते हैं। इस व्यवस्थित ज्ञान को प्राप्त करने से पहले हमें निरीक्षण, परीक्षण और नियमीकरण करना होता है। इन नियमों और नियमों की व्यवस्था को भौतिक विज्ञान कहा जाता है। वस्तु के वास्तविक ज्ञान को प्राप्त करने के लिए हमें खोजे हुए नियमों का ज्ञान प्राप्त करना होता है और नए नियमों की खोज करनी होती है। इसके लिए भौतिक विज्ञान और ज्ञान प्राप्त करने की वैज्ञानिक विधियों का ज्ञान आवश्यक होता है, परन्तु ज्ञान के लिए ज्ञान का ये विरोध करते हैं। इस ज्ञान का प्रयोग वस्तु को उपयोगी बनाने और उसका प्रयोग कर सुख-भोग करना चाहिए।

(13) राज्य मनुष्य द्वारा संयोजित एक व्यवस्था है— यथार्थवादी राज्य को कोई दैवीय व्यवस्था और राजा को कोई देवीय पुरुष नहीं मानते। इनका कथन है कि मनुष्य ने सुखपूर्वक जीने के लिए अपने आपको संगठित किया है और व्यवहार को निश्चित करने के लिए कुछ नियम बनाए हैं और अपनी सुरक्षा की व्यवस्था की है। यह सब कार्य करने वाले व्यक्ति को राजा, संस्था को सरकार और संगठन को राज्य की संज्ञा दी जाती है। अतः राजा अथवा राज्य का कर्त्तव्य है कि वह अपने देश के प्रत्येक नागरिक को सुखपूर्वक जीने के लिए साधन जुटाए और जीने की विधि में प्रशिक्षित करें। यह कार्य भौतिक विज्ञान के ज्ञान से ही सम्भव है इसलिए इसके अध्ययन और विकास पर सबसे अधिक बल दिया जाए।

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Anjali Yadav

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