रूसों के शैक्षिक विचारों की विवेचना कीजिए।
महान फ्रांसीसी दार्शनिक एवं शिक्षाशास्त्री रूसों ने शिक्षा के विषय में अपने महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किये हैं। रूसों प्रकृतिवाद का प्रबल समर्थक था। उसके शैक्षिक विचारों का संक्षिप्त वर्णन निम्नवत् है-
शिक्षा का अर्थ- रूसों अपने प्रकृतिवादी दृष्टिकोण से शिक्षा को हर स्थान पर प्रभावित करता है। वह शिक्षा को एक प्राकृतिक प्रक्रिया मानता है। उनके अनुसार “सच्ची शिक्षा वही है, जो व्यक्ति के अन्दर से प्रस्फुटित होती है। यह इसकी अन्तर्निहित शक्तियों की अभिव्यक्ति है।’
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शिक्षा के उद्देश्य
(i) सुख की प्राप्ति रूसों के अनुसार व्यक्ति की आन्तरिक शक्तियों के स्वाभाव विकास में योग देना ही शिक्षा का उद्देश्य है। शिक्षा केवल ज्ञान प्राप्ति तक ही सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि बालक की शक्तियों का उन्नतमुखी विकास होना चाहिए। रूसो व्यक्तिवादी था, इसलिए उसने समाज की अपेक्षा व्यक्ति के शारीरिक, भावात्मक, बौद्धिक एवं चारित्रिक और नैतिक विकास पर बल दिया है।
(ii) स्वतन्त्रता की प्राप्ति रूसो का विचार है कि बालकों में उनके स्वतन्त्र व्यक्तित्व का विकास करने के लिए बाह्य रीति-रिवाजों, प्रथाओं, परम्पराओं, नियमों, आदि को बाधक न होकर स्वतन्त्र वातावरण बनाये रखना चाहिए।
(iii) विभिन्न अवस्थाओं में शिक्षा के उद्देश्य रूसों ने बालक के सम्पूर्ण जीवन को चार अवस्थाओं में बॉटकर विभिन्न अवस्थाओं के लिए उद्देश्य निर्धारित किये हैं। ये निम्नलिखित चार अवस्थाएं हैं (क) शैशवावस्था-1 से 5 वर्ष तक (ख) बाल्यावस्था 5 से 12 वर्ष तक (ग) किशोरावस्था 12 से 14 वर्ष तक और (घ) युवावस्था 15 से 20 वर्ष तक। (क) शैशवावस्था शैशवावस्था में विकास के अनुसार बालक की शारीरिक शक्ति की वृद्धि करना शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए। रूसो का विचार है कि बालक का शरीर शैशवावस्था में बहुत कोमल होता है, तभी तो उसके द्वारा कोई भी कार्य नहीं हो सकता है। इसीलिए शिक्षा का मूल उद्देश्य बालक के शरीर का विकास करना है। (ख) बाल्यावस्था – इस काल की शिक्षा का प्रधान उद्देश्य ज्ञानेन्द्रियाँ का विकास है। रूसो का कथन है कि “प्रकृति चाहती है कि बालक, बालक ही बने रहें इसके पूर्व कि वे मनुष्य बनें।’ रूसो का कथन है कि ज्ञानेन्द्रियों के परीक्षण के लिए बालकों को नाना प्रकार की वस्तुओं को देखने का स्वतन्त्र अवसर देना चाहिए। (ग) किशोरावस्था बालक का किशेरावस्था तक पहुँचने में शारीरिक एवं ज्ञानेन्द्रियों का विकास हो जाता है। अतः बालक के व्यक्तित्व के लिए इस प्रकार की शिक्षा देनी चाहिए, जो कि उसे परिश्रम, शिक्षण अथवा निर्देश एवं अध्ययन का पर्याप्त अवसर प्रदान करें। इस काल की शिक्षा का उद्देश्य उपयोगी तथा व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करने में सहायता देना है, ताकि वह अपनी आवश्यकताओं को पूरा कर सके या जो आवश्यकता पड़ने पर उसके काम भी आ सके। (घ) प्रौढ़ावस्था युवावस्था में शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बालक का भावात्मक विकास करना है, क्योकि किशोरावस्था में बालक का शारीरिक, ज्ञानेन्द्रिय एवं मानसिक विकास हो जाता है, परन्तु उसका भावात्मक विकास नहीं हो पाता है। रूसो का कथन है कि, “हमने उसके शरीर, ज्ञानेन्द्रिय तथा बुद्धि को प्रबल बना दिया है, अब हमें उसे हृदय प्रदान करना शेष है।’
पाठ्यक्रम
रूसो ने अध्ययन की सुविधा के लिए बालक की अवस्थाओं को निम्नलिखित पाँच भागों में विभाजित किया है और उसी के अनुरूप पाठ्यक्रम सुनिश्चित किया है-
(1) शैशवावस्था- शैशवावस्था बालक के शारीरिक विकास की अवस्था है। रूसो का विचार है कि बालक को बालक समझकर शिक्षा दी जाय। बालक को बालक ही रहने दिया जाय, जब तक वह स्वयं न बड़ा हो जाय। फलस्वरूप इस अवस्था में जो पाठ्यक्रम निर्धारित किया जाय, वह बालक के शरीर को मजबूती प्रदान करने वाला होना चाहिए, जैसे-खेलना, कूदना, धूमना-फिरना आदि। रूसो का कहना है कि “बालक को कुशल इंजीनियर, डाक्टर, आदि बनाने का विचार तो बाद में करना चाहिए, पहले उसे स्वस्थ एवं शक्तिशाली शिशु ही बनने देना चाहिए।”
(2) बाल्यावस्था – बाल्यावस्था की शिक्षा का पाठ्यक्रम रूसो की निषेधात्मक शिक्षा के सिद्धान्त पर निर्भर है। इसके अन्तर्गत हम ज्ञान ग्रहण करने वाली इन्द्रियों को विकसित करते है। इन्द्रियों के विकास के अभाव में मानसिक विकास असम्भव है अतः इन्द्रियों के विकास के लिए खेलना कूदना उठना एवं तैरना नापना, गिनना, निरीक्षण करना परमावश्यक है। इसलिए वह शारीरिक शिक्षा, भाषा, गणित, रेखागणित, भूगोल, प्राकृतिक विज्ञान आदि स्वानुभव के द्वारा जाने का प्रयत्न करेगा (बालक को सब कुछ अपने अनुभव सीखने का अवसर मिलना चाहिए। रूसों की इस योजना की मुख्य विशेषता यह है कि इस काल में भी बालक को पुस्तक नहीं देना चाहिए।
(3) किशेरावस्था – इस व्यवस्था में बालक के शरीर तथा ज्ञानेन्द्रियों का विकास हो चुकता है, अतः अब उसकी निमित शिक्षा आरम्भ हो सकती है। बालक की शिक्षा ऐसी होनी चाहिए। जिससे उसे परिश्रम, शिक्षा और अध्ययन के लिए पर्याप्त अवसर मिले।
(4) पूर्व-प्रौढ़ावस्था- युवावस्था में बालक के लिए पाठ्यक्रम में धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा दी जाती है। नैतिक शिक्षा वह अपने संगी-साथी तथा अन्य व्यक्तियों के सम्पर्क में आकर प्राप्त करता है। इस अवस्था में कारागार, अस्पताल, आदि में ले जाकर व्यक्ति को मानव की सच्ची दशा दिखानी चाहिए, जिससे उसमें मानवता के लिए प्रेम, सहानुभूति, दया, न्याय, अच्छाई -बुराई आदि का ज्ञान हो । ऐतिहासिक, धार्मिक कथाएँ, हितोपदेश की कहानियाँ, कला, संगीत, यौन शिक्षा का भी ज्ञान देना जरूरी है।
(5) प्रौढ़ावस्था पारिवारिक जीवन – इस अवस्था में रूसो ने सोफी के लिए गृह विज्ञान, सीना, पिरोना, काढ़ना, संगीत, कला, नृत्य, धर्म एवं नीति शिक्षा की व्यवस्था की है।
स्त्री शिक्षा – इस सम्बन्ध में रूसो के विचार निम्नवत् है- (1) पुरुष को सुखी बनाना रूसो ने स्त्रियों का कोई स्वतन्त्र व्यक्तित्व नही माना है। स्त्रियाँ तो पुरुष की प्रकृति की पूरक मात्र हैं। उसके अनुसार नारी शिक्षा का उद्देश्य पुरुष को सुखी बनाना है। (2) स्त्रियों के लिये पाठ्यक्रम – (1) शरीरिक शिक्षा और (2) गृह विज्ञान-सीने, पिरोने, काढ़ने, बनने आदि की शिक्षा (3) संगीत और नृत्य – रूसो के अनुसार स्त्रियों को दर्शन कला विज्ञान के स्थान पर संगीत नृत्य की शिक्षा आवश्यक एवं उचित है। (4) धार्मिक शिक्षा धार्मिक व भौतिक शिक्षा की आवश्यकता कन्या को माँ का धर्म व पत्नी को पति की आज्ञानुसार चलना (5) कार्यरत होना ही स्त्रियों के लिये शिक्षा पद्धति है। (6) लड़कों को पूर्ण स्वतन्त्रता देने के पक्ष में, पर लड़कियों पर कड़े नियन्त्रण के पक्ष में है। रूसो के अनुसार बालक का शिक्षक उसका पिता व ‘बालिका की शिक्षिका उसकी माता होती है।
वर्तमान समय में रूसों के शैक्षिक विचारों की प्रासंगिकता- रूसों के शैक्षिक विचार वर्तमान समय में भी प्रासंगिक है। रूसो के विचारों से ही शिक्षा के क्षेत्र में वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक तीनों प्रवृत्तियों को अपनाया गया। इसके अतिरिक्त वर्तमान समय में रूसों के शैक्षिक विचारों का प्रभाव निम्नलिखित हैं-
(1) स्वानुभव द्वारा सीखने तथा करके सीखने का सिद्धान्त होना चाहिए।
(2) स्वयं शोध प्रणाली का प्रयोग होना चाहिये।
(3) स्थूल सूक्ष्म की ओर सिद्धान्त का अनुसरण होना चाहिये।
रूसो के अनुशासन के लिये दो सिद्धान्त निर्धारित किये-
(i) स्वतन्त्रता का सिद्धान्त (ii) प्राकृतिक परिणामों का सिद्धान्त।
रूसो वास्तव में मुक्यात्मक अनुशासन का समर्थक था। स्वतन्त्रता के कारण वह दमनात्मक एवं प्रभावात्मक अनुशासन का विरोधी। प्राकृतिक अनुशासन में प्रकृति के नियमों का पालन करना पड़ता है। प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करने पर उसे प्रकृति दण्ड देगी। रूसो ने स्वतन्त्रता के आधार पर बाह्य नहीं, अपितु आन्तरिक अनुशासन स्थापित करने को कहा है।
(1) मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति का विकास- “बाल केन्द्रित शिक्षा का समर्थन” शिक्षा जगत में मनोवैज्ञानिक युग का सूत्रपात
(2) सामाजिक प्रवृत्ति का विकास आधुनिक शिक्षा में नैतिक सामाजिक एवं अन्य व्यावसायिक शिक्षा को जो विशेष महत्व दिया गया है उसका श्रेय रूसों को ही है।
(3) बाल केन्द्रित पाठ्यक्रम बालक की विकास की अवस्थाओं के अनुसार पाठ्य सामग्री चुनी जाये, सामग्री का क्रियात्मक विधियों द्वारा अध्ययन किया जाये।
(4) आधुनिक शिक्षा पद्धतियों का प्रथम अन्वेषक- हारिस्टिक, योजना किन्डर-गार्डेन, डाल्टन, मान्टेसरी पद्धति का आधार रूसो की शिक्षा को क्रियान्वित किया गया है।
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