School Management & Hygiene

विद्यालय अनुशासन [ SCHOOL DISCIPLINE]

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विद्यालय अनुशासन [ SCHOOL DISCIPLINE]

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अनुशासन का अर्थ एवं परिभाषा (MEANING AND DEFINITION OF DISCIPLINE)

अनुशासन का अर्थ सामान्य रूप में नियमों के पालन से है, परन्तु वास्तविक अर्थ इससे भिन्न है। अनुशासन शब्द संस्कृत भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है आदेश अथवा आज्ञा, इसका अंग्रेजी पर्याय डिसिप्लिन (Discipline) है। डिसिप्लिन (Discipline) का अर्थ भी यही है— आदेश अथवा नियन्त्रण। प्रारम्भ में अनुशासन और डिसिप्लिन, इन दोनों शब्दों का प्रयोग आदेश पालन अथवा नियन्त्रण में रहने से लिया जाता था परन्तु आज अनुशासन का अर्थ इससे कुछ भिन्न रूप में लिया जाता है।

आदर्शवाद (अध्यात्मवाद) स्वीकार करता है कि मनुष्य आत्मा को धारण करने वाला है और आत्मा सर्वशक्तिमान है, सर्वव्यापक है और सर्वज्ञाता है। अतः जब मनुष्य आत्मा के नियन्त्रण में रहता है तो वह अनुशासन में रहता है अर्थात् मनुष्य को अपनी मूल प्रवृत्तियों के व्यवहार पर नियन्त्रण रखना चाहिए। टी.पी. नन (T.P. Nunn) के अनुसार-“अनुशासन का अर्थ है अपनी भावनाओं और शक्तियों को नियन्त्रण के अधीन करना जिससे अव्यवस्था के स्थान पर व्यवस्था स्थापित होती है।” (Discipline consists in the submission of ones impulses and powers to regulation which imposes from upon chaos.) प्रकृतिवाद की मान्यता है कि मनुष्य सुख-दुःख के आधार पर क्रियाओं को चुनता है अर्थात् वह बाह्य नियन्त्रण को स्वीकार न करके स्वयं के नियन्त्रण में रहता है, यही अनुशासन है। समाजवादी मानते हैं कि मनुष्य सामाजिक क्रियाओं में भाग लेता है और उसमें व्यवस्था को पूर्ण करने का एक संगठन बन जाता है। इस संगठन के अधीन रहना और उसके अनुरूप व्यवहार करना अनुशासन कहलाता है। प्रयोजनवादी स्वानुशासन को महत्त्व देते हैं अर्थात् जैसा समाज सोचता है और करता है, मनुष्य भी वैसा ही करता है और सोचता है।

जॉन ड्यूवी (John Dewey) का मत है—” अनुशासन शक्ति है और कार्य के करने लिए उपलब्ध साधनों का सदुपयोग है।” (Discipline means power at command, mastery of the resources available for carrying through the action undertaken.)

अतः अनुशासन मनुष्य की आन्तरिक भावना और समाज के व्यवहार तथा आत्मनियन्त्रण का व्यापक रूप है।

विद्यालय अनुशासन की अवधारणा (CONCEPT OF SCHOOL DISCIPLINE)

विद्यालय अनुशासन को आज व्यापक अर्थ में लिया जाता है। व्यापक रूप से अभिप्राय है ऐसा अनुशासन जो बालक में शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं नैतिक मूल्यों का विकास करे। यह अनुशासन आन्तरिक और बाह्य दोनों से सम्बन्धित है। आन्तरिक अनुशासन में आत्मा के विकास अर्थात् स्वानुशासन पर बल दिया जाता है जबकि बाह्य अनुशासन में समाज सम्मत अर्थात् सामाजिक अनुशासन पर बल दिया जाता है। इस सन्दर्भ में जॉन ड्यूवी (John Dewey) का मत है.-“जिन कार्यों को करने में निष्कर्ष निकलते हैं उन कार्यों को सामाजिक एवं सहयोगी ढंग से करने पर अपने ही रूप एवं ढंग का अनुशासन उत्पन्न होता *” (Out of doing things that are to produce result and out of doing these in a social and co-operative way, there is a born discipline of its own kind and type.)

अत: कहा जा सकता है कि आज शिक्षा के क्षेत्र में अनुशासन का अर्थ विद्यार्थियों द्वारा विद्यालय के नियमों का पालन करने और समाज-सम्मत आचरण करने से लिया जाता है। परन्तु किसी भी स्थिति में उन पर विद्यालय के नियमों को थोपा नहीं जाता है और न ही समाज-सम्मत आचरण करने के लिए बाध्य किया जाता है। बल्कि आज उन्हें ऐसा वातावरण दिया जाता है कि वे यह सब करने के लिए स्वयं सोचते हैं, स्वयं वैसा करने के लिए शक्ति का विकास करते हैं और अपनी इच्छा से वैसा आचरण करते हैं। इसे स्वानुशासन कहा जाता है। आज शिक्षाशास्त्री इसे ही अच्छा अनुशासन मानते हैं। लोकतान्त्रिक समाज में अनुशासन से अभिप्राय है बालक की जीवन के लिए तैयार करना, उसे आदर्शों की प्राप्ति में सहायता करना और व्यक्ति की आदतों, ज्ञान, रुचि और शक्ति को प्राप्त करने में सहायता करना। अतः अनुशासित बच्चे विद्यालय और विद्यालय से बाहर किसी स्थान पर समाज सम्मत आचरण करते हैं जबकि दण्ड के भय से विद्यालयीय नियमों का पालन करने वाले बच्चे दण्ड का भय हटने पर कुछ भी करने के लिए स्वतन्त्र होते हैं।

अनुशासन के प्रकार (TYPES OF DISCIPLINE)

अनुशासन में मनुष्य के तीन तत्त्व आते हैं, पहला– अन्तःप्रेरणा, दूसरा- आत्म-नियन्त्रण की शक्ति और तीसरा- समाज-सम्मत आचरण विद्यालय में अनुशासन रखने से हमारा तात्पर्य विद्यार्थी को समाज सम्मत आचरण के प्रति सचेत करने, उन्हें वैसा करने की प्रेरणा देने, उन्हें अपने ऊपर नियन्त्रण रखने और विद्यालयीय नियमों का पालन करने योग्य बनाने से होता है। जब सभी विद्यार्थी स्वयं से प्रेरित होकर विद्यालयीय नियमों का पालन करते हैं और समाज सम्मत आचरण करते हैं तो हम कह सकते हैं कि विद्यालय का अनुशासन अच्छा है। अतः आचरण के विभिन्न दृष्टिकोणों की दृष्टि से अनुशासन के विविध रूप हैं। इस आधार पर अंग्रेजी विद्वान् जॉन एडम (John Adam) ने अनुशासन को तीन भागों में विभाजित किया है—(1) दमनात्मक (Repressionistic) (2) प्रभावात्मक (Impressionistic) और (3) मुक्त्यात्मक (Emancipationistic) अनुशासन

1. दमनात्मक अनुशासन (Repressionistic Discipline) प्राचीन काल में अधिकांश अध्यापक अपनी आज्ञा का पालन कराने के लिए शक्ति का प्रयोग करते थे। उस समय विद्यालयों के नियम अत्यन्त कठोर होते थे जिनका पालन सब बच्चों को कठोरता से करना होता था और जो बालक इनका पालन नहीं करता था उसे कठोर दण्ड दिया जाता था। आज भी इस प्रकार के विद्यालयों की कमी नहीं है। इस प्रकार बच्चों की मूल प्रवृत्तियों, रुचियों का दमन करके उनसे वांछित आचरण कराने को एडम महोदय ने दमनात्मक अनुशासन की संज्ञा दी है। अनुशासन का यह रूप अनेक दोषों से युक्त है-

(1) अधिक दण्ड देने से अंग-भंग का भय रहता है, इससे शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार की क्षति होती है।

(2) इच्छाओं का दमन करने से बालक में मानसिक ग्रन्थियाँ बन जाती हैं और छात्र अपने स्वास्थ्य को खो बैठता है।

(3) डण्डे के भय से मान्य व्यवहार करने की आन्तरिक प्रेरणा उत्पन्न नहीं होती है।

(4) इस अनुशासन में छात्र बाहरी रूप से बैठे रहते हैं लेकिन उनका मन और मस्तिष्क व्यवस्थित नहीं रहता है।

(5) इस प्रकार के अनुशासन में छात्र यन्त्रचालित ढंग से कार्य करता है, उनमें स्वयं सोचने और स्वतन्त्र रूप से कार्य करने की क्षमता विकसित नहीं होती है।

(6) छात्रों की व्यक्तिगत रुचियों और शक्तियों का विकास नहीं होता है, उनमें नेतृत्व शक्ति नहीं आ पाती है। वे दास भावना से ग्रसित होकर कठपुतली की तरह दूसरों के इशारों पर कार्य करते हैं।

(7) लोकतन्त्र में दण्ड मान्य नहीं है। हक्सले (Huxley) महोदय का मत है—”यदि आपका लक्ष्य स्वतन्त्र और प्रजातान्त्रिक समाज स्थापित करना है तो नागरिकों को स्वानुशासन तथा स्वतन्त्र रूप से रहने की शिक्षा देनी चाहिए।”

2. प्रभावात्मक अनुशासन (Impressionistic Discipline) – आदर्शवाद की मान्यता है कि शिक्षक को अपने आदर्शात्मक व्यक्तित्व और अच्छे आचरण से बालकों को प्रभावित करना चाहिए और उनके साथ इस प्रकार व्यवहार करना चाहिए कि वे उसके गुणों को ग्रहण कर सकें और उसके अनुरूप आचरण करना नोखें। प्राचीन भारत में सभी अध्यापक (गुरु) इसी विचार को मानते थे। तत्कालीन गुरु संयम के साथ जीवन व्यतीत करते थे और अपने ज्ञान, आचरण और आदतों से अपने शिष्यों को प्रभावित करते थे। शिष्य भी उनके ज्ञान और आचरण से प्रभावित होते थे और संयमित जीवन की ओर बढ़ते थे। एडम महोदय ने इस प्रकार के अनुशासन को प्रभावात्मक अनुशासन कहा है। आज के कुछ विद्वान् इस अनुशासन को अच्छा नहीं मानते हैं और इसके विपक्ष में तर्क देते हैं—

(1) गुरुओं का आदर्श जीवन होने पर ही यह अनुशासन प्राप्त किया जा सकता है। आज उच्च आदर्श वाले अध्यापक नहीं हैं और न ही उनका समाज में सम्मान है। ऐसे में बच्चे अध्यापकों से कम प्रभावित होते हैं।

(2) इस विधि में बच्चे शिक्षक से प्रभावित होकर अच्छा बुरा सब कुछ सीख लेते हैं। इस प्रकार सच्चा अनुशासन प्राप्त नहीं किया जा सकता है।

(3) विपक्ष में यह तर्क है कि गुरुओं का अन्धानुकरण करने से बच्चों में हीन भावना आती है।

(4) गुरुओं से प्रभावित होकर बच्चे उनकी प्रतिलिपि मात्र बनकर रह जाते हैं उनके व्यक्तित्व का विकास नहीं होता है।

(5) हमारे प्रभाव को केवल परिस्थितियाँ ही प्रभावित नहीं करतीं अपितु हमारे आदर्श भी प्रभावित करते हैं।

(6) केवल अनुकरण द्वारा सीखा हुआ व्यवहार जीवन भर साथ नहीं दे सकता।

(7) आदर्श बनने के लिए हमारे सामने आदर्श का होना आवश्यक है।

गुण (Merits)– इस अनुशासन में इन दोषों के साथ-साथ कुछ अच्छाइयाँ भी हैं हमें इनसे शिक्षा लेनी चाहिए-

(1) बच्चे अधिकतर अनुकरण द्वारा ही सीखते हैं।

(2) आज भी बच्चे अपने शिक्षकों से प्रभावित होते हैं।

(3) योग्य, शिष्ट और सदाचारी शिक्षक का आज भी उतना ही प्रभाव है।

(4) व्यवहार को निश्चित करने वाले नैतिक स्थायी भाव जीवन के प्रति दृष्टिकोण और उत्साह को हम आदर्श व्यक्तियों से ही प्राप्त करते हैं।

(5) बच्चे का स्वाभाविक विकास अवरुद्ध नहीं होता है, बच्चे तो अपनी रुचि, योग्यता और क्षमता के अनुरूप ही आदर्श चुनते हैं।

3. मुक्त्यात्मक अनुशासन (Emancipationistic Discipline)– मनोवैज्ञानिकों की धारणा है कि अनुशासन स्थापित करने के लिए बालक को स्वतन्त्र छोड़ देना चाहिए और उन्हें अपनी मूल प्रवृत्तियों, शक्तियों, रुचियों और योग्यतानुसार विकास के पूर्ण अवसर देने चाहिए, उस स्थिति में बच्चे सही आचरण करते हैं। प्रकृतिवादी रूसो और हरबर्ट स्पेन्सर इस विचारधारा के प्रतिपादक हैं। एडम महोदय ने इसे मुक्त्यात्मक अनुशासन की संज्ञा दी है। रूसो की यह विचारधारा आदर्शवादी विचारधारा की प्रतिक्रिया मात्र थी। यदि प्राचीन विचारधारा एक सीमा पर है तो दूसरी रूसी की विचारधारा दूसरी सीमा पर है। दोनों ही अव्यावहारिक हैं। रूसो के विचारों को मान्य नहीं कहा जा सकता क्योंकि-

(1) बच्चों को पूर्ण स्वतन्त्रता देने का अर्थ है मूल प्रवृत्ति के अधीन छोड़ना और इस प्रकार छोड़ना पशुवत् व्यवहार करने का अवसर देता है।

(2) पूर्ण स्वतन्त्रता पर आधारित अनुशासन बच्चों को असामाजिक और अशिष्ट बना देता है।

(3) रूसो बच्चों को पूर्ण रूप से प्रकृति पर छोड़कर प्रारम्भिक अवस्था को प्राप्त करने की बात करते थे।

(4) रूसो समाज को दोषी बताकर बच्चों को समाज से दूर रखने की बात करते थे। यह कल्पना सार्थक नहीं है।

(5) रूसो ने समाज की अवहेलना की है वे भूल गए कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।

(6) समाज से दूर रहकर मनुष्य में सामाजिक गुणों का विकास नहीं किया जा सकता।

(7) अनुशासन सम्बन्धी यह विचारधारा मनुष्य को प्रकृति के ऊपर छोड़कर उसके विकास में बाधा उत्पन्न करती है। प्रकृति के दण्ड विधान में भावना का कोई स्थान नहीं है।

जो भी हो, बच्चों के विकास के लिए डण्डे के स्थान पर स्वतन्त्रता की आवश्यकता को अन्य विद्वानों ने भी स्वीकार किया है। स्वतन्त्र वातावरण में बच्चे भय के कारण उत्पन्न होने वाली भावना ग्रन्थियों से बच जाते हैं और उनका शारीरिक एवं मानसिक विकास अपनी गति से होता है। विद्वानों का विचार है कि बच्चों को अमानुषिक कृत्यों से रोकने के लिए दण्ड के स्थान पर प्रेम और सहानुभूति का प्रयोग करना चाहिए। जर्मन शिक्षाशास्त्री पेस्टालॉजी (Pestalozy) ने प्रेम और सहानुभूति को ही अनुशासन का आधार बनाने की बात कही है (Discipline should be based on and controlled by love) मनोवैज्ञानिक दमनात्मक अनुशासन का विरोध करते हैं। उनकी मान्यता है कि अनुशासनहीनता के पीछे कोई-न-कोई कारण होता है। ये कारण वैयक्तिक असन्तोष, कुण्ठाएँ, तनाव और उन परिस्थितियों के प्रति विद्रोह पैदा कर देते हैं। अतः बच्चों को उच्च सामाजिक पर्यावरण में रखकर उन्हें स्वयं से प्रेरित होकर सामाजिक हित में सोचने और वांछनीय आचरण करने की ओर उन्मुख किया जाना चाहिए। इस प्रकार के अनुशासन को स्वानुशासन कहा जाता है। यही सच्चा अनुशासन है।

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Anjali Yadav

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