व्यक्तित्व की अवधारणा स्पष्ट कीजिए। व्यक्तित्व के तत्त्व एवं विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
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व्यक्तित्व का अर्थ एवं स्वरूप (Meaning and Nature of Personality)
व्यक्तित्व का अर्थ (Meaning of Personality) –
(क) शाब्दिक अर्थ- व्यक्तित्व का वास्तविक अर्थ समझने से पूर्व इसका शाब्दिक अर्थ समझना अत्यन्त आवश्यक है। ‘व्यक्तित्व’ शब्द अंग्रेजी भाषा के ‘Personality’ शब्द का हिन्दी रूपान्तर है। Personality शब्द की उत्पत्ति अंग्रेजी भाषा के ‘Persona’ शब्द से हुई है जिसका अर्थ होता है वेशभूषा जिसे नाटक करते समय अभिनेता लोग पहनते हैं, जिससे कि अभिनेता राजा, नौकर अथवा अन्य किसी व्यक्ति की भूमिका (Role) अदा करता है। अतः Persona धारण कर लेने से अभिनेता का वास्तविक रूप छिप जाता है और नाटक में अपने को जिस रूप में प्रदर्शित करना चाहता है, उसी रूप में दिखाई पड़ता है।
(ख) सैद्धान्तिक अर्थ सामान्य दृष्टिकोण- सामान्य दृष्टिकोण के अनुसार व्यक्तित्व का अर्थ उन गुणों से लगाया जाता है, जिसके द्वारा व्यक्ति दूसरों के ऊपर अपना प्रभाव जमाता है।
दार्शनिक दृष्टिकोण- इस दृष्टिकोण के अनुसार, “व्यक्तित्व पूर्णता का आदर्श और आत्म-ज्ञान है।”
समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण- समाजशास्त्रियों द्वारा व्यक्तित्व को समाज में प्रभाव डालने वाला गुण कहा गया है। इसके अनुसार “व्यक्तित्व उन गुणों का संगठित रूप है, जो व्यक्ति का समाज में कार्य एवं पद निर्धारण करता है। इस तरह हम व्यक्तित्व को समाज में प्रभाव डालने वाला गुण कह सकते हैं।”
मनोविश्लेषणात्मक दृष्टिकोण- फ्रायड ने व्यक्तित्व के तीन अंग बताये हैं- इदम् (Id). अहम् (Ego) और परम अहम् या नैतिक मान (Super Ego) । इदम् अचेतन मन में स्थित मूल-प्रवृत्तियाँ तथा इच्छायें हैं, जो अनैतिक होती हैं और अपनी तृप्ति शीघ्र ही चाहती हैं। अहम् चेतना इच्छाशक्ति, तर्क तथा बुद्धि है। इसका सम्बन्ध इदम् और परम् अहम् दोनों से रहता है। परम अहम् व्यक्ति का आदर्श है। यह अहम् को उसके दोषों के लिए ताड़ना देता है।
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण- इस दृष्टिकोण में व्यक्तित्व के अन्तर्गत वंशानुक्रम और पर्यावरण दोनों को ही महत्त्व दिया जाता है। यहाँ पर हमारा उद्देश्य मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से ही है। अतः व्यक्तित्व का मनोवैज्ञानिक अर्थ समझना अत्यन्त आवश्यक है।
(ग) व्यक्तित्व का मनोवैज्ञानिक अर्थ (Psychological Meaning of Personality)– व्यक्तित्व के मनोवैज्ञानिक अर्थ से तात्पर्य यह है कि मनुष्य में जितनी भी विशेषताएँ, विलक्षणतायें तथा आन्तरिक और बाह्य पहलू होते हैं, व्यक्तित्व उन सबका ही संगठित रूप है। अब यह जानने की आवश्यकता पड़ती है कि व्यक्ति की विशेषतायें, विलक्षणतायें, आन्तरिक तथा बाह्य पहलू क्या हैं? व्यक्ति जब इस व्यापक संसार में प्रवेश करता है, तब उसका मस्तिष्क तथा शरीर पूर्णतया अविकसित होता है। जन्म से ही उसे कुछ प्रकृति प्रदत्त गुण तथा मूल प्रवृत्तियाँ प्राप्त होती हैं, जिनके आधार पर वह वातावरण के साथ प्रतिक्रिया करता है तथा जिसके फलस्वरूप कुछ विलक्षणतायें जैसे विभिन्न प्रकार की योग्यतायें, कुशलतायें, आदतें एवं रुचि आदि अर्जित कर लेता है। व्यक्ति के विकास के साथ व्यक्ति की शक्तियों एवं विलक्षणताओं में परिवर्तन एवं परिमार्जन होता है। इसलिए व्यक्तित्व को गत्यात्मक संगठन भी कहा गया है। आन्तरिक पहलू के अन्तर्गत उसकी रुचि, आदत, दृष्टिकोण और योग्यताएँ आती हैं और उनके बाह्य पहलू के अन्तर्गत उसके शरीर की बनावट, मुखमुद्रा एवं वेशभूषा आदि आती हैं। व्यक्ति के आन्तरिक एवं बाह्य पहलू के कारण ही उसे मनोशारीरिक प्राणी कहा जाता है निष्कर्ष यह निकलता है कि व्यक्ति की जन्मजात एवं अर्जित विलक्षणताओं का गत्यात्मक संगठन ही व्यक्तित्व है।
व्यक्तित्व की परिभाषा (Definition of Personality)
व्यक्तित्व की परिभाषा विभिन्न लोगों के द्वारा की गयी है, जिसमें से कुछ महत्त्वपूर्ण परिभाषाएँ नीचे दी जा रही हैं-
(1) वारेन के अनुसार- “व्यक्तित्व व्यक्ति का सम्पूर्ण मानसिक संगठन है, जो उसके विकास की किसी भी अवस्था में होता है।”
(2) मन के अनुसार- “व्यक्तित्व व्यक्ति की संरचना, व्यवहार के तरीकों, रुचियों, दृष्टिकोणों, क्षमताओं, योग्यताओं और अभिक्षमताओं का सबसे विशिष्ट संगठन है।”
(3) आलपोर्ट के अनुसार- “व्यक्तित्व, व्यक्ति के अन्दर उन मनोशारीरिक प्रणालियों का गत्यात्मक संगठन है, जो उसके परिवेश के साथ अपूर्व समायोजन को निर्धारित करता है।”
(4) वुडवर्थ के अनुसार- “व्यक्तित्व के व्यवहार के समस्त गुणों को व्यक्तित्व कहते हैं।”
व्यक्तित्व के तत्त्व एवं विशेषताएँ (Elements and features of Personality)
व्यक्तित्व शब्द की मनोवैज्ञानिक व्याख्या करने के हेतु व्यक्तित्व में पाये जाने वाले तत्त्वों का उल्लेख कर देना आवश्यक है। व्यक्तित्व के लक्षणों का निर्माण व्यक्ति में पाये जाने वाले निम्नलिखित तत्त्वों आधार पर होता है-
(1) आत्म-चेतना (Consciousness)- व्यक्तित्व की क्रियाशीलता का आधार चेतना है। इस गुण के फलस्वरूप ही उसमें अहं भाव, सफलता, असफलता एवं आत्मबोध आदि होता है।
(2) सामाजिकता (Sociability)- व्यक्ति सामाजिक पर्यावरण और उत्तेजना के आधार पर ही क्रिया प्रतिक्रिया करता है। सामाजिक सम्पर्क में ही व्यक्ति का विकास होता है और सामाजिक व्यवहार को देखकर ही उसके व्यक्तित्व का मूल्यांकन किया जाता है।
(3) समन्वय अथवा सामंजस्यता (Adjustability)- प्रत्येक व्यक्ति अपने समाज और पर्यावरण से अनुकूलन स्थापित करने का प्रयास करता है। व्यक्तित्व के समुचित विकास के हेतु पर्यावरण से सामंजस्य आवश्यक है। सामंजस्य करने के फलस्वरूप ही उसके व्यवहार में परिवर्तन होता है।
(4) साधनपूर्णता अथवा युक्ति पूर्णता (Resourcefulness)- व्यक्ति अपनी नैसर्गिक प्रवृत्तियों तथा आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए विभिन्न साधन ढूँढ़ता है। इनकी पूर्ति के अनुभव के साथ उसमें कुछ विशेष रुचियों, प्रवृत्तियों, इच्छाओं अथवा गुण अर्जित होते रहते हैं जो उसके व्यक्तित्व के लक्षणों का निर्माण करते हैं। व्यक्ति के व्यवहार का एक निश्चित लक्ष्य होता है जिसे जानकर उसके व्यक्तित्व का अनुमान लगाया जा सकता है।
(5) समग्रता (Totality)- व्यक्तित्व की समस्त क्रियाएँ एक-दूसरे से परस्पर सम्बन्धित होती हैं और उनमें एकीकरण रहता है। व्यक्तित्व के व्यावहारिक लक्षण अलग नहीं होते भले ही वे परस्पर विरोधी प्रतीत हो सकते हैं। उसका व्यवहार समग्र रूप से प्रकट होता है।
(6) एकीकरण (Integration)- व्यक्तित्व का कोई भी तत्त्व (शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, नैतिक, संवेगात्मक आदि) अकेले कार्य नहीं करता। इन समस्त तत्त्वों में एकता अथवा एकीकरण पाया जाता है।
(7) विकास की निरन्तरता (Development Continuity) – व्यक्तित्व स्थिर नहीं रहता और उसके विकास में भी स्थिरता नहीं होती। उसके स्वरूप में परिस्थितियों, कार्यों और अनुभवों के आधार पर परिवर्तन होता रहता है। गैरीसन और अन्य ने लिखा है- “व्यक्तित्व निरन्तर होने की प्रक्रिया में रहता है।”
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