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व्याकरण शिक्षण का क्या उद्देश्य है ? व्याकरण शिक्षण का महत्त्व एवं पाठ योजना का प्रारूप

व्याकरण शिक्षण का क्या उद्देश्य है ? व्याकरण शिक्षण का महत्त्व एवं पाठ योजना का प्रारूप
व्याकरण शिक्षण का क्या उद्देश्य है ? व्याकरण शिक्षण का महत्त्व एवं पाठ योजना का प्रारूप
व्याकरण शिक्षण का क्या उद्देश्य है ? व्याकरण शिक्षण का महत्त्व एवं पाठ योजना का प्रारूप स्पष्ट कीजिए। 

व्याकरण शिक्षण का उद्देश्य

हिन्दी व्याकरण के ज्ञानात्मक उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

  1. हिन्दी व्याकरण के द्वारा शुद्ध उच्चारण का ज्ञान प्राप्त करना
  2. लिपि का पूरा एवं स्पष्ट ज्ञान प्राप्त करना।
  3. वर्तनी की अशुद्धियाँ दूर करना।
  4. शब्द भण्डार बनाना एवं शब्दों के अर्थ, विलोम, पर्यायवाची, अनेकार्थी शब्द, वाक्यांश हेतु एक शब्द का ज्ञान प्राप्त कराना।
  5. छात्रों में व्याकरण के नियमों, सूत्रों व परिभाषाओं की समझ विकसित करना ।
  6. सार्थक शब्दों का ज्ञान प्राप्त करना।
  7. भाषा की प्रकृति की पहचान करना आदि।

माध्यमिक स्तर पर हिन्दी व्याकरण शिक्षण के प्रमुख उद्देश्य

माध्यमिक स्तर पर हिन्दी व्याकरण शिक्षण के उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

  1. भाषा विश्लेषण की योग्यता प्राप्त करके शुद्ध एवं अशुद्ध भाषा की पहचान करना।
  2. स्थानीय भाषा में अशुद्ध प्रयोग से बचना तथा शुद्ध एवं मानक भाषण की आदत सुदृढ़ करना ।
  3. अर्थ, ध्वनि एवं रूप आदि वाक्य के अवयवों से परिचित होना।
  4. भाषा को शीघ्र सीखने की कुशलता प्राप्त करना।
  5. भाषा के सही प्रयोग करने की क्षमता का विकास करना।

व्याकरण शिक्षण का महत्त्व

भाषा पर पूर्ण अधिकार प्राप्त करने के लिए व्याकरण का ज्ञान आवश्यक है। भारतीय आचार्यों के समान अनेक पाश्चात्य विद्वानों ने भी व्याकरण-शिक्षण की उपादेयता को स्वीकार किया है। पाणिनि मुनि ने अपनी ‘अष्टाध्यायी’ में व्याकरण को ‘शब्दानुशासन’ कहा है। डॉ० स्वीट ने कहा है कि व्याकरण द्वारा भाषा-रचना का ज्ञान प्राप्त होता है। व्याकरण भाषा सम्बन्ध तथ्यों को इस प्रकार व्यवस्थित करता है कि वे कुछ नियमों के अन्तर्गत आ जाएँ। भाषा के शुद्ध तथा अशुद्ध प्रयोगों की परख व्याकरण द्वारा ही हो सकती है।

थाम्पसन तथा वायट ने भी अपनी पुस्तक ‘दी टीचिंग ऑफ इंगलिश इन इण्डिया’ में इसी मत की पुष्टि की है।

रायबर्न ने भी कहा है कि व्याकरण की शिक्षा छठी कक्षा से प्रारम्भ की जाए ताकि बालकों को उन नियमों की जानकारी हो जाए जिनके अनुसार वे बोलते हैं, पढ़ते हैं तथा लिखते हैं।

व्याकरण के नियमों का ज्ञान होने पर बालकों की अभिव्यक्ति में स्पष्टता आ जाती है तथा भाषा-शैली के निर्माण में सहायता प्राप्त होती है। मातृभाषा के ज्ञान के लिए क्रियात्मक अथवा व्यावहारिक व्याकरण बहुत उपयोगी होता है। रायबर्न का कहना है कि व्याकरण की शिक्षा छठवीं कक्षा से प्रारम्भ की जाय जिससे बालकों को उन नियमों की जानकारी हो जाय जिसके अनुसार वे बोलते हैं, पढ़ते तथा लिखते हैं। संक्षेप में, भाषा की व्यवस्था एवं सुरक्षा व्याकरण पर ही निर्भर करती है अन्यथा भाषा अव्यवस्थित हो जाती है और अनेकरूपता प्राप्त कर लेती है। इसलिए भाषा के ज्ञान के लिए सर्वप्रथम व्याकरण का ज्ञान आवश्यक माना गया है। वास्तव में, व्याकरण भाषा का धरोहर है।

व्याकरण शिक्षण की विधियाँ

व्याकरण शिक्षण की प्रमुख विधियाँ निम्नलिखित हैं-

(1) पाठ्य पुस्तक विधि

लक्षण- यह प्रणाली सर्वसाधारण है। प्रत्येक विद्यालय में किसी भी भाषा के व्याकरण का ज्ञान व्याकरण की एक पाठ्य पुस्तक द्वारा किया जाता है। व्याकरण की पाठ्य-पुस्तक में परिभाषाएँ, नियम तथा सिद्धान्त दिये होते हैं। अध्यापक इन्हीं नियमों को रटाता है।

प्रथम परिभाषा दी जाती है, जैसे विशेषण उस शब्द को कहते हैं जो संज्ञा की विशेषता दिखलाए। तत्पश्चात् यह भाषा रटाई जाती है और तब उसके उदाहरण दिये जाते हैं। अंग्रेजी व्याकरण पढ़ाने की भी चिरकाल से यही प्रणाली रही है।

दोष- इस प्रणाली द्वारा लिखाए गये नियम कष्टसाध्य ही नहीं, व्यर्थ भी हैं। बार-बार नियम रटने से विद्यार्थियों के मन पर व्यर्थ बोझ पड़ता है। व्याकरण नीरस और अरोचक बनता है। नियम कण्ठस्थ होने पर भी प्रयोग में नहीं लाया जा सकता। अवश्य ही यह प्रणाली अमनोवैज्ञानिक तथा शिक्षा विज्ञान के प्रतिकूल है।

प्रयोग- पाठ्य-पुस्तक विधि का प्रयोग स्वतन्त्र रूप में व्यर्थ है परन्तु यह विधि उच्च कक्षाओं में संशोधन के साथ लाभदायक हो सकती है। उच्च कक्षाओं में व्याकरण के इतने नियम सिखलाने पड़ते हैं कि एक पाठ्य-पुस्तक की आवश्यकता पड़ती है। इस पाठ्य पुस्तक में सभी नियम हों और उदाहरण तत्पश्चात् अभ्यासार्थ कुछ प्रश्न हों। इस प्रणाली में यह संशोधन कराया जा सकता है कि पाठ्य-पुस्तक के दिये हुए नियम व्याख्या प्रणाली द्वारा सिखलाए जाएँ और पाठ्य पुस्तक द्वारा उनको पुनः दुहराया जाए। उन कक्षाओं में पाठ्य-पुस्तक की निम्नलिखित आवश्यकताएँ हैं-

  1. पाठ्य पुस्तक में सभी कठिन नियम संकलित होंगे।
  2. पाठ्य-पुस्तक द्वारा पुनराध्ययन कराया जा सकता है।
  3. पाठ्य पुस्तक में अभ्यास होंगे, जो गृहकार्य के लिए दिये जा सकते हैं।
  4. पाठ्य-पुस्तक में सभी नियम व्यवस्थित रूप से दिये होते हैं।
(2) सूत्र-विधि

लक्षण- यह प्रणाली पाठ्य पुस्तक प्रणाली का रूपान्तर है। इस प्रणाली के अनुसार व्याकरण के नियम सूत्रों के रूप में रटा दिये जाते हैं। फिर उसके उदाहरण देकर उनकी उपयोगिता बतला दी जाती है। संस्कृत व्याकरण पढ़ाने के लिए प्राचीनकाल से अब तक यही प्रणाली प्रयुक्त होती है। व्याकरण के आचार्य व्याकरण के नियमों को संक्षिप्त शब्दों में व्यक्त करते हैं। ऐसे कतिपय अक्षरों से ही एक सूत्र बनता है।

न्यूनतम अक्षरों में से भी यदि कोई अक्षर कम किया जा सके, तो व्याकरणाचार्य के लिए यह असीम हर्ष की बात है। पाणिनी की ‘अष्टाध्यायी’ सूत्रों में है। आजकल की सर्वप्रसिद्ध ‘सिद्धान्त कौमुदी’ भी सूत्र रूप पढ़ायी जाती है। संस्कृत की सूत्र प्रणाली का अनुकरण करते हुए कितने ही हिन्दी विद्वानों ने भी हिन्दी व्याकरण की रचना सूत्र-रूप में की है, जैसे ‘संज्ञा तीन प्रकार की जाति, व्यक्ति और भाव’। ऐसे सूत्रों को विद्यार्थी रटने भी लगे हैं।

पाठ्य-पुस्तक विधि और सूत्र-विधि में सादृश्य है क्योंकि दोनों सिद्धान्तों से आरम्भ होती हैं और नियम से उदाहरण की ओर जाती हैं। सूत्र-विधि पाठ्य पुस्तक विधि से इतनी ही भिन्न है कि जहाँ पाठ्य-पुस्तक विधि में लम्बे-चौड़े नियम याद कराए जाते हैं, वहाँ सूत्र-विधि से संक्षिप्त सूत्र याद कराये जाते हैं।

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Anjali Yadav

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