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शिक्षा और मनोविज्ञान का पारस्परिक सम्बन्ध | Interrelationship of Education and Psychology in Hindi

शिक्षा और मनोविज्ञान का पारस्परिक सम्बन्ध | Interrelationship of Education and Psychology in Hindi
शिक्षा और मनोविज्ञान का पारस्परिक सम्बन्ध | Interrelationship of Education and Psychology in Hindi

मनोविज्ञान और शिक्षा के सम्बन्ध की विवेचना कीजिए और बताइए। मनोविज्ञान ने शिक्षा-सिद्धान्त और व्यवहार में किस प्रकार क्रान्ति उत्पन्न की है ?

शिक्षा और मनोविज्ञान का पारस्परिक सम्बन्ध

शिक्षा और मनोविज्ञान, दोनों ही सामाजिक विज्ञान हैं। शिक्षा समाजीकरण की प्रक्रिया है. तथा मनोविज्ञान इस प्रक्रिया को विकसित करने में सहायता प्रदान करता है। इसके साथ ही दोनों के अध्ययन क्षेत्र का केन्द्र भी सामान्यतः ही है व्यक्ति एवं समाज, तथा क्रिया-विधि।

इनके क्रिया-कलाप शिक्षा एवं मनोविज्ञान दोनों ही मानव व्यवहार से सम्बन्धित हैं। शिक्षा व्यवहार का परिमार्जन करती है और मनोविज्ञान के अन्तर्गत व्यवहार का अध्ययन होता है। दोनों का सम्बन्ध मानव व्यक्तित्व के विकास से है। इस दृष्टि से शिक्षा और मनोविज्ञान दोनों पारस्परिक रूप से सम्बन्धित हैं। इसका तात्पर्य यह है कि मनोविज्ञान का प्रभाव शिक्षा के विभिन पहलुओं पर पड़ता है और शिक्षा द्वारा मनोविज्ञान की विषय-वस्तु, क्षेत्र और अन्य बातों को प्रभावित किया जाता है। जहाँ इन दोनों के पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन दो उप-शीर्षको के अन्तर्गत किया जा रहा है-

  • (क) मनोविज्ञान का शिक्षा के विभिन्न अंगों पर प्रभाव,
  • (ख) शिक्षा का मनोविज्ञान पर प्रभाव।

(क) मनोविज्ञान का शिक्षा के विभिन्न अंगों पर प्रभाव

शिक्षा मनोविज्ञान के इतिहास, उसके अर्थ, उद्देश्य और विषय क्षेत्र का ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् यह पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षा और मनोविज्ञान का घनिष्ठ सम्बन्ध है। मनोविज्ञान शिक्षा के विभिन्न अंगों को किस तरह प्रभावित करता है, इसका उल्लेख यहाँ किया जा रहा है-

(1) मनोविज्ञान और शिक्षा का उद्देश्य- मनोविज्ञान द्वारा शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण नहीं किया जा सकता क्योंकि शिक्षा मनोविज्ञान में “कैसे” और “कब” प्रारम्भ होने वाले प्रश्नों का उत्तर दिया जाता है। मनोविज्ञान का सम्बन्ध उद्देश्यों से नहीं है। वह एक विधायक विज्ञान (Positive Science) है। वह उन तथ्यों का विवेचन करता है, जैसे कि वह है, न कि जैसे कि उन्हें होना चाहिए। उद्देश्यों का निर्धारण करना नियामक विज्ञान (Normative Science) अथवा दर्शन का कार्य है इसलिए शिक्षा के उद्देश्यों को शिक्षाशास्त्र में शिक्षा दार्शनिक ही निश्चित करते हैं। परन्तु मनोविज्ञान यह स्पष्ट करता है कि कोई उद्देश्य केवल मन की उड़ान है अथवा उसे प्राप्त किया जा सकता है। क्रो एवं क्रो ने लिखा है- “यद्यपि मनोविज्ञान शिक्षा के लक्ष्य निश्चित नहीं कर सकता, वैज्ञानिक मनोविज्ञान हमें तुरन्त यह बता सकता है कि कोई लक्ष्य निराशाजनक रूप में बादलों में है अथवा उसे पाया जा सकता है।”

जेम्स ड्रेवर ने यह कहा है- “शिक्षा का उद्देश्य पूरा करने के लिए मनोविज्ञान इतना तय करके समाप्त नहीं हो जाता कि यह सम्भव निश्चित रूप अथवा असम्भव।” परन्तु मनोविज्ञान यह बतला सकता है कि उन्हें किन साधनों द्वारा प्राप्त किया जा सकता है ? उद्देश्य प्राप्ति की प्रक्रिया में शिक्षक हेतु मनोविज्ञान अत्यधिक सहायक होता है।

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि शिक्षा के उद्देश्य को निर्धारित करने में मनोविज्ञान की सहायता लेनी होती है।

(2) मनोविज्ञान और पाठ्यक्रम- शिक्षा की प्राचीन विधियों में बालक की अपेक्षा पाठ्यक्रम को अधिक महत्व दिया जाता था। बालक को सभी विषय अनिवार्य रूप से पढ़ने होते थे। उस समय पुस्तकीय ज्ञान पर विशेष बल दिया जाता था। आधुनिक मनोविज्ञान की सहायता से यह अनुभव किया गया कि पाठ्यक्रम बालकों की रुचियों, रुझानों और मानसिक योग्यताओं को ध्यान में रखकर बनाया जाना चाहिए। पाठ्यक्रम का निर्माण करने वाले को बाल-मन का पूर्ण ज्ञाता होना चाहिए। बालक के विकास की प्रत्येक अवस्था की अलग-अलग विशेषताएँ और आवश्यकताएँ होती हैं जिनकी पूर्ति पाठ्यक्रम द्वारा ही की जा सकती हैं।

(3) मनोविज्ञान एवं शिक्षण विधि- शिक्षण प्रक्रिया के अन्तर्गत शिक्षक को अपने कार्य में तभी सफलता प्राप्त हो सकती है जब उपयुक्त शिक्षण विधियों का प्रयोग किया जाता है। मनोविज्ञान की सहायता से नीरस विषय भी रुचिकर बनाये जा सकते हैं। इसके हेतु बालकों में सीखने के प्रति जागृति उत्पन्न करना आवश्यक है। बालक का ध्यान एकाग्र करने के लिए विशेष शिक्षण विधियों का उपयोग करना होता है। ये शिक्षण विधियाँ मनोवैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा ही निर्धारित की जाती हैं। मनोविज्ञान ने प्राचीन शिक्षण विधियों में परिवर्तन करके इस प्रकार की शिक्षण विधियों को जन्म दिया है जिनके द्वारा बालक स्वयं रुचिपूर्वक सीख सकते हैं। इन शिक्षण विधियों में, मॉण्टेसरी प्रणाली, किण्डरगार्टन प्रणाली, प्रोजेक्ट प्रणाली, ह्यूरिस्टिक प्रणाली आदि में बालकों की स्वाभाविक रुचि का अध्ययन करके ही शिक्षा प्रदान की जाती है। रायबर्न ने स्पष्ट किया है “मनोविज्ञान के ज्ञान में प्रगति होने के कारण ही शिक्षण विज्ञान में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं।”

(4) मनोविज्ञान एवं बालक- आधुनिक मनोविज्ञान ने बालक के प्रति नवीन दृष्टिकोण प्रदान करने के हेतु शिक्षा को बाल-केन्द्रित बना दिया है। पहले की शिक्षा विषय प्रधान और अध्यापक प्रधान थी, परन्तु आज शिक्षा का तात्पर्य केवल अध्यापन से ही नहीं है। पेस्तालॉजी का मत है- “शिक्षा का मुख्य लक्ष्य अध्यापन नहीं बल्कि विकास है।” इस प्रकार शिक्षा बालक की जन्मजात शक्तियों का स्वाभाविक, प्रगतिशील और व्यवस्थित विकास करती है। शिक्षक को बालक के व्यक्तित्व के विकास से सम्बन्धित सभी बातों का ज्ञान होना परम आवश्यक है। रूसो का विचार है- “बालक एक ऐसी पुस्तक के समान है जिसे शिक्षक भलीभाँति पढ़ता है।” कोई भी शिक्षक बालक के विकास में उसी समय योगदान दे सकता है जब उसे मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों का पूर्ण ज्ञान हो। बालक के हेतु शिक्षा योजना उसकी रुचि, मूल-प्रवृत्ति, रुझान, क्षमता, योग्यता आदि को ध्यान में रखकर बनाने में मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों का आश्रय लिया जाता है। आधुनिक शिक्षा बालक के लिए है, बालक शिक्षा के लिए नहीं। अतएव बाल-मनोविकास के हेतु “मनोवैज्ञानिक अन्तर्दृष्टि” आवश्यक है।

(5) मनोविज्ञान और पाठशाला का सामूहिक जीवन- पाठशाला में शैक्षिक एवं स्वस्थ वातावरण उत्पन्न करने में मनोविज्ञान अत्यधिक सहायता प्रदान करता है। मनोविज्ञान के अन्तर्गत “समूह मन” (Group Mind) का भी अध्ययन किया जाता है। एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को किस तरह प्रभावित करता है, किस तरह समूह जीवन व्यक्ति के अन्तर्गत परिवर्तन लाता है और किस तरह पाठशाला का सामाजिक वातावरण बालक के विकास में सहायता देता है इन समस्त बातों का ज्ञान समूह मनोविज्ञान से प्राप्त होता है। बालक की शिक्षा में समाजीकरण और समूह मनोवृत्ति पर ध्यान देना अत्यन्त आवश्यक है। इस सम्बन्ध में रॉस ने लिखा है- “आधुनिक समय के अनेक विद्यालयों में हम मित्रता और संघर्ष कार्य करने का वातावरण पाते हैं और उनमें परम्परागत औपचारिकता, मजदूरी, मौन, तनाव, दण्ड के अधिक दर्शन नहीं होते।” जान एडम्स ने भी कहा था- “शिक्षा को मनोविज्ञान ने बाँध दिया है, मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों की उपयोगिता को जानने के हेतु सबसे अच्छा स्थान पाठशाला है।”

(6) व्यक्तिगत विभिन्नता के आधार पर वर्गीकरण में सहायक- मनोविज्ञान की सहायता से भी बालक की वैयक्तिक विभिन्नताओं का अध्ययन होता है। मनोविज्ञान ही इस तथ्य पर प्रकाश डालता है कि बालकों की रुचियों, रुझानों और क्षमताओं में अन्तर होता है। प्रत्येक व्यक्ति दूसरे से भिन्न होता है, अतएव सब के हेतु एक प्रकार की शिक्षा का आयोजन करना उचित नहीं होगा। बालक की रुचि और मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए। मनोवैज्ञानिक परीक्षणों का आश्रय लेकर वैयक्तिक भेदों के आधार पर बालकों का वर्गीकरण किया जा सकता है। एक ही तरह के बालकों को एक ही कक्षा में रखने से शिक्षा का कार्य आसान और लाभप्रद हो जाता है। उदाहरण के लिए यदि कोई “मन्द बुद्धि” बालक “उत्कृष्ट” बुद्धि बालकों के साथ शिक्षा ग्रहण करता है तो उसकी उन्नति नहीं हो सकती और वह सदैव पिछड़ा रहेगा। मन्द बुद्धि बालक शिक्षा के शास्त्रीय ज्ञान से उतना लाभ नहीं उठा सकेगा जितना कि उत्कृष्ट बुद्धि बालक। परन्तु हो सकता है कि वह शारीरिक और सामाजिक कार्यों में उन्नति कर ले। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए मन्द बुद्धि, पिछड़े बालक और दोषयुक्त बालकों हेतु शिक्षा संस्थाओं की व्यवस्था करना अत्यधिक समीचीन होगा। कुप्पूस्वामी ने इस सम्बन्ध में लिखा है- “व्यक्तिगत विभिन्नताओं के ज्ञान ने इन व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुकूल शैक्षिक कार्यक्रम का नियोजन करने में सहायता प्रदान की है। “

(7) अनुशासन स्थापित करने में सहायक- मनोविज्ञान की सहायता से हम अनुशासन सम्बन्धी समस्याओं का समाधान करने में समर्थ होते हैं। पहले अनुशासन स्थापित करने के लिए दण्ड का भय उत्पन्न करके दमनात्मक नीति का पालन किया जाता था किन्तु अब अनुशासनहीनता की समस्याओं को स्नेह, प्रेम, प्रशंसा, सहानुभूति और पुरस्कार द्वारा सुलझाने का प्रयास किया जा रहा है। मनोविज्ञान अनुशासनहीनता के कारण को खोजने और दूर करने के सम्भव उपाय बताता है।

(8) समय-सारणी (Time Table) के निर्धारण में मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण- समय-सारणी के अन्तर्गत पाठ्य-विषय, खेल-कूद, और पाठ्य-विषयान्तर क्रियाएँ आती हैं। समय-सारणी का निर्माण करते समय इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए। कि जिन विषयों में अधिक परिश्रम की आवश्यकता है उनके लिए वे ही समय निर्धारित किए जायें जब बालक थके हुए न हों और उनका मस्तिष्क ताजा हो। इस तरह गणित, भाषा आदि को सबसे अच्छा समय दिया जाना चाहिए। प्रत्येक विषय हेतु निर्धारित समय (घण्टे) छोटी एवं बड़ी कक्षाओं के लिये उपयुक्त हों। समय-सारणी के बीच में पाठ्य-विषयान्तर क्रियाओं के हेतु भी समय निर्धारित किया जाना चाहिए।

(9) मनोविज्ञान और शिक्षक- शिक्षक के हेतु मनोविज्ञान का ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक और उपयोगी है। शिक्षक को अपने अध्ययन के साथ ही अपने शिक्षार्थी के विषय में पूर्ण ज्ञान होना आवश्यक है। शिक्षा प्रक्रिया में बालक की तुलना एक पौधे से की गयी है। शिक्षक इस बालकरूपी पौधे का विकास करने वाला माली है। जिस तरह पौधे के विकास हेतु उपयुक्त खाद, हवा, मिट्टी, रोशनी, पानी अर्थात् आवश्यक तत्वों की आवश्यकता होती है, उसी तरह शिक्षक को भी बालक के विकास हेतु उपयुक्त शैक्षिक वातावरण का निर्माण करना चाहिए और बालक के मानसिक स्तर एवं आवश्यकता के अनुसार उपयुक्त अध्ययन विधि का प्रयोग किया जाना चाहिए। “बालक” ही शिक्षक की वस्तु है।

(10) मनोविज्ञान एवं मूल्यांकन- बालक के अर्जित ज्ञान और प्रगति का मूल्यांकन करने के हेतु अभी तक मौखिक एवं लिखित परीक्षाओं का प्रयोग होता रहा है परन्तु इन परीक्षाओं के माध्यम से विद्यार्थियों की योग्यता का वास्तविक मूल्यांकन नहीं हो पाता। फलस्वरूप वर्तमान परीक्षा प्रणाली के दोषों को दूर करने हेतु शिक्षा मनोविज्ञान ने अनेक नवीन विधियों की खोज की है, यथा-वस्तुनिष्ठ परीक्षा, बुद्धि परीक्षा, व्यक्तित्व परीक्षा आदि। इन विधियों के माध्यम से बालक की उपलब्धियों की माप और उनका मूल्यांकन भली-भाँति और विश्वसनीय ढंग से सम्भव है।

(11) मनोविज्ञान एवं निर्देशन- आधुनिक युग में विद्यार्थियों के सम्मुख कुछ ऐसी समस्यायें आती हैं जिनका समाधान वे स्वयं नहीं कर सकते। शिक्षा का उद्देश्य उनके व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करते हुए उनके भविष्य निर्माण में सहायता करना है। विद्यार्थियों से यह आशा नहीं की जा सकती कि वे अपने भविष्य निर्माण के सम्बन्ध में कोई योजना स्वयं बना लेंगे। उनके जीवन में अनेक ऐसे अवसर आते हैं जब वे अपनी निजी समस्याओं को सुलझाने में समर्थ नहीं होते। इस स्थिति में उन्हें निर्देशन की आवश्यकता होती है।

हसबैण्ड ने निर्देशन की परिभाषा देते हुए कहा है- “निर्देशन को व्यक्ति को, उसके भावी जीवन को तैयार करने, समाज में उसको उसके स्थान के लिए फिट करने में सहायता देने के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।”

(12) शिक्षा का मनोवैज्ञानिक आधार- शिक्षा के विभिन्न आधारों में मनोवैज्ञानिक आधार सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। मनोवैज्ञानिक आधार का अर्थ यह है कि शिक्षा बालक की मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं और विशिष्टताओं पर आधारित होनी चाहिए। शिक्षा प्रदान करते समय बालक की प्रकृति, रुचि, क्षमता, आवश्यकता, विकास की अवस्थाओं आदि का ध्यान रखा जाना चाहिए। मनोविज्ञान केवल व्यक्ति पर ही अपना ध्यान नहीं रखता बल्कि समूह में व्यक्ति का आचरण और व्यवहार किस प्रकार होता है, इसका भी अध्ययन करता है।

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह स्पष्ट है कि शिक्षा और मनोविज्ञान का घनिष्ठ सम्बन्ध है। शिक्षा के समस्त क्षेत्रों को मनोविज्ञान ने प्रभावित किया है और विशेष योगदान दिया है। यही कारण है कि शिक्षा मनोविज्ञान का प्रयोग निरन्तर बढ़ता जा रहा है। हमें शैक्षिक कार्यक्रमों के आयोजन मनोविज्ञान से पग-पग पर सहायता लेनी चाहिए। शिक्षा मनोविज्ञान सिद्धान्तों पर आधारित होना चाहिए।

शिक्षा और मनोविज्ञान के घनिष्ठ सम्बन्ध को स्थापित करते हुए विभिन्न विद्वानों ने अनेकानेक विचार प्रस्तुत किए हैं। जेम्स ड्रेवर लिखता है- “मनोविज्ञान के ज्ञान के बिना शिक्षा में किसी आवश्यक और महत्वपूर्ण समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता और करेगा तो ऐसा समाधान केवल शास्त्रीय ही होगा और उसका व्यावहारिकता से कोई सरोकार नहीं होगा।” स्किनर का विचार “मनोविज्ञान शिक्षा का आधारभूत विज्ञान है।” बी. एन. झा. ने लिखा है- “शिक्षा की प्रक्रिया पूरी तरह से मनोविज्ञान की कृपा पर निर्भर है।”

(ख) शिक्षा का मनोविज्ञान पर प्रभाव

जैसे मनोविज्ञान शिक्षा के विभिन्न अंगों को प्रभावित करता है, उसी तरह शिक्षा ने भी मनोविज्ञान को प्रभावित किया है। इसका उल्लेख यहाँ किया जा रहा है-

(1) ‘शिक्षा मनोविज्ञान मनोविज्ञान की एक शाखा बना- शिक्षा, मनोबिज्ञान का प्रमुख सम्बन्ध सीखने से है। वह शिक्षण के मनोवैज्ञानिक पहलुओं के वैज्ञानिक खोज से विशेष रूप से सम्बन्धित है। शिक्षा मनोविज्ञान मानव के शैक्षिक व्यवहारों और क्रियाओं का शैक्षिक एवं मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों में अध्ययन करता है।

(2) मनोविज्ञान के अध्ययन वस्तु में समर्थ- शिक्षा के विकास के साथ ही मनोविज्ञान ने शैक्षिक क्षेत्र से भी अपने हेतु अध्ययन सामग्री प्राप्त करना प्रारम्भ किया। आज मनोविज्ञान केवल मानव व्यवहार का ही अध्ययन नहीं है बल्कि वह सीखने, सीखने वाली परिस्थितियों का भी अध्ययन करता है।

(3) शिक्षा सम्बन्धी समस्याओं पर मनोवैज्ञानिक शोध- मनोविज्ञान पर शिक्षा का इतना अधिक प्रभाव पड़ा है कि मनोवैज्ञानिकों द्वारा शिक्षा सम्बन्धी समस्याओं के सम्बन्ध में शोध कार्य होने लगे हैं। यथा समस्यामूलक बालकों का अध्ययन, पिछड़े एवं प्रतिभाशाली बालकों का शैक्षिक परिस्थितियों में अध्ययन आदि ।

शिक्षा एवं मनोविज्ञान के आपसी सम्बन्ध पर विचार करने के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि यह कहा जा सकता है कि मनोविज्ञान आचरण और व्यवहार के आदर्शों का निर्धारण नहीं कर सकता, अर्थात् शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण करना उसके अध्ययन क्षेत्र का विषय नहीं है। उद्देश्य निर्धारित करना दर्शनशास्त्र का क्षेत्र है, परन्तु उद्देश्य निर्धारित हो जाने के पश्चात् सम्पूर्ण शिक्षा की प्रक्रिया मनोविज्ञान की सहायता पर निर्भर है। आधुनिक युग में मनोविज्ञान से शिक्षा विज्ञान को जितना लाभ हुआ है उतना अन्य सामाजिक विज्ञानों को नहीं। इस तरह स्पष्ट है कि मनोविज्ञान के विकास ने शिक्षा को अत्यधिक प्रभावित किया है और शिक्षा का प्रमुख आधार मनोविज्ञान होना चाहिए।

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Anjali Yadav

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