सामाजिक विघटन से आप क्या समझते हैं ? इसका समाज पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
सामाजिक विघटन- सामाजिक विघटन सामाजिक संगठन का विलोम है। समाज में सामाजिक संगठन का अभाव ही सामाजिक विघटन है। संगठित समाज में परस्पर सहयोग, सद्भावना तथा सहकारिता से कार्य होता है। उसके सभी सदस्य परम्पराओं और सांस्कृतिक बंधनों द्वारा परस्पर बंधे होते हैं, परन्तु जब समाज का यह स्वरूप परिवर्तित हो जाता है और सहयोग तथा परम्पराओं के स्थान पर विरोध एवं अराजकता का बोलबाला प्रारम्भ हो जाता है तो सामाजिक विघटन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। अन्य शब्दों में, जिस प्रकार जब शरीर के विभिन्न अंग परस्पर सहयोग से काम नहीं करते तो शारीरिक सन्तुलन समाप्त हो जाता है, उसी प्रकार समाज की समस्त संस्थाएँ जब तक अपना कार्य सुचारु रूप से करती रहती हैं तब तक समाज में सन्तुलन बना रहता है, किन्तु जब उनमें से कोई संस्था अपना कार्य करने में असमर्थ सिद्ध होने लगती है तो समाज का सन्तुलन भी बिगड़ने लगता है। समाज के इस प्रकार सन्तुलन बिगड़ने को ही सामाजिक विवटन की प्रक्रिया कहते हैं।
Contents
सामाजिक विघटन का अर्थ तथा परिभाषाएँ
सुसंगठित समाज के विभिन्न अंगों में परस्पर सामंजस्यपूर्ण अनुकूलन होता है। जब यह अनुकूलन परिवर्तित हो जाता है तो विभिन्न अंगों का सन्तुलन भंग हो जाता है। यह असन्तुलन जब और अधिक बढ़ जाता है तो इसका परिणाम सामाजिक विघटन होता है। संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि जब समाज में व्यक्ति परम्परा द्वारा निर्धारित और स्वीकृत आचरण के विरुद्ध कार्य करने लगते हैं, उनमें मतैक्य नहीं होता, उनके स्तर व कार्यों में अन्तर दृष्टिगोचर होने लगता है तो सामाजिक विघटन की स्थिति आ जाती है।
प्रमुख विद्वानों ने सामाजिक विघटन को निम्नलिखित रूप से परिभाषित किया है-
1. फैरिस (Faris) के अनुसार- “समूह के कुछ माने हुए कार्य हैं। जब व्यक्तियों के आपस में सम्बन्ध इस सीमा तक टूट जाते हैं कि ये कार्य होने बन्द हो जाते हैं, तब जो अवस्था पैदा होती है, उसको ‘सामाजिक विघटन’ कहते हैं।”
2. ऑगवर्न तथा डिमकॉफ (Ogburn and Nimkoff) के अनुसार- “सामाजिक विघटन का तात्पर्य किसी सामाजिक इकाई जैसे समूह, संस्था अथवा समुदाय के कार्यों का भंग होना है।”
3. फेयरचाइल्ड (Fairchild) के अनुसार- “सामान्यतः विघटन से तात्पर्य व्यवस्थित सम्बन्धों और कार्यों की प्रणाली का नष्ट होना है। एकीकरण और संगठित व्यवहार में बाधा होने पर भ्रान्ति और अव्यवस्था उत्पन्न होती है। “
4. इलियट तथा मैरिल (Elliott and Merrill) के अनुसार- “सामाजिक विघटन वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा एक समूह के सदस्यों के बीच सामाजिक सम्बन्ध टूट जाते हैं अथवा नष्ट हो जाते हैं।”
5. लैण्डिस (Landis) के अनुसार- “सामाजिक विघटन में मुख्यतया सामाजिक नियन्त्रण का भंग होना होता है, जिससे अव्यवस्था और विभ्रम उत्पन्न होता है।”
6. थामस तथा जनेनिकी (Thomas and Znaniecki) – “सामाजिक विघटन समूह के सदस्यों पर व्यवहार के वर्तमान सामाजिक नियमों के प्रभाव के घटने की घटना है। “
सामाजिक विघटन को परिभाषित करते हुए इन्होंने लिखा है कि, “समूह के स्थापित व्यवहार प्रतिमानों, संस्थाओं या नियन्त्रणों का क्रम भंग या सुचारु रूप से कार्य न करना ही सामाजिक विघटन है।”
उपर्युक्त परिभाषाओं द्वारा सामाजिक विघटन का अर्थ पूरी तरह से स्पष्ट हो जाता है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि जब समाज में संगठनकारी तत्व क्षीण पड़ जाते तथा सामाजिक ढाँचे का सन्तुलन बिगड़ने लगता है तो उस स्थिति को सामाजिक विघटन की स्थिति कहा जाता है। सामाजिक विघटन एक प्रक्रिया के रूप में सम्पन्न होता है। सामाजिक विघटन की स्थिति में सामाजिक नियन्त्रण के साधन शिथिल हो जाते हैं।
सामाजिक विघटन की प्रमुख विशेषताएँ
फैरिस (Faris) के अनुसार सामाजिक विघटन की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. स्वार्थों एवं रुचियों में व्यक्तिगत भेद ।
2. सुख सम्बन्धी व्यवहार (Hedonistic Behaviour) और भोग-विलास में वृद्धि।
3. व्यक्तिगत स्वतन्त्रता तथा अधिकारों पर आवश्यकता से अधिक बल देना।
4. अशान्ति की स्थिति उत्पन्न करना ।
5. समाज में पवित्र विचारों का ह्रास होना।
6. दिखावा अथवा औपचारिकता (Formalism) और कृत्रिमता का बढ़ना।
7. परस्पर विश्वास की कमी तथा अन्धविश्वास का बढ़ना।
8. जनसंख्या में विषमता उत्पन्न होना ।
9. सामाजिक विघटन व्यक्तियों के प्रयासों के फलस्वरूप नहीं होता वरन् केवल अचेतन रूप से होता रहता है। समाज के सदस्यों को इसका ज्ञान नहीं होता और विघटन की प्रक्रिया स्वयं चलती रहती है।
10. सामाजिक विघटन में सामाजिक मूल्यों और मनोवृत्तियों का ह्रास होता है और यही सामाजिक विघटन की प्रमुख विशेषता है।
11. सामाजिक विघटन एक दुर्भाग्यपूर्ण, अवांछनीय और अस्वीकृति की स्थिति है।
12. सामाजिक विघटन समाज में उत्पन्न हुए विभिन्न परिवर्तनों का परिणाम है। सामाजिक विघटन में सामाजिक परिवर्तन का होना परम आवश्यक है।
13. समाज के नियम तथा उसकी संस्थाएँ एकदम या पूर्णरूप से कभी भी समाप्त नहीं होतीं। अतः पूर्ण सामाजिक विघटन कभी नहीं होता।
14. सामाजिक विघटन की प्रक्रिया में सामाजिक रूढ़ियाँ, प्रथाएँ, संस्थाएँ आदि शिथिल तथा प्रभावहीन होती जाती हैं।
सामाजिक विघटन अथवा विघटित समाज के प्रमुख लक्षण
सामाजिक विघटन के समय कुछ ऐसे लक्षणों का जन्म होता है, जिनके द्वारा विघटन की प्रक्रिया का ज्ञान होता है। ये लक्षण इस प्रकार हैं-
1. रूढ़ियों और संस्थाओं में संघर्ष- प्रत्येक समाज में कुछ रूढ़ियाँ और संस्थाएँ होती हैं, जिनके आधार पर समाज के सदस्यों का जीवन संगठित रूप में चलता रहता है, परन्तु धीरे-धीरे रूढ़ियाँ और संस्थाएँ पुरातन हो जाती हैं तथा वे समाज के सदस्यों की आवश्यकताओं को पूरा करने में असमर्थ हो जाती हैं। समाज में परिवर्तन की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है। आदर्शों और विचारों के संघर्ष से नवीन-नवीन संस्थाएँ और नवीन नवीन नियम प्रकाश में आते हैं। इस प्रकार, समाज में विचारों की क्रान्ति आती है। कुछ अप्रगतिशील विचार वाले व्यक्ति कुछ रूढ़ियों और संस्थाओं से चिपके रहना पसन्द करते हैं तो कुछ उनको समूल नष्ट करना चाहते हैं। तीसरे वर्ग के लोग दोनों के बीच का मार्ग अपनाकर समन्वय में विश्वास करते हैं। इस प्रकार, प्राचीन रूढ़ियों तथा नवीन सामाजिक नियमों तथा प्राचीन नवीन संस्थाओं के मध्य एक संघर्ष-सा छिड़ जाता है। यह संघर्ष समाज में तथा विभिन्न पीढ़ियों में मतैक्य को नष्ट कर देता है। मतैक्य नष्ट हो जाने से सामाजिक विघटन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है।
2. समिति या समूह के कार्यों का हस्तान्तरण- जब एक समिति अथवा समूह के कार्यों का हस्तान्तरण होना आरम्भ हो जाता है अर्थात् विभिन्न समितियों या समूहों के कार्य स्पष्ट नहीं रह पाते और उनमें अव्यवस्था फैल जाती है तो सामाजिक विघटन आरम्भ हो जाता है। उदाहरणार्थ, प्राचीन काल में परिवार द्वारा अनेक कार्यों का सम्पादन होता था, इसी प्रकार, राज्य तथा अन्य समूहों के कार्य भी निश्चित थे। कालान्तर में परिवार अनेक कार्य राज्य ने ले लिए, यहाँ तक कि राज्य सामाजिक जीवन में भी हस्तक्षेप करने लगा। ये सब लक्षण सामाजिक विघटन की प्रक्रिया के लक्षण हैं।
3. सामाजिक ढाँचे में परिवर्तन – सामाजिक विघटन में समाज सदस्यों की स्थिति और कार्यों में परिवर्तन आ जाता है। एक संगठित समाज में प्रत्येक व्यक्ति की स्थिति और कार्य बटे होते हैं और वे उन्हीं के अनुसार कार्य करते हैं, परन्तु कालान्तर में समाज के सदस्यों की स्थिति और कार्य निश्चित नहीं रहते और वे स्वतन्त्रतापूर्वक आचरण करने लगते हैं। इस प्रकार के व्यवहार से सामाजिक विघटन प्रारम्भ हो जाता है। फैरिस के शब्दों में, “सामाजिक विघटन व्यक्तियों में कार्य के सम्बन्धों का इस अंश तक टूट जाना है कि उससे समूह के स्वीकृत कार्यों के करने में बाधा पड़ती है। “
4. व्यक्तिवाद की धारणा- जब व्यक्ति सामाजिक रूढ़ियों, प्रथाओं और उसके नियमों की परवाह न कर निजी दृष्टिकोण से विचार करना प्रारम्भ कर देता है अर्थात् उसका व्यक्तित्व समाज के एक अंग में न होकर निजी होता है और वह समाज की परवाह न करके स्वतन्त्र निर्णय लेने लगता है, तब सामूहिक नियन्त्रण कम हो जाता है और सामाजिक विघटन को प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है।
IMPORTANT LINK
- समाजशास्त्र का अर्थ एवं परिभाषाएँ | Meaning and Definitions of Sociology in Hindi
- वैज्ञानिक पद्धति का अर्थ एवं परिभाषाएँ | वैज्ञानिक पद्धति की प्रमुख विशेषताएँ | समाजशास्त्र की वैज्ञानिक प्रकृति
- समाजशास्त्र का विषय-क्षेत्र | स्वरूपात्मक अथवा विशिष्टवादी दृष्टिकोण | स्वरूपात्मक सम्प्रदाय की आलोचना
- समन्वयात्मक सम्प्रदाय | Synthetic School in Hindi
- समन्वयात्मक सम्प्रदाय की आलोचना | Criticism of Synthetic School in Hindi
- समाजशास्त्र का महत्व | Importance of Sociology in Hindi\
- नवजात शिशु की क्या विशेषताएँ हैं ?
- बाल-अपराध से आप क्या समझते हो ? इसके कारण एंव प्रकार
- बालक के जीवन में खेलों का क्या महत्त्व है ?
- खेल क्या है ? खेल तथा कार्य में क्या अन्तर है ?
- शिक्षकों का मानसिक स्वास्थ्य | Mental Health of Teachers in Hindi
- मानसिक स्वास्थ्य और शिक्षा का क्या सम्बन्ध है?
- मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ एंव लक्षण
- खेलों के कितने प्रकार हैं? वर्णन कीजिए।
- शैशवावस्था तथा बाल्यावस्था में खेल एंव खेल के सिद्धान्त
- रुचियों से क्या अभिप्राय है? रुचियों का विकास किस प्रकार होता है?
- बालक के व्यक्तित्व विकास पर क्या प्रभाव पड़ता है?
- चरित्र निर्माण में शिक्षा का क्या योगदान है ?
- बाल्यावस्था की प्रमुख रुचियाँ | major childhood interests in Hindi
- अध्यापक में असंतोष पैदा करने वाले तत्व कौन-कौन से हैं?
Disclaimer