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संगठन के पदसोपान सिद्धान्त
संगठन के अस्तित्व एवं विकास या संगठन की सफलता – असफलता के पीछे सिद्धान्त की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है। इन्हीं सिद्धान्तों में से पदसोपान भी एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है, जिसे सार्वजनिक प्रशासन के अन्तर्गत अनिवार्य रूप में स्वीकार किया जाता है। ऐसे निजी प्रशासन के अन्तर्गत भी इसके महत्त्व को आवश्यकता एवं परिस्थिति के संदर्भ में स्वीकार किया जाता है।
पद सोपान का शाब्दिक अर्थ होता है- पदों की सीढ़ी। संगठन के निर्माण हेतु कार्मिकों की नियुक्ति करनी होती है तथा कार्मिकों के कार्य एवं उत्तरदायित्व को विभाजित करना आवश्यक होता है। इसी संदर्भ में पदसोपान की अवधारणा को स्वीकार किया जाता है। पदसोपान की अवधारणा इस मान्यता पर आधारित है कि संगठन के अन्तर्गत आदेश के अनुपालन हेतु तथा अनुदेश प्राप्ति हेतु एक निश्चित प्रक्रिया का सहारा लिया जाएगा। पद सोपान की अवधारणा को एक सचित्र उदाहरण द्वारा बहुत ही आसानी से समझा जा सकता है।
चित्र के अन्तर्गत संगठन में ‘A’ नाम का सर्वोच्च पदाधिकारी है, जिसके नीचे क्रमशः B, C, D, E, F और G तथा H, I, J, K, L और M नामक पदाधिकारी हैं। ‘A’ के द्वारा जब ‘D’ के लिए कोई आदेश दिया जाएगा तो वह आदेश प्रत्यक्ष रूप से D को प्राप्त नहीं होगा बल्कि वह एक निश्चित प्रक्रिया के अनुसार ‘D’ के पास पहुँचेगा। दूसरे शब्दों में A को जब D को आदेश देना चाहेगा तो वह आदेश की प्रति या सूचना B को देगा, B के द्वारा C और C के द्वारा D को प्राप्त होगा। ठीक उसी रूप में अगर D को A से कोई आदेश चाहिए, तो वह अपने तुरन्त बड़े पदाधिकारी से अनुरोध करेगा और इसी रूप में आदेश प्राप्ति की प्रार्थना A तक पहुँचेगी अर्थात् D के द्वारा A से अनुदेश प्राप्ति हेतु प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं करके C से सम्पर्क किया जाएगा, C, B से और B, A से सम्पर्क करेगा।
पद सोपान को विभिन्न विद्वानों ने परिभाषित करने का प्रयास किया है। एल. डी. ह्वाइट “संगठन की संरचना में ऊपर से नीचे तक उत्तरदायित्व के स्तरों द्वारा जब उच्च तथा के अनुसार, अधीनस्थ जैसे सम्बन्धों का व्यापक प्रयोग किया जाता है तो वह पद सोपान बन जाता है। ” आधुनिक भारतीय लोक प्रशासन के जनक डॉ. महावीर प्रसाद शर्मा के अनुसार, ‘पदसोपान का अर्थ, निम्नतर पर उच्चतर का शासन अथवा नियंत्रण है। यथार्थ में इस शब्द का अभिप्राय एक ऐसे संगठन से होता है जो पदों के उत्तरोत्तर क्रम में सजे होते हैं।” एप्लवी के अनुसार ‘पदसोपान वह साधन है जिससे स्रोत का आनुपातिक प्रयोग किया जाता है, कार्यकर्ताओं का चुनाव किया जाता है; उनकी समीक्षा की जाती है तथा उनमें संशोधन किये जाते हैं।” मुने और रिले के अनुसार- “विभिन्न उत्तरदायित्व के स्तरों से अधीनस्थ और उच्चस्थ सम्बन्धों का क्रम, शीर्ष से धरातल तक चलता है, इस पद क्रम में प्रत्येक एक उचित स्थान पर बैठा होता है तथा उसका एक निश्चित नाम तथा उसके पास सत्ता प्राप्त होती है। सत्ता के प्रभाव में आदेशों को निर्गत करता है या आदेशों का अनुपालन करता है।”
पदसोपान के प्रकार
- कार्य का पदसोपान
- प्रतिष्ठा का पदसोपान
- कुशलता का पदसोपान
- वेतन का पदसोपान
पदसोपान की रचना जब कार्य के आधार पर की जाती है तो उसे कार्य का पदसोपान कहते हैं। कार्मिक विभाग के अन्तर्गत इस प्रकार के पदसोपान की व्यवस्था होती है। प्रतिष्ठा का पदसोपान सैनिक व्यवस्था के अन्तर्गत देखी जाती है जहाँ मेजर, लेफ्टिनेंट कर्नल जैसे पद होते हैं। कुशलता का पदसोपान अभियंत्रण विभाग और चिकित्सा विभाग में देखने को मिलती है, तो वेतन का पदसोपान वेतन के आधार पर निर्धारित की जाती है और यह लगभग सभी विभागों में देखी जाती है।
पदसोपान के लाभ
पदसोपान से संगठन को कई लाभ हैं- प्रथम- पदसोपान के प्रभाव से संगठन में एकरूपता रहती है। संगठन में प्रशासनिक एकरूपता कायम रखने का कारण यह है कि पदसोपान के अनुसार आदेश और अनुदेश के अन्तर्गत निश्चित प्रक्रिया का सहारा लिया जाता है। द्वितीय- संगठन के अन्तर्गत कार्य एवं सत्ता का स्पष्ट विभाजन पदसोपान से सरल हो जाता है। तृतीय- पदसोपान के कारण शासन या प्रशासन में अव्यवस्था की सम्भावना लगभग समाप्त हो जाती है। ऐसा इसलिए होता है कि कार्य और उत्तरदायित्व के निर्वहन में गतिरोध उत्पन्न नहीं होती, क्योंकि पदसोपान के अन्तर्गत कार्यों का स्पष्ट विभाजन होता है। दूसरी बात यह है कि पर्यवेक्षण और समन्वय की प्रक्रिया भी बहुत आसानी से सम्पन्न हो जाती है। चतुर्थ – पदसोपान इस बात पर जोर देता है कि आदेश निर्गत करने तथा अनुदेशन प्राप्त करने में उचित एवं निश्चित प्रक्रिया का सहारा लिया जाएगा। इससे प्रशासन के मनोबल में विकास होता है जो कि संगठन की सफलता के लिए बहुत अधिक महत्व रखता है। पंचम- पदसोपान से एक लाभ यह भी है कि इससे आदेश की एकता का अनुपालन हो जाता है।
पदसोपान की हानि
पदसोपान के कई दोष हैं- प्रथम- पद सोपान के कारण कार्यों के सम्पादन में विलम्ब होता है जिससे लालफीताशाही का जन्म होता है। द्वितीय- लालफीताशाही से प्रशासन में यथास्थितिवादी प्रवृत्ति एवं जड़ता की समस्या को बल मिलता है। तृतीय- पदसोपान की व्यवस्था न केवल खर्चीली व्यवस्था है बल्कि परिवर्तन में असहयोगी व्यवस्था भी है। अक्सर यह देखा जाता है कि प्रशासन के द्वारा उचित प्रक्रिया के अनुपालन में अधिक ध्यान दिया जाता है और परिवर्तन जैसे महत्वपूर्ण आवश्यकता को अनदेखा किया जाता है। अन्त में- इसके दोषों को स्पष्ट करते हुए यह भी कहा जा सकता है कि आपात समय में इसका अनुपालन व्यापक हित के विषय में कठिनाई पैदा करती है।
पदसोपान के लाभ-हानि, गुण-अवगुण के विवेचन के बाद यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि एक तरफ संगठन में इसे स्वीकार करना लाभप्रद है तो दूसरी तरफ इससे कुछ हानियाँ भी हैं। हालांकि लाभ का प्रतिशत हानि के प्रतिशत से अधिक है, इसलिए संगठन में इसे स्वीकार किया जाना चाहिए।
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