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मिलेट द्वारा बताये गये पर्यवेक्षण की रीतियाँ
मिलेट ने पर्यवेक्षणा की छह रीतियाँ मानी हैं- (1) परियोजनाओं का पृथक्-पृथक् पूर्वानुमोदन, (2) सेवा-स्तर मानदण्ड की घोषणा, (3) कार्यों की व्यापकता पर बजट सम्बन्धी सीमा, (4) आधारभूत अधीनस्थ कर्मचारी वर्ग का अनुमोदन, (5) कार्य की प्रगति सम्बन्धी प्रतिवेदन प्रणाली तथा (6) परिणामों का निरीक्षण। इन तरीकों में से प्रत्येक की हम अलग- अलग संक्षेप में परीक्षा करेंगे।
पूर्वानुमोदन – उच्चाधिकारी द्वारा अधीनस्थ इकाइयों पर नियंत्रण रखने का यह एक सामान्य तरीका है। सर्वोच्च सत्ताधारियों द्वारा सामान्यतः नीति तथा उद्देश्यों का निर्धारण किया जाता है और अलग-अलग कार्यों सम्बन्धी विस्तृत बातों को बाद में तय करने के लिए छोड़ दिया जाता है। भारत में विभागाध्यक्षों द्वारा पूर्वानुमोदन पर्याप्त नहीं है। वित्त मंत्रालय/विभाग के अनुमोदन की भी आवश्यकता होती है। इस व्यवस्था के अन्तर्गत सूक्ष्म नियंत्रण ही सुनिश्चत नहीं है अपितु परियोजनाओं में परिवर्तन करके सामान्य योजनाओं को बदलने हेतु वांछित एवं आवश्यक लचीलापन भी आवश्यक होता है। त्रुटियाँ ठीक करने तथा भ्रम-निवारण के लिए भी इसमें गुंजाइश होती है। दूसरी ओर, यह प्रक्रिया विलम्बकारी होने के साथ-साथ लालफीताशाही में वृद्धि करती है। इस प्रक्रिया का तात्पर्य यह है कि कार्य की मात्रा में वृद्धि हो जाने पर उसे पूरा करने के लिए अतिरिक्त कर्मचारियों की नियुक्ति की जाय। क्रियान्यन से सम्बन्धित कर्मचारियों में यह प्रक्रिया आत्मसंशय में तथा उदासीनता उत्पन्न करती है। उनके तथा सर्वोच्च अधिकारियों के बीच जो संघर्ष प्रारम्भ हो जाता है उसका तो कहना ही क्या? ऐसी प्रणाली का अनुगमन दबाव, आपात तथा संकट के समय नहीं किया जा सकता, और जैसे ही प्रवर्तन (operating) इकाइयों को केन्द्रीय कार्यालय का विश्वास प्राप्त हो जाता है, यह प्रक्रिया औपचारिक मात्र बन जाती है।
सेवा-स्तर ( Service Standard) – पर्यवेक्षण का दूसरा तरीका यह है कि शीर्षस्थ अधिकारी जिस लक्ष्य या स्तर को निर्धारित कर देता है, एक प्रवर्तन की इकाइयों को उसे प्राप्त करना होता है। इससे मार्गदर्शन के साथ ही उनके कार्य की परीक्षा भी हो जाती है। इस प्रकार सेवा-स्तर प्रशासकीय कार्य का मापदण्ड निर्धारित करता है। उदाहरण के लिए, किसी स्कूल के सेवा-स्तर में विद्यार्थियों की संख्या, उत्तीर्ण होने वालों का प्रतिशत, विद्यार्थियों के कार्यों की उत्कृष्टता, विद्यार्थियों में सामान्य अनुशासन, अध्यापकों में अच्छा नैतिक स्तर, खेल तथा अन्य कार्यकलापों में प्रवीणता तथा शिक्षा के घंटों की संख्या- इनमें से कोई एक, या कुछ, या सब आ जाते हैं। ऐसे मापदण्डों को निश्चित करना एक कठिन प्रक्रिया है और परिणामों तथा उत्कृष्टता और लक्ष्यों की प्राप्ति एवं कार्य प्रणाली के बीच संतुलन स्थापित करना भी कठिन होता है।
कार्य-बजट (Work Budget)- बजट के बारे में यह ठीक ही कहा गया है कि यह अंकों के संकलन से कहीं अधिक है। यह कार्य की एक योजना और प्रशासन पर नियंत्रण का एक शक्तिशाली उपकरण है। इसी प्रकार एक स्कूल के लिए निर्धारित बजट यह निश्चय करता है कि अतिरिक्त अध्यापकों की भर्ती में, नये कमरों के निर्माण में, विद्यार्थियों के दोपहर के जलपान इत्यादि पर कितना धन व्यय किया जाना चाहिए। कार्य करने वाले अधिकारी इस प्रकार बजट द्वारा निर्धारित धनराशि के भीतर ही काम करते हैं, और अपनी इच्छानुसार धन व्यय करने की स्वतंत्रता उन्हें नहीं होती।
कर्मचारी-वर्ग का पूर्वानुमोदन (Approval of Personnel) – सरकार का कोई भी अभिकरण अपने कर्मचरियों को भर्ती करने में पूर्णतः स्वतन्त्र नहीं होता। उच्चतर कर्मचारी- वर्ग सदैव मुख्य कार्यपालिका द्वारा नियुक्त किया जाता है। अधीनस्थ कर्मचारी वर्ग के विषय में भी शीर्षस्थ अधिकारी, कुछेक महत्वहीन स्थानों को छोड़कर, अन्य सभी पदों के पूर्वानुमोदन पर बल देते हैं। वास्तव में यह कार्य प्रायः सम्बन्धित अभिकरण के केन्द्रीय सेवि-वर्ग विभाग को सौंप दिया जाता है।
प्रतिवेदन (Reports) – प्रशासन का एक सामान्य तरीका यह है कि कार्यरत इकाइयाँ अपने क्रियाकलापों का लेखा केन्द्रीय कार्यालय को प्रस्तुत करती हैं। ऐसे प्रतिवेदन पाक्षिक, साप्ताहिक, अर्द्धमासिक, मासिक, त्रैमासिक, छमाही या वार्षिक होते हैं। प्रतिवेदन विशिष्ट या तदर्थ (ad hoc) भी होते है, अर्थात् उनका सम्बन्ध किसी विशेष विषय से ही हो सकता है। इस शब्द का प्रयोग विस्तृत अर्थों में भी किया जा सकता है और इसमें संचार के समस्त क्षेत्र को सम्मिलित किया जाता है। इस प्रकार, सेक्लर-हडसन के अनुसार, “इसकी केवल किसी संगठन के अन्दर, ऊपर नीचे, बाहर तथा चारों ओर पहुँच नहीं होती बल्कि इसे समान कार्य करने वाले अन्य अभिकरणों में भी और सरकार के विस्तृत अभिकरणों और राष्ट्रपति के कार्यालय तक ऊपर पहुँचना चाहिए।” किन्तु यहाँ तो हमारा सम्बन्ध केवल आन्तरिक प्रबन्ध की प्रतिवेदन प्रणाली से है। “ये प्रतिवेदन वर्णनात्मक या आँकड़े सम्बन्धी होते हैं। वे सभी प्रमुख क्रियाओं के विस्तृत क्षेत्र को अपनी परिधि में समेट सकते हैं या कुछ अत्यावश्यक विषयों तक ही सीमित रहते हैं, एवं वे क्रियान्वयन की अच्छाइयों या कमियों पर बल दे सकते हैं। प्रतिवदेन की प्रणाली यदि अच्छी होगी तो उसके अनेक लाभ होते हैं। वरिष्ठ अधिकारियों को इससे यह सूचना प्राप्त होती है कि क्या हो रहा है। यह पर्यवेक्षकों को इस योग्य बनाती है कि वे अपने अधीनस्थों के कार्यों का मूल्यांकन कर सकें, उनके सामने आने वाली परिस्थिति को समझ सकें और सबसे बड़ी बात यह है कि संगठन के अन्दर कार्य संचालन को नियंत्रित कर सकें।
निरीक्षण (Inspection) – जितनी शताब्दियों में सरकार का एक संगठित इकाई के रूप में प्रादुर्भाव हुआ है, उतने ही काल में किसी न किसी प्रकार का निरीक्षण लोक प्रशासन का एक अभिन्न अंग रहा है। सामान्यतः निरीक्षण के उद्देश्य इस प्रकार हैं- (1) यह देखना कि विद्यमान नियम विनियम तथा प्रक्रियाओं का पालन किया जा रहा है, (2) कार्य के संचालन की जाँच करना, (3) संगठन में काम करने वाले व्यक्तियों को अनुदेश देना और उनका मार्गदर्शन करना, तथा (4) कार्यकुशलता में सुधार करना। यह स्मरणीय है कि निरीक्षण का तात्पर्य केवल छिद्रान्वेषण करना ही नहीं है। निरीक्षण प्रणाली कितनी प्रभावशाली है, यह उपर्युक्त चारों तत्वों के प्रकाश में ही देखना चाहिए। निरीक्षण के क्षेत्र और उनकी प्रकृति को ठीक-ठीक समझने के लिए एक ओर निरीक्षण तथा दूसरी ओर जाँच-पड़ताल (investigation) तथा पर्यवेक्षण (supervision) के बीच अन्तर बनाये रखना आवश्यक है। निरीक्षण का कार्य तथा खोजबीन का कार्य एक-दूसरे से बहुत भिन्न है। मिलेट के शब्दों में, “…. निरीक्षण का प्रयोजन सूचना प्राप्त करना है । यह प्रबन्ध के प्रयोजनों तथा अभिप्रायों को स्पष्ट करने में सहायता देता है तथा प्रबन्ध में नीचे के कर्मचारियों के समक्ष आने वाली कार्य-संचालन सम्बन्धी समस्याओं से उच्चाधिकारियों को परिचित कराने में भी सहायक है। यह बौद्धिक परिचय तथा विश्वास को व्यक्तिगत सम्बन्धों में बदलने में भी सहायक है। इसके विपरीत, खोजबीन का प्रयोजन प्रबन्ध-सत्ता के दुरुपयोग तथा किसी तथाकथित या संदेहास्पद घटना की जाँच करना होता है। इसका सम्बन्ध प्रायः ऐसी व्यक्तिगत भूलों से है जो आपराधिक प्रकृति की होती हैं।” जहाँ तक निरीक्षण तथा पर्यवेक्षण का सम्बन्ध हैं, मिलेट निरीक्षण को किसी प्रबन्ध का पृथक् कार्य नहीं मानते, अपितु पर्यवेक्षण की प्रक्रिया का एक भाग ही स्वीकार करते हैं। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, पर्यवेक्षण निश्चित रूप से निरीक्षण की अपेक्षा अधिक व्यापक शब्द है, यद्यपि कभी-कभी ये दोनों शब्द एक ही अर्थ में प्रयुक्त किये जाते हैं। यह कहा जा सकता है कि निरीक्षण कार्योत्तर समीक्षा और एक प्रकार से निषेधात्मक कार्य है। इसके विपरीत पर्यवेक्षण अधिक सकारात्मक है और किसी भी कार्यवाही से पूर्व तथा पश्चात् दोनों ही दशाओं में चलता रहता है।
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