राष्ट्रपति के निर्वाचन पद्धति की विवेचना कीजिए।
राष्ट्रपति का निर्वाचन- भारतीय राष्ट्रपति का चुनाव अप्रत्यक्ष पद्धति से एक निर्वाचक मण्डल द्वारा होता है, इस निर्वाचक मण्डल में, (1) लोकसभा तथा राज्यसभा दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्य, और (2) राज्य विधानसभाओं और 70वें संवैधानिक संशोधन (1992) के अनुसार संघीय क्षेत्रों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य सम्मिलित होंगे। राष्ट्रपति के निर्वाचक मण्डल में राज्यों और अब संपीय क्षेत्रों की विधानसभाओं को इसलिए सम्मिलित किया गया है कि राष्ट्रपति न केवल केन्द्रीय शासन वरन् सम्पूर्ण भारतीय संघ का प्रधान होता है। संविधान सभा में पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि “राष्ट्रपति के निर्वाचक मण्डल में संघीय संसद के साथ-साथ राज्यों के विधानमण्डल के सदस्यों को सम्मिलित कर इस बात का प्रयत्न किया गया है कि राष्ट्रपति का निर्वाचन दलीय आधार पर न हो और संघ के इस सर्वोच्च पद को वास्तविक रूप में राष्ट्रीय पद का रूप प्राप्त हो सके।”
शंसद तथा राज्यों की विधानसभाओं और संघीय क्षेत्रों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा राष्ट्रपति का चुनाव एक विशेष मत पद्धति के अनुसार होगा, जिसे आनुपातिक प्रतिनिधित्व की ‘एकल संक्रमणीय मत पद्धति’ (Single Transferable Vote System) कहा जाता है। इस चुनाव में मतदान गुप्त मतपत्र द्वारा होगा और चुनाव में सफलता प्राप्त करने के. लिए उम्मीदवार के लिए ‘न्यूनतम कोटा’ (Quota) प्राप्त करना आवश्यक होगा।
न्यूनतम कोटा = दिये गये मतों की संख्या / निर्वाचित होने वाले प्रतिनिधियों की संख्या+1 +1
न्यूनतम कोटा की व्यवस्था इसलिए की गयी है ताकि स्पष्ट बहुमत प्राप्त होने पर ही एक व्यक्ति को राष्ट्रपति का पद प्राप्त हो सके। इस व्यवस्था से ही वह पद के अनुकूल सम्मान का पात्र हो सकता है।
राष्ट्रपति के निर्वाचन की एक विशेष बात यह है कि निर्वाचक मण्डल के प्रत्येक सदस्य के मत का मूल्य समान नहीं होता। प्रत्येक सदस्य के मत का मूल्य निम्न दो सिद्धांतों के आधार पर निश्चित किया जाता है।
प्रथम, भारतीय संघ के कुछ राज्यों (विशाल राज्यों) की विधानसभा के सदस्य अधिक जनसंख्या का और कुछ राज्यों की विधानसभा के सदस्य बहुत कम जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं। विधानसभा के प्रत्येक सदस्य के मत का मूल्य उस अनुपात से निश्चित होता है, जितनी जनसंख्या का वह प्रतिनिधित्व करता है।
द्वितीय सिद्धांत यह अपनाया गया है कि राष्ट्रपति के चुनाव में केन्द्र तथा राज्यों का बराबर का हिस्सा होना चाहिए। इसलिए सभी राज्यों और संघीय क्षेत्रों की विधानसभाओं के समस्त सदस्यों के जितने मत हों, उतने ही मत संसद सदस्यों द्वारा दिये जाने चाहिए।
(1) किसी भी राज्य या संघीय क्षेत्र की विधानसभा के सदस्य के मतों की संख्या (मूल्य)
= राज्य या संघीय क्षेत्र की जनसंख्या / राज्य विधानसभा या संघीय क्षेत्र की विधानसभा ÷ 1000
(2) संसद के प्रत्येक सदन के प्रत्येक निर्वाचित सदस्य के मतों की संख्या (मूल्य)
समस्त राज्यों एवं संघीय क्षेत्रों की विधानसभाओं के समस्त
= सदस्यों को प्राप्त मतों की संख्याओं का कुल योग / संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्यों की संख्या
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आनुपातिक प्रतिनिधित्व की एकल संक्रमणीय पद्धति
इस पद्धति के अन्तर्गत मतों का हस्तान्तरण और ‘मत-मूल्य के सूत्र’ को ‘राष्ट्रपति चुनाव, 1969’ के आधार पर ही ठीक प्रकार से समझा जा सकता है। 1952 से लेकर 2017 तक राष्ट्रपति पद के जो चुनाव हुए उनमें केवल 1969 के चुनाव में ही द्वितीय वरीयता के मतों की गणना करने की आवश्यकता हुई थी। राष्ट्रपति पद के अन्य सभी चुनावों में पहली पसन्द के मतों की गणना में ही उम्मीदवारों में से एक ने कुल बहुमत प्राप्त कर लिया तथा द्वितीय पसन्द (वरीयता) के मतों की गणना में ही उम्मीदवारों में से एक ने कुल बहुमत प्राप्त कर लिया तथा द्वितीय पसन्द (वरीयता) के मतों की गणना करने की जरूरत ही नहीं हुई; अतः अध्ययन की दृष्टि से 1969 के राष्ट्रपति चुनाव का विशेष महत्व है। 1969 के चुनावों में वी. गिरि राष्ट्रपति बने। यह देश के निर्दलीय राष्ट्रपति थे।
1974 में जबकि राष्ट्रपति का चुनाव होना था, गुजरात विधानसभा भंग की जा चुकी थी, अतः यह पश्न उत्पन्न हुआ कि क्या गुजरात विधानसभा भंग होने की स्थिति में राष्ट्रपति चुनाव हो सकते हैं। इस सम्बन्ध में राष्ट्रपति ने 29 अप्रैल, 1974 को अनुच्छेद 143 के अधीन सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श मांगा और सर्वोच्च न्यायालय ने अपने परामर्श में कहा कि “राष्ट्रपति का चुनाव वर्तमान राष्ट्रपति का कार्यकाल समाप्त होने के पूर्व होना चाहिए और एक या एक से अधिक विधानसभा भंग होने की स्थिति में भी ये चुनाव हो सकते हैं।”
राष्ट्रपति के चुनाव से सम्बन्धित अन्य बातें ‘राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति निर्वाचन अधिनियम, 1952’ के अनुसार निश्चित की गयी हैं। 5 जून, 1997 को राष्ट्रपति द्वारा जारी अध्यादेश के अनुसार अब राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार प्रत्येक व्यक्ति का नाम कम-से-कम 50 निर्वाचकों द्वारा प्रस्तावित व कम-से-कम 50 निर्वाचकों द्वारा अनुमोदित किया जाना चाहिए। इसी प्रकार उप-राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार का नाम कम-से-कम 20 निर्वाचकों द्वारा प्रस्तावित और कम-से-कम 20 निर्वाचकों द्वारा अनुमोदित किया जाना चाहिए। 1997 के अध्यादेश के अनुसार राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति पद के लिए जमानत को धनराशि 15,000 रु. निश्चित की गयी है।
राष्ट्रपति तथा उप-राष्ट्रपति के निर्वाचन को उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सकेगी।
संविधान सभा में राष्ट्रपति के चुनाव की पद्धति पर पर्याप्त वाद-विवाद हुआ था। कुछ सदस्य चाहते थे कि राष्ट्रपति का चुनाव भारतीय जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाना चाहिए। उनका विचार था कि प्रत्यक्ष निर्वाचन ही लोकतन्त्र के अनुकूल होगा और इस प्रकार से निर्वाचित व्यक्ति ही उचित रूप से भारत राष्ट्र के प्रतीक के रूप में कार्य कर सकता है लेकिन अन्त में अप्रत्यक्ष निर्वाचन की पद्धति ही अपनायी गयी, क्योंकि भारत की संसदात्मक व्यवस्था में राष्ट्रपति केवल एक औपचारिक या वैधानिक प्रधान होता है और वास्तविक कार्यपालिका सत्ता उत्तरदायी मन्त्रिमण्डल के हाथों में रहती है।
यद्यपि राष्ट्रपति के निर्वाचन की यह पद्धति (वर्तमान पद्धति) पर्याप्त क्लिष्ट है, लेकिन क्लिष्टता के बावजूद यह पद्धति राष्ट्रपति के पद से सम्बन्धित इस लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल रही है कि राष्ट्रपति एक वैधानिक प्रधान के रूप में कार्य करे और राष्ट्रपति को भारतीय संघ के सर्वोच्च प्रधान के रूप में सर्वोच्च आदर और सम्मान की स्थिति प्राप्त रहे।
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